पाँच राज्यों के चुनावों के परिणामों से एक बात तो साफ हो गयी है कि जब जब सियासी दल जनता को अपने हाथों की कठपुतली समझते हैं तब तब जनता की तरफ से उसका माकूल जवाब दे दिया जाता है। मत प्रतिशत में सिर्फ दो चार प्रतिशत का अंतर ही सत्ता और विपक्ष में कितना अंतर पैदा कर सकता है यह अब भाजपा को समझ आ गया है। देखते ही देखते तीन महत्वपूर्ण भाजपा शासित राज्य उसके हाथ से खिसक गए। लगभग मृतप्राय कांग्रेस फिर से संजीवित हो गयी। किसानों की नाराजगी और एससीएसटी एक्ट से सवर्णों में उपजा गुस्सा कुछ ऐसा फूटा कि सारी नीतियाँ धरी की धरी रह गयीं। राजस्थान और मध्य प्रदेश रेत की मानिंद हाथ से फिसल गये। छत्तीसगढ़ में करारी हार हुयी। स्वयं को अजेय मानने का भ्रम पालने वाली भगवा ब्रिगेड का दंभ टूट गया। अमित शाह के प्रबंधन की हवा निकल गयी। और जनता की नाराजगी के कारण पप्पू गिरते पड़ते ही सही आखिरकार पास हो ही गया। इन तीन प्रदेशों में भाजपा की हार इतनी ज़्यादा चर्चित हो गयी कि मिज़ोरम और तेलंगाना में कांग्रेस की हार पर किसी ने ज़्यादा चर्चा ही नहीं की। अब राज्यों में सरकारें बनने के बाद जिस तरह से किसानों की कर्जमाफ़ी एक चुनावी मुद्दा बनकर उभर रहा है उसके बाद देश की अर्थव्यवस्था का भगवान ही मालिक है। 2009 में जिस कर्ज़ माफी को मनमोहन सिंह ने शुरू किया था उसे भाजपा की राज्य सरकारों ने भी खूब भुनाया। अब यह विषय सभी को भाने लगा है। 2019 के लोकसभा चुनावों में एक ओर मोदी के द्वारा किसानों की आय दुगनी करने का मुद्दा तो दूसरी तरफ विपक्ष के द्वारा किसानों की कर्जमाफ़ी एक अहम चुनावी मुद्दा होने जा रहा है। 70 साल से सरकार की नीतियों के कारण लाचार किसान अब उसी से आस लगाए है जो उसके दर्द के लिए जिम्मेदार हैं।
-अमित त्यागी
पाँच राज्यों के चुनाव परिणामों के बाद तीन राज्यों में सरकार बनाने से उत्साहित कांग्रेस अब एक चुनावी विमर्श तलाश रही है। एक ऐसा विमर्श जिसके जरिये वह मोदी की छवि खराब करके 2019 में सत्ता वापसी कर सके। राफेल के खेल में उसे वह विमर्श दिखाई देता है। राहुल गांधी राफेल की खरीद को बोफार्स घोटाले की तरह दिखाकर मोदी सरकार को पलटना चाहते हैं। जब उच्चतम न्यायालय ने अपने निर्णय से यह बात साफ कर दी कि राफेल की कीमत पर कोई चर्चा नहीं होगी तब जाकर मोदी को कुछ राहत मिली। हालांकि, राहुल गांधी और कांग्रेस अब भी राफेल का जिन्न बोतल में रखने के मूड में नहीं हैं। वह बार बार अनिल अंबानी और मोदी के सम्बन्धों को दिखाकर साबित करना चाहते हैं कि ‘चौकीदार ही चोर है’। ऐसा करके राहुल गांधी दो निशाने साध रहे हैं। पहला जिस तरह 1989 में वीपी सिंह द्वारा बोफोर्स घोटाले को उजागर कर सत्ता पलट दी गयी थी वैसा राहुल गांधी भी करना चाह रहे हैं। जिस तरह एक कांग्रेसी वी पी सिंह ने बगावत कर कांग्रेस को कमजोर कर दिया था वैसा ही कुछ भाजपा के किसी बागी द्वारा मोदी की बगावत राफेल के मुद्दे पर कर दी जाये। ऐसा होने की स्थिति में राफेल का झूँठ भी लोगों को सच लगेगा। और किसी भाजपाई की तरफ से आवाज़ उठने पर उसका भरपूर फायदा विपक्ष को मिलेगा। दूसरा, राहुल गांधी राफेल की आड़ में कांग्रेस पर लगा बोफोर्स का कलंक धोना चाहते हैं।
राहुल को लगता है कि इस तरह से राफेल को राष्ट्रिय विमर्श मुद्दा बनाकर और विपक्ष की धुरी बनकर कांग्रेस सत्ता प्राप्त कर सकती है। किसी मुद्दे को विमर्श बनाकर राजनीति करने में कुछ भी नया नहीं है। पूर्व में भी ऐसा होता आया है। सबसे पहले 1969 के दौर में इन्दिरा गांधी द्वारा ऐसा किया गया जब बैंकों के राष्ट्रीयकरण और कांग्रेस के विभाजन के कारण इन्दिरा गांधी कमजोर हो गयी थीं तब 1971 के चुनावों में इन्दिरा गांधी ने बांग्लादेश की स्वतन्त्रता को राष्ट्रिय विमर्श का मुद्दा बना दिया था। पाकिस्तान की सेना द्वारा भारत की सेना के सामने सबसे बड़ा सरेंडर का विमर्श इन्दिरा गांधी की प्रचंड चुनावी जीत का आधार बना। कांग्रेस ने 43.68 प्रतिशत वोटों के साथ 352 सीटों पर विजय प्राप्त की। इसके बाद जब इन्दिरा गांधी ने आपातकाल लगाया तब विपक्ष के द्वारा आपातकाल एक राष्ट्रिय विमर्श का मुद्दा बना दिया गया। उत्तर भारत में आपातकाल का प्रभाव कुछ ज़्यादा ही था इसलिए इस क्षेत्र में विपक्ष का यह विमर्श कांग्रेस को काफी नुकसान भी कर गया था। जनता पार्टी की सरकार बनने में इस विमर्श का बड़ा रोल था। इसके बाद 1980 में जब जनता पार्टी टूट गयी तो कांग्रेस के अतिरिक्त कोई देश को स्थायी सरकार नहीं दे सकता यह राष्ट्रिय विमर्श का मुद्दा बना। इस आधार पर 1980 में फिर कांग्रेस ने सत्ता में वापसी की। इसके बाद 1984 के चुनाव इन्दिरा गांधी की हत्या की सहानुभूति में हुये जिसमे कोई भी विमर्श मुद्दा नहीं था। 1989 में बोफोर्स घोटाले को वीपी सिंह ने विमर्श बना दिया और कांग्रेस की सरकार नहीं बनी। अब राहुल गांधी घड़ी की सुई वापस 1989 की तरफ ले जा रहे हैं। इसके विपरीत मोदी पूरे विमर्श को 2014 पर रखने के प्रयास मे हैं जहां सबका साथ सबका विकास के नारे के साथ भाजपा ने हिन्दू वोट बैंक को एकजुट करके प्रचंड जीत हासिल की थी। चूंकि, तीन राज्यों की सरकारों के बाद राहुल गांधी उत्साहित हैं और अब साबित भी, तो वह विमर्श बनाने की स्थिति में आते भी दिखने लगे हैं। पर इसके लिए हमें राहुल गांधी के संयम को भी श्रेय देना ही होगा।
