भारत सहित पूरा विश्व इस समय ऊर्जा के वैकल्पिक स्रोतों की तलाश में है। कभी यह तलाश सौर ऊर्जा के रूप में पूरी होती है तो कभी आकाशीय बिजली के द्वारा, विद्युत् उत्पादन की संभावना में। भारत एक बहुत ही विशाल देश है, जिसमें विशाल जनसँख्या के सामने ऊर्जा की समस्या मुंह बाए खड़ी है। भारत की लगभग 70 प्रतिशत आबादी ग्रामीण क्षेत्रों में निवास करती है। अब तक हमारे देश के 21 प्रतिशत गाँवों तथा 50 प्रतिशत ग्रामीण परिवारों तक बिजली नहीं पहुँच पाई है। ऊर्जा के स्रोतों की बात करते ही केवल कुछ स्रोत सभी के मस्तिष्क में आते हैं, और उनमें है सौर ऊर्जा, जैव ईंधन, गैस, लकड़ी आदि। परन्तु पिछले कुछ समय से भूतापीय अर्थात जियोथर्मल ऊर्जा के विषय में भी सुना जा रहा है। भूतापीय ऊर्जा क्या है और भारत में इसकी क्या संभावनाएं हैं, क्या भारत में भूतापीय ऊर्जा संभव है और क्या भूतापीय ऊर्जा के रास्ते में कुछ बाधाएं हैं, यदि बाधाएं हैं तो उनके हल क्या है? इन्ही सब विषयों पर डायलॉग इंडिया की उप संपादक सोनाली मिश्रा ने बात की प्रख्यात वैज्ञानिक सूर्य प्रकाश कपूर से, जो भूतापीय अर्थात जियोथर्मल ऊर्जा की संभावना पर न केवल निरंतर कार्य कर रहे हैं, बल्कि अंडमान सागर में बैरन आइसलैंड पर सक्रिय ज्वालामुखी के लावे से भूतापीय ऊर्जा उत्पन्न करने की भी बात करते हैं। सरल शब्दों में कहें तो भूतापीय ऊर्जा पृथ्वी से उत्पन्न गर्मी है। प्रकृति में प्रचलित गर्म जल के फव्वारे हैं जो भूतापीय ऊर्जा स्रोतों की उपस्थिति के लिए निदेशक का काम रूप में काम करते हैं।
भूतापीय ऊर्जा क्या है और क्या यह प्रभावी है? भारत में प्राकृतिक संसाधनों के प्रति जागरूकता नहीं है। ऐसे में भूतापीय ऊर्जा किस प्रकार महत्वपूर्ण है?
आपने सही सवाल किया है। दरअसल दोस्त हमारी जनता का नहीं है, हमने प्राकृतिक संसाधनों के माध्यम से विकसित होने का प्रयास कम किया है, इसमें कई वैश्विक मुद्दे सम्मिलित हैं, इसके बारे में हम बाद में बात करेंगे। पहले तो आते हैं भूतापीय अर्थात जियो थर्मल ऊर्जा पर। आपने ज्वालामुखी देखा है? या देखा नहीं तो सुना तो होगा ही, आपको पता होगा कि उसमें से लावा निकलता है। और यह सब धरती के नीचे ही है। धरती के नीचे कितनी आग है आपको पता भी नहीं होगा। धरती की तुलना आप एक फुटबॉल से कर सकते हैं। एक फुटबॉल का ऊपरी खोल बहुत कड़ा होता है, और उसमें अन्दर हवा भरी होती है। इस धरती का ऊपरी खोल भी एकदम कड़ा है, फुटबॉल की ही तरह। उसकी ऊपरी परत कई क्रिस्टल शीट में बंटी हुई है। जैसे अंडे के ऊपर हमें सफेद खोल दिखाई देता है, वैसे ही धरती का ऊपरी खोल है, जो 46 क्रिस्टल लेयर में बंटा हुआ है। तो ये जो छियालीस लेयर हैं, इनकी सीमा केवल सौ ही किलोमीटर है। अब धरती है इसका डायामीटर है 12,742 किलोमीटर। और इसमें केवल सौ या दो सौ किलोमीटर के बाद लावा है। हमारी धरती अन्दर से एक आग का गोला है। जैसे आप मकान बनाते समय नींव खोदते हैं, तो आप खोदिये तो मिट्टी निकलेगी, और फिर पानी