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मंदिरों में घूमती है ब्रज की होली

यशोदानंद आनंदकंद, श्री कृष्ण चन्द्र की इस क्रीड़ास्थली में जिन स्थलों पर भगवान श्रीकृष्ण ने लीलाएं की वे तीर्थ बन गए । कहीं उसे मंदिर का प्रतीक दिया गया तो कहीं वन और कहीं उपवन का । भगवत् कृपा प्रसाद की प्राप्ति की आशा से ही ब्रज के त्यौहारों के प्रमुख केन्द्र से मंदिर बने हुए हैं । होली भी इसी श्रृंखला मंे मंदिरों के इर्द-गिर्द घूमती है ।

ब्रज के मंदिरों में वैसे तो होली की शुरूआत बसंत से होती है, जब मंदिरों में गुलाल की होली प्रारंभ हो जाती है, किन्तु होली को गति फाल्गुन की प्रथमा को मिलती है जब मंदिर द्वारिकाधीश में रसिया गायन शुरू हो जाता है । अष्टमी में चैत्रमास प्रारंभ होने तक प्रत्येक दिवस होली की अपनी अलग ही पंखुडी लाता है । प्रकृति ने तो सातों रंगों को प्रधानता दी है किन्तु ब्रज की होली में तो अनगिनत रंग हैं । अनगिनत रंग-बिरंगी पंखुड़ियां बरसाने की लठामार होली से लेकर पुरानी गोकुल के हुरंगे तक सभी तो अपने आप में अनोखी विशेषताएं लिए हुए हैं । इन सबके साथ ही चरफुला नृत्य, हुक्का नृत्य होली के इस मानस पर्व पर चार चांद लगा देते हैं । ब्रज मस्ती से भर जाता है । मंदिरों का क्षेत्र होली के रंग में रंग जाता है ।
ब्रज मंदिर आजु मची होगी,
बाजत बीन मृदंग झाझ ढफ,
गावत चन्द्रमुखी गोरी ।
ग्वालबाल लिए पिचकारी,
अबीर गुलाल भरे झोली ।
हिलमिल फाग परस्पर खेलत रंग
चलाय मलत रोरी ।
ब्रज मंदिर …
श्री जी मंदिर की होली …
मथुरा से 48 कि.मी. दूर बसे राधारानी के इस गांव में पहाड़ी पर श्री जी का मंदिर बना ाहै । यहीं पर देश के कोने-कोने से हजारों ेंश्रद्धालु आकर राधा रानी के श्री चरणों में अपनी श्रद्धा निवेदित करते हैं । वैसे तो ब्रज मंडल में होली में लट्ठ का प्रयोग प्रायः प्रचलित है किन्तु बरसाने की लठामार होली अपने आप से निराली ही है । इस गांव में अष्टमी को पांडे लीला का आयोजन किया जाता है जिसमें नंदगांव का पंडा भगवान श्रीकृष्ण की ओर से बरसाने में ब्रज गोपियों को होली के मेले का न्यौता देता है । इसी दिन छप्पन भोग का आयोजन किया जाता है । नंदगांव हुरिहार भगवान श्यामसुन्दर की लाल ध्वजा लेकर टाल की टोल मस्ती से गाते हुए बरसाने की ओर चल पड़ते हैं:-
चलो बरसाने खेलैं होरी ।
ऊँचे गांव बरसानौ कहिए
तहां बसै राधा गोरी …
हुरिहारों के पीली पोखर के पास पहुँचने पर बरसाने का सबसे वयोवृद्ध व्यक्ति अन्य लोगों के साथ उसकी आग्योनी रुपया और नारियल से करके ब्रह्मदेव गिरि पर बने श्री जी के मंदिर से होली खेलने और समाज गायन में भाग लेने का निमंत्रण देता है । नंदगांव के हुरिहारों के मंदिर पहुँचने पर रंग-गुलाल की बौछार का पहला दौर संगीत के साथ शुरू हो जाता है । नंदगांव को कुंअर कन्हैया बरसाने में आयो है, संग लिए है सखा सभी, हुरदंग मचायो है । मंदिर के प्रांगण में संगीत समाज होता है । समाज के दौरान मुखिया ठाकुर जी के प्रसाद के रूप में समाज गायन करने वालों पर रंग डालता है । बाद में न केवल संगीत समाज में भाग लेने वाले बल्कि मंदिर में आने वाले हर दर्शनार्थी को रंग से सराबोर करने की कोशिश की जाती है । समाज गायकों का दल जैसे ही मन्दिर से निकलता है, गुलाल और टेसू के रंग की वर्षा शुरू हो जाती है और फाग शुरू हो जाती है:-
