अंततः अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप ने स्वीकार कर ही लिया कि कोरोना महामारी नहीं वरन उनके देश पर चीन का आक्रमण है। उनके देश पर ही नहीं वरन पूरी दुनिया पर। बिना हथियार चलाए चीन ने एक वायरस के माध्यम से पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था की कमर तोड़ दी है और पूरी दुनिया मौत के साए में नपुंसक सी अपनी बर्बादी का यह ख़ौफ़नाक दृश्य 24 घंटे देख रही है। मजेदार बात यह कि जिस लेब में यह वायरस पैदा किया गया उसकी फंडिंग अमेरिका से हो रही थी। शांति पूर्ण ढंग से वायरोलॉजी के उपयोग के लिए संयुक्त प्रयासों से चल रही इस लेब का इतना खतरनाक उपयोग कोई शायद ही सोच पाया हो। क्या विडंबना है कि जिस विश्व स्वास्थ्य संगठन को दुनिया के बड़े देश चीन की कठपुतली मां चुके हैं उसी के निर्देशों पर ही दुनिया के देश कोरोना वायरस के खिलाफ लड़ाई लड़ रहे हैं। क्या इस संस्था के माध्यम से चीन दुनिया को अपने इशारों पर चला रहा है और बर्बादी के कगार पर ले जा रहा है?
इसी खतरनाक खेल के बीच भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा कि अब भारत को हर हालत में पूर्ण रूप से आत्मनिर्भर होना ही होगा। ऐसी आत्मनिर्भरता जिसमें हर गांव, जिला, प्रदेश व सम्पूर्ण देश आंतरिक स्रोतों पर ही निर्भर हो व पूर्णरूपेण आत्मनिर्भर हो। यह मोदी जी को आज क्यों याद आया, काश छः बर्ष पहले से ही इस राह चलते तो आज यह नोबत ही न आती। अब तक भारत ख़ासा आत्मनिर्भर हो चुका होता। मौलिक भारत ने यह वेकल्पिक कार्य योजना मोदी जी को उस समय भेजी भी थी।किंतु इस एजेंडे पर काम शुरू करने से पहले अब देश व दुनिया को दुर्दिन देखने ही होंगे। वर्तमान परिस्थितियों में हम चाह कर भी अपनी सीमाएं सील नहीं कर सकते और दुनिया के अन्य देशों से व्यापार भी।
अमेरिका द्वारा देर से ही सही अंततः चीनी आक्रमण की स्वीकारोक्ति यह बताती है कि अब उस आक्रमण का उत्तर देने की वह तैयारी कर रहा है। जैविक महामारी से तबाह अमेरिका व उसके पिछलग्गू नाटो देशों ने शताब्दियों में भी ऐसे अभूतपूर्व संकट व बिना युद्ध के ही बर्बादी व तबाही का मंजर नहीं देखा है। दूसरे विश्व युद्ध के बाद से पिछले 60 – 70 बर्षो बड़ी चतुराई से अमेरिका ने एशिया को ही युद्ध का मैदान बना रखा था। अपने ही घरों में ऐसी भीषण तबाही की वे कल्पना भी नहीं कर पाए थे। ऐसे में जबकि चीन व उसके गुट के देश रूस, उत्तरी कोरिया व ईरान ने युद्ध की तैयारियों में रात दिन एक कर रखे हैं वहीं अब अमेरिका व यूरोप की सेनाएं भी सक्रिय हो चुकी हैं। चीन से बड़े व्यापारिक रिश्तों व दोस्ती के बाद भी ट्रंप चीन या उसके पिट्ठू देशों पर बड़े हमले कर सकते, इतने बड़े कि जिससे अमेरिकी चुनावों से पूर्व उनकी धूमिल हुई छवि अमेरिकियों के सामने फिर से चमक जाए चीन का बहुत ज़्यादा नुक़सान हो और वे पुनः चुनाव जीत