ललित गर्ग
आज धर्म एवं धर्मगुरु जिस तरह मर्यादाहीन होते जा रहे हैं, वह एक गंभीर स्थिति है। जबकि किसी भी धर्मगुरु, संगठन, संस्था या संघ की मजबूती का प्रमुख आधार है-मर्यादा। यह उसकी दीर्घजीविता एवं विश्वसनीयता का मूल रहस्य है। विश्व क्षितिज पर अनेक संघ, संप्रदाय, संस्थान उदय में आते हैं और काल की परतों तले दब जाते हैं। वही संगठन अपनी तेजस्विता निखार पाते हैं, जिनमें कुछ प्राणवत्ता हो, समाज के लिए कुछ कर पाने की क्षमता हो। बिना मर्यादा और अनुशासन के प्राणवत्ता टिक नहीं पाती, क्षमताएं चुक जाती हैं। मर्यादा धर्म संगठनों का त्राण है, प्राण है, जीवन रस है। अंधियारी निशा में उज्ज्वल दीपशिखा है। समंदर के अथाह प्रवाह में बहते जहाज के लिए रोशनी की मीनार है।
मैंने देखा है कि तेरापंथ धर्मसंघ एक प्राणवान संगठन है और उसमें मर्यादाओं का सर्वाधिक महत्व है। इसके आद्य प्रवर्तक आचार्य भिक्षु ने तत्कालीन समाज की दुर्दशा एवं अनुशासनहीनता को देखते हुए मर्यादाओं का निर्माण किया। न केवल साधुओं के लिये बल्कि श्रावकों-श्रद्धालुओं के लिये भी नियम बनायें। सम्यक् श्रद्धा और आचार शुद्धि को मद्देनजर रखते हुए उन्होंने मर्यादा की लक्ष्मण रेखा बनाई। आचारनिष्ठा, विचार शुद्धि, संगठन की सुघड़ता एवं सुव्यवस्था ही उनका प्रमुख ध्येय था। धर्म-संगठन की सुदृढ़ता व चिरजीविता का रहस्य है इसकी मर्यादाएं। मर्यादाओं की सुदृढ़ प्राचीर में संघ की इमारत अपनी सुरक्षा व खूबसूरती को कायम रखे हुए है।
इस धर्मसंघ की एकता, संगठन, अनुशासन और मर्यादा का प्रतीक है-मर्यादा महोत्सव। पर्वों, उत्सवों एवं त्यौहारों की दुनिया में यह एक निराला त्यौहार है। विश्व भर में अनेक उत्सव, पर्व या कार्यक्रम मनाए जाते हैं। जन्म दिवस और निर्वाण दिवस का आयोजन होता है। पर मर्यादा महोत्सव मनाने की परंपरा तेरापंथ की अपनी मौलिकता है, विशेषता है। संघ की वैधानिक, संगठनात्मक और सांस्कृतिक प्रवृत्तियों का केंद्र है-मर्यादा महोत्सव। साधु-साध्वियों एवं समण-समणियों की सारणा-वारणा, सार-संभाल का समय है-यह महोत्सव। चातुर्मास की नियुक्ति व पूर्व वर्ष के सिंहावलोकन का काल है-इस उत्सव का समय। मर्यादा की धाराओं की पुर्नउच्चारण व पुनर्भिव्यक्ति का माध्यम है-मर्यादा महोत्सव।
मर्यादा-महोत्सव दुनिया का अनूठा उत्सव है। तेरापंथ की गतिविधियों का नाभि केंद्र है। मर्यादा महोत्सव का केन्द्रीय विराट आयोजन संघ के अधिशास्ता की पावन सन्निधि में समायोजित होता है। इस वर्ष आचार्य श्री महाश्रमण के सान्निध्य में यह महोत्सव कटक (उडिसा) में 22,23 एवं 24 जनवरी, 2018 आयोजित हो रहा है, इसकी पृष्ठभूमि चातुर्मास की समाप्ति के साथ ही शुरू हो जाती है। प्रस्तुत वर्ष का मर्यादा महोत्सव कहां मनाना है यह घोषणा आचार्य प्रवर द्वारा काफी समय पहले ही हो जाती है। देश-विदेश में विहार और धर्म प्रचार करने वाले सैंकड़ों साधु-साध्वियां और समण-समणियां महोत्सव स्थल पर गुरु सन्निधि में पहुंच जाते हैं। गुरु दर्शन करते ही अग्रगण्य साधु-साध्वियां स्वयं के पद को और स्वयं को विलीन कर विराटता का अनुभव करते हैं।