धीरे धीरे परिपक्व होते रहे राहुल गांधी :
मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में राहुल गांधी के द्वारा सरकार बनाना सिर्फ संयोग मात्र नहीं है बल्कि इसमे राहुल गांधी की पिछले कुछ महीनो की मेहनत भी छिपी है। गुजरात और कर्नाटक चुनावों से राहुल गांधी ने काफी कुछ सीखा था। इन दोनों चुनावों में भाजपा बस हारते हारते जीत गयी थी। यूं भी कह सकते हैं कि सत्ता की शतरंज की बारीकियाँ इन्ही दोनों चुनावों से राहुल ने समझीं। गुजरात में राहुल गांधी ने काफी मेहनत की। भागदौड़ की। मंदिरों के दर्शन किए। भाजपा के कोर वोट बैंक हिन्दू को रिझाने के लिए जनेऊ धारण किया। हार्दिक पटेल, जिग्नेश मेवाणी एवं अल्पेश ठाकोर जैसे नेताओं को साध कर स्थानीय समीकरण साधे। गुजरात में यहाँ तक सब कुछ कांग्रेस के पक्ष में चल रहा था कि अचानक, कांग्रेस से दो गलतियाँ हो गईं। सबसे पहले मणिशंकर अय्यर का बयान कांग्रेस का नुकसान कर गया इसके बाद कपिल सिब्बल का उच्चतम न्यायालय में अयोध्या मामले पर बयान जले पर नमक छिड़क गया। गुजरात में जीत के मुहाने पर खड़ी कांग्रेस चुनाव में भाजपा से पिछड़ गयी। इसके बाद कर्नाटक के चुनाव हुये। यहाँ भाजपा सबसे बड़े दल के रूप में उभरी। कांग्रेस दूसरे नंबर पर रही। यहाँ पर कांग्रेस ने गुजरात की हार से सबक लेते हुये एवं गोवा, मणिपुर में भाजपा की रणनीति अपनाते हुये उसी के अंदाज़ में सरकार बना ली। दूसरे और तीसरे नंबर के दल कांग्रेस और जेडीएस ने आपस में गठबंधन कर लिया। यह वह दौर था जब संयुक्त विपक्ष के द्वारा गठबंधन बनाने की कवायद तेज़ी के साथ चल रही थी और कांग्रेस उसमे मुख्य दल होने जा रहा था। इस तरह कर्नाटक में शपथ ग्रहण के दौरान संयुक्त विपक्ष एक मंच पर आकर मोदी विरोध की रूपरेखा भी प्रदर्शित कर गया था।
धीरे धीरे ही सही लगातार हार के बावजूद राहुल गांधी लगातार परिपक्व होते जा रहे थे। उन्हे जीत और हार के बीच का महीन फासिला समझ आने लगा था। चुनावी प्रबंधन में अंतिम समय तक किए जाने वाला प्रयास वह पहचान चुके थे। यह सब बातें ही राहुल गांधी को मध्य प्रदेश, राजस्थान एवं छत्तीसगढ़ के चुनावों में काम आयीं। यहाँ भाजपा की हार या कांग्रेस की जीत नहीं हुयी बल्कि राहुल गांधी को चुनावी प्रबंधन की संजीवनी मिल गयी। अब राहुल गांधी 2019 के चुनावों में विपक्ष के केन्द्रीय किरदार बन चुके हैं। उन्होने इन तीन राज्यों के विधानसभा नतीजों की आड़ में खुद को केन्द्रीय राजनीति में स्थापित कर लिया है। जिस तरह से मुख्यमंत्री बनते ही कमलनाथ ने किसानों की ऋण माफी का ऐलान किया तो उससे राहुल गांधी के द्वारा दस दिन में कर्ज़ माफी का वादा भी पूरा हो गया। अब कर्ज़ माफी चुनाव जीतने का बड़ा समीकरण बनने लगा है। 2009 में मनमोहन सरकार ने सबसे पहले इस शिगूफ़े की शुरुआत की थी। इन राज्यों में नोटा और कर्ज़ माफी दो प्रमुख कारण बन कर उभरे हैं जिनसे चुनावी हार जीत में महीन फर्क पैदा हुआ है।
मिज़ोरम और तेलंगाना के परिणाम पर नहीं कोई विमर्श :
इस परिप्रेक्ष्य में इन चुनाव परिणामों के निहितार्थ भी अब तलाशने होंगे। क्या यह राहुल गांधी के राष्ट्रिय अध्यक्ष बनने के बाद कांग्रेस के सशक्त दल बनने के संकेत हैं। क्या यह राहुल गांधी को एक नेता के तौर पर मान्यता प्राप्त होने का परिणाम है। अगर कांग्रेस के हिसाब से देखें तो वह ऐसा ही कुछ परिदृश्य रखने का प्रयास करेगी। हालांकि, मिज़ोरम और तेलंगाना में कांग्रेस की बुरी तरह हार हुयी है किन्तु उस पर चर्चा न मीडिया कर रहा है न कांग्रेस खेमा। सारा ध्यान मध्य प्रदेश और राजस्थान पर आकर टिक गया है। जबकि वास्तविकता यह है कि इन दोनों प्रदेशों में भाजपा का शासन था। यहाँ जनता में सरकार के खिलाफ बेचैनी थी। छत्तीसगढ़ में भी जनता सत्ता विरोधी लहर के प्रभाव में थी। इसकी प्रमुख वजह नौकरशाही थी जो जाने अंजाने सरकार की नीतियाँ गरीबों तक पहुचाने में बाधक बन रही थी। सरकार की योजनाओं का लाभ गरीब और वंचित वर्ग तक नहीं पहुँच पा रहा था। ऐसे में इस समुदाय के लोगों ने या तो कांग्रेस को वोट किया या मायावती को। हालांकि, मायावती ज़्यादा वोट नहीं प्राप्त कर सकीं जिसका सीधा फायदा कांग्रेस को हुआ। यदि दलित वोट मायावती के पक्ष में जाता तो भाजपा की सीटें बढ़ जातीं। भाजपा का जो भी मत प्रतिशत कम हुआ है उसमे दलित और जनजातीय वर्ग का वोट प्रमुख कारण रहा है। एससीएसटी एक्ट के कारण नाराज़ सवर्ण ने नोटा का ज़्यादा इस्तेमाल किया और नोटा ने दर्जनों सीटों पर जीत हार के अंतर से ज़्यादा वोट प्राप्त किए। इस आधार पर देखने से पता चलता है कि जनता में कांग्रेस के प्रति रुझान नहीं था बल्कि भाजपा से नाराजगी ज़्यादा थी। सवर्ण एससीएसटी एक्ट की वजह से नाराज़ था तो किसान फसल का मूल्य न मिल पाने की वजह से। गरीब सरकार की नीतियों का लाभ न मिल पाने की वजह से नाराज़ था तो दलित स्वयं को सिर्फ वोट बैंक मानने की वजह से। और ऐसा भी नहीं था कि इन वर्गों में सब नाराज़ थे। इन वर्गों का सिर्फ थोड़ा थोड़ा सा तबका ही नाराज़ था जो भाजपा को इतना नुकसान कर गया कि वह सत्ता से बाहर हो जाये और कांग्रेस को इतना फायदा कर गया कि वह सत्ता के अंदर आ गयी।
क्या गठबंधन की धुरी बनेंगे राहुल गांधी ?