फाग खेलन बरसाने आए हैं,
नटवर नंद किशोर ।
घेर लई सब गली रंगीली,
ढप ढोल मृदंग बजाए हैं ।
वंशी की घनघोर ।
गोपियों पर नंदगांव के हुरिहार रंग डालते हुए उनसे जब हंसी-ठिठोली करते हैं तो लंहगा, फरिया पहने घूंघट डाले, हाथ में लम्बी-लम्बी लाठियां लेकर इठलाती हुई पुरुषों पर लाठियां बरसाना शुरू करती हैं जिन्हें पुरुष वर्ग ढ़ालों पर रोकते हैं । एक ऐसा आनन्दमय वातावरण पैदा हो जाता है कि जो देखता है ठगा-सा खड़ा रह जाता है जिससे हंसी-ठिठोली से भरी यह होली लाडली लाल की जय से समाप्त होती है । अगले दिन नंदगांव में भी इसी प्रकार की होली होती है जहां पर गोस्वामी स्त्रियां बरसाने से हुरिहारों पर लाठियों से प्रहार करती हैं ।
द्वारिकाधीश मंदिर की होली …
इस मंदिर में वैसे तो फागुन के शुरू होते ही मंदिर में ढोल, ढप्प, करताल, झांझा के साथ रसिया गायन शुरू होता जाता है । किन्तु इसके तेजी अष्टमी के दिन से आती है । इसी दिन से मंदिर में रंग की होली शुरू हो जाती है । कुंज एकादशी को तो पूर्वाह्न राजभोग के समय ठाकुर जी कुंज में विराजते हैं तथा टेसू के रंग की होली होती है, तेरस को बगीचा है, जबकि रंग बिरंग फौहारें चलाए जाते हैं और होली के दिन तो बस गजब ही हो जाता है । मंदिर के पट खुलते ही बम भोला गाया जाता है:-
राम नाम की लूट है, लूट सके तो लूट ।
अंतकाल पछताएगा, तब प्राण जाएंगें छूट
कि भोला तेरी बम बोले …
मंदिर का वातावरण संगीत की ध्वनि से गूंज उठता है । रसिया गायक रसिया गाते हैं तो भगवान के प्रसाद के रूप में टेसू का फूल दर्शकों पर पिचकारी से डाला जाता है । संगीत, रंग और नृत्य की त्रिवेणी बज उठती है:-
मैं तो सोय रही सपने में
मौये रंग डारो नन्दलाल ।
सपने में श्याम मेरे घर आए
ग्वाल वाल कोई संग न लाए
पौडि पालिका में गए मेरे संग
टटोरन लागे मेरे अंग
दई पिचकारी भर-भर अंग …
जैसे ही ‘‘आजु बिरज में होली रे रसिया’’ का गायन होता है मंदिर में मौजूद भक्तगण झूम उठते हैं, नाचने गाने लगते हैं तथा स्वयं पर पड़ा टेसू का रंग गुनगुना रंग रूपी प्रसाद पाकर भक्त भाव-विभोर हो उठता है । इस दिन की होली की सबसे बड़ी विशेषता यह होती है कि ठाकुर जी को मंदिर के गर्भगृह से निकालकर जगमोहन में हिंडोले में रखा जाता है ।
श्री कृष्ण जन्मस्थान की होली …
बल्देव एवं जाव के हुरंगे के मिश्रण का ही नाम है श्रीकृष्ण जन्मस्थान की लठामार होली । इसमें जहां जाव की भांति लाठियां एवं गर्दया का प्रयोग किया जाता है, वहीं दाऊ जी के मंदिर की भांति गुलाल उड़ाकर वातावरण को इंद्रधनुषी रंग दिया जाता है, वातावरण संगीतमय हो उठता है ।
बाग बीते कि हरियल पौधा आम को है ।
सबको देखन जाए