और ज्यादा खोदेंगे तो सौ किलोमीटर के बाद आपको लावा ही मिलेगा। मतलब इस धरती के नीचे कितनी रसायनिक गतिविधियाँ चल रही हैं, और उनकी तुलना कई नागासाकी विस्फोटों से की जा सकती है। इस लावे का स्रोत धरती की नाभि में है। धरती की नाभि कहाँ होती है? जैसे हम खरबूजे को बीच से काटते हैं तो उसके बीच में हमें उसके बीज मिलते हैं, ऐसे ही धरती को बीच से काटेंगे तो उसके मध्य में हमें आठ किलोमीटर का यूरेनियम 235 का घेरा है। जिसमें न्यूक्लियर फिशन रिएक्टर चल रहा है। न्यूक्लियर फिशन आप मानकर चलिए कई सारे हीरोशिमा नागासाकी जैसे विस्फोट। तो उससे जो गैस निकल रही है, उससे जो ऊर्जा निकल रही है उसीसे यह धरती फूली हुई है। जैसे ही वह गैस गायब हुई यह धरती एकदम पिचकी हुई फुटबॉल हो जाएगी। इसका आकार मुश्किल से सौ पचास किलोमीटर रह जाएगा। यह गैस के उफान के कारण गोल है कड़ी है।
अब यह जो आग है, वही आग ज्वालामुखी से निकलती है। अब ऐसा एक ज्वालामुखी अंडमान सागर में बैरन आइसलैंड में है, जिसमें जब विस्फोट होता है तो निकलने वाले लावे से बंगाल की खाड़ी का समंदर से नीचे का तापमान 26.5 डिग्री से अधिक हो जाता है तो वह चक्रवात का कारण बन जाता है। और चक्रवात के साथ साथ बाढ़ भी आती है। इससे समुद्र का पानी वाष्पीकृत होता है, अतिरिक्त बादल बनते हैं और उससे कई बार हिमालय क्षेत्र में भयंकर बारिश और बाढ़ आती है। जो हम कई बार असम, बिहार और यहाँ तक कि नेपाल में देखा है। और उसके कारण आप देखिये, सरकारें न जाने कितनी राहत राशि का वितरण करती है। करोड़ों रूपए सरकार देती है, करोड़ों रूपए हम राहत कोष में देते हैं। मगर हम मूल समस्या को नहीं देखते हैं।
तो आपका कहना यह है कि चक्रवात आने की मुख्य वजह ये सक्रिय ज्वालामुखी हैं? यदि हां, तो समाधान क्या है?
जी, आप सही कह रही हैं। देखिये जो बारह सौ डिग्री की जो हीट पैदा होती है, उससे यदि समुद्र की सतह का तापमान साढ़े छब्बीस डिग्री सेंटीग्रेट से बढ़ गया तो चक्रवात आएगा, और यदि यह उससे कम रह गया तो नहीं आएगा। चक्रवात के लिए 26.5 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान होना जरूरी है। अब जो बारह सौ डिग्री सें। की जो ऊर्जा उत्पन्न हुई है, उसका इस्तेमाल करने के लिए जियोथर्मल प्लांट की आवश्यकता होगी। और ऐसा नहीं है कि ये कोई नई अवधारणा है, ओर्मैट टेक्नोलोजी ने पहले से ही सफलता पूर्वक ऐसे प्लांट इंडोनेशिया, फिलिपिन्स और लैटिन अमेरिका के कई देशों में स्थापित कर रखे हैं। यदि हम उस हीट को ऊर्जा में बदल देंगे तो हमारे देश की कई ऊर्जा आवश्यकताएँ पूरी हो सकती हैं। अभी हम जो बिजली की कमी का रोना रोते हैं, वह काफी हद तक कम हो सकता है। इस तरीके से उत्पन्न हुई बिजली का व्यावसायिक प्रयोग करने के द्वारा हम औद्योगिक गति को भी तेज कर सकते हैं।
यदि यह कदम सरकार उठा लेती है तो बहुत ही अच्छा होगा। मगर यदि सरकार इस विषय में उदासीन है तो क्या इसके लिए इसकी आर्थिक लागत जिम्मेदार है या कुछ और ही कारण हैं?