2019 के शुरू होते ही यह प्रश्न सबसे बड़ा यक्ष प्रश्न बन कर उभर चुका है। यहाँ गठबंधन की धुरी बनने की बात राहुल गांधी के संदर्भ में हो रही है न कि कांग्रेस के संबंध में। कांग्रेस को विपक्षी गठबंधन का केंद्र मानने में तो क्षेत्रीय दल सहमत दिखते थे किन्तु राहुल गांधी का नेतृत्व स्वीकार करने को कोई तैयार नहीं होता था। इस समय राहुल गांधी भाजपा को किनारे लगाने के श्रेय से लैस हैं। उन्होने कांग्रेस के ऊपर से मुस्लिम पार्टी होने का तमगा भी हटा दिया है। अपने नर्म हिन्दुत्व के जरिये वह हिन्दू वोट बैंक को एक विकल्प भी दे चुके हैं। हालांकि अभी उनकी विश्वसनीयता नहीं बनी है। अभी सिर्फ सत्ता विरोधी रुझान की वजह से विधानसभा चुनावों में थोड़ी सफलता ज़रूर हाथ लगी है। अभी भी विपक्षी दल राहुल के नेतृत्व में गठबंधन को तैयार नहीं हैं। उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा के गठबंधन में कांग्रेस को स्थान नहीं मिला है। जबकि रालोद जैसा छोटा दल उसमे शामिल हैं। 2017 में भी जब कांग्रेस और सपा ने गठबंधन किया था तब गठबंधन से सपा को बड़ा नुकसान पहुंचा था। इसके साथ ही गठबंधन करने से कांग्रेस भी कमजोर होती है। पूर्व में 1996 में जब कांग्रेस ने मायावती से गठबंधन किया तो उसका दलित वोट खिसककर मायावती के पास चला गया था। तेलंगाना में भी इस बार टीडीपी और कांग्रेस गठजोड़ ने कुछ बड़ा चुनावी उलटफेर नहीं किया। अब कांग्रेस के सामने सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि वह भाजपा को हराने के क्रम में अपने अस्तित्व के संकट को बर्दाश्त करे या खुद का अस्तित्व बचाने के लिए किसी भी गठबंधन से दूर रहे।
दूसरी तरफ भाजपा के लिए यह समय आत्मचिंतन का समय है। मुद्दों से भटकने का दुष्परिणाम वह देख चुके हैं। योजनाओं को ज़मीन तक न पहुचने का खामियाजा उन्होने भुगत लिया है। 2014 में मोदी के नेतृत्व में प्रचंड जीत और 2017 में नोटबंदी के बावजूद उत्तर प्रदेश की बड़ी जीत के बाद भाजपाई यह मान बैठे थे कि उनका विजयी रथ कोई नहीं रोक सकता है। सत्ता का अहंकार और ज़मीन से कटने के कारण एक बड़ा कार्यकर्ता वर्ग उनसे दूर होता चला गया। राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में कार्यकर्ता का उदासीन होना भी भाजपा के लिए नुकसान का सौदा रहा। इन प्रदेशों में बड़ी संख्या में मंत्री भी चुनाव हार गए। मध्य प्रदेश में 31 मे से 13, छत्तीसगढ़ में 12 मे से 08 और राजस्थान में 30 मे से 20 मंत्री चुनाव हार गए। कार्यकर्ता के उदासीन होने से एक बड़ा वोट नोटा में चला गया।
नीतियों पर भारी नोटा :
नोटा कितना बड़ा नुकसान कर सकता है इसका उद्वारण पाँच राज्यों के विधानसभा चुनावों में देखने को मिला है। इन चुनावों में मध्य प्रदेश और राजस्थान में दर्जनों सीटे ऐसी हैं जिसमे प्रत्याशियों की जीत और हार का अंतर नोटा के मतों से कम है। नोटा में पड़ने वाले ज़्यादातर वोट उन लोगों के हैं जो एससी एसटी एक्ट और राज्य सरकारों के कामकाज से नाखुश थे। मोदी सरकार की योजनाओं को ज़मीन पर न प्राप्त करने वाला कुछ वर्ग भी नोटा में गया। जैसे यदि मध्य प्रदेश की बात करें तो 2013 में भाजपा को 45.7 प्रतिशत वोट मिले थे और 2018 में भाजपा को 41 प्रतिशत वोट मिले। कांग्रेस को 2013 में 37.1 प्रतिशत वोट मिले थे तो इस बार 41 प्रतिशत वोट मिले। बराबर वोट मिलने के बावजूद कांग्रेस और भाजपा की सीटों में आधे दर्जन का अंतर रहा। इस तरह लगभग एक दर्जन सीटों पर नोटा के वोट जीत हार का प्रमुख कारण बने और यही सत्ता में बैठी भाजपा को विपक्ष में बैठाने का काम कर गया। इसी तरह राजस्थान में 2013 में भाजपा को 46 प्रतिशत वोट मिले थे जो 2018 आते आते 39.8 प्रतिशत रह गए। 2013 में कांग्रेस को 33.7 प्रतिशत वोट मिले थे जो 2018 में बढ़कर 39.3 प्रतिशत हो गए हैं। राजस्थान में सिर्फ नोटा ने फर्क पैदा किया हो ऐसा भी नहीं है। यहाँ फ्लोटिंग वोटर का रुझान इस बार कांग्रेस की तरफ था जिसकी वजह से कांग्रेस की सीटें काफी बढ़ गयी। नोटा की वजह से भाजपा की सीटें तो घटीं किन्तु उसके द्वारा अन्य दलों के उम्मीदवारों को फायदा ज़्यादा हुआ।
जहां तक छत्तीसगढ़ की बात है तो वहाँ पिछले 15 सालों में सरकार भले ही भाजपा की बनती रही हो किन्तु भाजपा और कांग्रेस के वोट में ज़्यादा अंतर नहीं रहता है। इस बार भी कांग्रेस का वोट तो सिर्फ 2 प्रतिशत ही बढ़ा किन्तु भाजपा का वोट काफी कम हो गया। यहाँ अन्य दलों ने भाजपा के वोट बैंक में सेंध लगा दी। 2013 में भाजपा का मत प्रतिशत 42.3 प्रतिशत एवं कांग्रेस का मत प्रतिशत 41.6 प्रतिशत था। दोनों दलों में एक प्रतिशत का भी अंतर नहीं था। किन्तु भाजपा के पास 49 सीटें एवं कांग्रेस के पास 39 सीटें थीं। 2018 में कांग्रेस को 43.1 प्रतिशत वोट मिले। यानि कि सिर्फ डेढ़ प्रतिशत ज़्यादा वोट मिले। इसके विपरीत भाजपा को सिर्फ 33 प्रतिशत वोट मिले जो पिछले मत प्रतिशत से लगभग दस प्रतिशत कम रहा। 2013 में अन्य दलों को सिर्फ 16.1 प्रतिशत वोट मिले थे जो इन चुनावों में बढ़कर 23.9 प्रतिशत हो गए। इस तरह से छत्तीसगढ़ में सरकार से नाराजगी नहीं बल्कि सरकार बदलने की कवायद चल निकली थी। एक और मध्यप्रदेश में सरकार से नाराजगी के कारण जनता ने विपक्षी कांग्रेस के स्थान पर नोटा को चुना तो राजस्थान में अलटेरनेट सरकार बदलने के क्रम में सिर्फ फ्लोटिंग वोटर इधर से उधर हुआ। भाजपा का मतदाता नोटा में तो गया किन्तु कांग्रेसी खेमे में नहीं गया यह सबसे महत्वपूर्ण राजनीतिक बिन्दु है। 2019 के संदर्भ में राजस्थान और मध्य प्रदेश में तो भाजपा को कोई खतरा नहीं दिखता है किन्तु छत्तीसगढ़ में अगर लोकसभा चुनाव में विधानसभा चुनावों का ही ट्रेंड चल निकला तो भाजपा को बड़ा नुकसान तय है।
अंदुरुनी राजनीति का शिकार राजनीतिक दल :
