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मोदी यानि भारत : शौर्य और सनातन संस्कृति की विजय पताका

 

2019 की प्रचंड जीत के महानायक सिर्फ और सिर्फ मोदी बनकर उभरे हैं। बड़ा खिलाड़ी वह होता है जो दबाव में बेहतर खेले। 2019 के लोकसभा चुनावों में मोदी को घेरने के लिए पूरा विपक्ष एक जुट हो गया था। पार्टी के अंदर भी उनको घेरने की कोशिश एक धड़ा लगातार कर रहा था। संघ के साथ भी संबंध पहले जितने मधुर नहीं थे। पर इन सबके बावजूद पांच साल तक लगातार किए गए काम और राष्ट्रीय परिदृश्य के विमर्श को अपने हिसाब से निर्धारित करने की कला ने मोदी को देश में सर्वमान्य नेता बना दिया था। एक साल पहले उच्चतम न्यायालय के द्वारा एससीएसटी एक्ट में बदलाव के बाद पहले मोदी ने कानून बनाकर दलितों पर अपना विश्वास कायम किया इसके बाद सवर्णों में जो नाराजगी पैदा हुयी उसकी भरपाई आर्थिक आधार पर आरक्षण करके पूरी की। इसके साथ ही किसानों की आय दुगुनी करने पर वह काम समानान्तर रूप से कर ही रहे थे। 2019 के प्रारम्भ में किसानों के खाते में जैसे ही दो दो हज़ार की पहली किश्त आई तो वह वर्ग मोदी का अपना वोटर बन गया। इसके साथ ही स्वास्थ्य के क्षेत्र में लगातार हो रहे सुधार, आयुष्मान भारत योजना एवं पांच लाख के बीमे जैसे कार्यों ने गरीब और ग्रामीण वोटर को जाति-धर्म से अलग मोदी का वोटर बना दिया। एक ओर उज्ज्वला योजना से महिलाओं में मोदी की छवि बनी तो शौचालय निर्माण ने महिला अस्मिता का प्रतीक बनकर महिलाओं को सिर्फ और सिर्फ उनका वोटर बना दिया। तीन तलाक के द्वारा मुस्लिम महिलाओं के हृदय में मोदी द्वारा किया गया निवेश काम आया। गांव गांव तक बिजली पहुंचने के कारण बहुत से गांवों में पहली बार रात में दिन का उजाला हुआ। वहां टीवी और मोबाइल की आमद बढ़ी। रही कसर जियो आने के बाद सस्ते डेटा ने पूरी कर दी। इस तरह सबके हाथों में मोदी के काम और पैगाम पहुंचने लगे थे। मोदी दिल्ली से दूर भी लोगों से सीधे मन की बात कर रहे थे। इन सबके बीच विपक्ष सिर्फ जातिगत आंकड़ों के आधार पर मेज़ कुर्सी की राजनीति कर रहा था। जातियों और अल्पसंख्यकों के वोटों की गुणा भाग में लगा था। राहुल गांधी चौकीदार चोर के जरिये सिर्फ मोदी को चोर साबित करने की कोशिश में थे पर उच्चतम न्यायालय में लगातार माफी भी मांग रहे थे। राहुल और विपक्ष द्वारा मोदी पर व्यक्तिगत हमला मोदी के उन वोटर को नहीं रास आया जो मोदी के द्वारा लाभान्वित हुये थे। इसी मतदाता वर्ग को साइलेंट वोटर कहा जा रहा था। जो खामोश था किन्तु सभी गतिविधियों पर पैनी नजऱ रखे था। 23 मई को जब मतगणना हुयी तब यही खामोश मतदाता ऐसा चिल्लाया कि उसकी गूंज पूरे भारत ने सुनी और मोदी का विराट स्वरूप सम्पूर्ण विश्व के सामने नुमाया हो गया। नोटबंदी, जीएसटी, राफेल और कालेधन के सतही विषयों पर मोदी को घेरने वाले नेताओं की दुकान जनता ने एक झटके में बंद कर दी। यदि देखा जाये तो एक साल से अपने पत्ते फेंटने का जो काम मोदी कर रहे थे उस क्रम में उन्हे नवंबर 2018 में तीन राज्यों की सरकारें तो गंवानी पड़ी किन्तु सम्पूर्ण भारत में विजय का आधार भी वहीं से तैयार हुआ। इसके बाद जनवरी 2019 में मोदी का साक्षात्कार एवं फरवरी 2019 में पुलवामा हमले के बाद पाकिस्तान को करारा जवाब जनता में मोदी की विश्वसनीयता को पुख्ता कर गया। विपक्ष के द्वारा एक के बाद एक हर कार्य पर उंगली उठाना और नकारात्मक राजनीति करना जनता को इतना अखरा कि उसने भारतीय राजनीति की नयी दिशा की बुनियाद रख दी। मोदी अब इस मजबूत बुनियाद पर बड़ी इमारत बनाने की तरफ अग्रसर हो चुके हैं। पूरे परिदृश्य पर अनुज अग्रवाल एवं अमित त्यागी एक विश्लेषण प्रस्तुत कर रहे हैं।  

द्य अनुज अग्रवाल एवं अमित त्यागी

आर्यावर्त का स्वप्न्न लेकर विश्व विजय पर निकले एक योद्धा को भारतीयों ने प्रचंड जीत का तोहफा दिया है। इतनी बड़ी जीत जिसका अनुमान शायद मोदी-शाह की जोड़ी को भी नहीं था। लगातार चौतरफा हमले झेल रहे मोदी-शाह को भी एक बार यह लगने लगा था कि शायद इस बार बहुमत के आंकड़े से वह दूर रह जाएंगे। पर जनता तो आखिर जनता होती है। जब उनके नेता ने उनके लिए हाथ भर भर कर नीतियां लुटाईं तो उसने भी समय आने पर उनकी झोली वोटों और सीटों से भर दी। शायद यह एक नए भारत का उदय है जिसमें सेकुलरवाद का झूठा ढोंग नहीं है। मुस्लिम तुष्टीकरण की नीतियां नहीं है। भ्रष्टाचार को छुपाने के लिए क्षेत्रीय दलों की जातिगत राजनीति नहीं है। है तो सिर्फ मोदी और उस पर उसकी जनता का विश्वास। बीच में कुछ भी नहीं है। न कोई नेता। न कोई दल। न कोई छल-प्रपंच। मोदी और जनता के बीच सीधे एक मन की बात है।

