Shadow

मोदी का विकसित भारत कल्पना या यथार्थ

 

नरेंद्र मोदी अब एक नये भारत की रूपरेखा प्रस्तुत कर रहे हैं। इसमें अगले पांच साल में भारत की अर्थव्यवस्था को दुगुना करने का प्रस्ताव है। यह विचार जितना लोकलुभावन है उतना ही अन्तराष्ट्रीय परिदृश्य में भारत की वैश्विक आर्थिक नीति का परिचायक भी। भारत अगर इस असंभव दिखते लक्ष्य के आस पास भी पहुंच जाता है तो यह भारत की बड़ी जीत होगी। किन्तु बिना रोजगारपरक शिक्षा नीति, ग्रामीण विकास आधारित आर्थिक नीति एवं मुनाफे वाली कृषि नीति के यह संभव नहीं है। अपने पहले कार्यकाल में मोदी न तो नयी शिक्षा नीति ला पाये न ही अपेक्षानुरूप रोजगार सृजन कर पाये। अब मोदी की इस नयी घोषणा के साथ युवाशक्ति उनकी ओर आशावादी निगाहों से देख रही है। आर्थिक रूप से सक्षम भारत में रोजगार और विकास के कार्य भी शायद तेज़ी के साथ होंगे। किन्तु तस्वीर का एक स्याह पक्ष भी है। ऐसे कई छिद्र मौजूद हैं जहां से विकास रिस जाता है। भ्रष्ट नौकरशाही एवं प्रक्रियाओं को लटकाने वाली व्यवस्था  में सुधार अपेक्षित है। इसके लिए भ्रष्ट नौकरशाही में छटनी की शुरुआत की जा चुकी है। अभी कई बड़े नामों पर गाज़ गिरने की तैयारी चल रही है। इसके साथ ही कस्तूरीरंगन समिति के द्वारा नयी शिक्षा नीति का मसौदा रखा जा चुका है जिसमें हिन्दी के प्रयोग पर विपक्षी खेमा नया बवाल पैदा कर रहा है। एक तरफ नासा के वैज्ञानिक भारत की संस्कृत भाषा को वैज्ञानिक भाषा मानकर एवं भारतीय पौराणिक ग्रन्थों का अध्ययन करके नयी वैज्ञानिक संकल्पनाएं प्रस्तुत कर रहे हैं वहीं भारत में संस्कृत को अब तक पिछड़ेपन का प्रतीक बना दिया गया था। अंग्रेजी को सफलता का मापदंड मानने वाला एक खास वर्ग हिंदीभाषी लोगों से कभी भी घुलमिल नहीं पाया। इसके साथ ही क्षेत्रीय भाषाओं का राजनीतिक इस्तेमाल तो भरपूर किया गया किन्तु क्षेत्र के विकास का माध्यम अब तक अंग्रेज़ी ही रहा है। इन छिद्रों के कारण भारत में जो असंतोष फैला उसे भारत के आंतरिक जयचंदों ने खूब भुनाया। चीन और अमेरिका के सहयोग से चलने वाले नक्सलवादियों के एजेंडों में अन्तराष्ट्रीय साजिश की बू अब जनता को समझ आने लगी है। प्राकृतिक संसाधनों की लूट को मिलने वाला सरकारी संरक्षण व्यवस्था का सबसे बड़ा छिद्र है जहां से विकास ऐसा रिसता है कि गरीबों का अधिकार सिर्फ कागजों में सिमट कर रह जाता है। इसके साथ साथ देश में प्रत्येक वर्ष होने वाली चुनावी प्रक्रिया के कारण धन एवं संसाधनों का व्यय रोकने के लिए एक साथ चुनाव पर मोदी सरकार गंभीर दिखाई दे रही है। सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास के नारे के साथ मुस्लिम तुष्टीकरण की राजनीति पर मोदी ने शायद निर्णायक प्रहार कर दिया है। मुंह की खाने के बाद लोकसभा चुनाव में मोदी को हराने के लिए जुटे विपक्षी दल अब आपस में लडऩा शुरू कर चुके हैं। उत्तर प्रदेश में माया-अखिलेश अलग हो चुके हैं तो बंगाल में ममता बौखलाई हैं। अब समय मोदी के डिलीवरकरने का है। भारत पर विदेशी ताकतों द्वारा किया जा रहा अदृश्य सांस्कृतिक हमला, नक्सलवादियों को शह, हिन्दी भाषा का विरोध, संस्कृत की अस्वीकार्यता एवं बढ़ती बेरोजगारी पर अगर मोदी अपने दूसरे कार्यकाल में नियंत्रण कर पाये तो अर्थव्यवस्था को दुगुना करने की उनकी परिकल्पना यथार्थ रूप ले लेगी। मोदी के तेवर एवं जिजीविषा को देखने के बाद यह संभव दिख रहा है। 

 अमित त्यागी

 

जब 2014 में मोदी की सरकार बनी थी तब उन्होंने कहा था कि चार साल राष्ट्रनीति और एक साल राजनीति। ऐसा उन्होंने किया भी। पहले चार साल काम किए और अंतिम वर्ष जम कर राजनीति की। देश के राष्ट्रीय विमर्श को लगातार अपने हिसाब से सेट किया। तीन तलाक, एससीएसटी कानून, आर्थिक आधार पर आरक्षण, राष्ट्रवाद जैसे विषयों पर मोदी ने अंतिम वर्ष जम कर राजनीति की। साम, दाम, दंड, भेद की तजऱ् पर विपक्ष को नेस्तनाबूद करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। यहां तक कि गठबंधन करके एकजुट विपक्ष की भी अपनी राजनीति से हवा निकाल दी। अब चुनाव हो चुके हैं। मोदी अपने दूसरे कार्यकाल की शपथ ले चुके हैं। अब देश में राजनीतिक पैंतरेबाजी शांत है। मोदी फिर से एक बार चार साल राष्ट्रनीति की तजऱ् पर काम करते दिख रहे हैं।  बेरोजगारी, शिक्षा एवं गरीबी उन्मूलन पर अपने पहले कार्यकाल में मोदी कुछ खास नहीं कर पाये थे। अब उन्होंने नए भारत की रूपरेखा प्रस्तुत की है। इसमें वह अगले पांच सालों में भारत की अर्थव्यवस्था को दुगुना करने की कल्पना कर रहे हैं। अगर ऐसा होता है तो यह भारत के लिए एक बड़ी उपलब्धि होगी। प्रधानमंत्री ने यह बयान नीति आयोग के संचालक मण्डल की बैठक में दिया है इसलिए उनकी गंभीरता पर भी कोई शक नहीं किया जा सकता है। अब भारत की अर्थव्यवस्था अगले पांच साल में किस तरह दुगुनी होगी इसका कोई रोड मैप तो मोदी ने अभी नहीं दिया है किन्तु यह भी एक तथ्य है कि इतनी तेज़ी से कोई भी अर्थव्यवस्था आगे नहीं बढ़ी है। जीडीपी में लगभग दुगुनी तेज़ी कैसे आएगी इस पर भी अभी प्रधानमंत्री मौन दिखते हैं। हालांकि, भारत एक बड़ा बाज़ार है। भारत की जनसंख्या इसमें और बड़े बाज़ार की संभावनाएं पैदा करती है। इसलिए यह लक्ष्य असंभव है यह भी नहीं कहा जा सकता है। भारत अब एक नये अश्वमेघ यज्ञ की तरफ बढ़ गया दिखता है फिर भी अर्थव्यवस्था को दुगुनी करने के क्रम में बहुत से तथ्य हैं जो महत्वपूर्ण बन जाते हैं।

भारत की अर्थव्यवस्था में अभी रोजगार उस मात्रा में पैदा नहीं हो रहे हैं जितने कि होने चाहिए। बेरोजगारों की बढ़ती फौज देश के लिए चिंता की बात है। अमेरिका और चीन के बीच चल रहे व्यापारिक युद्ध से वैश्विक अनिश्चितता का माहौल बन रहा है। इसके बीच में भारत की अर्थव्यवस्था एक अच्छा वैकल्पिक माध्यम बनती भी दिख रही है। मंदी और मुश्किल हालातों के बीच मोदी सरकार के पहले कार्यकाल में बहुत से काम नहीं हो पाये। अब दूसरे कार्यकाल में मोदी को श्रम सुधार, भूमि सुधार और उत्पादकता में वृद्धि के क्षेत्र में क्रांतिकारी कार्य करने होंगे। अर्थव्यवस्था दुगुनी करने के क्रम में पहले जीडीपी को दहाई के अंकों तक ले जाना होगा।  शुरुआत के सौ दिन मोदी सरकार को इस विषय पर ही काम करना होगा। इसके बाद अर्थव्यवस्था के तीनों भागों पर काम बढ़ाना होगा। मूलत:  किसी भी अर्थव्यवस्था के तीन भाग होते हैं। पहला कृषि, दूसरा विनिर्माण एवं तीसरा सेवा क्षेत्र। भारत में विनिर्माण एवं सेवा क्षेत्र अर्थव्यवस्था का सबसे महत्वपूर्ण भाग माने जाते हैं। बैंकिंग, बीमा, वाणिज्य, उद्योग, परिवहन, रेल जैसे बड़े क्षेत्र इसी के अंतर्गत आते हैं। यह अर्थव्यवस्था का बड़ा आधार तो हैं किन्तु अपेक्षाकृत कम रोजगार प्रदान करने वाले हैं। इसके विपरीत कृषि क्षेत्र का जीडीपी में योगदान सिर्फ 15.7 प्रतिशत है। देखने में यह कम लगता है किन्तु देश में 60 प्रतिशत साधन एवं 70 प्रतिशत लोग इस पर ही निर्भर हैं। वर्तमान आर्थिक व्यवस्था के परिदृश्य में अब अगर अर्थव्यवस्था को दुगुना करना है तो विनिर्माण और सेवा क्षेत्र में तेज़ी लानी होगी। यदि नागरिकों को रोजगार उपलब्ध कराना है तो कृषि क्षेत्र को बढ़ाना होगा।