किसी भी चुनाव परिणाम में सिर्फ विरोधियाँ की रणनीति ही हार जीत का हिस्सा नहीं होती हैं बल्कि खुद दलों के भीतर की खुद की राजनीति भी इस पर बड़ा असर डालती हैं। जैसे भाजपा के अंदर अभी नरेंद्र मोदी और अमित शाह सबसे शक्तिशाली बन कर उभर चुके हैं। उनको चुनौती देने के लिए कोई भी भाजपा का नेता नहीं दिखाई देता है। मोदी के बाद भाजपा की सेकंड लाइन में आने वाले नेता राजनाथ सिंह, अरुण जेटली, सुषमा स्वराज, बिलकुल शांत दिखते हैं और भाजपा के अंदर किनारे कर दिये गए हैं। सुषमा स्वराज ने अगला चुनाव लड़ने से मना कर दिया है किन्तु सक्रिय राजनीति से सन्यास की उन्होने कोई घोषणा नहीं की है।नितिन गडकरी अच्छा काम कर रहे हैं और वह कभी कभी मोदी का विकल्प बनते दिखने लगते हैं। राज्यों में वसुंधरा और शिवराज दोनों का कद एक समय मोदी के बराबर था किन्तु 2014 की जीत के बाद मोदी इतना आगे बढ़ गये कि ये दोनों उनको पकड़ ही नहीं पाये। अब दोनों राज्यों में भाजपा की हार से इन दोनों नेताओं के द्वारा भी मोदी की छत्र छाया स्वीकारना मजबूरी बन गया है। हालांकि, इन दोनों नेताओं की व्यक्तिगत छवि हार के बावजूद सुधरी है। दोनों के व्यवहार को जनता में पसंद भी किया जाता है।
इसी तरह कांग्रेस में ज्योतिरादित्य और सचिन पायलट राहुल गांधी के खास सिपहसालार रहे हैं। युवाओं को आगे रखने की बात कहने वाले राहुल गांधी ने जीत के बाद इन दोनों युवाओं के ऊपर बुज़ुर्गों को तरजीह दी। मध्य प्रदेश में कमलनाथ और राजस्थान में अशोक गहलौत मुख्यमंत्री बने। कहा जाता है कि कमलनाथ ने कांग्रेस के लिए चुनावों में धन प्रबंधन किया था जबकि अशोक गहलौत गुजरात चुनाव के बाद से राहुल के करीबी बन गये थे। कर्नाटक में सरकार बनाने में भी अशोक गहलौत का बड़ा योगदान था। अब जैसे जैसे कांग्रेस मे इन बुजुर्ग नेताओ की अहमियत बढ़ रही है वैसे वैसे राहुल गांधी के आस पास बना जाल भी टूटने लगा है। जैसे जैसे इन नेताओं की पार्टी पर पकड़ मजबूत होती जाएगी वैसे वैसे राहुल के आस पास रहने वाले चापलूस कमजोर होते जाएँगे। भविष्य में यदि राहुल गांधी के नेतृत्व में अगर कोई राष्ट्रिय सहमति नहीं बन पाती है तब इन शीर्ष नेताओं में से कोई राष्ट्रिय सहमति का नेता बन कर भी उभर सकता है। हालांकि, कांग्रेस से गांधी खानदान को बाहर रखने की बात सोचना अभी दूर की कौड़ी है किन्तु यह राजनीति हैं। यहाँ कभी भी कुछ भी हो सकता है।
अब यदि दलों की अंदर की राजनीति के परिप्रेक्ष्य में 2019 के चुनाव को देखें तो कांग्रेस में राहुल गांधी को चुनौती देने वाला कोई भी नेता नहीं है। कुछ समय पूर्व वैकल्पिक तौर पर मनमोहन सिंह के विकल्प के तौर पर रघुराम राजन का नाम आगे बढ़ाया ज़रूर गया था किन्तु वह ज़्यादा चर्चा नहीं पा सका। भाजपा में मोदी अभी भी सर्वमान्य चेहरा बने हुये हैं। मोदी को कोई चुनौती दे सकता है तो वह नितिन गडकरी हैं किन्तु वह शांत रहकर अपना काम कर रहे हैं। संघ का वरदहस्त उनको प्राप्त है। 2019 में अल्पमत की सरकार आने की स्थिति में गडकरी एक अच्छा चेहरा बनकर सामने लाये जा सकते हैं। इस परिकल्पना पर इसलिए विचार कर रहे हैं क्योंकि इन विधानसभा चुनाव परिणाम के आधार पर अगर लोकसभा परिणाम आते हैं तो सिर्फ इन तीन राज्यों में भाजपा को 31 सीटों का नुकसान दिखाई देता है। पूर्व के चुनावों के पैटर्न के आधार पर भी देखें तो 2004, 2009 और 2014 के लोकसभा चुनावों के पहले हुये विधानसभा चुनावों का प्रभाव लोकसभा चुनावों पर साफ दिखा था। इसलिए मतदाता का रुझान साफ तौर पर समझना आसान नहीं होता है। 2012 में देश के 29 राज्यों में से 14 राज्यों पर कांग्रेस और उसके सहयोगियों का कब्जा था। भाजपा और उसके सहयोगी दलों के पास सिर्फ आठ राज्य थे। 2017 आते आते भाजपा और उसके सहयोगी दलों के पास 19 राज्य आ गये। देश की 68 प्रतिशत आबादी पर भगवा लहरा गया। अब भगवा का रंग उतरना शुरू ही गया है। पार्टी की अंदुरुनी राजनीति और सत्ता का अहंकार भगवा के रंग को फीका कर रहा है। अब जिस तरह से राहुल गांधी कांग्रेस की 2009 में शुरू की गयी कर्ज़ माफी की नीति को राजनीतिक हथियार बना कर सामने ले आए हैं उससे कांग्रेस ने भाजपा के लिए मुश्किले तो बढ़ा ही दी हैं।
कर्ज़ माफी की लोकलुभावन राजनीति दुर्भाग्यपूर्ण :
कर्जमाफ़ी की घोषणा ने कांग्रेस की राज्यों में सरकारें बनवा दी। दस दिन के अंदर कर्जमाफ़ी का वायदा करने वाले राहुल गांधी ने अपना राजनीतिक वायदा तो निभा दिया किन्तु इससे अन्य राज्यों में जो होड शुरू हो गयी है वह ज़्यादा खतरनाक है। असम सरकार ने भी कुछ ऐसी घोषणा कर दी है। गुजरात सरकार ने किसानों के बिजली के बिल माफ करने का एलान कर दिया है। इसके पहले महाराष्ट्र सरकार किसानों के दवाब में कर्ज़ माफी कर चुकी है। उत्तर प्रदेश में भी 2017 में भाजपा सरकार ने आते ही कर्ज़ माफी की थी। पंजाब और कर्नाटक सरकारों ने भी किसानों के कर्ज़ माफ कर दिये हैं। अब जो हम कर्ज़ माफी की यह परंपरा देख रहे हैं इसकी नींव भी 2009 में कांग्रेस सरकार ने रखी थी। तब मनमोहन सरकार ने किसानों के 70 हज़ार करोड़ रुपये के कर्ज़ माफ कर दिये थे। इसके बाद यूपीए सरकार जीतने में कामयाब रही। इसके बाद से अर्थव्यवस्था को खोखला करने वाली यह परंपरा चल निकली है। क्या कांग्रेस और क्या भाजपा सबको यह नीति रास आने लगी है। मुफ्तखोरी को बढ़ावा देती और किसानों के स्वाभिमान को ठेस पहुचाने वाली कर्ज़ माफी की नीति देश को किस रास्ते पर ले जाएगी इसका अंदाज़ा हमारे राजनीतिज्ञों को शायद अभी नहीं है। 2009 की कर्ज़ माफी के बाद किसानों की हालत तो नहीं सुधरी किन्तु देश की अर्थव्यवस्था ज़रूर ठहराव का शिकार हो गयी। अब राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ की कर्जमाफ़ी से सरकारी खजाने पर 50 हज़ार करोड़ का बोझ पड़ने का अनुमान है। यदि इसमे उत्तर प्रदेश, पंजाब, कर्नाटक के किसानों की कर्जमाफ़ी को भी जोड़ लिया जाये तो यह आंकड़ा एक लाख करोड़ तक पहुँच जाता है। अब राज्यों को अगले एक दो सालों में ही इस राशि का इंतजाम करना होगा। इसके लिए राजस्व जुटाया जाएगा। राजस्व वसूली का असर हर वर्ग के प्रत्येक मतदाता पर पड़ेगा जिसमे किसान भी शामिल होंगे।
