भाजपा की तीन राज्यों में करारी हार के बाद नाराज नेताओं व कार्यकर्ताओं ने जैसे आरोपों की बारिश ही कर दी है। हो सकता है कुछ आरोप अतिरेक हो मगर मजेदार जरूर हैं –
” एंटी इंकॉम्बेन्सी” व एक बार हार-एक बार जीत की परंपरा, अहंकारी होना, जमीन से कटना, जमीनी कार्यकर्ताओ की उपेक्षा , टिकटों का गलत बँटबारा व पैसे लेना, पार्टी का कांग्रेसीकरण, परिक्रमा करने वालों को आगे बढ़ाना व पराक्रम वाले कार्यकर्ताओं के लिए “यूज़ एन्ड थ्रो” की नीति रखना तो सामान्य है ही हिंदुत्व के एजेंडे से अलग होकर विकास व जाति की राजनीति में शीर्ष नेतृत्व का उलझ जाना अधिक प्रमुख हैं। पार्टी का अपने मूल एजेंडे से भटकाव, कश्मीर, अवैध बांग्लादेशी, समान नागरिक संहिता व राम मंदिर जैसे मुद्दों का समाधान न होना, निचले स्तर पर भ्रष्टाचार के साथ ही गैर भाजपाइयों को सरकारी पद व रेवड़ी बांटना भी है। भारत का भारतीयकरण न करना यानि पाश्चात्य संस्कृति, नशा, ड्रग्स, नग्नता,सट्टेबाजी, समलेंगिकता, विवोहतर संबंध, हिंदुत्व व भारतीयता विरोधी फिल्मों आदि पर रोक लगाने में नाकामयाबी भी बड़े मुद्दे है जिससे कार्यकर्ताओ, नेताओ व समर्थकों में रोष है। शिक्षा, स्वास्थ्य व न्याय के बाजारीकरण पर भी भाजपा सरकारें रोक नहीं लगा सकी तो स्वदेशीकरण को एफडीआई खा गई। योग,आयुर्वेद, गौ, ग्राम , कृषि, ग्रामीण रोजगार व गंगा के संवर्धन के लिए जो किया जाना वो भी आधा अधूरा है। विकास के जो काम हुए उनसे कारपोरेट जगत को सीधे फायदा पहुंचा मगर एमएसएमई व व्यापारी वर्ग के साथ ही बिल्डर व ठेकेदार लॉबी परेशान ज्यादा रही। नोटबंदी व जीएसटी इस वर्ग के लिए स्वागतयोग्य कदम होने के बाद भी उलझन भरी चुनोती अधिक रही। लोगों को निराशा है कि भाजपा सरकारे भ्रष्टाचार के विरुद्ध कुछ खास नहीं कर पाई। भ्रष्ट अधिकारियों व नेताओ के खिलाफ जो कड़ी कार्यवाही होनी चाहिए थी वो हुई ही नहीं वरन ऐसे नेताओं व अधिकारियों को संरक्षण अधिक दिया गया। जिले,तहसील व ग्रामीण स्तर पर सरकारी योजनाओं का किर्यान्वयन संतुष्टि पूर्ण नहीं। योग्य व समर्पित कार्यकर्ता पूर्णतः उपेक्षित हैं। केंद्र हो या राज्य संवैधानिक पदों व संस्थाओं पर सरकार के नियंत्रण नहीं होने व विवाद होते रहने के भी नकारात्मक प्रभाव रहे। विदेश नीति व दौरों से एनआरआई लोगो को तो फायदा मिला मगर वे तो पहले ही फायदे में थे उसमें भी गुजराती लोग हावी रहे। कुछ लाख लोगों के चक्कर मे देसी समर्थक उपेक्षित महसूस कर रहे हैं। मोदी- शाह की जोड़ी गुजरातियों पर अधिक भरोसा करती है व उसने पूरे देश मे अपनी लॉबी बनाने के लिए प्रदेशो के स्थापित नेताओ की उपेक्षा की। तीन राज्यों में जनाधार बढ़ाने की जगह वोट कटवा तीसरे मोर्चे को खड़ा करने में अधिक ऊर्जा व धन का व्यय किया। साथ ही यह भी कोशिश थी कि स्थापित क्षेत्रीय क्षत्रप पुनः जीतकर अधिक शक्तिशाली होकर मोदी के लिए चुनौती न बन जाएं। समर्थकों में यह आम मान्यता है कि बेहतर तो यही होता कि लोकसभा चुनाव भी इन पांच राज्यों के साथ ही होते।
ऐसे में यह कांग्रेस की जीत नहीं भाजपा की हार अधिक है। यह आम किवंदती है भी कि भाजपा को कोई हरा सकता है तो सिर्फ भाजपा। अब देखने वाली बात यह है कि शीर्ष नेतृत्व की यह बाजीगरी क्या लोकसभा चुनावों में उनकी वैतरणी पार करा पाएगी।
अनुज अग्रवाल
संपादक, डायलॉग इंडिया