अपने पहले कार्यकाल में प्रधानमंत्री मोदी द्वारा 2022 तक किसानों की आय दुगुनी करने का लक्ष्य निर्धारित किया गया था। इस पर काफी काम आगे भी बढ़ गया था। कृषि की रीढ़ पशुपालन पर भी सरकार गंभीर दिखी थी। पर देश में आज भी कृषि मंत्रालय को आर्थिक मंत्रालय का दर्जा प्राप्त न होना कुछ चौका देता है। अगर इसकी वजह पर गौर करें तो समझ आता है कि कृषि क्षेत्र जीडीपी के खेल में पिछड़ रहा है। हमारे जीडीपी के मानक ही कुछ ऐसे हैं जिसमें भारत को भारतीयता के आधार पर नहीं पश्चिम के मानकों के आधार पर परखा जाता है। सबसे पहले हमें अपने जीडीपी के मानक अपने आधार पर तैयार करने होंगे। नयी सरकार कृषि व्यवस्था को नजऱअंदाज़ करने का जोखिम नहीं ले सकती है। यदि उसने इस विषय की गंभीरता को नहीं समझा तो ग्रामीण बाज़ार के हालत और ज़्यादा खराब हो सकते हैं। यदि ग्रामीण क्षेत्र में क्रय शक्ति कम होती है तो यह अर्थव्यवस्था को दुगुनी करने की राह में सबसे बड़ा रोड़ा बन जाएगी। मोदी सरकार जितनी जल्दी कृषि मंत्रालय को वित्त मंत्रालय के समकक्ष दर्जा दे देगी उतना किसानों के लिए भी अच्छा होगा और अर्थव्यवस्था के लिए भी।

अब आते हैं सेवा एवं विनिर्माण के क्षेत्र पर। पिछले कुछ वर्षों से कन्स्ट्रक्शन का क्षेत्र ठहराव से गुजऱ रहा है। जीएसटी और रेरा के बाद इसमें कालेधन की आवक में कमी आई है। कीमतों में ठहराव आ गया है। अर्थव्यवस्था में सुधार के लिए इसमें तेज़ी लानी होगी। आवासीय कंपनियों के वित्तीय प्रवाह को और ज़्यादा आसान करना होगा। चूंकि यह क्षेत्र लगभग 150 अन्य क्षेत्रों को भी प्रभावित करता है इसलिए यदि इस क्षेत्र को कृषि क्षेत्र के साथ जोड़ दिया जाये तो यह ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार सृजन और विकास का पर्याय बन जाएगा। भारत के छोटे शहरों में इसके द्वारा सड़क, हवाई अड्डे एवं अस्पताल आदि के निर्माण के द्वारा ग्रामीण विकास एवं अर्थव्यवस्था में तेज़ी एक साथ संभव हो पाएगी। इसके लिए भारत को अगले पांच सालों में दस लाख करोड़ डॉलर से अधिक के निवेश की आवश्यकता होगी। यदि इस दौरान परियोजनाएं लंबित होती हैं तो यह अनुमानित खर्च और ज़्यादा बढ़ जाएगा। भारत के सरकारी तंत्र की स्थिति एवं कार्यशैली ऐसी बन चुकी है जिसमें परियोजनाओं का लंबित होना अब अपेक्षित तत्व बन गया है। इसके साथ ही कीमतें बढऩे लगती हैं और विकास की गति सीमित हो जाती है। अर्थव्यवस्था में दुगनी गति प्राप्त करने के लिए वित्त मंत्री को अब राजकोषीय घाटे के स्थान पर संरचनात्मक ढांचे पर ध्यान केन्द्रित करना होगा। इसमें नए एवं पुराने विकल्पों से संसाधन तलाशने का काम भी शामिल है। सरकारी बैंकों के बहीखातों में सुधार इसका एक अच्छा विकल्प बन सकता है। चूंकि 2014 के पहले जो महंगाई एक विषय हुआ करती थी वह अब नियंत्रित स्थिति में है इसलिए ब्याज दरें अब कम की जा सकती हैं। 7.5 प्रतिशत की ब्याज दरों को कम करके 5 प्रतिशत के आस पास लाया जाना अर्थव्यवस्था के लिए बेहतर होगा। पर ये भी एक थियरी है। इसके भी अपने नफा नुकसान है इसलिए अब भारत को सिर्फ एक वित्त मंत्री की नहीं बल्कि कुशल प्रशासक वित्त मंत्री की आवश्यकता है। वित्त मंत्री पीयूष गोयल की मेधा और कौशल का कोई तोड़ नहीं है। अर्थव्यवस्था दुगनी करने के लिए अब उनकी प्रशासक वाली छवि की अग्निपरीक्षा है।

क्रयशक्ति और उपभोक्ता बढऩे से कितनी बढ़ेगी अर्थव्यवस्था 

ब्याज दरें कम होने से ऐसा माना जाता है कि लोग ज़्यादा ऋण लेंगे और ज़्यादा सामान खरीदेंगे। जितना ज़्यादा सामान बिकेगा उतने उद्योग बढ़ेंगे। उद्योगों के बढऩे से जीडीपी बढ़ेगी और कुछ नए रोजगार पैदा होंगे। पर कजऱ् के साथ एक पक्ष और भी है। लोग कजऱ् तो तब लेंगे जब उनके पास कजऱ् चुकाने के लिए कोई रोजगार होगा। या फिर उनकी क्रय शक्ति इतनी होगी कि वह कजऱ् को चुका सकें। पहले जीडीपी के कुछ मानकों को समझते हैं। अगर कोई व्यक्ति बीमार पड़ता है और अस्पताल में इलाज़ कराता है तो जीडीपी बढ़ती है। अगर योग या अन्य माध्यमों से स्वयं को स्वस्थ रखता है तो जीडीपी नहीं बढ़ती। अगर किसान खेतों में हानिकारक रसायन एवं यूरिया डालता है तो जीडीपी बढ़ती है। यदि परंपरागत ज़ीरो बजट खेती करता है तो जीडीपी नहीं बढ़ती। अगर ट्रैक्टर या अन्य कृषि क्षेत्र के उपकरण खरीदता है तो जीडीपी बढ़ती है किन्तु अगर बैलों पर आधारित कृषि करता है तो जीडीपी नहीं बढ़ती। वर्तमान में जीडीपी की जो व्यवस्था चल रही है वह आंकड़ों में तो देश का विकास दिखाती है किन्तु गरीब लोगों का भला करती नहीं दिखती। सबसे पहले जीडीपी के मानक भारतीयता के आधार पर निर्धारित होने चाहिए। बीमार होकर जीडीपी बढ़ाने से स्वस्थ रहकर एक व्यक्ति देश की ज़्यादा सेवा कर सकता है। गांव छोड़कर शहर में जाकर रोजगार ढूंढने और जीडीपी बढ़ाने से ज़्यादा बेहतर है ग्रामीण को उसकी ही धरती पर रोजगार मिलना। वर्तमान में जीडीपी की प्रक्रिया ही दोषपूर्ण है। सबसे पहले इसमें बदलाव की आवश्यकता है।

अब बात करते हैं जीडीपी की दरें, सस्ते कजऱ् एवं अर्थव्यवस्था की। 1990-91 में सरकार का वित्तीय घाटा कुल जीडीपी का 7.6 प्रतिशत था। इस फरवरी में प्रस्तुत अन्तरिम बजट में यह घाटा 3.5 प्रतिशत रहा है। इस तरह सरकार का वित्तीय घाटा अब 4.1 प्रतिशत तक घट गया है जो अच्छा संकेत है। पर इसमें यह देखना रोचक होगा कि इस घाटे की पूर्ति की वजह कितनी सरकारी खर्चों में कटौती से हुयी है। सरकार दो प्रकार से धन को खर्च करती है। एक राजस्व खर्च और दूसरा पूंजी निवेश। राजस्व खर्च में सरकारी तंत्र को चलाने के खर्चे, वेतन आदि शामिल होते हैं। पूंजीगत निवेश में हाइवे बनाने एवं अन्य मूलभूत जरूरतों में निवेश होता है। सरकार के खर्चों और राजस्व प्राप्तियों में अंतर को राजस्व घाटा कहा जाता है। यदि 1990-91 और वर्तमान में इसकी तुलना करे तो भी यह संतोषजनक दिखाई देता है। 1990-91 में यह घाटा जीडीपी का 3.2 प्रतिशत था जो 2019-20 में 2.6 प्रतिशत तक आने का अनुमान है। इस तरह से देखा जाये तो सरकार की खपत में 0.6 प्रतिशत की मामूली गिरावट आई है और सरकार के कुल खर्चों में 4.1 प्रतिशत की भारी गिरावट है। अब 3.5 प्रतिशत की कटौती के लिए पूंजीगत निवेश के क्षेत्र में धन की आवश्यकता होने जा रही है।