देश का किसान मुश्किल में हैं यह बात तो ठीक है किन्तु वह अर्थव्यवस्था की बारीकी को नहीं समझता है। वह कर्ज़ माफी को सुनकर वोट दे देता है। जबकि उसकी समस्या का वास्तविक समाधान कर्ज़ माफी नहीं है। 1932 के बाद जब भारत मे पहली बार सामाजिक, आर्थिक जनगणना के आंकड़े आये तब भारत की कुल आबादी की 71 प्रतिशत जनता जो गाँव मे निवास करती है, उसकी दयनीय स्थिति सामने आई। वेतन आयोग की सिफ़ारिशों के द्वारा सरकारी कर्मचारियों की आय जिस अनुपात मे बढ़ी उसी अनुपात मे कृषि क्षेत्रों से जुड़े व्यक्तियों की आय नहीं बढ़ी। देश की क्रय शक्ति बढ़ी तो केवल शहरी क्षेत्र मे। वहाँ विकास हो गया। 45 सालों के तुलनात्मक अध्ययन से यह आसानी से समझ आता है। 1970 मे गेंहू की सरकारी खरीद की कीमत 76 रुपये प्रति क्यूँटल थी जो 2015 मे बढ़कर 1450 रुपये प्रति क्यूँटल हो गयी। मोटे तौर पर कीमत मे 19 गुना की बढ़ोतरी हुयी। इसकी तुलना अगर कर्मचारियों के वेतनमान से करें तो सरकारी कर्मचारियों के वेतनमान मे 110-120 गुना, शिक्षकों के वेतनमान मे 300 गुना, डिग्री कॉलेज शिक्षकों के वेतन मे 150 गुना तक वृद्धि हुयी है। कॉर्पोरेट के वेतन 1000 गुना तक बढ़े हैं।
इस दौरान खर्चे उसी अनुपात मे बढ़े जिस अनुपात मे वेतन बढ़े। 1970 से आज की तुलना मे स्कूल और चिकित्सा सेवाओं मे होने वाले खर्चे 200 गुना से ज़्यादा बढ़ गए हैं। अब अंतर साफ है कि किसान की कमाई तो 19 गुना हुयी और उसके द्वारा किए जाने वाले खर्चे 200 गुना तक बढ़ गए। किसान धीरे धीरे गरीब होता चला गया। छोटे किसान या तो कर्जदार हो गए या उन्होने ज़मीन बेचनी शुरू कर दी। जो किसान बाद मे कर्ज़ नहीं चुका पाये उन्होने आत्महत्या कर ली। हमारे राजनीतिक दलों ने इसमे राजनीति करने का पक्ष भाँपते हुये किसानों की हालत सुधारने के स्थान पर कर्ज़ माफी का आसान रास्ता चुन लिया। किसानो की हालत सुधारने के लिए दो विषय महत्वपूर्ण हैं। पहला उन्हे न्यूनतम समर्थन मूल्य मिले और दूसरा वह रसायनिकों रहित कृषि करें ताकि उनकी भूमि की उर्वरा शक्ति बरकरार रहे। भारत में जब हरित क्रांति की शुरुआत हुयी थी उस समय रासायनिक खादों और कीटनाशकों के प्रयोग के द्वारा उत्पादन बढ़ाना तो समय की मांग थी क्योंकि भारत में भुखमरी की समस्या को दूर करने में हरित क्रान्ति का योगदान भी रहा। कुछ समय के बाद जब इस बात का आभास होने लगा कि जिन रसायनों को हम लाभकारी मान रहे हैं वह तो ज़मीन की उर्वरा शक्ति को बांझ बना रहे हैं तब तक हम उसके दुष्प्रभाव में आ चुके थे। इसके बाद कृषि का मशीनीकरण प्रारम्भ हुआ। बैल से खेत जोतने के स्थान पर ट्रैक्टर से खेतों की जुताई प्रारम्भ हो गयी। लोगों ने बैल रखने बंद कर दिये। बैल कम होने का प्रभाव गायों के पालन पर पड़ा। और गौ आधारित कृषि व्यवस्था चौपट होते ही किसान कर्जदार होता चला गया।
किसान और सवर्ण पर लगाएँ ध्यान। पार लगाएंगे श्रीराम :
अब विधानसभा चुनावों का सार यही है कि किसान की कर्जमाफ़ी कर कांग्रेस ने एक बड़ी पहल कर दी है जिस कांग्रेस शासन की नीतियों के कारण किसान की आज यह हालत हुयी है उसी कांग्रेस की ऋण माफी आज किसान को रिझा रही है। किसानो को जो दल रिझा पाएगा वह 2019 में पार लग जाएगा किन्तु 2019 में सबसे अहम सवर्ण वोट बैंक होने जा रहा है। एससीएसटी एक्ट के बाद से सवर्णों की नाराजगी भाजपा के लिए अभिशाप बनी है। सवर्णों का वोट नोटा में गया है। और वही हार जीत का अंतर बना है। दूसरी तरफ हिन्दुत्व के मुद्दे को छोड़कर बार बार विकास और अन्य मुद्दों को लेकर चुनाव में जाना भाजपा की हार का बड़ा कारण है। अब भाजपा के नेताओं में हनुमान की जाति को लेकर घमासान मचा हुआ है। जबकि सच यह है कि भारत में जाति व्यवस्था नहीं वर्ण व्यवस्था थी। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ जब फ़ैज़ाबाद का नाम अयोध्या या इलाहाबाद का नाम प्रयागराज रखते हैं तब तो वह हिन्दुत्व को मजबूत करते दिखते हैं किन्तु जैसे ही वह हनुमान की जाति का कार्ड खेलते हैं उनके प्रखर हिन्दुत्व की कलई खुल जाती है। उनका बयान बचकाना बयान बन कर रह जाता है।इसके बाद जब अन्य नेता भी बयानों के जरिये हनुमान की जाति बताते हैं तब मतदाता उनसे दूर होता दिखता है। हनुमान सबकी आस्था का प्रतीक हैं। हिन्दू समाज उनको पूजता है। वह उनका मखौल बर्दाश्त नहीं करता है। चूंकि भाजपा ने पहले राम के नाम पर राजनीति की थी और अब हनुमान के नाम पर कर रहे हैं तो हिन्दू धीरे धीरे रुष्ट होता दिख रहा है। प्रधानमंत्री बनने के बाद से मोदी भी अभी तक राम लला के दर्शन को नहीं गये हैं इसलिए राम की नाराजगी तो भाजपा को झेलनी ही पड़ेगी। राम राज की स्थापना करने मे असफल ये नेतागण अगर राम के दर्शन भी न करें तो इनके राजनीतिक भविष्य के राम ही मालिक हैं।
चुनाव | राजस्थान | मध्य प्रदेश | छत्तीसगढ़ | |||
भाजपा | कांग्रेस | भाजपा | कांग्रेस | भाजपा | कांग्रेस | |
2018 विधानसभा परिणाम से अनुमानित सीटें | 17 | 12 | 13 | 12 | 1 | 10 |
2014 में प्राप्त सीटें | 25 | 0 | 27 | 2 | 10 | 1 |
मध्य प्रदेश ( कुल सीटें = 230) | ||||
2018 | 2013 | मत प्रतिशत (2018) | मत प्रतिशत (2013) | |
भाजपा | 109 | 165 | 41 | 45.7 |
कांग्रेस | 114 | 58 | 41 | 37.1 |
अन्य | 07 | 7 | 18 | 17.2 |
राजस्थान ( कुल सीटें = 200) 199 सीटों पर मतदान हुआ | ||||
2018 | 2013 | मत प्रतिशत (2018) | मत प्रतिशत (2013) | |
भाजपा | 73 | 163 | 39.8 | 46 |
कांग्रेस | 100 | 21 | 39.3 | 33.7 |
अन्य | 26 | 16 | 20.9 | 16.9 |
छत्तीसगढ़ ( कुल सीटें = 90 ) | ||||
2018 | 2013 | मत प्रतिशत (2018) | मत प्रतिशत (2013) | |
भाजपा | 15 | 49 | 33 | 42.3 |
कांग्रेस | 68 | 39 | 43.1 | 41.6 |
अन्य | 07 | 2 | 23.9 | 16.1 |
मिज़ोरम ( कुल सीटें = 40 ) | ||
2018 | 2013 | |
भाजपा | 1 | 0 |
कांग्रेस | 5 | 34 |
एमएनएफ़ | 26 | 5 |
अन्य | 8 | 1 |
तेलंगाना ( कुल सीटें = 119 ) | |||
2018 | 2013 | ||
भाजपा | 1 | 5 | |
कांग्रेस | 21 | 37 | |
टीआरएस | 88 | 63 | |
एआईएमआईएम | 7 | 7 | |
अन्य | 2 | 7 |
मंत्री चुनाव लड़े | मंत्री हारे | |
मध्य प्रदेश | 31 | 13 |
छत्तीसगढ़ | 12 | 08 |
राजस्थान | 30 | 20 |
बॉक्स : ‘चोर परिवार’ चोर ही रहेगा, साहूकार नहीं बन जाएगा।
-आशीष त्रिपाठी (एडवोकेट)