मोदी से जनता का जुड़ाव एक दिन में नहीं बना है। इसके लिए मोदी की टीम ने बहुत मेहनत की है। लगातार राष्ट्रीय विमर्श और राष्ट्रीय परिदृश्य पर अपनी पैनी नजऱ रखी है। चार साल काम करने के बाद पांचवे साल पूरी तरह से अपनी नीतियां और उसकी रूपरेखा जनता तक पहुंचाने का काम किया। इसके साथ ही देश का चुनावी विमर्श क्या होना चाहिए वह भी मोदी लगातार तय करते रहे। मोदी विरोध में जुटा विपक्ष मोदी की किसी भी नीति का तथ्यों के आधार पर विरोध नहीं कर पाया। विपक्ष के विरोध न करने की वजह भी साफ है। मोदी की टीम विपक्षियों की एक एक कमी पर नजऱ जमाये हुये थे। ऐसा लगता था जैसे विरोधियों के हर सवाल का जवाब मोदी की टीम के पास पहले से होता था। भारत की राजनीति में शायद ही कभी विपक्ष पर इतना होम वर्क किया गया हो जितना इस कार्यकाल में हुआ। सबसे पहले एक रणनीति के तहत जम्मू कश्मीर में पीडीपी के साथ सरकार बनाई गयी। अपने लोगों को सत्ता चलाने का अनुभव दिया और पीडीपी को खत्म कर दिया। यहां तक कि मुख्यमंत्री रहीं महबूबा मुफ्ती स्वयं अपना चुनाव हार गईं। इसके बाद बंगाल में वाम मोर्चे के वोटों पर भाजपा ने कब्जा किया और तृणमूल कांग्रेस का गढ़ तोड़ दिया। वाम मोर्चा बंगाल में ममता को खत्म करना चाहता था ऐसे में भाजपा का साथ उसके लिए ज़रूरी था। भाजपा ने मौके को भुनाया और वामदलों के अंदुरुनी सहयोग से ममता को निशाने पर लिया गया। मुस्लिम तुष्टीकरण की पैरोकार ममता के सामने भाजपा के द्वारा बंगाली अस्मिता का मुद्दा लाया गया। ये खेल अंतिम चरण का चुनाव आते आते बहुत ज़्यादा हिंसक हो गया। ईश्वर चंद्र विद्यासागर के विवाद के बाद इसके अंदर की राजनीति भी लोगों को समझ आने लगी किन्तु तब तक ममता बनर्जी का किला भेदा जा चुका था। ममता को खत्म करने की कोशिश करने में लगे वामदलों ने बंगाल में भाजपा को स्थापित कर दिया। इसी तरह आंध्र प्रदेश में चंद्रबाबू नायडू विपक्षी गठबंधन की धुरी बनने के लिए पूरे देश में उछल कूद कर रहे थे। उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव की तरह वह भी अपने गठबंधन के प्रयास पर अंदर ही अंदर मुग्ध हो रहे थे और भाजपा खेमा उनको संतुलित करने की भीतरी चाले चल रहा था। जगन मोहन रेड्डी का शांत रहकर परिदृश्य में उभर आना सिर्फ उनकी अपनी क्षमताओं के कारण नहीं है। इसमें भाजपा की अंदुरुनी राजनीति का बड़ा योगदान है। जगन को उभारकर एक ओर भाजपा ने चंद्रबाबू को नेस्तनाबूद किया दूसरी तरफ जगनमोहन अब एनडीए के साथ आने वाले हैं। ऐसा ही कुछ खेल अब तमिलनाडु में भाजपा के लोग करने वाले हैं। तमिलनाडु में रावण को पूजनीय मानने वाले डीएमके के अंदर सेंध लगाने में भाजपा थिंक टैंक लग गया है।

उधर महाराष्ट्र में शिवसेना भाजपा के साथ सामंजस्य नहीं बैठा पा रही थी। इस पर मोटा भाई ने शिवसेना को उम्मीद से ज़्यादा सीटें देकर उनके साथ तल्खियां दूर की और अपना हिन्दू वोटबैंक बंटने नहीं दिया। इसका फायदा महाराष्ट्र में भाजपा को दिखाई भी दिया। ऐसा ही फॉर्मूला बिहार में जेडीयू के साथ अपनाया गया और अपनी जीती हुयी सीटें भी भाजपा ने जेडीयू को दे दी। रामविलास पासवान भी इस दौरान क्षमताओं से ज़्यादा सीटें पा गये। इस तरह से भाजपा के द्वारा चुनाव के पहले अपने स्वपक्षी और विपक्षी दोनों ही राजनीतिक दलों को साधने के लिए ज़बरदस्त तरीके से काम किया गया। शतरंज की बिसात पर शायद ही कोई घर होगा जिस पर भाजपा ने काम नहीं किया। अपने सारे पत्ते फेंटे। सभी को साधा और सभी को निशाने पर लिया। पर क्या इतनी प्रचंड जीत सिर्फ राजनीति को साधने से संभव नहीं हुयी है? ऐसा भी नहीं है। इसके लिए अमित शाह का प्रबंधन, भाजपा की रणनीति एवं जनता के लिए किए गये काम एक बड़ी भूमिका निभा रहे थे। इन सबको हवा दी राष्ट्रवाद की भावना ने जो पुलवामा हमले के बाद की गयी एयर स्ट्राइक के बाद पूरे देश की रगों में दौड़ गयी थी।

प्रबंधन, कौशल एवं आत्मविश्वास की है जीत 

विकास के नाम पर चुनाव नहीं जीते जाते हैं ऐसा सभी मानते हैं किन्तु विकास के बिना भी चुनाव नहीं जीते जाते हैं यह भी एक सत्य है। विकास करके उसको किस कलेवर के साथ जनता के सामने प्रस्तुत करना है यह कार्यों को वोटों में तब्दील करती है। शायद इसी को प्रबंधन एवं कौशल कहा जाता है। एक ओर उज्ज्वला, धनजन, शौचालय, कौशल विकास एवं अन्य योजनाओं के द्वारा सरकारी योजनाएं जनता तक पहुंच रही थीं तो दूसरी तरफ मोदी की छवि बनाने के लिए उनकी टीम लगातार लगी हुयी थी। देश के राजनीतिक विमर्श की दिशा कब क्या होनी चाहिए इस पर मोदी की टीम की पकड़ कभी ढीली नहीं हुयी। सितंबर अक्तूबर 2018 के समय एक ऐसा समय भी आया जब एससीएसटी संशोधन के कारण भाजपा का कोर वोटर सवर्ण नोटा का अभियान चलाने लगा। भाजपा का मुख्य हथियार सोशल मीडिया उसके लिए आग उगलने लगा। उस समय ऐसा लगा कि शायद स्थितियां भाजपा के हाथ से निकल रही हैं। उसी समय पूरे भारत में भाजपा के विरोध में महागठबंधन बनाने की कवायद भी तेज़ी के साथ चलने लगी। राहुल गांधी जोश से लबरेज दिखने लगे। उसके बाद मोदी ने मास्टर स्ट्रोक चला। आर्थिक आधार पर आरक्षण का मास्टर स्ट्रोक सबके सामने आया। एक झटके में विरोधी पस्त हो गये। जो सोशल मीडिया मोदी विरोध और नोटा समर्थन में बात कर रहा था वह फिर से मोदी मोदी करने लगा। उसी दौरान साधु संत राम मंदिर निर्माण के लिए सरकार पर दबाव बना रहे थे। कुम्भ के दौरान इक_ा हुये साधु वहीं से अयोध्या की तरफ कूच करने की तैयारी में थे। सरकार दबाव में थी। कानूनी बाध्यता के चलते सरकार के रूप में  मोदी स्वयं को लाचार बता रहे थे। संघ प्रमुख अपने बयानों से सरकार पर दबाव बढ़ा रहे थे।