उड़न-उड़न जियरा करै
रस बौरे पर उड़ो न जाए ।
श्रीकृष्ण लठामार होली समिति द्वारा आयोजित इस होली में हरे, लाल, पीले परिधानों से सजी, संवरी गोपिकाएं तथा सिर पर भगवान बांधे हरिद्वार जैसे ही जन्मभूमि के मंच पर गर्दया और तसला लिए पहुंचते हैं तो मंच पर रंग-बिरंगे परिधानों में खड़ी गोपिकाएं हुरिहारों पर लाठी प्रहार करती हैं, जिसे वे गर्दया या लोहे की ढाल से रोकते हैं । कुद समय बाद जैसे ही गोपियों का लाठी का प्रहार तेज होता है तो हुरिहारों में भी गजब की फुर्ती आ जाती है । कोई ग्वाल किसी गोपी के आगे डट जाता है तथा दर्जनों लाठी के वार सहकर भी पीछे नहीं हटता तो गोपी ही भाग खड़ी होती है, होली की चर परिवति में जन्मभूमि पर वातावरण में रंग-बिरंगा गुलाल खाई पड़ता है । यह दृश्य कितना मनोहारी होता है, इसका अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि विगत वर्ष ड्यूटी पर तैनात पुलिसकर्मी इसे देखने में इतने आनन्द से अभिमुक्त हो गए कि उन्हें याद ही नहीं रहा कि वे होली में ड्यूटी देने आए हैं । महिलाओं ने उन पर लाठी प्रहार का जब उन्हें ड्यूटी के लिए सजग किया तो वे भागने लगे । इस मनोहारी दृश्य ने जन्म स्थान की होली को और रंग दे दिया ।

बिहारी जी मंदिर की होली …
रंगभरनी एकादशी के दिन वृन्दावन के मंदिरों में आनन्द की वर्षा होने लगती है । बिहारी जी मंदिर में शाम को पट खुलते ही टेसू के रंग की पिचकारियां चल पड़ती है । रंग-बिरंगा गुलाल सतरंगी रूप में मंदिर के प्रांगण को आच्छादित कर देता है और वातावरण ऐसा बन जाता है कि जो आता है वही श्याम के रंग में डूब जाता है । रात्रि 8 बजे रसिया होती है ।
होली खेलौ तो कुंज पधारौ रसिया
इस रसिया के साथ ही रसिया गायन की होड़ सी लग जाती है…
अरे रसिया तो सौ होरी खेलन में,
मेरी गयी है मुदरिया सवा लाख की
तो पै मोल न पैदा होय ।
अंततः हर्ष और उल्लास के मध्य जयकारे के साथ मंदिर के पट बंद हो जाते हैं ।

राधा बल्लभ मंदिर की होली …
रंगभरनी एकादशी के दिन ही पूजन उपरांत मंदिर का पर्दा गिरने के साथ ही राधा कृष्ण के स्वरूपों को हाथों में बैठाकर कीर्तन व गीतों के साथ शोभायात्रा निकाली जाती है ।
‘निकसे है मोहन लाल, ब्रज से खेलन फाग री…’
शोभा यात्रा ज्यों-ज्यों आगे बढ़ती जाती है रसिया गायन और तेज होता जाता है । रसिया मंडली शोभायात्रा के साथ त्रिवंचन महाप्रभु का डोल, सेवाकुंज, रासमंडल होते हुए गोविन्दघाट और फिर शहर में आती है । इस शोभायात्रा का जगह-जगह पूजन किया जाता है, आरती उतारी जाती है । शोभा यात्रा मार्ग गुलालमय हो जाता है । मंदिर के द्वार के निकट पहुंचते ही टेसू के रंग की पिचकारी चल पड़ती हे । इस रंग भरी होली के दौरान धमार होती है ।
दिन दुलह मेरी एक बिहारी
दुल्हन नित्य किशोरी…
उल्लास की चरमसीमा पर राधारानी की सहचरियों के मध्य राधारानी को श्याम सुन्दर को राधारानी का स्वरूप देकर उनका विवाह कराया जाता है और फिर जयकारे के बाद पट बंद हो जाते हैं ।
श्री धाम गोदबिहार की होली …