मर्यादा महोत्सव तेरापंथ का महाकुंभ मेला है। इसका आयोजन तीन दिवसीय होता है और इस अवधि में शिक्षण-प्रशिक्षण, प्रेरणा-प्रोत्साहन, अतीत की उपलब्धियों का विहंगावलोकन, भावी कार्यक्रमों का निर्धारण आदि अनेक रचनात्मक प्रवृत्तियां चलती हैं। सब साधु-साध्वियां अपने वार्षिक कार्यक्रमों और उपलब्धियों का लिखित और मौखिक विवरण प्रतिवेदित करते हैं। श्रेष्ठ कार्यों के लिए गुरु द्वारा विशेष प्रोत्साहन मिलता है। कहीं किसी का प्रमाद, मर्यादा के अतिक्रमण का प्रसंग उपस्थित होता है तो उसका उचित प्रतिकार होता है। संघ की यह स्पष्ट नीति है कि किसी की कोई गलती हो जाए तो उसको न छुपाओ, न फैलाओ, किन्तु उसका सम्यक् परिमार्जन करो, प्रतिकार करो।
मर्यादा महोत्सव का एक अतिभव्य, नयनाभिराम या रोमांचक दृश्य होता है-बड़ी हाजरी का। उसमें सब साधु-साध्वियां दीक्षा क्रम से पंक्तिबद्ध खड़े होते हैं और संविधान पत्र का समवेत स्वर में उच्चारण करते हैं। इस हाजरी में आचार्य केन्द्र में रहते हैं। उनको तथा विराट धर्म परिषद को घेर कर धवलिमा बिखेरती वृत्ताकार वह कतार ऐसी लगती है मानो धर्म और अध्यात्म के सुरक्षा प्रहरी श्वेत सैनिकों ने सम्पूर्ण आत्म विश्वास के साथ अपना मोर्चा संभाल लिया है। अध्यात्म चेतना या मानवता की सुरक्षा का मजबूत परकोटा बन गया है, ऐसा प्रतीत होता है। इसके पश्चात आचार्यश्री के निर्देशानुसार समस्त साधु-साध्वियां आचार, मर्यादा, अनुशासन, संघ व संघपति के प्रति अपनी अगाध आस्था अभिव्यक्त करते हैं।
प्रकृति का कण-कण हमें मर्यादा की बात सिखा रहा है। अपेक्षा है, मानव अनुशासन और मर्यादा को अपनाकर जीवन को संवारे। मर्यादा-महोत्सव का यह पावन अवसर सबको यही संदेश देता है कि मर्यादा से ही समस्याओं का निपटारा संभव है। पथभ्रान्त पथिक को मर्यादा ही सच्चा पथदर्शन बनेगी। युग की उफनती समस्याओं की नदी मर्यादा की मजबूत नाव से ही पार की जा सकेगी। मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम की इस भूमि पर मर्यादा को स्थापित करने और उसे गौरवान्वित करने की इस विलक्षण एवं अनूठी घटना से हम सभी प्रेरित हो, विनाश का ग्रास बनती इस ऊर्वरा भारत-भू को विकास के शिखर पर चढ़ाएं।
आचार्य श्री तुलसी एवं आचार्य श्री महाप्रज्ञ ने अपनी प्रखर आध्यात्मिक प्रतिभा से समूचे राष्ट्र को प्रेरित किया है और उन्हीं की ऊर्जा से तेरापंथ धर्मसंघ का मर्यादा महोत्सव जन-जन की आस्था का केन्द्र भी बना है, एक प्रेरणा बना है। यह महोत्सव मात्र मेला ही नहीं है, सैकड़ों प्रबुद्ध साधु-साध्वियों का मिलन संघीय इतिहास में श्री स्वस्ति का उद्घोषक बनता है। वह मात्र आयोजनात्मक ही नहीं, वह संघ के फलक पर सृजनशीलता के नये अभिलेख अंकित करता है। महोत्सव के समय ऐसा लगता है मानो नव निर्माण के कलश छलक रहे हैं, उद्यम के असंख्य दीप एक साथ प्रज्वलित हो रहे हैं। हर मन उत्साह से भरा हुआ, हर आंख अग्रिम वर्ष की कल्पनाशीलता पर टिकी हुई और हर चरण स्फूर्ति से भरा हुआ प्रतीत होता है। यह महापर्व पारस्परिक संबंधों को प्रगाढ़ता प्रदान करता है। उनमें अंतरंगता लाता है। अनेकता में एकता का बोध कराता है। मर्यादा महोत्सव संघीय चेतना का अदृश्य वाहक है। इसमें वैयक्तिक और संघीय गति, प्रगति एवं शक्ति निहित है। स्वयं को समग्र के प्रति समर्पित करने का अनूठा महोत्सव है यह। इसका संदेश है स्वयं को अनुशासित करो, प्रकाशित करो और दूसरों को प्रेरणा दो। अपेक्षा है एक धर्मसंघ में मनाया जाने वाला यह अनूठा पर्व, समग्र मानवता का उत्सव बने।
मर्यादा महोत्सव इस सोच और संकल्प के साथ आयोजित होता है कि हमें कुछ नया करना है, नया बनना है, नये पदचिह्न स्थापित करने हैं। बीते वर्ष की कमियों पर नजर रखते हुए उन्हें दोहराने की भूल न करने का संकल्प लेना है। हमें यह संकल्प करना और शपथ लेनी है कि आने वाले वर्ष में हम ऐसा कुछ नहीं करेंगे जो हमारे उद्देश्यों, उम्मीदों, उमंगों और आदर्शों पर प्रश्नचिह्न टांग दे। अपनी उपलब्धियों का अंकन एवं कमियों की समीक्षा कर इस अवसर पर हर व्यक्ति अपनी विवेक चेतना को जगाता है और अपने भाग्य की रेखाओं में संयम और मर्यादा के रंग भरता है, सामंजस्य एवं सहिष्णुता को जीवन के व्यवहार में उतारने का अभ्यास करता है। केवल अपनी भावनाओं को ऊंचा स्थान दे, वह स्वार्थी होता है। स्वार्थी होने की कीमत चुकानी ही पड़ती है। दूसरों की भावना के प्रति उदार बनें। उदार होने का मतलब है आप किसी के कहे बिना भी उनकी भावनाओं को समझें। उसके बारे में सोचें, विचारें। इससे आपके जीने का अंदाज बदल जायेगा। यही जीने की आदर्श शैली का प्रशिक्षण मर्यादा महोत्सव का हार्द है।
सहिष्णुता यानि सहनशीलता। दूसरे के अस्तित्त्व को स्वीकारना, सबके साथ रहने की योग्यता एवं दूसरे के विचार सुनना- यही शांतिप्रिय एवं सभ्य समाज रचना का आधारसूत्र है और यही आधारसूत्र को मर्यादा महोत्सव का संकल्पसूत्र है।
परिवार, गांव, समाज जैसी संस्थाएं टूट रही हैं। रिश्ते समाप्त हो रहे हैं। आत्मीयता समाप्त हो रही है। तथाकथित विकास के रास्ते पर जो हम चल रहे हैं वह केवल बाहरी/भौतिक है, जो सहिष्णुता के आसपास पनपने वाले सभी गुणों से हमें बहुत दूर ले जा रहा है। आधुनिक संचार माध्यमों के कारण जहां दुनिया छोटी होती जा रही है, वहीं मनुष्य ने अपने चारों तरफ अहम् की दीवारें बना ली हैं, जिसमें सहिष्णुता के लिए कोई गुंजाइश नहीं है।
मर्यादा महोत्सव नया संदेश, नया संबोध, नया सवाल, नया लक्ष्य लेकर उपस्थित होता है, इस दिन हम स्वयं को स्वयं के द्वारा जानने की कोशिश इस संकल्प के साथ करते हैं कि ऐसा हम तीन सौ पैंसठ दिन करेंगे, यूं तो हमारे धर्म-ग्रंथ जीवन-मंत्रों से भरे पड़े हैं। प्रत्येक मंत्र दिशा-दर्शक है। उसे पढ़कर ऐसा अनुभव होता है, मानो जीवन का राज-मार्ग प्रशस्त हो गया। उस मार्ग पर चलना कठिन होता है, पर जो चलते हैं वे बड़े मधुर फल पाते हैं। कठोपनिषद् का एक मंत्र है-‘उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत।’ इसका अर्थ किया गया है-उठो, जागो और ऐसे श्रेष्ठजनों के पास जाओ, जो तुम्हारा परिचय परब्रह्म परमात्मा से करा सकें। इस अर्थ में तीन बातें निहित हैं। पहली, तुम जो निद्रा में बेसुध पड़े हो, उसका त्याग करो और उठकर बैठ जाओ। दूसरी, आंखें खोल दो अर्थात अपने विवेक को जागृत करो। तीसरी, चलो और उन उत्तम कोटि के पुरुषों के पास जाओ, जो जीवन के चरम लक्ष्य का बोध करा सकें।
‘मर्यादा महोत्सव का मंत्र यानी हमारा संकल्प’ हमारा ध्यान अच्छाइयों की ओर आकृष्ट करता है और उन्हें प्राप्त करने के लिए उद्योग करने को प्रोत्साहित करता है। इसे जीवन की किसी भी दिशा में प्रयुक्त किया जा सकता है।
मर्यादा महोत्सव धर्म का एक आदर्श स्वरूप है जो अच्छाइयों के प्रति आस्था और बुराइयों के प्रति संघर्ष करने का साहस देता है। इस महोत्सव का निहितार्थ है कि मर्यादाओं को जीवन से अलग नहीं किया जा सकता। मर्यादाएं तो सांस की भांति जीवन के साथ-साथ चलती हैं। मर्यादा का मतलब वह आस्था है जो जीवन के ऊंचे आदर्श, शुद्ध नीतियों और किये गये वायदों के प्रति जागरूक रखती है। इन्हीं मर्यादाओं को मर्यादा महोत्सव का उपहार मानंे और उसे अपने जीवन के साथ जोड़ लें। यह धर्म भी सफलता का एक मंत्र है।
महावीर की वाणी है-‘उट्ठिये णो पमायए’ यानी क्षण भर भी प्रमाद न हो। प्रमाद का अर्थ है-नैतिक मूल्यों को नकार देना, अपनांे से पराए हो जाना, सही-गलत को समझने का विवेक न होना। ‘मैं’ का संवेदन भी प्रमाद है जो दुख का कारण बनता है। प्रमाद में हम अपने आप की पहचान औरों के नजरिये से, मान्यता से, पसंद से, स्वीकृति से करते हैं जबकि स्वयं द्वारा स्वयं को देखने का क्षण ही चरित्र की सही पहचान बनता है। मगर प्रमाद में बुद्धि जागती है प्रज्ञा सोती है। इसलिए व्यक्ति बाहर जीता है भीतर से अनजाना होकर और इसलिए सत्य को भी उपलब्ध नहीं कर सकता। मर्यादा महोत्सव प्रमाद के इन शिकंजों से बाहर आने का एक उपक्रम है। क्योंकि चरित्र का सुरक्षा कवच अप्रमाद है, जहां जागती आंखों की पहरेदारी में बुराइयांे की घुसपैठ संभव ही नहीं। इसलिए मनुष्य की परिस्थितियां बदलें, उससे पहले उसकी प्रकृति बदलनी जरूरी है। बिना आदतन संस्कारों के बदले न सुख संभव है, न साधना और न साध्य।