तब ऐसी संभावनाएं बन रही थीं कि शायद स्वयं मोदी अयोध्या जाकर रामलला के दर्शन करेंगे। जनता चाहती थी कि चुनाव के पहले मोदी राम मंदिर पर कुछ बड़ा कार्य करें। जनता के बीच एक बड़ा वर्ग उसी दौरान 370 को एक झटके में खत्म करने का दबाव बना रहा था। यह समय मोदी के लिए बेहद प्रतिकूल एवं हाथ से जाता दिख रहा था। उन्होंने धैर्य रखा और तभी पुलवामा की घटना हुयी। यहां से मोदी को संजीवनी मिल गयी। एक ओर उन्होंने पाकिस्तान के घर में घुसकर उस पर हमला किया और अपना 56 इंची सीना अपनी जनता को दिखा दिया तो दूसरे ओर अभिनंदन की सकुशल रिहाई से अपनी अन्तर्राष्ट्रीय पकड़ अपनी जनता को दिखा दी। यहीं से जनता को मोदी के अंदर पुन: प्रधानमंत्री बनाने की भावना बलवती हो गयी। उसने मन बना लिया कि किसे वोट देना है। इसी वोटर को बड़े बड़े राजनीतिक विश्लेषक एवं पत्रकार साइलेंट वोटर कह रहे थे। जो बोल नहीं रहा था। बिलकुल खामोश था। झूठ और प्रपंच की राजनीति करने वाले दलों को जवाब देने की शुरुआत यहीं से शुरू हुयी। इसके बाद जब विपक्षियों ने सरकार से हमले के सबूत मांगने शुरू किए तो पाकिस्तानी मीडिया पर तो उन्हें अच्छी कवरेज मिली किन्तु अपनी जनता की नजऱों से वह उतरते चले गये। राफेल के बहाने राहुल के द्वारा बार बार प्रधानमंत्री को चोर कहना उनकी विश्वसनीयता को कम कर रहा था। पर न राहुल इस बात को समझ पा रहे थे न ही सबूत मांगने वाले अन्य दल। वह लगातार गलती पर गलती करते चले जा रहे थे और जनता इनको अपनी नजऱ से उतारती चली जा रही थी। ‘चौकीदार चोर है’ के जवाब में जैसे ही भाजपा ने ‘मैं भी चौकीदार’ का नारा दिया तो सोशल मीडिया पर अपने नाम के आगे चौकीदार लगाने की होड़ मच गयी। जनता को यह नारा पसंद आने लगा। अभिनंदन की वापसी के बाद उनकी तरह की मूंछे ‘राष्ट्रीय मूंछ’ बन गईं। चूंकि भारत की जनता भावुक है इसलिए वह काम को तो पसंद करती है किन्तु भावनाओं में बहती है। एक बार देश में राष्ट्रवाद की भावना ऐसी बही कि सम्पूर्ण उत्तर और पश्चिम भारत में सुनामी का रूप ले गयी। एसी कमरों में बैठकर नकारात्मक राजनीति करने वाले नेस्तनाबूद कर दिये गए। भारत की आत्मा को मारने वाले तत्वों की हार हुयी। यहां तक कि भाजपा के लिए कठिन माने जाने वाले राज्यों में भाजपा का मत प्रतिशत बढ़ गया। कश्मीर में 2014 की अपेक्षा 12 प्रतिशत मत बढऩा इस बात को दर्शाता है कि अंदर  ही अंदर मोदी की नीतियां और शैली उनके विपक्षी वोटर में सेंध लगा चुकी हैं।

जम्मू कश्मीर में बढ़े मत प्रतिशत का है बड़ा महत्व 

मोदी के पांच साल के कार्यकाल में सबसे बड़ी उपलब्धि कश्मीर में अपनी जड़ें मजबूत करना रहा। कश्मीर विषय संघ के मूल एजेंडे का विषय रहा है। अनु0-370 और धारा 35-ए ऐसे विषय हैं जिस पर पूरा भारत मोदी सरकार से एक निर्णायक निर्णय की अपेक्षा कर रहा है। राज्यसभा में बहुमत न होने के कारण यह विषय मोदी के पहले कार्यकाल में अमली जामा नहीं पहन पाया।  पर जम्मू कश्मीर में इन पांच सालों में खूब काम हुआ। राम माधव के नेतृत्व में कश्मीर में भाजपा मजबूत हुयी। पहले भाजपा ने पीडीपी के साथ मिलकर गठबंधन सरकार बनाई इसके बाद पीडीपी और नेशनल कांफ्रेंस का गढ़ समझे जाने वाला कश्मीर राजनीतिक रूप से अपनी तरफ मोड़ लिया। सरकार का हिस्सा होने के कारण वहां का भाजपा कार्यकर्ता नौकरशाही में अपनी पैठ बनाने में कामयाब हो गया। उसे सत्ता चलाने का तजुरबा भी हो गया। तमाम अंतर्विरोधों और विवादों के बावजूद लगभग तीन साल तक यह साथ चलता रहा। इस दौरान अलगाववादी ताकतों को किनारे लगाने का काम भी अंदुरुणी तौर पर समानान्तर रूप से चलता रहा। इसके बाद जब 17वीं लोकसभा के गठन के लिए चुनाव परिणाम आए तो आश्चर्यजनक रूप से भाजपा ने 46.4 प्रतिशत मत प्राप्त किए। 2014 में भाजपा को 34.40 प्रतिशत मत प्राप्त हुये थे। मतों में 12 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी इस बात का संकेत है कि मोदी सरकार की कश्मीर नीति वहां के लोगों को रास आ रही है। यदि सीटों के हिसाब से बात करें तो 2019  में भाजपा ने जम्मू-पुंछ, ऊधमपुर-कठुआ एवं लद्दाख सीटों पर जीत हासिल की है। 2014 में भी इन्हीं तीन सीटों पर भाजपा ने जीत प्राप्त की थी किन्तु 12 प्रतिशत मतों की बढ़ोत्तरी कश्मीर भूभाग में भाजपा की गहरी होती जड़ों को दिखाता है। जम्मू कश्मीर की राजनीति को समझने के लिए एक थोड़ा सा भूगोल समझना बेहद आवश्यक है। वहां तीन क्षेत्र हैं जिनसे मिलकर जम्मू कश्मीर राज्य बनता है। जम्मू क्षेत्र, कश्मीर क्षेत्र एवं लद्दाख क्षेत्र। जम्मू और लद्दाख क्षेत्र की तीन सीटें भाजपा ने जीती हैं। कश्मीर क्षेत्र की तीन सीटें नेशनल कान्फ्रेंस को प्राप्त हुयी हैं। पीडीपी किसी भी सीट पर विजय नहीं प्राप्त कर पायी है। इस तरह से अगर राजनीतिक रूप से देखा जाये तो भाजपा ने पीडीपी से गठबंधन करके उसके ही वोटों में सेंध लगा दी। अब शायद भाजपा समर्थक उन लोगों को जवाब मिल गया होगा जो लोग पीडीपी से भाजपा के गठबंधन के कारण भाजपा को कोसते थे क्योंकि पीडीपी पत्थरबाज़ों को अंदर ही अंदर सहयोग करती थी। कश्मीर के संबंध में भाजपा की राजनीति और कूटनीति का मिला जुला प्रारूप 16 लाख 48 हज़ार 41 लोगों ने अपना मत देकर स्वीकार किया। कश्मीर के चुनाव परिणाम में एक रोचक तथ्य और भी है। कांग्रेस ने हालांकि, किसी भी सेट पर विजय हासिल नहीं की फिर भी कांग्रेस के वोटों में पांच प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुयी है। इससे एक बात तो साफ हो गयी है कि जम्मू कश्मीर में भी क्षेत्रीय दल प्रभावहीन होते जा रहे हैं। चुनाव परिणाम के बाद की स्थिति में कश्मीरी पंडितों का मुद्दा कश्मीर में बड़ा विषय बन कर  उभरा है। कश्मीरी पंडितों ने बड़े पैमाने पर भाजपा को वोट दिया है। लगभग 86 प्रतिशत कश्मीरी पंडितों के वोट भाजपा को मिले हैं। भाजपा के बढ़े मत प्रतिशत में इन बढ़े मतों का भी एक योगदान है।

प्रचंड जीत से खतरे में कई राज्यों की सरकारें

लोकसभा की प्रचंड जीत का प्रभाव कुछ राज्यों की राज्य सरकारों पर भी पडऩे जा रहा है। कुछ महीने पहले मध्य प्रदेश में हुए विधानसभा चुनाव में कांग्रेस 114 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी। भाजपा को यहां 109, बसपा को 2, सपा को 1 और निर्दलीय को 4 सीटें मिली थीं। कांग्रेस और बीजेपी में महज 5 सीटों का ही फासला था। लेकिन सपा-बसपा और निर्दलीय के समर्थन से कांग्रेस ने यहां सरकार बना ली थी। मध्य प्रदेश के नेता प्रतिपक्ष गोपाल भार्गव ने विधानसभा का सत्र बुलाए जाने की मांग भी कर दी है। वह राज्यपाल को पत्र लिखकर मांग कर रहे हैं कि विधानसभा सत्र में सत्ताधारी दल की शक्ति का भी परीक्षण हो जाएगा क्योंकि कांग्रेस के पास दूसरों के सहयोग से बहुमत है। लोकसभा में प्रचंड जीत का आत्मविश्वास मध्य प्रदेश में साफ दिखाई देने लगा है। मध्य प्रदेश में भाजपा बहुमत के आंकड़े के बहुत ज्यादा दूर नहीं है। केंद्र में एक बार फिर मोदी सरकार के आने के बाद कमलनाथ सरकार के लिए मुश्किलें खड़ी हो गई हैं। इसके साथ ही कर्नाटक में भी साल 2018 में हुए कर्नाटक विधानसभा चुनाव में भाजपा ने 104 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी का तमगा हासिल किया था। कांग्रेस ने 78 सीटें, जेडीएस ने 37, बसपा ने 1, केपीजेपी ने 1 और अन्य ने 2 सीटों पर जीत दर्ज की थी। सबसे बड़ी पार्टी होने के बावजूद भाजपा यहां सरकार नहीं बना सकी थी। कांग्रेस और जेडीएस ने गठबंधन कर राज्य में सरकार बना ली थी। इन दोनों पार्टियों का यह दांव ठीक वैसा ही था जैसा भाजपा ने गोवा में उनके साथ चला था। कर्नाटक में भाजपा ने लगभग क्लीन स्वीप ही कर दिया है इसलिए इसका असर विधानसभा की सत्ता के गलियारों पर भी पडऩे जा रहा है।  कुमारस्वामी की सरकार पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं क्योंकि कांग्रेस से भी उनके संबंध मधुर नहीं चल रहे हैं। अब ऐसी संभावना भी बन रही है कि लोकसभा चुनाव में प्रचंड जीत के बाद मुख्यमंत्री कुमारस्वामी कांग्रेस का साथ छोड़कर बीजेपी के साथ मिलकर सरकार बना सकते हैं।

ऐसा ही कुछ समीकरण राजस्थान में भी बनता दिख रहा है। अशोक गहलौत के बेटे की हार के बाद उन पर पार्टी से ज़्यादा अपने बेटे पर ध्यान लगाने का आरोप लग रहा है। भाजपा ने राज्य में 24 सीटें जीती हैं जबकि एक अन्य सीट पर उसकी सहयोगी राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी जीती है। कांग्रेस के अंदर गहलौत एवं पाइलट खेमे की गुटबाजी काफी उभर गयी है। वहां सत्ता के दो केंद्र बनने के कारण स्थितियां खराब होती जा रही हैं। अगर स्थितियां ऐसी ही रहीं तो कांग्रेस के कमजोर होने की स्थिति का लाभ भाजपा लेने से नहीं चूकेगी।

कांग्रेस के लिए गंभीर चिंतन का समय 

चौकीदार चोर है का नारा देने वाले राहुल गांधी और उनके दल कांग्रेस को जनता ने पूरी तरह नकार दिया है। देश के 21 राज्यों से कांग्रेस पूरी तरह साफ हो चुकी है। राहुल गांधी कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप में पार्टी पर भले ही थोप दिये गए हों किन्तु देश की जनता ने उन्हें स्वीकार नहीं किया। उनका साथ देने इस बार प्रियंका गांधी भी आयीं किन्तु उनके आने के बाद अमेठी भी हाथ से चली गयी। उनके साथ ज्योतिरादित्य सिंधिया ने उत्तर प्रदेश की कमान संभाली तो वह अपनी सीट ही गंवा बैंठे। यानि कि जिन लोगों पर कांग्रेस की डूबती नैया पार लगाने की जि़म्मेदारी थी वह सब नाव को और ज़्यादा डुबा गए। जिस को लोग बाड़ समझ रहे थे वह स्वयं ही खेत को खा गयी। इस चुनाव का जनादेश सभी वंशवादियों और जातिगत राजनीति करने वालों के लिए एक स्पष्ट संदेश दे रहा है। चुनाव परिणाम के बाद सबसे पहले राहुल गांधी ने इस्तीफा दिया। इसके बाद जैसी अपेक्षा थी कांग्रेस पार्टी के द्वारा उनका इस्तीफा नामंज़ूर कर दिया गया। अब राहुल गांधी ने किसे इस्तीफा दिया और किसने इस्तीफा मंजूर नहीं किया यह किसी को नहीं पता है।

अब प्रश्न यह है कि कांग्रेस का भविष्य अब क्या होगा? कांग्रेस किन किन विकल्पों पर गौर करेगी? इस गुत्थी को समझने के लिए हमें कांग्रेस के इतिहास को समझना होगा। कांग्रेस में नेहरू के प्रधानमंत्री बनने के बाद से ही वंशवाद प्रारम्भ हो गया था। लालबहादुर शास्त्री के स्थान पर नेहरू ने इन्दिरा में ज़्यादा संभावनाएं देखी। इसके बाद राजीव गांधी कांग्रेस के मुखिया बने। तीन बार कांग्रेस में ऐसा भी समय आया जब इस परिवार से अलग किसी व्यक्ति ने सत्ता संभाली। लाल बहादुर शास्त्री, नरसिंह राव एवं मनमोहन सिंह के कार्यकाल में यह लोग परिवार से परेशान ही रहे। गांधी परिवार इनकी सरकारों में अपना हस्तक्षेप करता रहा। नरसिंह राव की तो गांधी परिवार से तल्खी इतनी ज़्यादा बढ़ गयी थी कि उनको दिल्ली में दफनाया भी नहीं गया। उनके सारे क्रियाकर्म हैदराबाद में करने पड़े थे। इस तरह से देखा जाये तो वंशवाद की यह बेल कांग्रेस में इतनी गहरी है कि इसे तोडऩा संभव नहीं है। हालांकि कांग्रेस से अलग भारत देश तीन बार वंशवाद की बेल को तोड़ चुका है। पहली बार सभी राजघरानों का भारत में विलय करके सरदार पटेल ने यह बेल तोड़ दी थी। इसके बाद भारत में गणतन्त्र की स्थापना हुयी और संविधान का निर्माण हुआ तब भारतीयों ने ब्रिटेन की महारानी के वंश को भारत से अलग कर दिया था। तीसरी बार जब जमींदारी उन्मूलन का कार्यक्रम हुआ तब भी वंशवादी परम्पराएं टूटी। किन्तु यह सब कांग्रेस में कभी संभव ही नही हुआ और न ही निकट भविष्य में संभव दिखाई दे रहा है।

अगर कोई बड़ा बदलाव कांग्रेस में संभव है तो वह है कि प्रियंका गांधी कांग्रेस की कमान संभाल सकती हैं। पर यह भी आसान नहीं है। इसके लिए पहले राहुल गांधी को सम्मानजनक तरीके से बाहर करना होगा। इसके साथ ही प्रियंका गांधी के पति इतने आरोपों को झेल रहे हैं कि कब उन्हें जेल जाना पड़ेगा यह भी अभी स्पष्ट नहीं है। इसलिए कोई बड़ा बदलाव करना कांग्रेस के लिए आसान नहीं होगा। कांग्रेस के अंदर की इस समस्या पर 1977 में प्रख्यात व्यंग्यकार शरद जोशी ने एक टिप्पणी की थी जो आज भी प्रासंगिक है। ”इतिहास साक्षी है कि कांग्रेस ने जो कहा, वो किया नहीं। जो किया वह बताया नहीं। जो बताया वह था नहीं। अहिंसा की नीति पर विश्वास किया और उसे लाठी डंडों से संतुलित किया। सत्य की नीति पर चली किन्तु सत्य बोलने वालों से हमेशा परहेज किया।’’ इन्दिरा गांधी के दौर में कांग्रेस में जिसने आवाज़ उठायी उसे कुचल दिया गया किन्तु 2010 आते आते जब कांग्रेस का ग्राफ नीचे आया तब कुछ विद्रोह के स्वर आगे बढ़ गए। इतने आगे बढ़ गए कि आज कांग्रेस की फांस बन गए दिखते हैं।

आंध्र प्रदेश के जगन मोहन रेड्डी ने जिस तरह कांग्रेस और गांधी परिवार से हुये अपने अपमान का बदला लिया है उसे सोनिया गांधी कभी भूल नहीं पाएंगी। यह घटना 2010 की है जब तत्कालीन मुख्यमंत्री वाईएसआर रेड्डी की हेलीकाप्टर दुर्घटना में मृत्यु हो गयी थी। तब उनकी पत्नी विजयलक्ष्मी और उनकी बेटी शर्मीला सोनिया गांधी से मिलने दिल्ली गईं। जब वह 10 जनपथ पहुंची तब उन्हें उम्मीद थी कि सोनिया गांधी उनका गर्मजोशी से स्वागत करेंगी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। काफी इंतज़ार करने के बाद सोनिया गांधी उनसे मिलने आयीं। आते ही वह उन पर गरम हो गईं और कहा कि उनके बेटे जगन से कहें कि वह तुरंत यात्रा रोक दे। उस समय जगन कांग्रेस आलाकमान के विरोध के बावजूद एक यात्रा निकाल रहे थे। कहा जाता है कि सोनिया गांधी विजयालक्ष्मी पर चिल्लाई भी थीं। अपमान का घूंट पीकर मां बेटी वापस हैदराबाद वापस आ गईं। इसके बाद जगन मोहन रेड्डी ने अपनी पार्टी बनाई। अपने पिता की ज़मीन पर अपनी इमारत खड़ी की और आज आंध्र प्रदेश में कांग्रेस को एक बड़ी मात दे दी। इसके साथ ही उन्होंने गठबंधन बनाने के लिए उछल कूद कर रहे चंद्रबाबू नायडू को भी ज़मीन पर ला दिया। अब क्या राहुल गांधी में वह योग्यता है कि वह अपने दम पर इस तरह का कोई करिश्मा दिखा सके। क्या उनकी बहन प्रियंका भी कुछ ऐसा कर पाने में सक्षम हैं? यह सबसे बड़ा प्रश्न है। वंशवाद के द्वारा आप किसी दल के अध्यक्ष तो बन सकते हैं किन्तु जनता के दिल में जगह बनाने के लिए आपके अंदर उतनी क्षमताएं भी होनी चाहिए। इसको न समझने के कारण ही कांग्रेस क्षेत्रीय दल बनने की तरफ बढऩे लगी है और क्षेत्रीय दल तो खैर सिमट ही रहे हैं।

क्षेत्रीय दलों का सिमटता दायरा 

2019 के चुनाव परिणाम से जो सबसे बड़ी और मुख्य बात उभर कर सामने आई है वह है कि क्षेत्रीय दलों की राजनीति जनता को पसंद नहीं आ रही है। उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा का गठबंधन ताश के पत्तों की तरह ढह गया। दिल्ली और हरियाणा में आम आदमी पार्टी कुछ नहीं कर पायी। बिहार में राजद को मुंह की खानी पड़ी तो बंगाल में ममता नुकसान में आ गईं। शायद क्षेत्रीय दल के नेता अभी भी जनता का मूड नहीं भांप पा रहे हैं। उनको लगता है कि सिर्फ मोदी विरोध के द्वारा ही जनता उन्हें वोट दे देगी। पर ऐसा नहीं है। जनता अब केंद्र और राज्य की वोटिंग के दौरान के अंतर को जान चुकी है। वह मोबाइल पर सब सूचनाएं प्राप्त कर रही है। अब वह न्यूज़ चैनल या अखबार पर निर्भर नहीं है। सोशल मीडिया पर लोगों द्वारा व्यक्त की जा रही प्रतिक्रियाएं यह बता रही हैं कि उन्होंने जातिगत आधार से ऊपर उठकर राष्ट्र के लिए वोट किया है। यह देश में एक नए तरीके की राजनीति है। इसमें सनातन और संस्कृति के लिए प्रेम है तो भारत की लिए गर्व भी है। इसमें महंगे ब्रांड के लिए स्वीकार्यता है तो भारतीयता के लिए पूर्ण सम्मान भी। यहां औछी राजनीति और आरोप प्रत्यारोप से दूरी है तो सकारात्मक्ता का सम्मान भी है। शायद यहीं से भारत की आत्मा झलकती है। युवाओं का जोश पैदा होता है और यही जोश भुनाने में मोदी पूरी तरह कामयाब भी रहे हैं।

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अखिलेश बनाम राहुल : कौन बड़ा पप्पू

राहुल गांधी को पप्पू यूं ही नहीं कहा जाता है। इसके लिए लगातार उन्होंने परिणाम दिये हैं। इस नाम की उपयोगिता साबित की है। अब इस नाम के नए दावेदार भी उनके सामने आ खड़े हुये हैं। उत्तर प्रदेश के भूतपूर्व मुख्यमंत्री और सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष इस दौड़ में तेज़ी के साथ आगे बढ़ रहे हैं। पहले अखिलेश यादव ने अपने चाचा से लड़ाई की और उसका सीधा प्रसारण पूरे भारत ने देखा। 2017 के चुनाव के ठीक पहले ये पारिवारिक लड़ाई एक मेलोड्रामा की तरह मीडिया की सुर्खियां बनी रही। इसके बाद अखिलेश यादव ने उत्तर प्रदेश में बिलकुल मृत पड़ी कांग्रेस से गठबंधन किया। युवाओं की जोड़ी के नाम से खुद और राहुल को प्रचारित किया। दोनों युवा ट्रक की छत पर बैठकर बिजली के तार हटाते हुये उत्तर प्रदेश की तंग गलियों में घूमते रहे। जब चुनाव परिणाम आए तब वह भी घूमने वाले ही थे। दोनों युवा औंधे मुंह गिरे।

कांग्रेस से गठबंधन के कारण सपा वह सीटें भी हार गयी जहां वह अकेले दम पर जीत सकती थी। इसके बाद भी अखिलेश यादव ने हार नहीं मानी और राहुल से पप्पू का ताज छीनने के लिए मेहनत करते रहे। इसके बाद 2019 में बारी थी मायावती की। बुआ बुआ करते बबुआ गठबंधन करके मन ही मन मुस्कुरा रहा था। और पापा अपने बेटे की करतूत पर अंदर ही अंदर कुंठित हो रहे थे। इसके बाद 2019 का जब परिणाम आया तब बुआ बाज़ी मार ले गईं। बबुआ 5 सीटें ही जीत पाये। अपनी पत्नी की सीट भी गंवा बैठे। जो मायावती 2014 में अपना खाता भी नहीं खोल पायी थीं वह दहाई का अंक पार कर गईं। स्वयं को फना करके बबुआ ने बुआ को जिंदा कर दिया। ऐसा तो भक्त प्रहलाद भी नहीं कर पाये थे। इससे ज़्यादा सीटें तो बिना गठबंधन के भी सपा जीत सकती थी। अब वंशवाद के आधार पर राजनीति कर रहे चालीस के ऊपर के इन दोनों चिरयुवा के बीच में असली और बड़ा  ‘पप्पू’ बनने की दौड़ तेज़ हो चुकी है।

-अमित त्यागी

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आपराधिक प्रवृत्ति के लोग बढ़ रहे संसद में

17वीं लोकसभा के लिए चुनकर आए 542 सांसदों में से 233 (43 प्रतिशत) सांसदों के खिलाफ आपराधिक मुकदमे लंबित हैं।  इनमें से 159 (29 प्रतिशत) के खिलाफ गंभीर आपराधिक मामले चल रहे हैं। आपराधिक मुकदमों से घिरे सांसदों की संख्या में 2009 के बाद से 44 प्रतिशत इजाफा हुआ है। एडीआर की रिपोर्ट के अनुसार 2009 के लोकसभा चुनाव में आपराधिक मुकदमे वाले 162 सांसद (30 प्रतिशत) चुनकर आये थे, जबकि 2014 के चुनाव में निर्वाचित ऐसे सांसदों की संख्या 185 (34 प्रतिशत) थी। नवनिर्वाचित 542 सांसदों में 539 सांसदों के हलफनामों के विश्लेषण के आधार पर देखें तो इनमें से 159 सांसदों (29 प्रतिशत) के खिलाफ हत्या, हत्या के प्रयास, बलात्कार और अपहरण जैसे गंभीर आपराधिक मामले लंबित हैं। पिछली लोकसभा में गंभीर आपराधिक मामलों के मुकदमों में घिरे सदस्यों की संख्या 112 (21 प्रतिशत) थी, वहीं 2009 के चुनाव में निर्वाचित ऐसे सांसदों की संख्या 76 (14 प्रतिशत) थी। स्पष्ट है कि पिछले तीन चुनावों में गंभीर आपराधिक मामलों का सामना कर रहे सांसदों की संख्या में 109 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गयी है। नवनिर्वाचित सदस्यों में सबसे ज्यादा लंबित आपराधिक मामलों का सामना कर रहे सांसद कांग्रेस के डीन कुरियाकोस हैं। केरल के इडुक्की लोकसभा क्षेत्र से चुनकर आए एडवोकेट कुरियाकोस ने अपने हलफलनामे में बताया है कि उनके खिलाफ 204 आपराधिक मामले लंबित हैं। इनमें गैर इरादतन हत्या, लूट, किसी घर में जबरन घुसना और अपराध के लिये किसी को उकसाने जैसे मामले लंबित हैं। आपराधिक मामलों का सामना कर रहे सर्वाधिक सांसद भाजपा के टिकट पर चुनकर आए हैं। भाजपा के 303 में से 301 सांसदों के हलफनामे के विश्लेषण में पाया गया कि साध्वी प्रज्ञा सिंह सहित 116 सांसदों के खिलाफ आपराधिक मामले चल रहे हैं। वहीं, कांग्रेस के 52 में से 29 सांसद आपराधिक मामलों में घिरे हैं। लोजपा के सभी छह निर्वाचित सदस्यों, बसपा के आधे (10 में से पांच), जदयू के 16 में से 13, तृणमूल कांग्रेस के 22 में से नौ और माकपा के तीन में से दो सांसदों के खिलाफ आपराधिक मामले चल रहे हैं। इस मामले में बीजद के 12 निर्वाचित सांसदों में सिर्फ एक सदस्य ने अपने खिलाफ आपराधिक मामले की हलफनामे में घोषणा की है।

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लोकसभा चुनाव 2019 – मनोज सिन्हा की अपवादस्वरूप पराजय के कारण?

जब से चुनाव के परिणाम आये हैं तब से मोदी जी के नेतृत्व में भाजपा की इस ऐतिहासिक जीत के कारणों को लेकर लोग चर्चा कर रहे है। लगभग सभी लोग, भाजपा की इस जीत के लिए, मोदी जी की विकास की नीति या हिंदुत्व को इसका मुख्य कारक मान रहे हैं।

इस ऐतिहासिक जीत पर जहां तक मेरे अपने विश्लेषण का प्रश्न है तो मैं समझता हूं कि इस जीत के लिए किसी एक कारण को श्रेय नहीं दिया जा सकता है। हिंदुत्व निश्चित रूप से सामने आया और इस जीत ने हिन्दुओं में बढ़ती हुई एकता का स्पष्ट संकेत भी दिया है। लेकिन मैं यह समझता हूं कि यह जो हिन्दुओं का एकीकरण दिखा है, उसे हमें सिर्फ धार्मिक आधार पर मानने की भूल नहीं करनी चाहिए। भारत में आज जो भिन्न भिन्न जाति के लोग, अपने जातिगत स्वार्थ से ऊपर उठ कर भगवा होते दिखे हैं, उसमें खुद उनके हुये आर्थिक व सामाजिक उत्थान या उसकी आशाओं का स्वार्थ भी समाहित है।

मेरा पिछले 5 वर्षों का अनुभव यही रहा है कि बहुत से हिंदुत्ववादी, मोदी सरकार की विकास नीति से ज्यादा, हिंदुत्वादी कार्यवाली को प्रथमिकता देते रहे हैं और मोदी सरकार द्वारा हिंदुत्वादी मुद्दों पर खुल कर सामने न आने के आलोचक भी रहे हैं। इन सबको इस बात का अटल विश्वास था कि मोदी सरकार की वापसी, केवल हिंदुत्व के कंधों पर ही निर्भर है। मेरे लिए यह सोच आत्मिक सुख तो दे सकती है लेकिन भिन्नताओं व विरोधाभास से भरे भारत के जनमानस व उसकी राजनीति और चुनाव प्रणाली में, इसको विजय की राह को सुगम बनाने से ज्यादा, दुश्वार बनाते हुये देखा गया है।

मोदी जी एक व्यावहारिक, बुद्धजीवी, कुशाग्र व दूरदृष्टि रखने वाले राजनैतिज्ञ हैं, जिन्हें अपनी परिकल्पना के भारत को यथोचित स्थान पर पहुंचाने के लिए जीतना ही पसन्द है। उन्हें 2014 में 31 प्रतिशत मिले मतों को बढ़ाना था और साथ मे नये मतदाताओं को पहली बार, भाजपा के झंडे में लाना था। उनके लिए नये मतदाताओं का उनको प्रथम बार मत देना, उनका हिंदुत्व की विचारधारा में समाहित होने का पहला चरण था।

मैं समझता हूं कि मोदी जी को भारतीय जनता की जातिवादिता की मूलभूत कमजोरी का अच्छी तरह संज्ञान था। इसीलिए मोदी जी ने इसी को तोडऩे व दूसरी बार अपनी पुन: वापसी को सुनिश्चित करने के लिए, अपने प्रथम काल में हिंदुत्व, एक विचारधारा के रूप मे इस्तेमाल, प्रगट रूप में न करके केवल संकेतों से किया है। मोदी जी भलीभांति जानते थे कि अपने संख्याबल को बढ़ाने के लिए, उन्हें विपक्षी दलों के मतदाताओं को बड़ी संख्या में अपनी तरफ़ करना है। यह एक ऐसा कार्य था जो सिर्फ हिंदुत्व की विचारधारा से सम्पन्न नहीं होने वाला था। इसी लिए, उन्होंने नये मतों को भाजपा के पास लाने के लिए उनको आशाओं और उनके स्वार्थों में पिरोया है।

यहीं पर मोदी सरकार की विकास नीति और स्वयं मोदी जी की समाज के आंखरी छोर पर खड़े व्यक्ति के प्रति निष्कपट प्रतिबद्धता महत्वपूर्ण हो जाती है। मोदी जी की यही विकास नीति है जिसने, भाजपा को 2014 में मिले 31 प्रतिशत मतों को 2019 में 39 प्रतिशत पहुंचाने में महती योगदान दिया है। यहां यह भी मानना पड़ेगा कि मोदी जी ने जिस विकास को नीति का आधार बनाया और जो उन्होंने राष्ट्र की परिभाषा व अस्मिता की रक्षा को लेकर आक्रामकता दिखाई, उसने उनकी छवि एक ऐसे राजनेता की बनाई, जो न सिर्फ सत्यनिष्ठ है बल्कि एक समाज सुधारक व योद्धा भी है। मोदी जी की यह विश्वासमयी छवि, भाजपा के नए मतदाताओं के लिए एक अपूर्व अनुभव था।

इसी लिए 2019 के लोकसभा चुनाव में, भारतीय मतदाताओं के समक्ष जब प्रत्याशी का चुनाव करने का समय आया तब मतदाताओं के बीच, मोदी जी की जीवंतता व जो वह कहते है, वह करते हैं, के विश्वास पर बनी, उनकी उपरोक्त छवि इतनी प्रबल हो गयी कि भाजपा व स्थानीय प्रत्याक्षी दोनों ही किसी हद तक गौड़ हो गए थे। इसी का परिणाम यह है कि एक से एक अकर्मण्य और जनता द्वारा अमान्य प्रत्याशी भी, मोदी जी के नाम पर इस चुनाव में विजयी हुए हैं।

इसी परिदृश्य में अब यह प्रश्न उठता है कि जब एक से एक व्यर्थ, अक्षम, अलोकप्रिय व अनुद्योगी प्रत्याशी, मोदी की विशाल छवि के सहारे विजयी हो गए, तब गाजीपुर से खड़े केंद्रीय मंत्री मनोज सिन्हा, जो अपने क्षेत्र में अपनी कर्मठता, सत्यनिष्ठता, विकासशीलता और लगातार सवांद बनाये रखने के लिए प्रसिद्ध हैं, वे एक माफिया डॉन अफज़़ल अंसारी से कैसे भारी मतों से हार गए? क्या यह विकास की हार है? क्या मनोज सिन्हा जिन्हें गाजीपुर में विकास पुरुष के रूप में जाना जाता है उनकी हिन्दुओं में फैले जातिगत विष के सामने हार है? गाजीपुर में महागठबंधन व मुस्लिमों का गठजोड़, अपवाद स्वरूप परिणाम कैसे लाया? उत्तरप्रदेश में जब सब जगह यादवों ने जाति विष को छोड़ शतप्रतिशत महागठबंधन को मत नहीं दिया तब गाजीपुर में क्यों अपवाद दिख रहा है? क्या वहां के हिन्दुओं का स्वार्थ विकास पर वाकई भारी पड़ा है?