मेरा हमेशा से मानना रहा कि सत्य और साबित दो अलग-अलग शब्द हैं। जो कुछ साबित है वो सत्य ही हो और जो नासाबित है वो असत्य ऐसा आवश्यक नहीं। आगस्ता वेस्टलैंड हेलीकॉप्टर के बिचौलिये के भारत में प्रत्यर्पण, राजस्थान की कोंग्रेस रैली में पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे का वीडियो और उस पर भी कोंग्रेस की खामोशी, विजय माल्या के द्वारा लोन को वापस करने की पेशकश से दो बातें एकदम साफ भी हैं और साबित भी। पहली, ये कि देश का प्रधानमंत्री नीयत और नजरिये दोनो से पाक और साफ है। दूसरी, ये कि देश में “कुछ लोगों” के लिए भगवान पैदा करने वाला परिवार चोर है। कानून का विद्यार्थी होने के नाते मुझे पता है कि किसी भी व्यक्ति को विदेश जाने से केवल कानून के मुताबिक ही रोका जा सकता है और जिस समय माल्या आदि देश से बाहर गये उस समय उन पर एफ आई आर न होने के कारण उन्हें रोका नही जा सकता था। हां, अब उन्हें भारत लाया अवश्य जा सकता है जिसके ईमानदारी भरे प्रयासो का नतीजा अब दिखाई देने लगा है। जबकि माल्या ने लोन लौटाने की बात भी शुरू कर दी है।
अब इसके बाद भी कुछ लोग आएंगे जो बताएंगे कि “लाजीव दांधी इस देश में तम्पूतल लाये थे” जबकि वो जिस काल में ‘तम्पूतल’ लाये थे तब तक दुनिया के बहुत से देश हमारे साथ विकास की यात्रा शुरू करके ‘तम्पूतल’ बनाने भी लगे थे और भारत में तब तक भी ‘तम्पूतल ता इंतदाल इती महान पलिवाल ती’ देन था। अब हमने इटली की अदालत के फैसले को भी सुना जिसमे देश के महान अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का नाम भी दलालों की लिस्ट में आया है। एक बार फिर कह दूँ कि कानून का विद्यार्थी होने के नाते मुझे पता है कि न्याय और साक्ष्य के सिद्धान्त पूरी दुनिया में एक जैसे ही होते हैं और इसलिए ही कानून में विदेशी निर्णय के भी सही होने की उपधारणा की जाती है। तो अब इस आधार पर इस देश के कुछ लोग जो दूसरों को भक्त बताते नही थकते अपने “भगवान परिवार ” के “देव तुल्य सदस्यों” के पक्ष में अपनी बेशर्मी भरी भक्ति के प्रदर्शन हेतु शीघ्र आएंगे और अपनी बेशर्मी भरी दलीलों से देश की जनता का मनोरंजन करेंगे ऐसी अपेक्षा है। और हां, सीबीआई पर भी सुप्रीम कोर्ट ने भी सरकार के ही रुख का समर्थन किया है।
हालांकि मैं फिर स्पष्ट कर दूँ कि कोर्ट का निर्णय और सत्य दो अलग अलग बातें है। अंत में एक बात और कि चुनावी हार-जीत और सच भी अलग-अलग बात है इसलिए अगर अगला चुनाव “चोर परिवार” जीत भी ले। तो भी रहेगा चोर ही। साहूकार नही बन जायेगा।
बॉक्स : सरकार बनाने की जल्दबाज़ी में दिखती कांग्रेस पार्टी
-विकास मिश्र की फेसबुक वाल से
कांग्रेसियों को राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनाने की जल्दी है, लेकिन उन्हें एक बार कांग्रेस के इतिहास और ट्रेंड पर भी नजर डाल लेना चाहिए कि कांग्रेस की जब सत्ता जाती है तो फिर वो सत्ता में वापस कैसे आती है। सबसे पहले 1977 में कांग्रेस गई तो सारे विपक्षी दल एक साथ आए। मोरारजी देसाई की अगुवाई में जनता पार्टी की सरकार बनी। दो साल के भीतर सरकार गिर गई। फिर कांग्रेस ने चौधरी चरण सिंह को समर्थन देकर उनकी सरकार बनवा दी। छह महीने के भीतर कांग्रेस ने चरण सिंह सरकार गिरवा दी। देश को मैसेज दिया कि देश चलाने की क्षमता सिर्फ कांग्रेस में है। अगले चुनाव में और भी ताकत से कांग्रेस की सरकार बनी। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने, फिर चुनाव हुए, इंदिरा की हत्या को कांग्रेस ने चुनावों में भुनाया, अभूतपूर्व बहुमत लेकर राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने। पांच साल के भीतर कांग्रेस विरोधी लहर आई। बोफोर्स के मुद्दे पर सारे विपक्षी दल फिर एक साथ आए। चुनाव में कांग्रेस की हार हुई। 2 दिसंबर 1989 को वीपी सिंह की अगुवाई में फिर गैर कांग्रेसी सरकार बनी। साल भर के भीतर सरकार गिरी। कांग्रेस ने फिर वही खेल किया। राष्ट्रीय मोर्चा को तोड़ दिया। सिर्फ 40 सांसदों के साथ वाले चंद्रशेखर की सरकार बनवा दी, बाहर से समर्थन दे दिया। फिर 4 महीने के भीतर कांग्रेस ने ये सरकार भी गिरवा दी। देश को फिर संदेश दिया कि देश को सिर्फ कांग्रेस ही चला सकती है। 1991 के लोकसभा चुनाव के बाद नरसिंहराव की अगुवाई में कांग्रेस की सरकार बनी। पांच साल तक चली।
फिर वही हुआ। कांग्रेस विरोधी लहर आई, लेकिन इस बार अटल बिहारी वाजपेयी की अगुवाई में बीजेपी मजबूत स्थिति में पहुंच गई थी। 1996 में बीजेपी की सरकार बनी, जो 13 दिन के भीतर गिर गई। कांग्रेस ने फिर वही पॉलिसी अपनाई। अपने समर्थन से देवगौड़ा की अगुवाई वाली सरकार को समर्थन दे दिया। सरकार स्थायी न रहे, इसकी खातिर बीच रास्ते ट्रेन से देवगौड़ा को उतरवा दिया। फिर इंद्र कुमार गुजराल प्रधानमंत्री बने। बाद में कांग्रेस ने झटका देकर गुजराल सरकार भी गिरवा दी। मैसेज फिर वही देना था कि देश को सिर्फ कांग्रेस ही चला सकती है। 1998 में अटल बिहारी वाजपेयी ने नया ही खेल कर दिया। पहले गठबंधन किया, चुनाव जीते, फिर सरकार बनाई। जयललिता और मायावती की वजह से 13 महीने के भीतर ये सरकार गिर गई। फिर 1999 में एनडीए की सरकार बनी और पांच साल तक चली। 2004 में कांग्रेस वाजपेयी सरकार के खिलाफ लहर बनाने में कामयाब हुई, वाजपेयी के फार्मूले पर ही यूपीए गठबंधन की सरकार बनी, 10 साल तक चली। फिर 2014 में प्रचंड बहुमत लेकर नरेंद्र मोदी की अगुवाई में बीजेपी की सरकार बनी। इस ट्रेंड को देखें तो 2019 में कुछ ये स्थितियां बनती हैं।
1) बीजेपी सारे गठबंधन, महागठबंधन को पार करते हुए खुद अपनी सरकार बना ले, फिर तो सारे कयास ही खत्म हो जाएँगे।
2) अगर एनडीए बहुमत से पीछे रह जाए तो महागठबंधन, गठबंधन में शामिल सभी पार्टियां मिल जाएं, प्रधानमंत्री गैरकांग्रेसी हो, लेकिन कांग्रेस सरकार में शामिल हो।
3) सभी विपक्षी पार्टियां मिलकर सरकार बनाएं, उन्हीं में से किसी को प्रधानमंत्री बनाया जाए और कांग्रेस बाहर से समर्थन करे। ट्रेंड के मुताबिक कांग्रेस दो साल के भीतर सरकार गिरवा दे। फिर देश को मैसेज दे कि देश को सिर्फ कांग्रेस ही चला सकती है। उसके बाद जो चुनाव हो, उसमें कांग्रेस अपनी जीत की संभावना देख सकती है, तब कहीं जाकर राहुल गांधी के प्रधानमंत्री बनने की स्थिति बन सकती है।
जिस तरह कांग्रेस के कुछ लोग राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए अकुलाए हुए हैं, वैसे ही अप्रैल 1999 में अर्जुन सिंह जैसे कुछ सलाहकारों ने सोनिया गांधी को भी प्रधानमंत्री बनने के लिए उकसा दिया था, सोनिया राष्ट्रपति नारायणन से मिलीं, नारायणन ने बहुमत साबित करने के लिए दो दिन दिए. लेकिन ऐन मौके पर समर्थन का भरोसा दिला चुके समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव पलटी मार गए और कांग्रेस के पैरों तले से जमीन खींच ली।
