(1) शरीर को प्रकृति से पोषण मिलता है तथा जीवनीय शक्ति आत्मा से मिलती है:-
पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश और वायु इन पंचतत्वों से इस शरीर की रचना हुई है। शरीर को रोजाना पौष्टिक भोजन देकर तथा पंचतत्वों में संतुलन रखकर हम उसे लम्बी आयु तक हष्ट-पुष्ट तथा निरोग रखते है। लेकिन हम आत्मा को हर पल भोजन न देने की सबसे बड़ी भूल कर बैठते है। इस कारण से आत्मा कमजोर तथा मलिन हो जाती है। हमें यह ज्ञान होना चाहिए कि आत्मा का भोजन क्या है? आत्मा का भोजन लोक कल्याण की पवित्र भावना से अपनी नौकरी या व्यवसाय द्वारा हर पल अपनी आत्मा का विकास करके शरीर को जीवनीय शक्ति देना है। इस प्रयास से आत्मा अपने वास्तविक स्वरूप शुद्ध, दयालु तथा ईश्वरीय प्रकाश से प्रकाशित बनी रहती है। ऐसी पूर्णतया गुणात्मक आत्मा शरीर की मृत्यु के पश्चात् प्रभु मिलन की अपनी अंतिम मंजिल को प्राप्त करती है। मनुष्य द्वारा अपवित्र कार्यों द्वारा मलिन की गयी गुणविहीन कमजोर आत्मा प्रभु मिलन की अपनी अंतिम मंजिल को प्राप्त न करने के कारण युगों-युगों तक विलाप करती है।
(2) इस सृष्टि रूपी बगीचे का माली सदैव से एक है:-
परमपिता परमात्मा इस सृष्टि का रचनाकार है वह अपनी प्रत्येक रचना से प्रेम करता है। परमात्मा का धर्म (कर्तव्य) लोक कल्याण है। परमात्मा के आज्ञाकारी पुत्र होने के नाते हमारा धर्म (कर्तव्य) भी लोक कल्याण ही है। प्रभु की लोक कल्याण की इच्छा तथा आज्ञा को जो व्यक्ति जान लेता है फिर उसे धरती तथा आकाश की कोई शक्ति प्रभु का कार्य करने से रोक नहीं सकती। सृष्टि का निर्माता या रचनाकार एक है, लेकिन सृष्टि में विभिन्नता और विविधता है। इस अद्भुत सृष्टि रूपी बगीचे का माली सदैव से एक ही है। सृष्टि का गतिचक्र एक सुनियोजित विधि व्यवस्था के आधार पर चल रहा है। ब्रह्ममाण्ड में अवस्थित विभिन्न नीहारिकाएं ग्रह-नक्षत्रादि परस्पर सहकार-संतुलन के सहारे निरन्तर परिभ्रमण विचरण करते रहते हैं। इस पृथ्वी रूपी बगीचे में विभिन्न जाति के तथा रंग-बिरंगे फूल खिले हुए हैं। हमें निष्पक्ष भाव से कलाकार (स्रष्टा) और उसकी कला (सृष्टि) दोनों को महत्व तथा आदर देना चाहिए। यदि सृष्टि न हो तो हमारे मस्तिष्क में इस विचार का कैसे जन्म हो कि इसका कोई निर्माता भी है? यदि यह अद्भुत शरीर न हो तो आत्मा के अस्तित्व का कैसे आभास हो? सुमधुर संगीत आत्मा का भोजन है। सितार के बिना संगीत कैसे अभिव्यक्त हो सकता है? वृक्ष से शरीर को जीवन दायिनी आक्सीजन मिलती है। बीज से ही वृक्ष का जन्म होता है। बीज न हो तो वृक्ष का प्रस्फुटन क्या सम्भव हो सकता है?