आंकड़ों से बाहर आकर अगर व्यावहारिक पक्ष को समझें तो सरकार के राजस्व खपत का ज़्यादा हिस्सा सरकारी कर्मियों के वेतन और ठेकेदारों के पास जाता है। यह लोग अपने धन का उपयोग या तो सोना खरीदने में करते हैं या विदेशों में जमा करने में। पहले यह धन प्रॉपर्टी में लगता था जिस पर अब काफी नियंत्रण हो चुका है। अर्थव्यवस्था को दुगुनी करने के लिए यदि यह धन देश में ही खर्च हो और देश में ही निवेश हो तब रोजगार सृजन भी होगा और पूंजीगत निवेश भी बढ़ेगा। इसके लिए मोदी सरकार को ग्रामीण स्तर पर रोजगार सृजन करना होगा। जैसे मैंने पहले भी कहा है कि जीडीपी के मानक बदलने होंगे। बड़ी बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों का मोह छोड़कर भारतीय कंपनियों को प्रोत्साहित करना होगा। इसके साथ ही भारतीय कंपनियों में बड़ी बड़ी कंपनियों के स्थान पर स्थानीय स्तर के छोटे उद्योगों को बढ़ाना होगा। इसके साथ ही जैसा डोनाल्ड ट्रम्प ने अमेरिका में संरक्षणवाद को बढ़ावा दिया है वैसा ही करना हितकारी होगा। भारत में भ्रष्टाचार, न्यायपालिका एवं प्रदूषण नियामक बोर्ड के खर्चों के कारण उद्योगों पर इतना भारी बोझ पड़ता है कि भारतीय उद्योग चीन से आयातित सामान से मुक़ाबले में पिछड़ जाते हैं। इन दोनों विषयों पर एक साथ और तीव्रता से किया गया काम भारत की अर्थव्यवस्था को दुगनी करने की परिकल्पना को साकार कर सकता है। इसके साथ ही देश में लगभग हर समय चलने वाली एवं बेहद खर्चीली चुनावी प्रक्रिया में सुधार की भी बेहद आवश्यकता है।

एक साथ चुनाव : समय और संसाधन की बचत

अर्थव्यवस्था को दुगुनी करने के लिए जब संसाधन जुटाने की बात आती है तब खर्चों में कटौती की बात भी सामने आती है। वर्तमान में देश में जो व्यवस्था चल रही है उसमें प्रतिवर्ष चुनाव होते रहते हैं। हर छह महीने में कहीं न कहीं, किसी न किसी प्रदेश में चुनाव हो जाते हैं। ऐसे में एक बड़ा खर्च इन चुनावों में होता है। धन और समय के साथ मानव संसाधन इसमें लगता है। इसलिए देश को अब एक साथ चुनाव की आवश्यकता है। एकसाथ चुनाव के कई फायदे हैं। यदि 2014 से 2019 के बीच के समय को देखें तो प्रधानमंत्री मोदी का लगभग डेढ़ साल का समय चुनाव प्रचार में बीता है। सिर्फ मोदी का नहीं बल्कि पूर्व में भी ऐसा ही होता आया है। अगर चुनाव एक साथ होते हैं और चुनाव का कलेंडर पूर्व प्रायोजित होता है तो यह समय 3 से 4 महीनों तक सिमट सकता है। इस एक साल के अतिरिक्त समय से देश को बड़ा फायदा पहुंचाया जा सकता है। अभी लोकसभा चुनावों को कुछ समय ही बीता है किन्तु इसके साथ ही झारखंड, हरियाणा, दिल्ली और महाराष्ट्र के विधानसभा चुनावों की तैयारी शुरू हो चुकी है। लोकसभा चुनावों के पहले मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और तेलंगाना के चुनावों से निकलकर देश आया था।

अब जब एक साथ चुनावों की बात हो रही है तो विपक्षी दल इसका विरोध कर रहे हैं। विपक्षी दल अक्सर किसी भी नए विचार का इसलिए विरोध करते हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि सत्तारूढ़ दल अपने फायदे के लिए इसका इस्तेमाल कर रहा है। पर आज के विपक्ष कांग्रेस को समझना चाहिए कि यह विचार नया नहीं है। 1952, 1957 के प्रारम्भिक चुनावों में यह चलन आम था। 1967 तक लगभग एक साथ चुनावों की प्रक्रिया सुचारु रूप से चलती भी रही। 1967 में जब पंजाब से लेकर बंगाल तक कांग्रेस हार गयी तब यह चलन बदल गया। कांग्रेस की जगह आई संयुक्त मोर्चा सरकार अपने कार्यकाल को पूरा नहीं कर पायी और उसके बाद यह चलन बदल गया। विधानसभा और लोकसभा चुनाव आगे पीछे होने लगे। इसके बाद 1971 में समय से पूर्व चुनाव करने के इन्दिरा सरकार के फैसले से एक साथ चुनाव की प्रक्रिया बाधित हुयी। 1971 के बाद आपातकाल लगा और आम चुनाव छह साल बाद 1977 में हुये तो भी विधानसभा चुनावों और लोकसभा चुनावों में तालमेल गड़बड़ाया। एक साथ चुनाव होना संविधान की मूलभावना रही है। अब अगर मोदी वापस उसी रास्ते पर इसे लाना चाहते हैं तो यह सिर्फ एक व्यावहारिक स्वरूप है कोई बड़ा संशोधन नहीं। एक बार इस चुनावी विसंगति को दूर कर लिया जाये इसके बाद देश का एक बड़ा समय कार्यों पर लगेगा। चार माह के चुनावी दौर के बाद बाकी के 56 माह सरकार अपने कामकाज पर लगा सकती हैं।

आंतरिक असंतोष पर नियंत्रण एवं केंद्र-राज्य में समन्वय रहेगा अहम 

देश की अर्थव्यवस्था को दुगनी करने के क्रम में एक बड़ा विषय देश के अंदर आंतरिक असंतोष को नियंत्रित करना एवं आतंकवाद, नकसलवाद के अन्तराष्ट्रीय षड्यंत्र से निपटना भी है। यह तभी संभव है जब केंद्र और राज्य में बेहतर समन्वय होगा। सबसे पहले आंतरिक असंतोष द्वारा पोषित आतंकवाद को समझते हैं। आतंकवाद कभी शारीरिक या मानसिक नहीं होता, बल्कि बौद्विक होता है। जब कोई व्यक्ति किसी साध्य को पाने के लिए गैरकानूनी एवं असामाजिक साधनों को अपना लेता है, तो वह पंथ आतंकवाद कहलाने लगता है। व्यवस्था की चोट बौद्धिक स्तर पर लगती है। आत्मसम्मान, स्वाभिमान एवं भावनात्मक स्तर पर हुआ कोई गंभीर प्रहार बौद्धिकता को आतंकवाद की ओर मोड़ देता है और इस असंतोष का फायदा उठाती हैं विदेशी ताक़तें। भारत के राष्ट्रवाद की भावना को इतना खतरा बाह्य शक्तियों से नहीं है, जितना कि आंतरिक असंतोष से है। बाह्य शक्तियों को सुरक्षा बलों द्वारा नियंत्रित कर लिया जाता है। सीमा पर सुरक्षा बलों का आत्मबलिदान एवं जागरूकता हमेशा हमारा मस्तक ऊंचा रखती है। किन्तु जब बाह्य शक्तियों के द्वारा बेरोजगार युवकों के आंतरिक असंतोष को भुनाया जाता है, तब देश की अखंडता एवं व्यवस्था को एक साथ बरकरार रखना थोड़ा मुश्किल हो जाता है। बौद्धिकता एवं असंतोष का मेल सदैव वीभत्स कार्यों को अंजाम देता है। नक्सलवादियों की गतिविधियों का जब हम गहराई से अध्ययन करते हैं तब समझ आता है कि प्राकृतिक संसाधनो की लूट के क्रम में चीन और अमेरिका द्वारा कैसे भारत के आंतरिक असंतोष को भुनाया जा रहा है। ये देश टेरर फंडिंग के द्वारा लगातार भारत पर हमला कर रहे हैं। चूंकि, सेना और अर्धसैनिक बल पर केंद्र सरकार का नियंत्रण होता है एवं पुलिस पर उस राज्य का, इसलिए बिना दोनों के आपसी सामंजस्य के कोई बड़ा कार्य अंजाम तक नहीं पहुंच सकता है। सिर्फ नकसलवाद ही नहीं बहुत सी ऐसी गतिविधियां हैं जहां केंद्र और राज्य के संबंध महत्वपूर्ण हो जाते हैं।