बॉक्स : सारे राजनीतिक दल बने कौरव, पांडव नदारद ।
-अशित पाठक
आज से 5000 वर्ष पूर्व जो जो महाभारत हुआ था वह कौरवों और पांडवों के बीच था। भगवान श्रीकृष्ण के मार्गदर्शन में पांडवों ने धर्म की स्थापना के लिये यह युध्द किया था। इसी कुरुक्षेत्र के युद्ध मे गीता जैसे धर्म की संस्थापना और जीवन दर्शन के उपदेश को भगवान श्रीकृष्ण के मुखारबिंदु से अर्जुन को दिया गया था। परंतु आज भारत उसी कुरुक्षेत्र(दिल्ली क्षेत्र) में राजनीति का महाभारत चलता रेहता है। इस राजनीतिक सत्ता की महत्वाकांक्षा के महायुध्द में सारे ही दल कौरव दल ही प्रतीत होते हैं। क्या आपको भी भारत की राजनीतिक महाभारत में सारे दल कौरव दल नही लगते है ? क्योंकि चारो तरफ सिर्फ सत्ता और महत्वकांछाओ का युध्द ही होता दिख रहा है आज की सत्ता की महाभारत में राष्ट्र में धर्म की स्थापना करे ऐसा कोई महारथी या दल नही दिख रहा है।
यदि हम भारत की राजनीति में दृष्टि डालें तो कोई भी दल चाहे भाजपा हो, कॉंग्रेस हो, वामपंथी हो, ममतावादी, लालूवादी, मुलायमवादी, या अन्य कोई भी हो। सबके सब कौरवो की भांति सिर्फ सत्ता की महत्वकांछाओ की पूर्ति की राजनीति कर रहे हैं। यह सब अपने अपने स्वार्थों को को सिद्ध करने लिये देश और देश की जनता को दांव पर लगाते रहे हैं। कोई जाति के नाम पर, कोई धर्म के नाम पर और कोई तो श्रीराम और श्रीकृष्ण के नाम पर। परंतु उनके मार्ग पर चल धर्म की स्थापना और कार्य के लिये नही सिर्फ और सिर्फ सत्ता की भौतिक वासना और तृष्णा की प्राप्ति मात्र के लिये। जिन श्रीराम और कृष्ण के मार्गदर्शन में लंका के रावण, कंस एवं कौरवो के अधर्म और अनीति का अंत कर धर्म की स्थापना की गई थी आज यदि समझूँ और देखूँ तो लगता है कि श्रीराम और कृष्ण का कार्यों उपदेशों का मार्गदर्शन तो नही लिया जा रहा है परंतु राजनीति के कौरवो के द्वारा उनके नाम पर अर्थात धर्म के नाम पर सत्ता प्राप्त का ध्रुवीकरण खूब जमकर किया जा रहा है।उस महाभारत का युद्ध धर्म की संस्थापना के लिये किया गया था जहां एक तरफ अधर्म का साथ खड़े कौरव थे और दूसरी तरफ धर्म की संस्थापना के लिये स्वयं भगवान श्रीकृष्ण को सारथी बना अर्थात मार्गदर्शन में पाण्डव थे परंतु आज के भारत के राजनीति की महाभारत के इस युद्ध मे दोनो ही तरफ कौरव दल ही खड़े दिखते है और दोनों ही तरफ ही नही चारो तरफ सत्ता के संघर्ष और राष्ट्र की लूट की महत्वकांछाओ को पाले कौरव ही कौरव दिख रहे हैं यहाँ न तो धर्म और सत्य की स्थापना और न ही राष्ट्र रक्षा के लिये श्रीकृष्ण पांचजन्य का जयघोष करते दिखते हैं और न ही कोई अर्जुन अपने मार्गदर्शक सारथी श्रीकृष्ण के आदेश पर गाण्डीव की टंकार करता हुआ दिख रहा है, अब जनता संज्ञान ले कि जब सारे ही दल कौरवों की तरह सिर्फ सत्ता और महत्वकांछाओ के लिये अधर्म के साथ खड़े है तो जनता का कल्याण कौन करेगा।अब समझने बाली बात मात्र इतनी सी है यदि राष्ट्र का संरक्षण और धर्म की स्थापना करनी है तो क्या श्रीकृष्ण और श्रीराम को ही क्या बार बार पृथ्वी पर आना पड़ेगा? क्या वे गीता के उपदेश जो कृष्ण ने अर्जुन को दिए थे आज के युग मे प्रसांगिक नही है? क्या उनको सुनकर पढ़कर आत्मसात कर अर्जुन बन धर्म की स्थापना के लिये युद्ध करने बाला कोई नही है? और यदि उस गीता और रामायण की प्रासंगिकता को स्वयं उनके भक्त भूल गयें है तो निश्चित फिर धर्म की स्थापना नही हो सकती क्योंकि कृष्ण तो आज भी शाश्वत उसी गीता के उपदेश को जन जन तक पहुंचा रहे हैं परंतु आज का अर्जुन(युवा) धर्म के वास्तविक ज्ञान के बिना अवसाद,प्रमाद, दुःख और भ्रम में पड़ा हुआ कायरों की तरह इन कौरवो के आगे ही हाथ फैलाकर अपने भविष्य की भीख मांग रहा है और भीख में मिले टुकड़ो को ही अपना भविष्य और नियति मान चुका है क्योंकि आज का अर्जुन राष्ट्र में धर्म की स्थापना के लिये नही अपनी अपनी जाति के नेताओं की सत्ता में स्थापना के तुच्छ स्वार्थो में लिप्त भ्रमित हो लगा है।
अब तनिक विचार कीजिये श्रीराम की रामायण की कथा घर घर प्रचलित है तो फिर समाज मे रावण क्यों पैदा हो रहे हैं श्रीराम क्यों नही ,जब जब घर घर गीता रक्खी है तो घरो में श्रीकृष्ण के द्वारा दिये गए ज्ञानयोग और कर्मयोग से भरे अर्जुन क्यों नही है? इसका सीधा सा उत्तर मात्र इतना ही है कि सज्जनो ने परमार्थ छोड़ स्वार्थ धारण कर लिया है और अपने अपने बच्चो के भविष्य को संरक्षित करने में लग गए है कोई उनको डॉक्टर बनाने में लगा है कोई इंजीनियर आई ए एस, आई पी एस और कोई एमबीए करा विदेशी कंपनियों में नौकरी कर अपने बच्चो का भविष्य उज्ज्वल और संरक्षित कर रहा है परंतु राष्ट्र का भविष्य क्या इन बच्चो के स्वयं के भविष्य सुरक्षित करने से हो जाएगा, मेरा मानना है कदापि नही क्योंकि स्वयं का भविष्य बनाना स्वार्थ है जो कभी सिद्ध न होगा क्योंकि यदि राष्ट्र का भविष्य और तुम्हारे धर्म का अस्तित्व ही न रहा तो तुम्हारा स्वार्थ भी नही रहेगा।
इसलिये युवाओं जिन्हें मैं अर्जुन की संज्ञा देता हूँ और उनसे सिर्फ इतना संदेश देना चाहता हूँ कि श्रीकृष्ण की गीता आज भी शाश्वत और सार्थक है उसको जीवन मे आत्मसात करो तुम डॉक्टर बनो,इंजीनियर, अधिकारी या व्यापारी परंतु राष्ट्रधर्म को सर्वोपरि रक्खो राजनीति को गंदी मानकर उनको गंदे लोगों के हाथ में मत छोड़ो आगे बढ़ो जो जो राष्ट्र और धर्मद्रोही कौरव और उनके दल है उनके सर्वनाश के लिये अर्जुन बन युद्ध करो और अर्जुन तब बन सकते हो जब तुम सब युवा गीता के ज्ञान अर्थात अपने धर्म को धारण करोगे और यह करना परम आवश्यक है क्योंकि यदि इन राष्ट्र को लूटने बाले कौरवों को मर्दन कर इनकी घृणित लूटपाट और बांटने की राजनीति खत्म कर राष्ट्र में धर्म की नीति और नीति का राज स्थापित कर अपने राष्ट्र, शिक्षा, चरित्र, संस्कृति, गौ, गंगा, गौरी, अन्नदाता, दरिद्रनारायण और गायत्री का संरक्षण करना है तो आप सब देशभक्त युवाओं को एक और संपूर्ण व्यवस्था परिवर्तन की क्राँति “राजनैतिक क्राँति” करने के लिये आगे आना ही होगा। क्योंकि राजनीति अर्थात सत्ता की महाभारत में सारी पार्टियां कौरव दल हैं तो फिर पांडव अर्जुन (सज्जन राष्ट्रभक्त और धर्म पर चलने बालो) और श्रीकृष्ण की नीति के बिना धर्म की स्थापना और नीति का राज कैसे सम्भव होगा ??