(3) आत्मा का कनेक्शन परमात्मा से जुड़ा है:-
जब तक परम प्रभु मनुष्य के हृदय में रहता है केवल तब तक ही उसकी आत्मा सुरक्षित है। जैसे ही मनुष्य अपने हृदय से परमात्मा के प्रेम को निकाल देता है और केवल भौतिक संसार से प्रेम करने लगता है वैसे ही उसकी आत्मा में धीरे-धीरे मैल जमनी शुरू हो जाती है। शरीर से सतत् कार्य-कलाप होते हैं और आत्मा नित्य अक्रिया में रहती है। जैसे विद्युत् निष्क्रियता में है और यन्त्र क्रियाशीलता में है। आत्मा का कनेक्शन परमात्मा से जुड़ा है और शरीर का बाहरी कनेक्शन भौतिक संसार से जुड़ा है। शरीर का अन्तः कनेक्शन आत्मा से जुड़ा है शरीर के बाहरी कनेक्शन प्रकृति से जुड़े हुए हैं। शरीर को जीवनीय शक्ति आत्मा से मिलती है और पोषण प्रकृति से उपलब्ध होता है। मृत्यु की घटना के समय शरीर का अन्तः कनेक्शन आत्मा से टूट जाने के कारण जीवनीय शक्ति के शरीर में प्रवेश करने का द्वार बन्द हो जाता है, फिर शरीर प्रकृति से किसी भी प्रकार का पोषण लेने में असमर्थ हो जाता है। इस कारण से देह का अन्त हो जाता है तथा विकसित आत्मा इस मृत शरीर से निकलकर दिव्य लोक में विलीन हो जाती है।
(4) परमात्मा से आत्मा कभी अलग नहीं हो सकती:-
जीवन में आत्मा और शरीर दोनों का महत्व तथा उपयोगिता है। आत्मा तना तथा शरीर फूल है। यह प्रकृति भी परमात्मा का एक विराट यन्त्र है। जैसे हमारा परमात्मा अपरिवर्तनीय है, वैसे ही हमारी आत्मा भी अपरिवर्तनीय है। सारी मानव जाति का परमात्मा आत्म-तत्व है, इसलिये हमारी आत्मा भी आत्म-तत्व है। आत्म-तत्व परमात्मा और आत्म-तत्व आत्मा का नित्य
सम्बन्ध तथा योग है। हमारे परमात्मा से हमारी आत्मा कभी अलग नहीं हो सकती, वास्तविकता तो यह है कि यह शरीर जिस परमात्मा की रचना है, उस परमात्मा ने ऐसी समुचित व्यवस्था की हुई है कि इस मानव शरीर की सर्वोच्च मूल आवश्यकताएँ प्रकृति के द्वारा पूरी होती रहें। प्रकृति ईश्वर की विराट रचना है, इसलिए हमें प्रकृति के संपर्क में रहना होगा तथा उसकी रक्षा करनी होगी।
(5) आत्म ऊर्जा का विशेष महत्व है:-
शरीर कर्म का प्रतीक है। यह शरीर रूपी यन्त्र केवल क्रिया ही कर सकता है। जीवन में कर्म का महत्व तो है ही, लेकिन विशेष महत्व तो उस आत्म-ऊर्जा (आत्मा) का है जिसके माध्यम से शरीर द्वारा कर्म सम्पादित होते हैं। हम से भूल या असावधानी यह होती है कि हम सब शरीर के कार्यों को इतना महत्व दे देते हैं कि जिस आत्म-ऊर्जा (आत्मा) के द्वारा शरीर से कार्य हो रहे हैं, हम उसी को भूल जाते हंै। जीवन में यन्त्रों से हमारा लगाव हो जाता है। यन्त्रों से आसक्ति हो जाने के कारण जब वह टूटते और छूटते हैं तो बहुत पीड़ा होती है। हम यह भूल ही जाते हैं कि यन्त्र तो प्राकृतिक पदार्थ हैं। यंत्र का स्वभाव टूटना और छूटना ही है। शरीर का जीवन क्षणिक जबकि आत्मा का जीवन अनन्त काल का है! ईश्वर आत्म तत्व है वह इन भौतिक आंखों से कभी दिखाई नहीं देता परन्तु लोक कल्याण की भावना से किये जाने वाले कार्यों में आध्यात्मिक संतुष्टि के रूप में उसे पाया जा सकता है।
(6) हमारा शरीर विनाशी तथा हमारी आत्मा अविनाशी है:-