बंगाल में चल रहे हालत के आधार पर इसको और बेहतर समझा जा सकता है। लोकसभा चुनाव निपटने के बाद भी वहां पर हिंसा जारी है। इस पर बंगाल के राज्यपाल एवं केन्द्रीय गृहमंत्री की मुलाकात भी हो चुकी है। मीडिया में इसे बंगाल में राष्ट्रपति शासन लगाने की प्रक्रिया की एक कड़ी माना गया था। इसके बाद बिहार में चमकी बुखार से मौतों पर केंद्र और राज्य के परस्पर सम्बन्धों में सामंजस्य न होने के सबूत मिले। बिहार के मुख्यमंत्री का कहना है कि राज्य को केंद्र से चलने वाली योजनाओं को चलाने की आज़ादी होनी चाहिए। उनका कहना है कि केंद्र की योजनाओं में लगभग 40 प्रतिशत पैसा राज्य व्यय करते हैं किन्तु उसका श्रेय केंद्र सरकार को चला जाता है। अब यह वही नितीश कुमार हैं जो भाजपा के साथ राजग का हिस्सा हैं और भाजपा के साथ मिलकर जिनके बिहार से 16 सांसद हैं। कहने को तो ममता और नितीश दोनों कभी न कभी भाजपा की सरकार में मंत्री रह चुके हैं किन्तु 2019 में मोदी की प्रचंड जीत से ये दोनों बौखलाए हैं। इस बात से एक बात साबित होती है कि विषय केंद्र और राज्य में धन के बंटवारे को लेकर नहीं है बल्कि दोनों में आपसी सामंजस्य की कमी एवं टालमटोल को लेकर है। यह सामंजस्य में कमी ही नीतियों और योजनाओं में देरी का सबब बनती है। बंगाल में डॉक्टरों की हड़ताल के बाद कर्नाटक, मध्य प्रदेश, राजस्थान और केरल में भी मोर्चे खोले गए। इन सभी स्थानों पर गैर भाजपा सरकारें हैं। केंद्र और राज्यों के बीच का यह तनाव इसलिए पनप रहा है क्योंकि राज्यों में भाजपा का स्थानीय दलों के मुक़ाबले जनाधार लगातार बढ़ता चला जा रहा है। केंद्र में कांग्रेस इस बढ़ते जनाधार के कारण स्वयं को बचाने में भी असफल होती जा रही है। क्षेत्रीय दलों में टूट और कांग्रेस के कैडर में सेंध के कारण इन दलों के शासित प्रदेशों में केंद्र-राज्य सामंजस्य चरमराता दिखता है। अर्थव्यवस्था को दुगुनी करने के संदर्भ में सामंजस्य की यह कमी बेहद चिंताजनक तस्वीर पैदा कर रही है।

केंद्र सरकार कभी भी राज्यों को कमजोर करने की गलती नहीं करना चाहेगी क्योंकि इतिहास इस बात का गवाह रहा है कि जब जब केंद्र ने राज्य को कमजोर करने की भूल की है तब तब केंद्र ही कमजोर हुआ है। ऐसा करने से राज्य की शक्तियां बगावत करने पर आ जाती हैं। यदि अंग्रेजों के शासन काल में देखें तो 1833 में अंग्रेजों ने केंद्र को मजबूत करने के लिए चार्टर ऑफ इंडिया एक्ट, 1833 बनाकर सारी शक्तियां केंद्र में निहित कर ली थीं। इसका उस समय काफी विरोध शुरू हो गया था। लॉर्ड डलहौज़ी के द्वारा सुधार के नाम पर किए गए इस केन्द्रीकरण के कारण असंतोष इतना बढ़ता चला गया जो 1857 की क्रान्ति के रूप में सामने आया। इसके बाद अगले तीन सालों में अंग्रेजों को एहसास हो गया था कि भारत जैसे विविधता पूर्ण देश में स्थानीय शक्तियों एवं उनकी भावनाओं को दबाकर राज नहीं किया जा सकता है। इसके बाद अंग्रेजों ने स्थानीय राजाओं को अपने साथ लिया और 90 साल तक राज्य किया। चूंकि भारत की संसदीय परंपरा और प्रशासनिक व्यवस्था आज भी उसी ढर्रे पर चल रही है इसलिए केंद्र-राज्य समन्वय के क्रम में यह उदाहरण आज भी समीचीन है।

मुफ्तखोरी, ऋण माफी एवं सब्सिडी से होता है नुकसान

अर्थव्यवस्था को दुगुना करने के क्रम में एक सबसे बड़ा और अहम विषय भारत में मुफ्तखोरी की बढ़ती लत है। भारत में जनता को कुछ इस तरह ढाल दिया गया है जैसे वह मुफ्तखोर हो। किसानों को बिजली फ्री, महिलाओं को दिल्ली मेट्रो में यात्रा फ्री, उत्तर प्रदेश में छात्रों को लैपटॉप फ्री और इन सबके साथ ही हर होने वाले चुनावों के पहले किसानों के लिए ऋण माफी की घोषणाएं। यह सब व्यवस्था के वह छिद्र हैं जहां से अर्थव्यवस्था को नुकसान होता है। इन सबके स्थान पर अगर जनता को इतना सक्षम बना दिया जाये कि वह खैरात की मोहताज न रहे तो भारत की अर्थव्यवस्था के लिए हितकारी होगा। आज़ादी के सत्तर साल बाद तक भी जहां अभी तक ग्रामीण क्षेत्र के लोगों को बिजली, सड़क, पानी, शिक्षा एवं रोजगार जैसे मूलभूत अधिकारों को उपलब्ध नहीं कराया गया है, वहां के किसान का हाल बदतर ही रहा है। किसान से जुड़े लोग भी अभाव के कारण सरकार से मिलने वाली मुफ्त की सुविधाओं का आनंद लेने लगते हैं। मूलभूत अधिकारों से दूर रहने के कारण इस वर्ग की जनता किसी भी खैरात को अपना हक़ मानने लगती है। इससे ‘वर्क कल्चर’ में कमी आती है। धीरे धीरे जब कृषि या अन्य क्षेत्र में मुनाफा नहीं होता है तो यही जनता शहरों का रुख करती है। यह हमारी नीतियों, उनके अनुपालन में कोताही एवं अधिकारों के जमीनी स्तर पर न पहुंचने का दुष्परिणाम है कि पिछले सात दशक में ग्रामीण शहरों की तरफ आकर्षित हुये। ग्रामीण क्षेत्रों से शहरी क्षेत्रों में पलायन के द्वारा यह औसत अब लगभग दुगुना होने की कगार पर है।

पिछले 70 सालों की जनसंख्या औसत की तुलना करें तो 1951 में शहरों में रहने वाली जनसंख्या 17.3 प्रतिशत थी। 2011 में यह औसत 31.16 प्रतिशत तक पहुंच गया। अमेरिका एवं पश्चिम यूरोप के देशों में शहरी जनसंख्या अब गांव का रुख कर रही है वहीं भारत में इसका उल्टा हो रहा है। ग्लोबल मैनेजमेंट कंसल्टेंसी फ़र्म ‘मेकंजी’ की रिपोर्ट के अनुसार 2015 से 2025 के बीच के दशक में विकसित देशों के 18 प्रतिशत बड़े शहरों में आबादी प्रतिवर्ष 0.5 प्रतिशत की दर से कम होने जा रही है। पूरी दुनिया में 8 प्रतिशत शहरों में प्रतिवर्ष 1-1.5 प्रतिशत शहरी जनसंख्या कम होने का रुझान होना संभावित है। अब जैसे जैसे भारत की अर्थव्यवस्था ग्रामीण जनता के अनुकूल नीतियों पर केन्द्रित होगी और ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार बढ़ेंगे, अर्थव्यवस्था को दुगुना करने का लक्ष्य यथार्थ बनता चला जाएगा। मोदी जी के लक्ष्य में असंभव कुछ भी नहीं है। भारत में इतनी ज़्यादा क्षमताएं मौजूद हैं जिसे सिर्फ निखारने की आवश्यकता है। विकासशील से विकसित भारत के मुहाने पर हम अब आ खड़े हुये हैं।

………………………………………………………………………………………………………………………………………………………

 