बॉक्स : झूठ और अभद्र भाषा ले डूबी भाजपा को
-डॉ. स्वप्निल यादव
देश की जनता को वादे जल्दी पूरी करने वाली सरकारें चाहिए ऐसा नहीं है । पांच राज्यों के परिणाम सीधा संकेत दे रहे हैं कि आम लोगों में भाजपा के प्रति बेहद गुस्सा है । राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस भले जीती हो लेकिन ज्यादा आसानी से भी नहीं । राजस्थान और मध्यप्रदेश में तो मुकाबला बिलकुल उन्नीस बीस का रहा। भाजपा को सोचना होगा की रमन सिंह और शिवराज सिंह जैसे कद्दावर और जनता में अपनी पैठ बना चुकने के बाद भी भाजपा वहां हारी । 2014 से भाजपा लगातार मोदी के चेहरे पर चुनाव लड़ती आ रही है, लेकिन इस बार वो जादू भी नहीं चला । वो लहर अब नहीं दिखी जो भगवा के नाम से पूरे देश में कुछ समय पहले तक चल रही थी । चूक एक बार की नहीं है बल्कि एक लम्बे समय से देश यह देख रहा था कि मोदी जी ने कांग्रेस के 60 सालों के बदले 60 महीने का समय माँगा था। लोगों को यह आस दिलाई गयी थी कि देश में एक बहुत बड़ा बदलाव आएगा। किन्तु ऐसा कुछ नहीं हुआ । 2014 में भ्रष्टाचार, लोकपाल, निर्भया और मंहगाई जैसे जिन बड़े मुद्दों के कारण कांग्रेस के हाथ से भाजपा ने सरकार पूर्ण बहुमत के साथ छीनी थी उसका पिछले पांच सालों में कोई न तो जिक्र हुआ और न ही कोई हल निकाला गया। उसके बदले झूठे इतिहास, अभद्र भाषा और 70 साल की उपलब्धियों को पूरी तरह नकार देना घातक साबित हुआ।
इससे पूर्व भी उत्तर प्रदेश में सत्तारूढ़ बीजेपी को उपचुनाव में तगड़ा झटका देते हुए समाजवादी पार्टी ने गोरखपुर और फूलपुर में बड़ी जीत हासिल की थी। अब इन नतीजों से भाजपा को साफ़ तौर पर समझना होगा कि आस्था से न तो पेट भरता है और न ही घर चलते हैं । देश का किसान पूरी तरह से नजरअंदाज नहीं किया जा सकता । आप न तो कांग्रेस के इतिहास को मिटा सकते हो न उसे दुत्कार सकते हैं। आप प्रधानमंत्री है भारत के, तो आपकी भाषा गरिमामयी होनी चाहिए। देश के संविधान के सामान की रक्षा में उतनी चाहिए जो जनता ने कभी नहीं सुनी, तमाम ऐसी घटनाएं देश में हुई लेकिन मोदी जी की तरफ से कोई प्रतिक्रिया नहीं आयी । देश की जनता को आंकड़े में नहीं उलझाया जा सकता और न ही आस्था और इतिहास के नाम पर बेवकूफ बनाया जा सकता है ।
बॉक्स : रसायनो और शहरीकरण से कर्जदार हुआ किसान
-अमित त्यागी
आज़ादी के सत्तर साल बाद तक भी हमारी सरकारें ग्रामीण क्षेत्र के लोगों को बिजली, सड़क, पानी, शिक्षा एवं रोजगार जैसे मूलभूत अधिकारों को अभी तक उपलब्ध नहीं करा पायी हैं। भारत को कृषि प्रधान तो कहा गया किन्तु किसान का हाल बदतर रहा है। उसके मूलभूत अधिकारों से दूर रहने के कारण इस वर्ग का ध्यान कृषि क्षेत्र से हटा। किसान आत्महत्याएँ करने लगे। रसायनो ने जल स्तर नीचे कर दिया। औद्योगीकरण ने ग्लोबल वार्मिंग कर दी तो वर्षा चक्र अनियमित हो गया। कुल मिलकर जैसे ही किसानो और सरकारों ने प्राकृतिक खेती को छोड़ा, प्रकृति ने उनका साथ छोड़ दिया। किसान लाचार हो गया। सरकार ने कृषि को प्रोत्साहन कम मुआवजा ज़्यादा दिया तो किसान शहरों की तरफ रोजगार की तलाश में पलायन कर गया। इसके द्वारा धीरे धीरे ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों का संतुलन चरमराने लगा। भारत की ज़्यादातर आबादी ग्रामीण क्षेत्र में निवास करती थी किन्तु कृषि व्यवस्था चौपट होने के कारण ग्रामीण जनसंख्या का पलायन शहरों की तरफ हुआ। शहरीकरण में पशुपालन सिर्फ आवश्यकतानुसार होने लगा। यह हमारी नीतियों, उनके अनुपालन में कोताही एवं अधिकारों के जमीनी स्तर पर न पहुचने का दुष्परिणाम है कि पिछले सात दशक में ग्रामीण शहरों की तरफ आकर्षित हुये। ग्रामीण क्षेत्रों से शहरी क्षेत्रों में पलायन के द्वारा यह औसत अब लगभग दुगना होने की कगार पर है। पिछले 70 सालों की जनसंख्या औसत की तुलना करें तो 1951 में शहरों में रहने वाली जनसंख्या 17.3% थी। 2011 में यह औसत 31.16% तक पहुँच गया। अमेरिका एवं पश्चिम यूरोप के देशों में शहरी जनसंख्या अब गाँव का रुख कर रही है वहीं भारत मे इसका उल्टा हो रहा है। ग्लोबल मैनेजमेंट कंसल्टेंसी फ़र्म “मेकंजी” की रिपोर्ट के अनुसार 2015 से 2025 के बीच के दशक में विकसित देशों के 18% बड़े शहरों में आबादी प्रतिवर्ष 0.5% की दर से कम होने जा रही है। पूरी दुनिया में 8% शहरों में प्रतिवर्ष 1-1.5% शहरी जनसख्या कम होने का रुझान होना संभावित है।
रही सही कसर देश में कॉर्पोरेट संस्कृति के बढ्ने से पूरी हो गयी। अमीरी और गरीबी की खाई बढ़ती चली गयी। 1990 में असमानता का जो इंडेक्स 45.18 था वह 2013 आते आते बढ़कर 51.36 हो गया। देश का 58 प्रतिशत धन एक प्रतिशत लोगों के पास है। देश के बड़े अरबपतियों में 84 ऐसे हैं जिनके पास 248 अरब की अनुमानत संपत्ति है। ऐसा नहीं है ऐसा सिर्फ भारत में हुआ है। बल्कि विश्व के अन्य देश भी कॉर्पोरेट कल्चर आने के बाद प्रभावित हुये हैं। नब्बे के दशक में उदारीकरण आने के बाद भारत निम्न वर्ग से कुछ लोग मध्य वर्ग में तो पहुचे किन्तु निम्न वर्ग और उच्च वर्ग में फासला लगातार बढ़ता चला गया। आय से अधिक संपत्ति एवं ज़मीन की आसमान छूती कीमतों के बीच कॉर्पोरेट और बिल्डर मालामाल होते चले गये और किसान लाचार एवं गरीब होता चला गया।