देखिये, आर्थिक लागत कोई मायने नहीं रखती है क्योंकि कार्बन रिडक्शन के कारण इस पूरी परियोजना की लागत को यूएनओ के द्वारा दिया जाएगा। तो जहाँ तक बात है पैसे की लागत की तो इसमें कोई समस्या नहीं है। हां, कभी कभी ऐसा लगता है कि सरकार ही पश्चिमी देशों के हितों की बात करते करते हमारे देश के हितों के साथ नरम नजर आती है। नहीं तो जिस देश के पास इतना अकूत भंडार है ऊर्जा का, वह पश्चिमी देशों का मुंह क्यों ताक रहा है? मैं आरोप नहीं लगा रहा हूँ, परन्तु इस उदासीनता की भूमिका की निष्पक्ष जांच होनी चाहिए कि हमारे जैसे वैज्ञानिकों के द्वारा उठाए गए मुद्दों पर संसद में चर्चा क्यों नहीं होती? आप देखिये, संसद में बहस होगी बिजली कम है, बिजली नहीं है, मगर जैसे ही हम लोग समाधान की बात करेंगे वैसे ही हमारी फाइलें अटका दी जाती है। कभी इस विभाग तो कभी उस विभाग! सब कुछ होता है, मगर समाधान की दिशा में जो कदम उठाया जाना चाहिए, वह नहीं उठाया जाता है। अब देखिये, जिन देशों में ज्वालामुखी के लावे के कारण समस्याएं होती थीं, लगभग सभी देशों में इससे निपटने के लिए कदम उठाए जा रहे हैं, जबकि हम अभी शोध की तरफ ही नहीं देख रहे हैं।
आपके अनुसार सरकारें पश्चिमी देशों के हितों का ध्यान अधिक रखती हैं, बनिस्बत अपने देश के?
हालांकि मैं आरोप नहीं लगाना चाहता मगर प्रश्न तो उठना स्वाभाविक ही है कि जब हमारे पास अंडमान क्षेत्र में पर्याप्त मात्रा में पेट्रोलियम का भण्डार है, जहां से महज़ कुछ सौ किलोमीटर की दूरी पर से इंडोनेशिया तेल निकाल रहा है और प्रगति कर रहा है। इंडोनेशिया ओपेक का हिस्सा है, अर्थात इंडोनेशिया अंडमान सागर के संरक्षित ज़ोन से तेल निकाल कर न केवल अपने देश की जरूरतों को पूरा कर रहा है बल्कि वह तेल निर्यात भी कर रहा है। तेल निर्यात करने वाले देशों को पता है कि भारत की फीताशाही को किस तरह से अपने कब्ज़े में करना है। बात ग्राहकों को हर कीमत पर बनाए रखने की है। ऐसे में देश के लिए बहुत जरूरी है उठना खड़े होना।
आप के अनुसार इस स्थिति का हल क्या है?
मैं तो यही कहना चाहूंगा कि सरकार इस अथाह प्राकृतिक धन संपदा का फायदा उठाए, जिससे हम समाज के एकदम निचले तबके और वर्ग तक न केवल बिजली पहुंचाएं, बल्कि उसे वह लाभ दें जो इस देश की संपदा से हासिल किए जा सकते हैं। निजी हित से ऊपर उठकर देश हित के विषय में सरकार सोचे और इस संयंत्र के निर्माण के प्रति किसी भी तरह से वह किसी लॉबी के दबाव में न आए, यही कामना है।