भारत को भारतीयता के आधार पर स्थापित करने वाली हो नयी शिक्षा नीति

भारत की अर्थव्यवस्था को दुगुना करने के मोदी के प्रयासों को अमली जामा पहनाने के क्रम में शिक्षा नीति का अहम योगदान होने जा रहा है। 2014 में जब मोदी सरकार सत्ता में आई थी तब मानव संसाधन मंत्रालय ने नयी शिक्षा नीति पर काम शुरू किया था। इसके बाद 2015 में टीएस सुब्रमण्यम के नेतृत्व में एक पांच सदस्यीय समिति का गठन किया गया। चूंकि इसके पूर्व शिक्षा नीति तीन दशक पूर्व आई थी इसलिए इस घोषणा से देश के एक बड़े बुद्धिजीवी वर्ग में एक नयी आस जागी थी। इस समिति ने 2016 में नयी शिक्षा नीति का एक मसौदा पेश किया किन्तु वह अनुकूल नहीं पाया गया। इसके बाद 2016 में पूर्व अन्तरिक्ष वैज्ञानिक कस्तूरीरंगन के नेतृत्व में एक नयी समिति का गठन किया गया। अब इस समिति की रिपोर्ट आ गयी है और इसका मसौदा नई मोदी सरकार तक पहुंच गया है। इसमें हिन्दी भाषा पर ज़ोर का प्रावधान है। इस मसौदे के सार्वजनिक होते ही सारा विवाद बाकी समाधान से हटकर भाषा पर केन्द्रित हो गया है। देश में वर्तमान में 30 करोड़ छात्र एवं लगभग एक करोड़ शिक्षकों का भविष्य इस शिक्षा नीति से जुड़ा हुआ है। नयी शिक्षा नीति में प्रतिवर्ष 50 घंटे की ट्रेनिंग पर ज़ोर दिया गया है। यह ट्रेनिंग कैसे शिक्षकों तक पहुंचेगी इस पर यह मसौदा कुछ नहीं कहता है। ऐसे में तकनीक का प्रयोग शिक्षकों तक पहुंचाने में ज़्यादा कारगर लगता है। जि़ला स्तर पर शिक्षकों को ट्रेनिंग में आधुनिक विज्ञान और रोज़मर्रा के विषय में पारंगत करवाना आवश्यक रहेगा। नैनो टेक्नोलॉजी, ऑटोमेशन, मशीन लर्निंग और अन्तरिक्ष विज्ञान के विषय पर यदि शिक्षकों की बेहतर पकड़ होगी तो वह बच्चों को भी बेहतर तैयार कर पाएंगे। इसके साथ ही हमें देश में कई क्षेत्रों में छिपी मेधा को भी बाहर लाने की आवश्यकता है। मिसाल के तौर पर देश में 15 लाख इंजीनीयर प्रतिवर्ष बनते हैं। इनके लिए रोजगार का सृजन करने में सरकार विफल रही हैं। इनमें से बहुत से मेधावी बेरोजगार घूमते हैं जबकि वह अपने क्षेत्र के विशेषज्ञ हैं। इसके साथ ही देश में अलग अलग क्षेत्रों के हजारों ऐसे विशेषज्ञ हैं जो सीमित अवधि के लिए शिक्षा के क्षेत्र में योगदान करके देश के युवाओं को दिशा दे सकते हैं। क्या देश में इतनी बड़ी उपलब्ध मेधा का इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है? इसके साथ ही देश में लगभग छह लाख के आस पास गांव हैं। वहां भी इन इंजीनीयर का इस्तेमाल किया जा सकता है।

भारत की अर्थव्यवस्था को दुगुना करने के क्रम में शिक्षा का रोजगारपरक होना, कौशल विकास केन्द्रित होना एवं रचनात्मक होना बेहद आवश्यक है। इसके लिए भारत को सिर्फ शिक्षक की नहीं बल्कि विशेषज्ञों की आवश्यकता है। ऐसा प्रयोजन भी किया जाना चाहिए जिसमें एक तिहाई शिक्षक अल्पावधि के शिक्षक हों। जो अपने क्षेत्र में विशेष योग्यता रखते हों। यूरोप के कई देशों से हम व्यावसायिक शिक्षा के बारे में सीख सकते हैं। जैसे जर्मनी, वहां इसके प्रावधान मौजूद हैं। हमें अब सबसे पहले इस बात को समझना होगा कि भारत की अर्थव्यवस्था दुगनी होने के क्रम में भारत को भारतीयता के आधार पर स्थापित करना होगा। भारत के कौशल विकास को बढ़ावा देना होगा। भारत में शिक्षा के माध्यम से वैश्विक गुणवत्ता के कार्पेंटर, प्लम्बर, इलेक्ट्रिशियन, ड्राईवर, राजमिस्त्री तैयार करने होंगे। इसके साथ ही शिक्षा के उबाऊपन को भी खत्म करना होगा। आज के छात्र जब गणित के कठिन फॉर्मूले याद करते हैं या फिर विज्ञान के उन बड़े बड़े फॉर्मूलों को याद करते हैं जिनका कोई उपयोग नहीं होता है तब उनकी मेधा में रचनात्मकता का ह्रास होता है। वह दबाव झेलना तो सीख जाते हैं किन्तु समाज के लिए उनका योगदान नगण्य हो जाता है। भारत की सफल संस्थाओं की तरफ देखें तो उनकी सफलता की वजह उस क्षेत्र के विशेषज्ञों की मेधा रही है न कि सिर्फ दबाव झेलने की क्षमता। इसरो, डीआरडीओ, मेट्रो जैसे सफल संस्थान रचनात्मकता एवं मेधा के बेजोड़ संगम के कारण सफल हैं। अब बात चूंकि भारत की अर्थव्यवस्था को दुगुना करने के संदर्भ में हो रही है तो नयी शिक्षा नीति उस सफलता के द्वार के रूप में देखी जाएगी। इसके लिए हमें बच्चों को कम उम्र से ही इसके लिए तैयार करना होगा जिसमें प्रतिभा के अवसर, रुचि एवं रचनात्मकता के समावेश से कुछ बड़ा करने का जज़्बा विकसित हो।

-अमित त्यागी

(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं। )

………………………………………………………………………………………………………………………………………………………

 

संस्कृत और पौराणिक ग्रन्थों में छिपा है गूढ़ भौतिक विज्ञान

मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल में जैसे ही नयी शिक्षा नीति आई तो उसपर भाषा को लेकर बवाल हो गया। बवाल मचाने वाले न भारत को जानते हैं, न विज्ञान को और न ही भारत के पौराणिक ग्रन्थों के महत्व को। ऐसे लोगों की सोच पर तरस ही आ सकता है। भारत के ग्रन्थों में बड़े बड़े वैज्ञानिक प्रयोगों का वर्णन किया गया है। चूंकि यह सारे ग्रंथ संस्कृत में हैं इसलिए यह भारत के जनमानस से दूर हैं। एक बड़े अन्तर्राष्ट्रीय षड्यंत्र के तहत पहले भारत से संस्कृत को दूर किया गया इसके बाद संस्कृत के प्रकांड विद्वानों एवं ब्राह्मणों को वामपंथी विचारकों द्वारा समाज में विलेन बना कर पेश किया गया। इसके दूसरी ओर अमेरिका में नासा में संस्कृत पर शोध होता है। यूरोप के देशों में संस्कृत विशेष तौर पर पढ़ाई जाती है ताकि वहां के छात्र संस्कृत के ग्रन्थों से कुछ गूढ़ निकाल कर विज्ञान को आगे ले जा पायें। एक भौतिक विज्ञानी होने की नाते मैं संस्कृत में छिपे गूढ विज्ञान को आसानी से समझ पाता हूं। मिसाल के तौर पर अभी कुछ वर्ष पहले स्विट्जऱलैंड और फ्रांस की सीमा पर 27 किलोमीटर लंबी सुरंग में अति सूक्ष्म कणों को आपस में टकराकर वैज्ञानिक एक अदृश्य तत्व की खोज कर रहे थे जिसे हिग्स बोसोन या गॉड पार्टिकल कहा गया था। उन वैज्ञानिकों का तर्क था कि इसे गॉड पार्टिकल इसलिए कहा गया क्योंकि यही वह अदृश्य-अज्ञात तत्व है जिसकी वजह से सृष्टि की रचना संभव हो सकी है। इस पर उनका शोध अभी जारी है। अगर वैज्ञानिक इस तत्व के महत्व को ढूंढने में कामयाब रहते हैं तो सृष्टि की रचना से जुड़े कई रहस्यों पर से परदा उठ सकेगा। इस शोध पर अरबों डॉलर खर्च करते हुये, लगभग आठ हज़ार वैज्ञानिक पिछले एक दशक से लगातार काम कर रहे हैं।