सर्व-धर्म समन्वय के लिए समर्पित इस मंदिर में होली पर ब्रज के प्रसिद्ध चरकुला नृत्य एवं हुक्का नृत्य का आयोजन किया जाता है । गुलाल की होली के मध्य विभिन्न होलियां प्रस्तुत की जाती है । पिछली बार 1008 बालकों के निःशुल्क यज्ञोपवीत कराने का निश्चय मंदिर के संस्थापक स्वामी बल्देवाचार्य ने किया है ।
दाऊ जी के मंदिर की होली …
मथुरा से 25 कि.मी. दूर बल्देव में स्थित दाऊजी के मंदिर की होली का अपना अलग ही आनन्द है । इस मंदिर के चैत्र कृष्ण द्वितीया के हुरंगे के नाम से प्रसिद्ध है । इस हुरंगे में सबेरे से ही हुरिहारों का आना शुरू हो जाता है । मंदिर में हुरंगे से पूर्व संगीत समाज होती है, जिसके झांझ, मजीरा, मृदंग, ठपके साथ अष्टधाप के कवियों का होली वर्णन होता है । उधर मंदिर में बनी हांदियों में टेसू भिगो दिया जाता है । नियमानुसार मंदिर के पट खुलने के बाद ही हुरंगा शुरू होना चाहिए किन्तु बाल हुरिहार मौका पाकर उसके पहले ही रंग डालना शुरू कर देते हैं । संगीत समाज के चरम सीमा पर पहुंचने पर मंदिर के पट खुलते हैं । इसके बाद हुरियारों पर दाऊ जी महाराज का रंग छिड़क कर हुरंगें का शुभारंभ होता है ।
हुरंगा शुरू होते ही संगीत समाज दो दलों में बंट जाता है । एक भगवान श्री कृष्ण का तथा दूसरा बलराम का आगे झंडा लिए हुरिहार ठप्पा के साथ ‘आजु बिरज में होली रे रसिया’ कहते हुए दो दल हो जाते हैं । हुरंगा शुरू होते ही यहां मंदिर की छत से लाल, हरा, नीला, पीला, बैंगनी आदि रंगों का गुलाल छिड़कना शुरू हो जाता है वहीं के मंदिर का चक्कर लगाते हुए हुरिहार गोपिकाओं पर रंग डालते हैं । गोपिकाएं पुरुषों के रंग से गीले वस्त्र फाड़कर कोड़े से उनकी पिटाई करती हैं । हुरिहारों पर पड़ा रंग और उस पर पड़ा गुलाल हुरियारों की ‘टेक्नीकलर’ की आकृति बना देता ाहै । कभी-कभी हुरिहार अपने किसी साथी को गोपियों को सामने टांगकर ले जाते हैं और गोपियां उसकी गीले कोड़े से जमकर पिटाई करती हैं । सारा वातावरण संगीत से गूंज उठता है । नफीरी और नगाड़ा बजने लगता है –
लाला तोसे होरी जल खेलूंगी
मेरी अंगिया में जुगनू जड़ाय ।
मोय सानुड़ा गोटादार ।
हारहु चाहिए, हमें लहु चाहिए
बाजूकन्द गुच्छादार
छैला कड़े-छड़े और पायल चाहिए
पायजेब घुघरुदार ।
अगले भी चाहिए, पिछले भी चाहिए
ु अंगूठी होय नमदार ।
ु इस दौरान गोपिकाओें पर इतना टेसु का रंग डाला जाता है कि मंदिर का प्रांगण नौ-नौ इंच से अधिक टेसु के रंग से भर जाता है । लगभग दो घंटे तक चलने वाले मस्ती भरे इस कार्यक्रम का समापन मंदिर के पट बंद होने व झंडी लूट के साथ होता है और हुरिहार गाते हुए जाते हैं…
होरी री गोरी घर चली रे
कोई जीत चले हैं ब्रज ग्वाल,
हारे रे रसिया घर चले रे
कोई जीत चली है ब्रज नारि…
उक्त मंदिरों के अलावा जावरे राधाकांत मंदिर की होली, दाऊजी मंदिर (बठैन) की होली, अन्योर, सतीपुरा, महावन समेत ब्रज के कई स्थलों की होली भी मशहूर है ।
डाॅ.विभा खरे

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