यह शरीर भी तो संसार तथा प्रकृति से बना एक यन्त्र है। शरीर से भी जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त परिवर्तन का प्रवाह चलता ही रहता है। इस प्रवाह में शरीर यंत्र का बहुत कुछ टूटता और छूटता ही रहता है। बचपन-यौवन सभी अवस्थायें आती हैं तथा छूटती चली जाती हैं और अन्त में शरीर की वृद्धावस्था आ जाती है और एक दिन यह शरीर यन्त्र सदैव के लिये छूट जाता है। इसी को शरीर की मृत्यु कहते हैं। यन्त्र के टूट जाने तथा छूट जाने पर विद्युत को कोई फर्क नहीं पड़ता। यन्त्र तो विनाशी तत्व है और विद्युत् है अविनाशी तत्व। शरीर विनाशी है और आत्मा अजर अमर व अविनाशी है। शरीर तथा आत्मा दोनों का अपनी-अपनी जगह महत्व तथा उपयोग है। जो व्यक्ति केवल शरीर के महत्व को ही जीवन में प्रधानता देता है, उसके जीवन में आत्मा का विस्मरण और आत्मा की उपेक्षा हो जाती है। मानव जीवन की इस सबसे बड़ी भूल के कारण जीवन हर पल अशान्ति और द्वन्द्व से घिरा रहता हैं। जीवन में शरीर-रूपी यन्त्र का सदुपयोग जरूर हो, लेकिन हमारा पूरा विश्वास तथा निष्ठा आत्मा में हो। केवल वही व्यक्ति इस संसार में महान है, जो इस संसार में प्रत्येक प्राणी को परम आत्मा का अंश मानकर लोक कल्याण में अपने प्रत्येक कार्य को अर्पित कर देता है। प्रत्येक मनुष्य में उसी एक परमात्मा की आत्मा प्रतिबिम्बित हो रही है।
(7) मनुष्य ने स्वार्थ से अपना जीवन पात्र भर रखा है:-
आज संचार माध्यमों, सूचना क्रान्ति तथा इनोवेशन के इस नये युग में आध्यात्मिक ज्ञान को सर्व सुलभ बना दिया है। इस सर्व सुलभ ज्ञान के होते हुए भी जो व्यक्ति टीले की तरह अन्दर से स्वार्थपूर्ण मान्यताओं और धारणाओं से भरे हुए हैं, उनके ऊपर अध्यात्म के बिन्दु ठहर नहीं पाते। जो व्यक्ति अन्दर से गड्ढे की तरह खाली हैं, उनके अन्दर आध्यात्मिक ज्ञान के बिन्दु ठहर जाते हैं। जिन व्यक्ति के जीवन पात्रों में नीचे छिद्र हैं, उनमें आध्यात्मिक ज्ञान भरता हुआ तो नजर आता है, लेकिन बाद में पता चलता है कि पात्र में भरा हुआ जल काफी टपक गया है। मनुष्य ने स्वार्थपूर्ण मान्यताओं तथा धारणाओं से अपना जीवन पात्र भर रखा है उसे खाली करना कठिन तो है लेकिन असंम्भव नहीं है। मनुष्य का यह स्वभाव विकसित हो गया है कि वह परिवार, स्कूल तथा समाज के वातावरण से मिली स्वार्थपूूर्ण मान्यताओं तथा धारणाओं से चारों ओर से घिरे रहने में सुख तथा सुरक्षा की अनुभूति करता है। यदि किसी मनुष्य में 1000 गुण हांे किन्तु एक स्वार्थ का अवगुण भी आ जाये तो उस व्यक्ति के सभी 1000 गुण समाप्त हो जायेंगे और केवल स्वार्थ का अवगुण ही रह जायेगा। परमात्मा की राह में चलने के लिए शुद्ध, दयालु तथा ईश्वरीय प्रकाश से प्रकाशित हृदय धारण करने की आवश्यकता होती है।
(8) आध्यात्मिक संतुष्टि का स्वाद स्थायी है:-
लोक कल्याण की भावना से अपनी नौकरी या व्यवसाय के द्वारा आत्मा का विकास किया जा सकता है। हमें अपने अन्दर गुणांे की सुगन्ध ही स्थायी आध्यात्मिक संतुष्टि प्रदान करती है। आध्यात्मिक संतुष्टि की स्वानुभूति (स्वयं की अनुभूति) का