अब इसे यदि भारत के पौराणिक ग्रंथ से जोड़ के देखें तो हिग्स बोसान नाम का यह कण ही वह ब्रहमकण है जिसे बहुत साल पहले नासद सूक्त में व्यक्त किया जा चुका है। यदि थोड़ा और गहराई में उतरे तो जब हमारा ब्रह्मांड अस्तित्व में आया उससे पहले सब कुछ हवा में तैर रहा था। किसी चीज़ का तय आकार या वजऩ नहीं था। जब खोज से प्राप्त कण हिग्स-बोसोन भारी ऊर्जा लेकर आया तो सभी तत्व उसकी वजह से आपस में जुडऩे लगे। उनमें द्रव्यमान(मास) या आयतन(वॉल्यूम) पैदा हो गया। हिग्स बोसोन की वजह से ही आकाशगंगाएं, ग्रह, तारे और उपग्रह बने। अब कुछ महत्वपूर्ण वैज्ञानिक बातें मैं आपको आसान शब्दों में समझाने का प्रयास करता हूं। पार्टिकल या अति सूक्ष्म तत्वों को वैज्ञानिक दो श्रेणियों में बांटते हैं-स्टेबल यानी स्थिर और अनस्टेबल यानी अस्थिर। जो स्टेबल पार्टिकल होते हैं उनकी बहुत लंबी उम्र होती है जैसे प्रोटोन। यह अरबों-खरबों वर्ष तक रहते हैं। कई अनस्टेबल पार्टिकल ज़्यादा समय तक ठहर नहीं पाते और उनका रुप बदल जाता है। हिग्स बोसोन अत्यंत अस्थिर पार्टिकल है। वह इतना क्षणभंगुर था कि वह बिग बैंग के समय एक पल के लिए आया और सारी चीज़ों को आयतन देकर चला गया। इसके बाद वैज्ञानिकों ने नियंत्रित तरीक़े से एवं बहुत छोटे पैमाने पर वैसी ही परिस्थितियां पैदा करने का प्रयास किया जिनमें हिग्स-बोसोन आया था। एक सेंकेड में प्रोटोनों के आपस में टकराने की 60 करोड़ से भी ज़्यादा घटनाएं हुईं थीं।

वैज्ञानिकों ने जब हिग्स-बोसोन को गॉड पार्टिकल का नाम दिया तबसे मेरे मन में इस बात की जिज्ञासा बढ़ी कि इसका आध्यात्मिक पक्ष क्या है? सबसे प्राचीन वेद ‘ऋगवेद’ में वर्णित नासद सूक्त में प्राचीन मानव और अंतरिक्ष को समझने की उसकी मूलभूत जिज्ञासा में प्रश्न का उत्तर भी मिल गया। नासद सूक्त में कहा गया है कि सृष्टि से पहले कुछ भी नहीं था, न आकाश था, न धरती, न जल। इस पौराणिक श्लोक में ब्रह्म की तुलना हिरण्यगर्भ से करते हुए बताया गया है कि सृष्टि से पहले ब्रह्म ही विद्यमान थे और उन्हीं से सारी सृष्टि का विकास हुआ है। वेदों और उपनिषदों के बाद आई पुराणों में अंतरिक्ष के सृजन के सिद्धांत से आगे बढ़ते हुए युगों की शुरूआत और उनके खात्में का जिक्र किया गया है। पुराणों में ब्रह्म के एक दिन को चार अरब 32 करोड़ वर्ष के बराबर बताया गया है, जो एक महायुग और चार युगों के बराबर होता है। एक महायुग की समाप्ति के बाद प्रलय आती है और समूचा ज्ञान और सभ्यतायें नष्ट हो जाती हैं। एक नई सृष्टि का सृजन होता है। सृष्टि के निर्माण के लिए प्रमुख तत्व को वेदों में ब्रहमकण का नाम दिया गया है। प्रकृति और विज्ञान की हमारी आज तक की जो समझ है उसके सभी पहलुओं की वैज्ञानिक पुष्टि हो चुकी है। विज्ञान और अध्यात्म में एक गहरा संबंध है। अध्यात्म अलौकिक अनुभूतियों का स्पंदन करता है। विज्ञान उन स्पंदनों को तार्किक आधार पर सबके सामने लाता है। जैसे जैसे हम अपने वेदों का अध्ययन करते जाएंगे हम सृष्टि के करीब होते जाएंगे। नासा जैसी बड़ी संस्थाएं भी संस्कृत में लिखे भारतीय ज्ञान ग्रन्थों के आधार पर बड़ी बड़ी खोजें करने में सफल होती जा रही हैं और हम अंग्रेज़ी के मोह में अपने परंपरागत ज्ञान से लगातार विमुख हो रहे हैं।

-नरेश चंद्रा

(रक्षा मंत्रालय से सेवानिवृत्त भौतिक विज्ञानी हैं)

………………………………………………………………………………………………………………………………………………………

 

अर्थव्यवस्था पर भारी पड़ता नक्सलवाद, आतंकवाद का महागठबंधन

भारत की अर्थव्यवस्था को दुगुना करने का प्रधानमंत्री का विचार बहुत सराहनीय है किन्तु इसके लिए प्रधानमंत्री को उन छेदों को भी बंद करना होगा जहां से पानी रिस कर देश को नुकसान पहुंचा जाता है।  इसके लिए देश के अंदर के षड्यंत्र को समझना होगा और उसको समय रहते दुरुस्त करना होगा। कुछ वर्ष पूर्व जेएनयू में लगे देश-विरोधी और अफज़़ल समर्थन नारे से एक बात जाहिर हो गयी थी कि साम्यवाद की चोली के अंदर छुपे शहरी नक्सलियों का आतंकवाद से सीधा सांठ-गांठ बैठ गया है। वरना क्रूर नक्सलियों के मानव अधिकार के तथाकथित रक्षक और हर नक्सली हमले में शहीद जवान का उत्सव मनाने वाले शहरी नक्सलियों (ट्विटर की भाषा में अर्बननक्सलियों) को अचानक आतंकियों की और कश्मीर के मानवाधिकार की चिंता क्यों होने लगी। क्या कारण हो सकता है कि अर्बननक्सल का पूरा एजेंडा ही दूसरे तरफ रुख कर गया था। इस बात को और एक अंतर्राष्ट्रीय कड़ी से जोड़कर देखें तो इस संक्रमण का भाव स्पष्ट होता है। ये तो अब जगज़ाहिर है कि नक्सलियों को हथियार, संसाधन आदि चीन से मिलता रहा है। पाकिस्तान से आतंकवाद का काम चलता है।  जबसे चीन और पाकिस्तान में निकटता  बढ़ी है तबसे चीन के असली भारतीय सिपाही अर्बन नक्सल अपना ध्यान इस नए अजेंडे पर लगा चुके हैं। अर्बन नक्सल और उसके खिलाफ खड़ी आम जागरूक जनता की लड़ाई सीधे -सीधे बॉलीवुड में दिखने को मिलती है, जहां ज्यादातर फिल्मों में नायक भारत सरकार की क्रूरता की वजह से मजबूरी में हथियार उठाता है। जिनमें जंगलों में रहने वाले युवा नक्सलवादियों को सही ठहराया जाता है। पर अगर इस षड्यंत्र को अगर गहराई से समझना है तो ‘बुद्धा इन ट्रैफिक जैम’ जैसी फिल्म के माध्यमों से इन अर्बन नक्सलों को समझना होगा। अब देश के अंदर चल रहे इस षड्यंत्र की रुपरेखा और क्षेत्ररेखा को समझते हैं।

उत्तर में कश्मीर, पूर्व में बंगाल, दक्षिण में केरल और मध्य भारत में छत्तीसगढ़ इनका क्षेत्र है। यदि गौर से देखें तो समझ आता है कि कैसे पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर में उठने वाले नारे दिल्ली विश्वविद्यालय में लगते हैं। फिर वो बंगाल जादवपुर यूनिवर्सिटी में लगते हैं। इसके बाद केरल में और ये फिर ये सिलसिला चलता रहता है। नक्सलवादी उन्हीं इलाकों में फैले हैं जहां प्राकृतिक संसाधनों की भरमार है। जहां भारतीय जवान या सरकार असफल रहती है। कोई विकास कार्य लागू करने में वहां मिशनरीज के पादरी उनका धर्म-परिवर्तन करने में पूरी तरह सक्षम होते हैं। हैरानी की बात है कि साम्यवादी बुद्धिजीवी अपने आप को एक तरह से नास्तिक कहलाने में गर्व महसूस करते हैं परन्तु न उन्हें इस धर्म-परिवर्तन से कोई आपत्ति है, न कश्मीर के इस्लामीकरण से, न इस्लाम का चोला ओढ़े आतंकवादियों से। बस कोई भगवाधारी उन इलाको में काम करने पहुंच जाए तो 5 -10 वर्ष में उसे बलात्कारी साबित कर दिया जाता है। इतना ही नहीं बॉलीवुड या हिंदी धारावाहिक की कोई धार्मिक सामग्री का विश्लेषण करेंगे तो पाएंगे हमेशा कोई न कोई भगवा-धारी ही बुरा आदमी होता है, कभी किसी पादरी या मौलवी को ऐसे किरदारों में देखा है? या किसी पादरी या मौलवी जो बलात्कारी आरोपी हो उसपर बड़े समाचार चैनल पर चर्चा देखी है? इन बातों का हमारे शीर्ष से क्या सम्बन्ध? इसका बहुत ही गहरा सम्बन्ध है जो केवल धर्म-संकट से नहीं बल्कि भारतवर्ष की आतंरिक सुरक्षा से जुड़ा हुआ है। इन अर्बन -नक्सलियों को किसी धर्म से वास्तविक में कोई मतलब नहीं ये तो बस मोहरे हैं जो अपने आकाओं का काम कर रहे हैं। अब इनके आकाओं को समझते हैं।