प्रश्न अनेक है लेकिन मैं समझता हूं कि सही उत्तर अभी भी नहीं मिल रहा है। मैंने मनोज सिन्हा की हार पर बहुतों की विवेचना पढ़ी है लेकिन लोगों द्वारा जिन कारणों को इंगित किया गया है वे गाजीपुर के अपवाद का कारण नहीं हो सकता है। यह तो निश्चित है कि मनोज सिन्हा की हार, महागठबंधन की जीत बिल्कुल भी नहीं है। मैं अपने अनुभव से यही कहूंगा कि इस तरह के अप्रत्याशित परिणाम, बिना भीतरघात के नहीं आते हैं। मनोज सिन्हा व भाजपा जिन वर्गों के मतों को अपना मान रही थी, यह भीतरघात वहीं से ही हुआ है।

मैं गाजीपुर की धरातल की सत्यता को तो नहीं जानता लेकिन इस अपवाद के कारणों को मैं निश्चित रूप से विपक्ष की जीत से ज्यादा अपने ही पक्ष की हार मानता हूं। यह बहुत संभव है कि इस हार के असली कारणों पर चर्चा, भाजपा का नेतृत्व कभी भी सार्वजनिक न करे लेकिन यह निश्चित है कि असल कारण मनोज सिन्हा को अवश्य मालूम होगा।

मेरा यह दृढ़ विश्वास है कि मनोज सिन्हा की हार, विकास की हार बिल्कुल भी नहीं है।

पुष्कर अवस्थी

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भाजपा और मुस्लिम

देश में एक नैरेटिव सेट करने का  प्रयास किया जा रहा है  और यह बताया जा रहा है  कि मोदी की जीत में मुसलमानों की भी भागीदारी है  और मुसलमानों ने मोदी को वोट दिया है।

इस देश में 16  ऐसी सीटें हैं जहां हिन्दुओं की संख्या 50 प्रतिशत से कम है और उन सभी जगह पर भारतीय जनता पार्टी और उसके सहयोगी चुनाव हारे हैं।

किशनगंज     रामपुर

मल्लापुरम    मालदा दक्षिण

श्रीनगर       बारामुला

अनंतनाग     धुबरी

जंगीपुर       लक्ष्यदीप

हैदराबाद      बहरामपुर

मुर्शिदाबाद    वारापेटा

वायनाड      पोन्नानी

मीडिया हाउस यह खबर फैला रहे हैं कि देश में 92 सीटें मुसलमान बहुल हैं  जिनमें से 45 सीटें भारतीय जनता पार्टी और उसके सहयोगी जीते हैं, जबकि जिन सीटों को इसमें शामिल कर रहे हैं उन सीटों पर मुसलमानों का वोट 50 प्रतिशत से कम है और कहीं कहीं 15 प्रतिशत और 20 प्रतिशत के आसपास है। स्पष्ट है कि उन स्थानों पर हिंदुओं का वोट एकजुट होकर भारतीय जनता पार्टी को मिला है और इसीलिए भारतीय जनता पार्टी चुनाव जीती है। लेकिन जिन स्थानों पर 50 प्रतिशत से कम हिंदू है वहां भाजपा और उसके सहयोगी चुनाव हार गए। पूरे बिहार में 39 सीटों पर भाजपा और उसके सहयोगी जीते हैं। जहां हिंदू की आबादी 50 प्रतिशत से कम है वहां चुनाव  हार गए। मीडिया हाउस द्वारा यह नैरेटिव सिर्फ इसलिए प्रतिपादित किया जा रहा है जिससे कि मोदी सरकार द्वारा नागरिक संहिता कानून में संशोधन करके मुस्लिम शरणार्थियों को देश से बाहर किए जाने का प्रयास किया जा रहा है, उस पर रोक लगाई जा सके और उसके लिए एक माहौल बनाया जा सके। मीडिया हाउस और विपक्ष के लोगों का पूरा प्रयास इस बात का है कि बांग्लादेशी घुसपैठिए और रोहिंगाओ को इस देश से बाहर ना निकाला जाए।

वीरेंद्र पाल

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जनादेश के 10  सबक

1              राजनीतिक पर्यटन करने वाले नेताओं के दिन लदने के संकेत। 365 दिन की सक्रियता ही देगी परिणाम।

2              विकास और सुशासन को थाम कर रखने वाले दल ही सियासी सुनामियों में  बचा सकेंगे अपने घर। (ओडिशा )

3              इलाकों पर पुश्तैनी दावेदारी का युग भी समाप्ति की ओर, जमीन पर सक्रिय रहेंगे तभी टिकेंगे। गुना , बागपत , अमेठी

4              परंपरागत जातीय समीकरणों से परे भी आर्थिक आधार पर बन रहा है एक नया मतदाता समूह। जातियां हैं लेकिन उनकी जकडऩ ढीली हो रही है। यूपी ,बिहार उदाहरण हैं।

5              बड़े नाम वालों को अब तुलनात्मक रूप से छोटे नाम वालों से हारने के लिए भी तैयार रहना होगा।

6              मोटे तौर पर दबंग नेताओं के प्रति देश भर में नकार का भाव हांलाकि कुछ अपवाद अभी भी हैं।

7              राज्य और केंद्र को लेकर जनता में पसंद अलग-अलग। कुछ अपवादों को छोड़ दें तो रीजनल पार्टियां विधानसभा चुनाव में जनता की पसंद हो सकती है लेकिन केंद्र को लेकर जन – मन अलग।

8              गरीब जनता से जुड़ी योजनाओं का मतदान में निर्णायक असर, चाहें राज्य हों या केंद्र।

9              राजशाही की पृष्ठभूमि  से जुड़े नेताओं को लेकर जनता का सम्मोहन तेजी से  टूट रहा है।

10           40 फीसदी तक भी काम करेंगे तो जनता शेष 60 फीसदी के लिए वादों पर भरोसा कर सकती है, लेकिन बिना डिलीवरी के वादों पर अब भरोसा मुश्किल।

अमिताभ अग्निहोत्री

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