पाएं। दुनिया के लिए अगले 7 से 8 महीने बहुत मुश्किल हो सकते हैं। युद्ध की विभीषिका क्या रूप ले ले कोई कुछ नहीं कह सकता। दुनिया के अधिकांश तटस्थ राष्ट्र घबराए हुए हैं। वे पहले से ही अमेरिका के दबाब में हैं और अब चीन ने उन्हें बुरी तरह डरा दिया है। वे किसके पाले में जाएं यह निर्णय करना उनके लिए बहुत कठिन है। अपने अपने पाले में करने के लिए चीन व अमेरिका दोंनो ही उनको डराएंगे, धमकाएँगे, आंतरिक गृहयुद्ध, तख्ता पलट करवाएंगे, व्यापार कम व ज्यादा करने की धमकियां देंगे तो प्रतिबंधों का सहारा भी लेंगे। जैविक युद्ध का अगला चरण भी सामने आ सकता है तो जल स्रोतों को नष्ट करने से लेकर जहरीला करना, अन्य महामारियां फैलाना, आईटी नेटवर्क को वायरस द्वारा नष्ट करवाना, सेटेलाइट को नष्ट करने (स्टारवार) से लेकर परमाणु युद्ध तक कोई भी विकल्प बड़े या सीमित रूप में अपनाए जा सकते हैं। अगले कुछ महीनों में दुनिया स्पष्ट रूप से दो धड़ों में बंटी होगी और तटस्थ रहना किसी भी देश के लिए मुश्किल होता जाएगा।
महाविपत्ति के इस समय मे बड़ी जन धन की हानि से कोई भी इंकार नहीं कर सकता। आंशिक व बड़े रूप से जब अर्थव्यवस्थाएं नष्ट होंगी तो अराजकता, लूट व बेरोजगारी और तेजी से फैल जाएगी। आधुनिक उद्योग व धंधे मुश्किल में आते जाएँगे व पुरातन धंधो पर निर्भरता बढ़ती जाएगी । तेल की माँग आपूर्ति बिगड़ने से अरब देशों सहित अनेक सभ्यताओं के सिमटने का समय करीब है और वे अपने बचाब में कोई कसर नहीं छोड़ेंगी जो इस महायुद्ध को और भीषण बना सकता है। कोरोना महामारी निबटते निबटते दुनिया मे भीषण आर्थिक संकट फैल जाएंगे जिनका सामना करना अत्यंत दूभर होगा। दुनिया मे जो करोड़ों लोगों के रोजगार छिन जाएंगे वे कहां जाएंगे व कैसे जीवन यापन करेंगे ?
दुनिया का बैंकिंग सिस्टम आज भी चंद अमेरिकियों के हाथों में है और या कहा जा रहा है कि वे चाहते हैं कि दुनिया की आबादी सौ साल या उससे पूर्व के स्तर पर पहुंच जाए। यह एक खतरनाक परिकल्पना है और अगर चीन व अमेरिका मिलकर यह खेल खेल रहे हैं तो यह अब तक का सबसे शातिर खेल है। इसका तोड़ शायद ही दुनिया के किसी देश के पास हो। ऐसे में भारत को लंबे समय तक तमाशा देखते रहना होगा मूकदर्शक बनकर क्योंकि इसी बीच करोड़ो देश के अंदर पैदा हुए बेरोजगार व करोड़ों बेरोजगार अप्रवासी भारतीयों की फ़ौज से भी जूझना होगा। यह लोग एक बड़ी चुनोती की तरह होंगे जो विकराल आंतरिक असंतोष व राजनेतिक अस्थिरता पैदा कर सकते हैं।
अपेक्षा है कि ऐसे में आत्मनिर्भर राष्ट्र बनाने से पहले मोदी जी व अन्य तटस्थ राष्ट्रों को एक बड़ी कोशिश करनी चाहिए चीन व अमेरिका को मनाने की व समझाने की। मगर क्या यह संभव है? क्या समय व नियति पुनर्निर्माण से पूर्व एक बड़े विध्वंश की ओर इशारा कर रही है?
अनुज अग्रवाल
संपादक, डायलॉग इंडिया
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