खाड़ी देशो में हुए सालों के लगातार उथल-पुथल जंग के बाद वहां की आम जनता जो इस्लामी अतिवादी भी है वो सब यूरोप का रुख करने लगे हैं। यूरोप खुद ही कई तरह की परेशानी से जूझ रहा है जिसमें उनका खस्ता आर्थिक हाल, बेरोजग़ारी, घटती आबादी आदि है। ऐसे में जब अतिवादी इस्लामी वहां विस्थापित होने लगेंगे तो संसाधन की कमी, जनसंख्या के बदलाव का डर वहां खाड़ी देश से आतंकवाद को यूरोप में खींच लाएगा। इस परिस्थिति को टाला नहीं जा सकता।  जब यूरोप एवं अमेरिका इसके बाद यूएन से सहायता की मांग करेंगे तो उनकी बाध्यता होगी कि वो वहां वही ऑपरेशन करें जैसे खाड़ी देशों में किए जा चुके हैं। परन्तु तब अमेरिका की अपनी मजबूरियां होंगी। पहला अमेरिका उतनी आज़ादी से यूरोप में कार्यवाही नहीं कर सकता है जितनी आज़ादी से खाड़ी देश में करता था। यूरोप में न केवल ईसाई लोग होंगे बल्कि वो गोरे भी होंगे। ऐसे परिस्थिति में स्वयं वैटिकन ही अमेरिका और यूएन पर रोक लगा देगा।  दूसरा, अमेरिका की जनता दूर के देशों में किये जाने वाली लड़ाई से तंग हो चुके होंगे। उनका एक जवान भी अगर झंडे में लिपट के वापिस जाता है तो वहां अभी भी खूब आक्रोश होता है। सारे सैनिकों को घर वापिस बुलाने की मांग जोर पकडऩे लगती है।  तीसरा, कुछ आंकड़ों के अनुसार पूरी दुनिया में सबसे ज्यादा फौजी आत्महत्या अमेरिका में ही हो रही है। जो अमेरिका के लिए बहुत ही चिंताजनक परिस्थिति है।

ऐसे परिस्थिति में नाटो, यूएन एवं अमेरिका को भारत की तरफ सहारे के लिए मुडऩा पड़ेगा। दूसरा विकल्प चीन या रूस होगा। रूस के लिए तो यूरोप में अस्थिरता फायदे की बात होगी और वो चाहेगा कि नाटो झुके। चीन पाकिस्तान से निकटता के कारण इसमें पडऩा नहीं चाहेगा न ही अमेरिका इन दोनों देशों से मदद मांगते हुए दिखना चाहेगा। इस परिस्थिति में भारत का औहदा मोल-भाव करने के लिए काफी ऊंचा होगा। वो अपनी सारी अन्तर्राष्ट्रीय परेशानियों का समाधान अमेरिका से बदले में मांग सकेगा। इसमें पकिस्तान को चार भागों में बांटना, बलूचिस्तान को आज़ाद करना, तिब्बत को चीन से आज़ाद कराना, वल्र्ड बैंक के ब्याज को कम करना जैसे सौदे शामिल हैं। अमेरिका कभी भी ऐसे सौदे के लिए तैयार नहीं हो सकता क्योंकि इससे अमेरिका के वैश्विक लीडर की छवि को खतरा होगा। दूसरा, भारत ऐसा हो जाए तो विश्व गुरु हो जाएगा जिससे अमेरिका के हाथ से भारत का इतना बड़ा बाज़ार छूटने का खतरा होगा। भारत उस परिस्थिति का लाभ ज्यादा या मनमाने ढंग से न ले सके इसलिए वर्तमान में चीन -पाक आपस में सांठ-गांठ कर रहे हैं। और उसी सांठ-गांठ का नतीजा है नक्सलवाद एवं आतंकवाद का महागठबंधन। इसलिए ही अर्बन नक्सलियों द्वारा नया साहित्य तैयार हो रहा है जिसमें भारत को पहले से एक आततायी देश, मानव-अधिकार का हनन करने वाला देश के रूप में इसकी छवि को प्रस्तुत करने की कोशिश की जा रही है।

अब प्रश्न है कि इसका समाधान क्या है? हमें असली खतरा विदेशी पैसों पर पल रहे जयचंदो से ज़्यादा है जितना चीन-पाक या अमेरिका से नहीं है। इनसे अगर निपट लिया जाए या इनके लिंक काट दिए जाए तो ये स्वत: समाप्त हो जाएंगे। ये बात अलग है कि विदेशी ताकतें फिर कोई रास्ता ताकना शुरू करेगी पर तब तक हम काफी मजबूत हो चुके होंगे या आगे निकल गए होंगे।  अफसोस होता है कि सरकार इन अर्बन-नक्सल के बेनकाब होने के ड्रामे से हो रहे राजनीतिक लाभ के कारण इन पर कोई कार्यवाही नहीं कर रही है। वरना हम या आप देशद्रोही नारे लगाकर देख लीजिये, क्या आपको लगता है कोई बड़ी प्राइवेट मीडिया हाउस हमें बुलाकर हमारे विचार जानना चाहेगी या हर मीडिया हमारा नाम लेकर (भले ही वो बदनाम करने के ड्रामा के तहत किया जाए) हमें प्रसिद्ध करेगी? जी नहीं ये बस उन अर्बन-नक्सलियों के साथ होगा जिनके पीछे ये अंतराष्ट्रीय  आकाओं का हाथ है। अमेरिका से पैसे खाने वाली मीडिया इनको बढ़ा रहा है जबकि चीन से पैसे खाने वाली मीडिया दूसरे तरफ की शक्ति को बढ़ाने में लगी है। ये दोनों ही पक्ष चाहते हैं कि भगवा जितना बदनाम हो उतना अच्छा।

फिर हम आम जनता को क्या करना चाहिए कि इसका समाधान निकले। सबसे पहले प्राइवेट मीडिया चैनल पर आ रहे प्रचार में आने वालो चीज़ों की खरीददारी एलान के साथ बंद करे। मूलत: स्वदेशी अपनाये किसी बाबाजी के देशी प्रोडक्ट नहीं। क्योंकि उनकी कंपनी की मशीनें भी विदेशी कंपनी से आयात हुयी हैं। सरकार से स्वदेशी उत्पाद और बाजार बढ़ाने की मांग करें।  भगवा को गंदा-निंदा करने वाले धारावाहिक, फिल्में सबका बहिष्कार करे।  उन धारावाहिक और फिल्मों में काम करने वाले अभिनेता/अभिनेत्री द्वारा प्रचार किये जाने वाले प्रोडक्ट्स का बहिष्कार करें। जागरूकता फैलाने में सहायता करें।  फिर एक राजनैतिक क्रांति होगी जिससे हमारे -आपके बीच से ही अपने आप एक अच्छा -सच्चा विकल्प निकलेगा और वो स्वत: देश की अर्थव्यवस्था को दुगुना कर देगा।

-मनीष मिश्र

(लेखक बहुराष्ट्रीय कंपनी में उच्चाधिकारी हैं।

………………………………………………………………………………………………………………………………………………………

 

मजबूत अर्थव्यवस्था के लिए पहले हो स्वच्छ नौकरशाही

मोदी सरकार ने जिस तरीके से भ्रष्ट अधिकारियों को बाहर का रास्ता दिखाया है उससे साफ संकेत मिले हैं कि पहले कार्यकाल में सफलतापूर्वक स्वच्छ भारत अभियान चलाने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का दूसरा कार्यकाल नौकरशाही में स्वच्छता लाने वाला होगा। पहले 12 वरिष्ठ वित्त अधिकारियों को बाहर का रास्ता दिखाने के बाद अब राजस्व सेवा के 15 वरिष्ठ अधिकारियों को तत्काल प्रभाव से बलात् सेवानिवृत्त कर दिया गया है। केंद्र सकार ने सेवा के सामान्य वित्त नियम के 56-(जे) के तहत इन अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई की है। ये 15 वरिष्ठ अधिकारी मुख्य अप्रत्यक्ष कर और सीमा शुल्क बोर्ड से संबंधित हैं। अंग्रेजी शासनकाल की बिगड़ैल औलाद नौकरशाही के लिए चिरप्रतिक्षित चलाया गया यह सफाई अभियान न केवल समयानुकूल बल्कि स्वागतयोग्य भी है। यह किसी से छिपा नहीं है कि आजादी के सात दशकों बाद भी देश को पिछड़ा और गरीब रखने के लिए इसी नौकरशाही का एक बड़ा तबका सर्वाधिक जिम्मेवार है।