स्वाद ही स्थायी होता है। अवतार राम, कृष्ण, महावीर, बुद्ध, ईसा, मोहम्मद, नानक, बहाउल्लाह तथा अनेक महापुरूष संसार के अज्ञान रूपी अन्धकार में जलते हुए दीपक की तरह हैं। जैसे अवतारों तथा महापुरूषांे के अन्दर का बीज वृक्ष बना, ऐसे ही हम भी अपने अन्दर के बीज को अंकुरित होने दंे वृक्ष बनने दें। एक झोली में फूल भरे हैं एक झोली में कांटें। कोई कारण होगा? इसका एक ही कारण है जो मनुष्य अपनी आत्मा के विकास के विचार के साथ प्रभु की शरण में जाता है उसकी झोली परमात्मा अपने गुणों रूपी फूलों से भर देता है। जो व्यक्ति अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए परमात्मा का विरोधी बनता है उसकी झोली अवगुण रूपी कांटों से भर जाती है।
(9) जो प्रभु का आज्ञापालक है तो वह प्रभु के प्रकाश को प्रतिबिम्बित करेगा:-
बहाई धर्म के संस्थापक बहाउल्लाह कहते है कि आत्मा की प्रकृति के सम्बन्ध में हमें यह जानना चाहिए कि यह ईश्वर का एक चिह्न है, यह वह दिव्य रत्न है जिसकी वास्तविकता को समझ पाने में ज्ञानीजन भी असमर्थ रहे हंै और जिसका रहस्य किसी भी मस्तिष्क की समझ से परे है, चाहे वह कितना भी तीक्ष्ण क्यों न हो। मनुष्य ही प्रभु की श्रेष्ठता की घोषणा करने में सभी सृजित वस्तुओं में प्रथम है, वह प्रभु की ज्योति को पहचानने में प्रथम है, वह प्रभु के सत्य को मानने में प्रथम है और वह प्रभु के समक्ष नतमस्तक होने में प्रथम है। मनुष्य यदि प्रभु का आज्ञापालक है तो वह प्रभु के प्रकाश को अपने कार्य-कलापों द्वारा प्रतिबिम्बित करेगा और मृत्यु के पश्चात् उसकी आत्मा उसी दिव्य प्रकाश में समाहित हो जायेगी। यदि कोई मनुष्य अपनी आत्मा का विकास न करके प्रभु से तादात्म्य स्थापित करने में असमर्थ रहता है तो यह स्वार्थ और वासना का शिकार बनेगा और अन्त में उन्हीं गहराईयों में डूब कर रह जायेगा।
(10) महान उद्देश्य के लिए शरीर, प्रकृति तथा आत्मा जैसे तीन अनमोल उपहार हमें मिले हैं:-
ये शक्तियाँ जिनसे कि दिव्य कृपा तथा दैविक विवेक के स्त्रोेत महाप्रभु ने मानव को अस्तित्व प्रदान किया है उसमें वैसे ही अन्र्तनिहित हैं जैसे मोमबत्ती के अन्दर उसकी लौ छिपी रहती है और दीप के अन्दर प्रकाश! सांसारिक इच्छाओं के कारण इन शक्तियों की चमक छिपी रह सकती है, जैसे आइने पर जमी धूल सूर्य के प्रकाश को प्रतिबिम्बित नहीं होने देती है। न तो मोमबत्ती और न ही दीप बिना बाहरी सहायता के स्वयं जल सकते हैं, न ही आइने के लिये यह सम्भव है कि वह स्वयं अपने ऊपर पड़ी धूल झाड़ ले। यह स्पष्ट और प्रमाणित है कि जब तक अग्नि प्रज्जवलित नहीं कि जाती तब तक दीप नहीं जल सकता और जब तक आइने के ऊपर से झाड़ पोंछ नहीं की जाती तब तक सूर्य न तो प्रतिबिम्बित हो सकता है और न ही इसकी रोशनी का प्रकाश चमक सकता है। प्रभु के अवतार कृष्ण, बुद्ध, ईसा, मोहम्मद, नानक, बहाउल्लाह एवं उनके द्वारा प्रगटित ग्रंथ गीता, त्रिपटक, बाईबिल, कुरान, गुरू ग्रन्थ साहिब, किताबे-अकदस ही हमारे सच्चे गुरू होते हैं, जो हमें ईश्वर का अर्थात ईश्वर की शिक्षाओं का ज्ञान कराते हैं और उन पर चलने के लिए प्रेरित करते हैं। परमात्मा की शिक्षाओं को इन पवित्र ग्रन्थों से जानना और उन शिक्षाओं पर दृढ़तापूर्वक चलना हमारे जीवन का महान उद्देश्य है।
– डा0 जगदीश गाँधी, शिक्षाविद् एवं संस्थापक-प्रबन्धक,
सिटी मोन्टेसरी स्कूल, लखनऊ