जो खबरें छनकर बाहर आ रही हैं उसके अनुसार मोदी सरकार ने ऐसे अधिकारियों की सूची बनाई है जिनकी उम्र 50 साल से अधिक है और वे अपेक्षा के मुताबिक काम नहीं कर रहे हैं। केंद्र सरकार ऐसे अधिकारियों को नियम 56 के तहत सेवानिवृत्त कर रही है। भ्रष्टाचार के खिलाफ शून्य सहनशीलता की नीति के तहत अपने पहले कार्यकाल में ऐसे अधिकारियों की सूची बनाने के बाद अपने दूसरे कार्यकाल में नरेंद्र मोदी सरकार ने तेजी से इन अधिकारियों को रास्ता दिखाना शुरू किया है। कुछ ही दिन पहले एक दर्जन अधिकारियों को जबरन सेवानिवृत्त करने के बाद अब सरकार ने एक बार फिर बड़ी कार्रवाई करते हुए सीबीआइसी में कमिश्नर रैंक के 15 बड़े अधिकारियों की छुट्टी कर दी है। इन अधिकारियों पर घूसखोरी, फिरौती, कालेधन को सफेद करना, आय से अधिक संपत्ति, किसी कंपनी को गलत फायदा पहुंचाना जैसे आरोप हैं। इनमें से अधिकांश अधिकारी पहले से ही सीबीआई के शिकंजे में हैं। गौरतलब है कि मोदी को साल 2014 में स्पष्ट जनादेश तत्कालीन डॉ. मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील सरकार में व्यापक स्तर पर फैले भ्रष्टाचार के खिलाफ ही मिला था। यह ठीक है कि मोदी सरकार के पहले कार्यकाल के दौरान उन पर या किसी भी मंत्री पर बेईमानी के गंभीर आरोप नहीं लगे परंतु यह तथ्य भी उतना ही ठीक है कि नौकरशाही में फैले भ्रष्टाचार के चलते आम लोगों को भ्रष्टाचार की समस्या से राहत नहीं मिली। प्रशासन में निचले स्तर पर भ्रष्टाचार की उसी तरह शिकायतें आती रहीं। एक ईमानदार सरकार में भ्रष्ट ब्यूरोक्रेसी को देख लोगों में यह भावना घर करती दिखी कि शायद इसका कोई स्थाई समाधान है ही नहीं। सरकार कोई भी आए बाबू अपनी ही रीति-नीति चलाएंगे। हर्ष का विषय है कि मोदी सरकार ने जनता की इस परेशानी को न केवल समझा बल्कि इस दिशा में काम करना भी शुरू कर दिया है।

अब अफसशाही के भ्रष्टाचार के खिलाफ सरकार को अपनी रणनीति दो स्तरों पर बनानी होगी और नवीनतम टेक्नोलॉजी का सहारा लेना होगा। नौकरशाही के भ्रष्टाचार को दो वर्गों में बांटा जा सकता है। एक तो उच्च स्तर जो जनता के ध्यान में नहीं आता परंतु देश के विकास में यह सबसे बड़ी बाधा है। दूसरी श्रेणी का भ्रष्टाचार स्थानीय है जिससे आम आदमी हर रोज दो चार होने को मजबूर है। उच्च स्तरीय भ्रष्टाचार पर नथ डालने के लिए हर विभाग में अल्पकालीक व दीर्घकालीक लक्ष्य निर्धारित करने होंगे। विकास परियोजनाओं के संपूर्ण होने पर ही नहीं बल्कि बीच-बीच में भी इनकी समीक्षा करनी होगी। हर चरण के लिए जिम्मेवारी तय करनी होगी। केवल इतना ही नहीं बड़ी परियोजनाओं में जनभागीदारी को भी शामिल करना होगा। जिस इलाके में बड़े प्रोजेक्ट चल रहे हों उससे सर्वाधिक प्रभावित तो स्थानीय निवासी ही होते हैं तो फिर इन परियोजनाओं के निर्माण व क्रियान्वयन में वहां की जनता को कैसे अलग रखा जा सकता है। इन परियोजनाओं में स्थानीय जनप्रतिनिधियों, पंचायतों तथा प्रभावशाली समूहों को शामिल करना होगा। हर विभागों में व्याप्त अनावश्यक कानूनों व प्रशासनिक बाधाओं को समाप्त करना होगा जिसकी आड़ में कुछ अधिकारियों को भ्रष्ट आचरण करने का मौका मिलता है। सरकारी विभागों में सतर्कता तंत्र विकसित कर उन्हें प्रभावशाली बनाना पड़ेगा और भ्रष्टाचार के खिलाफ मिलने वाली शिकायतों पर शीघ्र कार्रवाई करनी पड़ेगी। भ्रष्टाचार में लिप्त कर्मचारियों व अधिकारियों पर इसी तरह की सख्त कार्रवाई करनी होगी जैसी कि वर्तमान समय में मोदी सरकार ने की है।

अब यहां एक विरोधाभासी बात यह है कि एक तरफ तो कुछ अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई की गई है तो केंद्रीय सतर्कता आयोग द्वारा अनुशंसित 120 भ्रष्ट अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई पर अनावश्यक देरी की जा रही है। स्थानीय या निचले स्तर पर फैले भ्रष्टाचार के लिए नवीनतम टेक्नोलॉजी का हथियार बनाना होगा। दुखद बात है कि आज भी किसानों को अपनी जमीनों की फर्द, मकानों का इंतकाल लेने, लोगों को लाइसेंस रिन्यू करवाने, विभिन्न तरह के चालान भुगतने, बैंकों से ऋण लेने से लेकर राशन कार्ड तक बनवाने जैसे छोटे-छोटे कामों के लिए सरकारी दफ्तरों की परिक्रमा करनी पड़ती है जहां उन्हें अनावश्यक दौड़ाया, भटकाया व काम को लटकाया जाता है ताकि लोग विवश हो सेवाशुल्क देने को तैयार हो सकें। साधारण जनता से जुड़े कामों का जितना डिजटलीकरण होगा निचले स्तर पर उतना ही भ्रष्टाचार कम होगा। जिस दिन अफसरशाही में भ्रष्टाचार का उन्मूलन हुआ उस दिन देश के माथे से गरीबी, पिछड़ेपन, विकास की कमी का दाग स्वत: धुलने शुरू हो जाएंगे। मोदी सरकार ने व्यवस्था के लिए जो सफाई अभियान चलाया है उसमें गति लाने की जरूरत है।

-अनुज मिश्र

(लेखक स्वतंत्र विचारक हैं )

………………………………………………………………………………………………………………………………………………………

 

सपना बड़ा लेकिन तैयारी कितनी ?

 

नीति आयोग के संचालक-मंडल की बैठक में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक जबर्दस्त घोषणा कर दी है। उन्होंने कहा है कि अगले पांच साल में भारत की अर्थ-व्यवस्था को वे लगभग दुगुना करना चाहते हैं। अभी वह पौने तीन लाख करोड़ रु. की है। उसे वे पांच लाख करोड़ की करना चाहते हैं। उनका इरादा तो बहुत अच्छा है लेकिन उसे वह साकार कैसे करेंगे? पता नहीं, उन्हें यह अंदाज भी है या नहीं कि इतनी तेज़ रफ्तार से आज तक दुनिया की कोई अर्थ-व्यवस्था आगे नहीं बढ़ी है। अभी दुनिया में कहीं किसी देश का सकल उत्पाद यदि एक-दो प्रतिशत भी आगे बढ़ जाता है तो लोगों की बांछें खिल जाती हैं। भारत के एक प्रमुख अर्थशास्त्री ने अभी-अभी अपने नए अनुसंधान के आधार पर सिद्ध किया है कि सरकार ने पिछले पांच साल की आर्थिक प्रगति के जो आंकड़े पेश किए हैं, उनमें बड़ी खामी है। अगले पांच साल में अपनी अर्थ-व्यवस्था में लगभग 100 प्रतिशत की वृद्धि की बात करना हवाई किले बनाने जैसी बात लगती है। इस समय अमेरिका की अर्थ-व्यवस्था 19.48 लाख करोड़, चीन की 12.27 लाख करोड़, जापान की 4.8 लाख करोड़ और जर्मनी की 3.69 लाख करोड़ की है। जापान, जर्मनी और ब्रिटेन जैसे छोटे-मोटे देशों की अर्थ-व्यवस्था भारत से ज्यादा बड़ी है लेकिन ये देश भारत के मुकाबले बहुत छोटे हैं। क्या भारत के नीति-निर्माता इनकी नकल करना चाहते हैं? जरुर करें लेकिन नकल के लिए भी अक्ल की जरुरत होती है। क्या भारत के नीति-निर्माताओं को पता है कि इन देशों की संपन्नता का रहस्य क्या है? सबसे पहला रहस्य तो यह है कि इनका सारा काम स्वभाषा में होता है। ये भारत की तरह नकलची और भााषाई गुलाम देश नहीं हैं। दूसरा, इन देशों ने अपने सीमित प्राकृतिक संसाधनों का जमकर दोहन किया है। यदि भारत का हर व्यक्ति दस पेड़ लगाने और कुछ साग-सब्जी उगाने का संकल्प ले ले तो ही काफी चमत्कार हो सकता है। तीसरा, इन छोटे-छोटे राष्ट्रों की संपन्नता का बड़ा रहस्य यह भी है कि इन्होंने सुदूर देशों के संसाधनों का दोहन करने में कोई कमी नहीं छोड़ी है, विनियोग, व्यापार और उपनिवेशवाद के द्वारा। भारत के पास दक्षिण और मध्य एशिया की अपार संपदा के दोहन के अवसर हैं लेकिन उसके नेताओं और नौकरशाहों को उनके बारे में सम्यक बोध ही नहीं है। शायद अब कुछ हो जाए।

– डॉ. वेदप्रताप वैदिक

 

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *