पुलवामा में हुये हमले के बाद देश में विमर्श की दिशा बदल गयी है। इस बार स्थिति आतंकवाद के खिलाफ आर-पार की बन गयी है। काफी समय से संयम रखने और अपने सैनिकों की शहादत देने के बाद भारत का रुख इस बार काफी कड़ा है। पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर के बालाकोट हिस्से में सेना द्वारा अंदर घुसकर जैश-ए-मोह मद के सैंकड़ों आतंकवादियों को उनके अंजाम तक पहुंचा दिया गया। अमेरिकी राष्ट्रपति ट्र प का यह बयान कि भारत इस बार कुछ बड़ा करने वाला है इस बात का संकेत है कि भारतीय संप्रभुता पर हमला इस बार सिर्फ कड़ी निंदा तक सीमित नहीं होगा। पाकिस्तान से मोस्ट फेवर्ड नेशन का दर्जा वापस लेना इस क्रम में एक कड़ा कूटनीतिक संदेश है। सिंधु नदी के पानी पर बांध बनाना उसका वृहद स्वरूप है। चूंकि, पुलवामा में स्थानीय आतंकवादी शामिल थे इसलिए आंतरिक स्तर पर भी कड़े संदेश की आवश्यकता थी। हुर्रियत नेताओं की सुरक्षा हटाकर वह संदेश भी दे दिया गया। पर क्या भारतीय जनता सिर्फ इन संदेशों से संतुष्ट हो पाएगी ? क्या आतंकवाद पर आर-पार की लड़ाई बस इतने से पूरी हो जाएगी ? फिलहाल तो ऐसा तो नहीं लगता है। 2014 के पहले मोदी स्वयं अपने भाषणों में पाकिस्तान को उसकी भाषा में जवाब देने की बात कहते थे। ओसामा की तजऱ् पर दाऊद को पाकिस्तान में ढूंढकर मारने की पैरवी करते थे। 56 इंच के सीने के द्वारा भाजपा सरकार को पराक्रमी होने का एहसास दिलाते थे। उरी, पठानकोट और पुलवामा के बाद मोदी के 56 इंच सीने के बयान को अब जनता हक़ीक़त में देखते रहना चाहती है। जनता चाहती है कि सिर्फ आतंकवादियों के एक्शन के बाद ही भारत का रिएक्शन न हो बल्कि भारत लगातार सर्जिकल अटैक एवं अन्य माध्यमों से पाकिस्तान और उसकी सरपरस्ती में चल रहे आतंकी कैंपों को नेस्तनाबूद करता रहे। वर्तमान में देश के राष्ट्रीय विमर्श में पाकिस्तान के साथ युद्ध जैसी स्थिति बन गयी है। टीवी चैनल पर पाकिस्तान से युद्ध के इवैंट चल रहे हैं। चुनाव करीब होने के कारण सरकार और विपक्ष दोनों ही दबाव में हैं। दोनों इस संवेदनशील मसले पर कोई गैर जरूरी बयान देकर फंसना नहीं चाहते हैं। उधर एमएफ़एन का दर्जा वापस होने से पाकिस्तान से व्यापार लगभग बंद है। पाकिस्तान को आर्थिक मोर्चे पर बड़ी चोट के बाद लगभग कंगाली के कगार पर खड़े पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान बौखलाहट में हैं। वहां के व्यापारियों के दबाव के कारण पाकिस्तान सरकार ज़्यादा दिन टालमटोल की स्थिति में भी नहीं है। इमरान खान इन दिनों निवेश आकर्षित करने के लिए दुनिया में दर ब दर भटक रहे हैं। चीन के दबाव में मसूद अज़हर प्रतिबंधित सूची में तो नहीं आ पा रहा है किन्तु यूएन के पांच में से चार स्थायी सदस्यों ने भारत का साथ दिया है। चीन का वीटो अब पाकिस्तान के काम नहीं आ पा रहा है। सर्जिकल स्ट्राइक (भाग-2) के भारतीय शौर्य के बाद और अमेरिकी दबाव में पाकिस्तान स्थित कैंपों में रह रहे आतंक के सरगनाओं में से कुछ की बलि अगर पाकिस्तान को देनी पड़ी तो वह अपनी अर्थव्यवस्था को बचाने के लिए अब इसमें भी गुरेज नहीं करेगा। अब भारत की बड़ी समस्या स्वयं अपने अंदर के जयचंद हैं। 370 और 35-ए जैसे कानूनी प्रावधान हैं जिनको हटाये बगैर कश्मीर में आतंकवाद को खत्म करने के सारे फॉर्मूले अपनी धार खो देते हैं। क्षेत्रीय दल चूंकि अलगाववादियों का समर्थन करते दिख रहे हैं इसलिए पत्थरबाज़ों को पीछे से मिलने वाली शह के अलमबरदार भी अब सार्वजनिक होने लगे हैं। अब पाकिस्तान को उसी की भाषा में जवाब देने के साथ ही अपनी भाषा में जवाब देना आवश्यक हो गया है।
अमित त्यागी
भारत की सरकारें पाकिस्तान के संदर्भ में हमेशा से इस संशय में रहती रही है कि पाकिस्तान के साथ व्यापार करे या युद्ध। भारत में प्रायोजित आतंकवाद के आका पाकिस्तान में रहते हैं और पाकिस्तान के साथ भारत के बड़े व्यापारिक रिश्ते भी हैं इसलिए यह पेंडुलम दोनों के बीच डोलता रहता था। इस बार जब पाकिस्तान ने पुलवामा में सैनिकों पर हमला किया तो भारत का सब्र जवाब दे गया। सिर्फ कूटनीतिक कार्यवाही नहीं हुयी बल्कि सिंधु का पानी रोकने पर काम हुआ। सर्जिकल स्ट्राइक(भाग 2) हुआ। एमएफ़एन का दर्जा वापिस हुआ। पूर्व में जब भी पाकिस्तान की तरफ से समर्थित कोई भी हमला हुआ है उस दौरान भारत की सरकारों ने पाकिस्तान से एमएफ़एन का दर्जा वापस लेने से परहेज किया गया था। यानि कि एक तरफ पाकिस्तान से व्यापार भी होता रहा तो दूसरी तरफ आतंकवाद पर गाल भी बजाए गए। इस बार जब पुलवामा में पाकिस्तान की तरफ से हमला हुआ तब सबसे पहले एमएफ़एन का दर्जा वापस ले लिया गया। यह शायद सबसे कठोर कूटनीतिक कदम था जो इस बार भारत सरकार ने सबसे पहले उठा लिया गया। दुनिया भर में निवेश के लिए भटक रहे इमरान खान के ऊपर एमएफ़एन के कारण अब अपने आंतरिक व्यापारियों का दबाव बढ़ता चला जा रहा है। सीमा पर सैंकड़ों ट्रक माल लदा खड़ा है जिसका नुकसान पाकिस्तान को उठाना पड़ रहा है। ‘सैनिक युद्ध’ के स्थान पर शुरू हो चुका यह ‘आर्थिक युद्ध’ पाकिस्तान को बड़ी चोट करेगा। यदि यह सिर्फ सैनिक युद्ध होता तो इसके द्वारा भारत के हित पूरे नहीं होते। केवल पाकिस्तान की सेना और अमेरिका के मंसूबे पूर्ण होते इससे ज़्यादा कुछ नहीं। क्योंकि इराक, सीरिया और अफग़़ानिस्तान को युद्ध क्षेत्र बनाने के बाद अमेरिका भारत के कश्मीर भूभाग को युद्ध क्षेत्र बनाने पर आमादा है। युद्ध के द्वारा अपना व्यापार बढ़ाने में महारत रखने वाले अमेरिका की ट्र प सरकार पश्चिम एशिया में शांति होने के कारण हथियार कंपनियों के दबाव में है। इसके साथ ही इधर भारत में चुनाव होने जा रहे हैं। भारत की सरकार इस समय किसी भी उकसावे की कार्यवाही को हल्के में नहीं ले सकती है क्योंकि इसका सीधा प्रभाव चुनाव पर पडऩा तय है। चूंकि 56 इंच का बयान देने के बाद मोदी से लोगों की बढ़ी अपेक्षाओं के लिए सिर्फ मोदी जि मेदार हैं इसलिए उनके लिए स्थिति करो या मरो की बन गयी थी। आतंकी कैंपों पर हमला करके मोदी ने करके दिखा दिया है। कुछ माह पूर्व देश में राष्ट्रीय विमर्श का विषय राम मंदिर था। इसके बाद आर्थिक आधार पर आरक्षण लागू करके मोदी सरकार ने विमर्श की दिशा बदल दी। अब जैसे ही पुलवामा में हमला हुआ तो देश की जनता में उबाल आ गया। देश के राष्ट्रीय विमर्श की दिशा पाकिस्तान के साथ नीति और राष्ट्रवाद की नीयत पर आकर ठहर गयी है।
अब पाकिस्तान पर चौतरफा हमलों के बीच अपने घर के हालात भी दुरूस्त करने की जरूरत है। कश्मीर के पत्थरबाज़ों के द्वारा सेना पर पत्थर फेंकने के बाद भी सेना के द्वारा उनके साथ मानवीय व्यवहार के विडियो बाहर आते रहे हैं। अब जब पुलवामा में हमला हुआ तब अनु0-370 और धारा 35-ए पर पुनर्विचार जैसे विषय गरमाने लगे हैं। भारत की जनता पत्थरबाजी तक तो बर्दाश्त कर सकती है किन्तु सेना के साथ हुयी घटनाएं पूरे भारत में उबाल ला देती हैं। अब अगर विषय की गहराई में जाकर देखते हैं कि क्यों कश्मीरी लोग अपनी ही सेना को पत्थर मारते हैं तो इसका उत्तर 370 पर आकर टिक जाता है। इसके कारण ही कश्मीरी यह मानने लगे हैं कि वह भारत से अलग हैं। वह कश्मीरियत की बात करते करते स्वयं को भारत का हिस्सा मानने से गुरेज करने लगते हैं। पुलवामा में हुआ इतना बड़ा हमला बिना किसी स्थानीय सहयोग के संभव नहीं है यह बात तो अब साफ हो चुकी है। आने वाले समय में इस तरह के हमले और ज़्यादा बढ़ सकते हैं। उसकी वजह है कि अमेरिका अफग़ानिस्तान में तालिबान से समझौता करने की फिराक में है। इस समझौते से न सिर्फ तालिबान का हौसला बढ़ेगा बल्कि पाकिस्तान स्थित आतंकवादी संगठन भी मजबूत होंगे। कश्मीर में आतंकवादी भेजने वाले जैश, लश्कर और हिजबुल के आका पाकिस्तान की ज़मीन से वहां की सेना की सरपरस्ती में पल रहे हैं। आतंक के इस खेल में चीन भी शामिल है। मसूद अजहर को संयुक्त राष्ट्र द्वारा जब भी प्रतिबंधित करने की कार्यवाही शुरू होती है तो चीन उसमें अड़ंगा अड़ा देता है। इस तरह से चीन का कुछ व्यक्तिगत फायदा तो नहीं होता है किन्तु पाकिस्तान को खुश करने के क्रम में वह भारत को नीचा तो अवश्य दिखा लेता है। इस तरह से 370 के कारण स्वयं को हिंदुस्तानी मानने से परहेज करने वाले कश्मीरियों को पाकिस्तान और चीन की शह मिल जाती है।
अब महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि जिस 370 के कारण हम इतना नुकसान झेलते हैं उस 370 की आवश्यकता क्यों पड़ी। इसको संविधान में क्यों जोड़ा गया। इसके लिए हमें 1947 के परिदृश्य को थोड़ा समझना होगा। उस समय पाकिस्तान से काफी सं या में हिन्दू भारत के क्षेत्र में आए। 1947 में ज मू-कश्मीर में पश्चिम पाकिस्तान से आये हिन्दू शरणार्थी हजारों में थे। आज उनकी सं या बढ़ कर लाखों में हो गयी है। तत्कालीन प्रधानमंत्री शेख अब्दुल्ला ने उस समय खाली पड़ी सीमाओं की रक्षा के लिए सीमावर्ती इलाकों में इनको बसा दिया था। यह लोग ज़्यादातर पिछड़ी और अनुसूचित जातियों से आते थे। पूरे भारत में इस वर्ग के लोगों को आरक्षण, छात्रवृत्ति एवं अन्य सुविधाएं मिलती हैं। इन सुविधाओं के द्वारा इस शोषित एवं वंचित वर्ग ने कश्मीर के अतिरिक्त अन्य भारतीय भूभाग में स्वयं का जीवन स्तर ऊपर उठा लिया है। दुर्भाग्य से कश्मीर में ऐसा नहीं हुआ। 35-ए और 370 के द्वारा राज्य के बाहर के लोगों को सुविधाएं नहीं मिल सकती हैं। इस कारण से ये शरणार्थी अभी भी राज्य के स्थायी निवासी नहीं बन पाये हैं। इनको आज भी न तो मतदान का अधिकार है और न ही संपत्ति को खरीदने-बेचने का। न ये लोग सरकारी नौकरी कर सकते हैं और न ही राज्य में उच्च शिक्षा ग्रहण कर सकते हैं। अन्य राज्यों से अलग प्रावधान होने के कारण इस वजह से कश्मीर, भारत से समन्वय में नहीं आ पाता है। यहां तक की पिछले कई दशकों से कश्मीर में सेवा दे रहे प्रशासनिक अधिकारी भी सेवानिवृत्ति के बाद कश्मीर में नहीं बस पाते हैं। अब जऱा कल्पना कीजिये कि जिस स्थान पर किसी का पूरा जीवन लग गया हो उस स्थान पर अगर उसको रहने का अधिकार भी न हो तो यह कितनी चिंताजनक स्थिति है। इसका दुष्प्रभाव सीधे युवा अधिकारियों के मनोबल और कार्यशैली पर पड़ता है।
विषय के परिप्रेक्ष्य में सिर्फ इतना हो ऐसा भी नहीं है। इसके आगे भी एक कहानी है। स्वतन्त्रता के बाद 1956 आते आते ज मू-कश्मीर राज्य को सफाई आदि के लिए कुछ कर्मचारियों की आवश्यकता पड़ी। इसके हल के लिये तत्कालीन प्रधानमंत्री ब शी गुलाम मुह मद ने अमृतसर से कुछ बाल्मीकी परिवारों को ज मू बुलवाया। आज ज मू में इन परिवारों की सं या 600 से ज़्यादा हो चुकी है किन्तु सात दशक बाद भी इनको अधिकार नहीं मिल पाये हैं। इन परिवारों की तीसरी-चौथी पीढ़ी इस समय ज मू में काम कर रही है किन्तु इन लोगों को अभी भी न तो मतदान का अधिकार मिला है और न ही सरकारी नौकरी करने का अधिकार। हां, चतुर्थ श्रेणी की नौकरी के लिये इनको छूट अवश्य है। अब जऱा विचार कीजिये कि जिस स्थान पर वर्षों से रहने वाले व्यक्ति को जीवन यापन के लिये भी बाधाएं हों तब कैसे कोई व्यक्ति अपना सर्वश्रेष्ठ दे पाएगा। ज मू कश्मीर में वर्षों तक सेवा देने वाले सैनिकों के साथ भी ऐसा ही सलूक है। उसका उदाहरण है गोरखा रेजीमेंट के कुछ सैनिक। बहुत से गोरखा सेना में सेवा देने के बाद वहीं रुक गए। अब उनके परिवारों को अधिकार ही नहीं मिल रहे हैं। वह लोग या तो चौकीदारी आदि कर रहे हैं या कोई छोटा मोटा निजी व्यवसाय।
ज मू कश्मीर में 370 और 35-ए के द्वारा सिर्फ बाहर से आए लोग प्रताडि़त हों ऐसा भी नहीं है। इसके द्वारा स्थानीय महिलाओं को भी इन्होंने लपेटे में ले रखा था। वर्ष 2002 में इससे कुछ राहत स्थानीय नागरिकों को मिली जब ज मू कश्मीर उच्च न्यायालय नें एक आदेश पारित किया। तब जाकर कुछ स्थिति सुधरी। इस संदर्भ को समझें तो इस आदेश के पहले राज्य की महिलाओं की स्थायी नागरिकता उनके विवाह तक ही अनुमान्य रहती थी। राज्य के बाहर अथवा राज्य के भीतर भी गैर स्थायी निवासी के साथ विवाह होने पर उनका स्थायी निवासी का दर्जा और परिणामस्वरूप सभी मूल अधिकार छिन जाते थे। महिला सशक्तिकरण की बात करने वाली केंद्र सरकार इस दौरान लाचार बनी रहती थी। जब 2002 में सुशीला साहनी वाद में न्यायालय ने निर्णय दिया तब वहां की महिलाओं को स्थायी निवासी के रूप में मिलने वाली सुविधाएं बहाल हो पायी। पर यह फैसला भी अधूरा रहा। आज भी इन महिलाओं के द्वारा अर्जित संपत्ति को उत्तराधिकार में प्राप्त करने का अधिकार उनकी संतानों को नहीं है। पूर्व में बचनलाल कलगोत्रा बनाम ज मू कश्मीर राज्य मामले में सर्वोच्च न्यायालय का कहना था कि ‘हम नहीं जानते कि हम पश्चिमी पाकिस्तान के शरणार्थियों और उन जैसे लोगों को क्या राहत दे सकते हैं। यही कहा जा सकता है कि याची और उन जैसे तमाम लोगों की स्थिति विधि-विरुद्ध है’। अब यह बात हम आसानी से समझ सकते हैं कि क्यों कश्मीर के लोग स्वयं को अखंड भारत का हिस्सा नहीं मानते हैं। उच्चतम न्यायालय भी 370 और 35-ए के विषयों पर अपनी लाचारी ज़ाहिर कर चुका है। हालांकि, वर्तमान में 35-ए पर एक याचिका की सुनवाई ज मू-कश्मीर उच्च न्यायालय में चल रही है जिस पर निर्णय कश्मीर भूभाग पर एक बड़ा राजनीतिक प्रभाव डालेगा।
370 और 35-ए पर कार्यवाही का यह उचित समय
कश्मीर में पूर्व में जो ऐतिहासिक भूलें हुयी हैं उसमें तो सुधार अभी संभव नहीं है किन्तु उसमें बदलाव के प्रयास का यह सही समय है। 370 कश्मीर में अलगाव का काम कर रही है। केंद्र सरकार को चाहिए कि कश्मीर में स्थिरता लाने के लिए संसद का विशेष सत्र आहूत करे। 370 को खत्म करने का प्रस्ताव पारित करे। चूंकि यह बदलाव भाजपा के एजेंडे में भी था इसलिए इस पर कार्यवाही से भाजपा का कार्यकर्ता भी खुश होगा। कश्मीर की स्थिरता के लिए बाकी दल कितने गंभीर हैं यह भी उस दौरान दिख जाएगा। चूंकि, 370 एक अस्थायी प्रावधान था जिसे कुछ समय के लिए स्थापित किया गया था इसलिए इस पर इच्छाशक्ति दिखा कर अब कार्यवाही कर ही देनी चाहिए। हमारे राजनीतिक नेतृत्व को अब यह बात स्पष्ट तौर पर समझनी होगी कि कश्मीर की मूल समस्या का समाधान किए बगैर पाकिस्तान को सही रास्ते पर नहीं लाया जा सकता है। जब जब पाकिस्तान के खिलाफ हम पराक्रम दिखाएंगे तब तब हमारे अपने अंदर के जयचंद उस पुनीत यज्ञ में विघ्न पैदा कर देंगे। यह काम केंद्र की राष्ट्रवादी सरकार को ही करना होगा। क्षेत्रीय दल पीडीपी एवं नेशनल कान्फ्रेंस तो इस मुहिम में शायद ही उनका साथ दें। शायद, क्या इसकी स भावना भी नहीं है। अगर उन्हें ऐसा करना होता तो वह कब का कर चुके होते। 370 और 35-ए के कारण जो विशेष राज्य का दर्जा ज मू-कश्मीर को प्राप्त है उसके द्वारा काफी मात्रा में बजट एवं सब्सिडी दी जाती है। भ्रष्टाचार के मामले में कश्मीर देश के अन्य राज्यों से काफी आगे हैं। वहां सत्ता में रहे क्षेत्रीय दलों ने इस भ्रष्टाचार के द्वारा सबसे ज़्यादा माल पैदा किया है। अब जिसको मोटा माल मिल रहा हो वह भला क्यों अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारेंगे। चूंकि दो साल तक पीडीपी के साथ भाजपा ने भी सरकार चलायी है इसलिए अब भाजपा भी दूध की धुली नहीं कही जा सकती। विचारधारा के नाम पर भाजपा ने पीडीपी से गठबंधन तोड़ तो दिया किन्तु 370 पर किसी ठोस प्रक्रिया में आगे नहीं बढ़ी। हां, 35-ए पर उच्च न्यायालय में याचिका ज़रूर दायर हुयी। अब चूंकि अलगाव-वादियों पर कार्यवाही दिख रही है तब कश्मीर के क्षेत्रीय दल उन्हीं अलगाववादियों की हां में हां मिलाते दिख रहे हैं। अब जनता में संदेश जा चुका है कि कौन किसके साथ खड़ा है। अलगाववादियों के साथ दिखने वाले, पाकिस्तान का संरक्षण करने वाले और राष्ट्रहित को ताक पर रखने वाली जमात लोगों के निशाने पर है। कांग्रेस के नवजोत सिद्धू पहले पाकिस्तान के सेना प्रमुख बाजवा से गले मिल कर आए थे। अब वह पाकिस्तान पर बयान देकर राष्ट्रवादियों के निशाने पर हैं। कांग्रेसी सिद्धू के बाजवा से गले मिलने को संतुलित करने के लिए नया शिगूफ़ा लिए बैठे हैं। मोदी और सऊदी अरब के प्रिंस सलमान के गले लगने को ऐसे प्रचारित किया जा रहा है जैसे यह कोई कूटनीतिक गलती हो। अब भारत के अंदर ही 370 के पक्ष और विपक्ष के खेमे साफ दिखने लगे हैं। भारत की जनता में एक बड़ा वर्ग 370 हटाने की पैरवी कर रहा है। भारत का मुसलमान भी उस समय स्वयं को कष्ट में पाता है जब पाकिस्तान के द्वारा कोई घटना करने की स्थिति में उसकी विश्वसनीयता पर उंगली उठती है। सिर्फ कुछ असामाजिक तत्वों को छोड़कर भारत का आम मुसलमान देशभक्त है। वह पाकिस्तान का समर्थक नहीं है। पर पाकिस्तान के कारण वह भी निशाने पर आ जाता है। जबकि पाकिस्तान के द्वारा इस्लाम के नाम पर की जाने वाली गतिविधियां विशुद्ध रूप से वहां की सेना के भ्रष्टाचार के कारण है। वहां के बड़े बजट के कारण है। सेना के अधिकारियों द्वारा धन कमाने की लालसा को लेकर है। अमेरिका का फायदा हथियार को बेचने के कारण होता है। चीन भारत को कमजोर करके स्वयं को आर्थिक महाशक्ति बनाए रखना चाहता है। यानि कि अन्तर्राष्ट्रीय परिदृश्य में सब अपने अपने फायदे में लगे हैं और इन सबके बीच भारतीय मुसलमान की राष्ट्रभक्ति पर प्रश्न चिन्ह लगा दिया जाता है।
आखिर क्यों नहीं मानता है पाकिस्तान
पाकिस्तान के द्वारा बार बार भारत के खिलाफ आतंकवादी भेजने की कार्यवाही के पीछे सेना का बजट है। वहां की सेना में फैला हुआ भ्रष्टाचार है। गरीब और कंगाल देश की सेना के द्वारा जनता के पैसे की लूट है। इसको ऐसे समझिए। सरकारी धन जनहित के विषयों जैसे स्वास्थ्य, शिक्षा पर खर्च न करके सेना पर खर्च किया जा रहा है। वल्र्ड डेवलपमेंट रिपोर्ट-2013 के अनुसार पाकिस्तान का स्वास्थ्य बजट 2.05 प्रतिशत एवं शिक्षा बजट 3.5 प्रतिशत है इसके अनुपात में रक्षा बजट दस गुने से भी ज़्यादा 36.5 प्रतिशत है। अब जिस देश में इतनी बड़ी राशि सेना के लिये खर्च की जाती हो उस देश की सेना अगर सक्रिय नहीं होगी तो इस बजट को खर्च कहां करेगी। अगर बजट खर्च नहीं होगा तो अगले साल बजट में कटौती कर दी जाएगी। बस यही एक छोटी से बात पाकिस्तान की सेना को आक्रामक बनाये रखती है। पाकिस्तान की सेना कभी भारत से उलझती है तो कभी खुद अपने ही हुक्मरानों से। कभी भारत से लड़ाई के प्रपंच रचती है तो कभी आतंकवादियों को भेजकर अपनी आक्रामकता दिखाती है। वहां के मीडिया के माध्यम से सेना जनता में भारत का विरोध और खौफ दिखाकर अपने बजट को बरकरार रखती है। सिर्फ इतना छोटा सा विश्लेषण है पाकिस्तान की आक्रामकता का। इसको समझने के लिए किसी रॉकेट साइन्स का जानकार होने की आवश्यकता नहीं है। आवश्यकता है तो सिर्फ पाकिस्तान के उकसावे की रणनीति से बच कर निकलने की। पाकिस्तान के साथ युद्ध के स्थान पर उसे अपनी भाषा में जवाब देने की। क्योंकि पाकिस्तान का तो सभी इस्तेमाल कर रहे हैं। ठीक वैसे ही जैसे किसी गुंडे का किया जाता है।
भारत से आर्थिक एवं सामरिक मोर्चे पर प्रतिद्वंदी चीन, पाकिस्तान का इस्तेमाल करता है। अमेरिका, रूस और चीन के पास होने के कारण पाकिस्तान के एयरबेस को इस्तेमाल करता है। ओसामा को ढूंढने के बहाने सालों अमेरिका ने पाकिस्तान के एयरबेस का इस्तेमाल किया। बीच बीच में दारू-मुर्गे के रूप में आर्थिक सौगातें पाकिस्तान को मिलती रहीं। चीन अपना एक कॉरीडोर पाकिस्तान में बना रहा है। वह भी अपना व्यापारिक हित पाकिस्तान के जरिये साध रहा है। पाकिस्तान की फौज और हुक्मरान इन देशों से मिले फायदे की बंदर बांट कर लेते हैं और जनता को अपनी गरीबी का रोना रोकर दिखाते रहते हैं। एक सोची समझी साजिश के तहत भारत उनके लिये कितना बड़ा खतरा है यह बात दुष्प्रचारित करते हैं। इसके साथ ही जनता में भारत का भय बैठाया जाता है ताकि जनता अपने अभावों और अधिकारों की शिकायत न करे। इसी क्रम में पाकिस्तानी सेना छल-कपट से गाहे बगाहे हमले आदि करवाने की फिराक में लगी रहती है। जब भी किसी हमले में भारत के द्वारा आत्मरक्षा में जवाब दिया जाता है तब उसे वहां जनता में भारत के द्वारा पाकिस्तान पर किया गया हमला बताया जाता है। ऐसे में इस बद-दिमाग राष्ट्र के उकसावे में आकर उस पर आक्रामक कार्यवाही करके भारत उनके मंसूबों को सफल कर देगा। उकसावे में आकर आक्रामक कार्यवाही न करके हम पाकिस्तान की रणनीति को विफल कर रहे हैं।
अशिक्षा और अभाव हैं पाकिस्तानी आवाम की कमजोरी
इसके साथ ही जैसे जैसे समय गुजऱता जा रहा है वैसे वैसे कर्जे एवं अभावों के कारण पाकिस्तानी आवाम में गुस्सा बढ़ रहा है। सत्तर साल से अभाव की जि़ंदगी जी रहे पाकिस्तानियों के पैसे पर वहां की सेना मौज कर रही है। कुछ वर्ष पूर्व केरल अधिवेशन के दौरान पाकिस्तान में अशिक्षा के बहाने नरेंद्र मोदी ने पाकिस्तान की अशिक्षा का मुद्दा उछाल दिया था। जहां तक बात है पाकिस्तान के द्वारा सैन्य ठिकानों पर हमलों, जवानों के साथ बर्बरता, पुलवामा जैसे हमलों और सीमा उल्लंघन की तो यह सिर्फ और सिर्फ भारत को उकसाने वाली हरकत होती है। भारत के द्वारा कोई भी ‘विजिबल अटैक’ करने से पाकिस्तान की सेना का मक़सद पूरा हो जाता है। इनविजि़बल सर्जिकल अटैक के द्वारा पाकिस्तानी सेना वहां के आवाम की सहानुभूति नहीं बटोर पाती। पाकिस्तान की आक्रामकता का जवाब इसी तरह के पराक्रम से देना भारत के हितों की रक्षा करता है। पाकिस्तान की सब समस्याओं की जड़ वहां की अशिक्षा ही है। भारत के 19.3 प्रतिशत की तुलना में पाकिस्तान का 3.5 प्रतिशत शिक्षा बजट इस बात का प्रमाण है। बांग्लादेश एवं श्रीलंका जैसे देश भी शिक्षा पर पाकिस्तान का लगभग पांच गुना खर्च कर रहे हैं। पाकिस्तान की जनता अपने देश के मु_ी भर लोगों के बीच बंटने वाले पैसे के खेल से परेशान हो चुकी है। वहां की लगभग 80 प्रतिशत आबादी रोज़मर्रा की भी जरूरतों से महरूम है। एक तरफ उनके पास बीमारी के इलाज़ के पैसे नहीं है दूसरी तरफ उनकी सरकार का स्वास्थ्य बजट सिर्फ 2.05 प्रतिशत है अब जिस देश के हुक्मरान अपनी जनता के हितों को ताक पर रखकर और उनके अभावों का फायदा उठाकर अपने हित साधने में लगे हों उस देश का पड़ोसी होना हमारी सबसे बड़ी विड बना है। जिस तरह से गुंडे बदमाशों के साथ उसकी ही औकात पर उतर कर बात करना मूर्खतापूर्ण होता है वैसे ही पराक्रमी वही है जो समस्या की मूल जड़ पर चोट करे। एक कम दिमाग गुंडे का फायदा पूंजीपति उठाते हैं। उसकी बददिमागी के द्वारा सिर्फ उसे दारू-मुर्गा देकर अपने दुश्मनों को निपटाने में लगाते हैं, ठीक वैसा ही इस्तेमाल पाकिस्तान का होता है।
सर्जिकल स्ट्राइक बनाम सीमित युद्घ : क्या आतंक पर भारी पड़ेगा जन ज्वार ?
सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न अब यही बन गया है। जिसका उत्तर अब सिर्फ और सिर्फ भारत सरकार के पास है। भारत की जनता अब मोदी के साथ है। मोदी सेना के साथ हैं। सेना हर कार्यवाही करने में सक्षम है। तो जनता में सवाल था कि क्या उरी जैसे सर्जिकल स्ट्राइक सेना करेगी या कोई सीमित युद्ध? सर्जिकल स्ट्राइक वायुसेना कर चुकी है किन्तु युद्ध कभी सीमित नहीं होता। एक बार युद्ध शुरू होने पर इसकी भयावहता कहां तक होगी कहा नहीं जा सकता। आजकल सिर्फ दिखने वाले हथियारों से युद्ध नहीं होते हैं। रासायनिक और जैविक हथियारों का भी बड़े पैमाने पर इस्तेमाल होता है। हिरोशिमा और नागासाकी का हश्र कई पीढिय़ों ने भुगता है। रासायनिक हथियार से भी बड़ा हथियार अब जैविक हथियार है। इसमें ऐसे वाइरस वातावरण में छोड़ दिये जाते हैं जिसमें बीमारियां फैलने लगती हैं। अब यह वाइरस सिर्फ अपनी दुश्मन की जनता को निशाने पर लेंगे ऐसा भी नहीं है। यह अपनी सेना और जनता को भी निशाने पर ले सकते हैं। ऐसे में पाकिस्तान जैसे विफल देश के साथ कोई बड़ा युद्ध पराक्रम की निशानी नहीं होगा। एमएफ़एन का दर्जा खत्म होने, ड्रोन के द्वारा सर्जिकल स्ट्राइक, 370, 35ए पर निर्णायक निर्णय और अन्तराष्ट्रीय कूटनीति में पाकिस्तान को अलग थलग करना ही सर्वश्रेष्ठ विकल्प है।
हमने दो शब्द सुने हैं। एक पराक्रम और दूसरा आक्रामक। आक्रामकता में दूसरों को भयक्रांत किया जाता है जैसे पाकिस्तान करता है। पराक्रम में विश्वविजय की तरफ बढ़ा जाता है जिस पर भारत चलता है। पाकिस्तान के उकसावे में आकर भारत को आक्रामक नहीं बनना है बल्कि ठंडे दिमाग से पराक्रम के साथ जनभावना पर कार्य करना है। शायद यही समय की मांग है। यही विजय का मूलमंत्र है। सर्जिकल स्ट्राइक के बाद अब बिगड़ैल पड़ोसी को उसके अंदाज़ में नहीं बल्कि 370 जैसे विषयों पर काम करके अपने ही अंदाज़ में जवाब देने का समय आ चुका है।
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यदा यदा हि धर्मस्य…….
पुलवामा का बदला बालाकोट में।
भारतीय सेना के शौर्य की गाथाओं में एक कड़ी और जुड़ गयी है। जिस तरह 1971 में भारत की सेना ने पाकिस्तान की सेना को नाको चने चबवा दिये थे ठीक वैसा ही अब 2019 में किया गया है। बड़बोले पाकिस्तान और उतावले पाकिस्तानी नेताओं की बदजुबानी का सिला उन्हें दे दिया गया है। बालाकोट में घुसकर वायुसेना ने अपनी ताकत का एहसास करा दिया है। भारत की सरकार द्वारा 26 फरवरी की सुबह 3.30 बजे एलओसी में आतंकी संगठनों पर बम बरसाने की कार्रवाई की पुष्टि कर दी गयी है। विदेश सचिव विजय गोखले, भारत सरकार का कहना है कि उसके द्वारा पाकिस्तान की सरकार को आतंकी कैंप के बारें में जानकारी दी गयी लेकिन पाकिस्तान द्वारा कार्यवाही से इंकार कर दिया गया। इसके बाद भारत द्वारा हमला किया गया। हमले के 12 दिन बाद भारत ने बदला ले लिया है। हमले में 200 से 300 आतंकवादी मारे गए। कई आतंकवादी ठिकाने और कैंप ध्वस्त कर दिए गए। इस हमले में आतंकियों के ठिकाने को ही निशाना बनाया गया। बालाकोट में चल रहे ट्रेनिंग कैंप पर हमला किया गया, जो मसूर अजहर का बहनोई चला रहा था।
पाकिस्तान के बालाकोट के 6 से 7 किमी में फैले आतंकी कैंपों को तबाह किया गया है। गौरतलब है, पुलवामा आतंकी हमले के बाद भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव का माहौल लगातार बना हुआ है। मोदी सरकार ने इस हमले के बाद अपने सुरक्षाबलों को कार्यवाही की खुली छूट दे दी थी। भारत सरकार का आगे कहना है कि जैश-ए-मोह मद के चरमपंथी भारत में कई जगहों पर आत्मघाती हमले की तैयारी कर रहे थे जिसके बाद नियंत्रण रेखा पार कर कार्रवाई का फ़ैसला किया गया। केंद्रीय मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने कहा, ”देश की रक्षा के लिए बहुत ज़बरदस्त क़दम उठाया है सेना ने, और सेना को इस तरह का क़दम उठाने की छूट प्रधानमंत्री मोदी जी ने दी थी। अब सेना के पीछे पूरा देश खड़ा है।’’ वायुसेना के अधिकारियों ने भी इस कार्रवाई की जानकारी देते हुए कहा कि 26 फरवरी 2019 के तड़के अंबाला से कई मिराज विमान उड़े और बिना अंतरराष्ट्रीय सीमा का उल्लंघन किए, निश्चित लक्ष्यों पर बम बरसाए।
भारतीय वायुसेना के लड़ाकू विमानों ने जब पाकिस्तान-अधिकृत कश्मीर में आतंकी ठिकानों पर 1,000 किलो के बम गिराये तब डरे सहमे पाकिस्तान की तरफ से झूठ के पुलिंदे आने शुरू हो गए। पाकिस्तानी सेना के प्रवक्ता मेजर जनरल आसिफ गफूर ने ट्वीट कर कहा कि पाकिस्तानी सेना की जवाबी कार्यवाही के बाद भारतीय लड़ाकू विमान वापस लौट गये। जबकि हकीकत यह है कि इस सुनियोजित हमले में आतंक के सरगना मौलाना मसूद अजहर का रिश्तेदार एवं जैश का कमांडर मौलाना यूसुफ अजहर मारा गया। मोदी ने अपना 56 इंच का सीना दिखा दिया है। मोदी को 56 इंच के बयान पर घेरने वालों को कड़ा जवाब मिल गया है।
-अमित त्यागी
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अपने फायदे के लिए एशिया में अस्थिरता बढ़ाता अमेरिका
जब भी अमेरिका में आर्थिक तंगी और बेरोजग़ारी का असर बढ़ा है तब इस देश ने बड़े युद्ध किये हैं। तब जाकर यह देश फिर वापिस अपनी अर्थव्यवस्था को संभाल पाया है। इस तरह यह अपनी जनता का ध्यान भटकाने में कामयाब हुआ है। मिसाल के तौर पर 9/11 हमले से एक दिन पूर्व अमेरिका ने लगभग 2.3 ट्रिलियन डॉलर यानी कुछ लाख करोड़ रुपए पेंटागन से गायब होने की बात की। इससे पहले कि आक्रोश बनता, 9/11 हमला हुआ। बाकी इतिहास है। इसी तरह जब 2008 में अमेरिका में बड़ी मंदी आयी, जन आक्रोश उभरने लगा तभी इराक़ में युद्ध शुरू हुआ। क्योंकि जिस तेल को खरीदने में उन्हें हज़ारों करोड़ खर्च करने पड़ते थे उसकी बचत हो सके। जनता का ध्यान भटकाकर युद्ध में लगाया जा सके।
अमेरिका के अन्तर्राष्ट्रीय विरोध को ऐसे भी समझिए। ब्रिटेन, जर्मनी और फ्रांस ने मिलकर इंस्टेक्स नाम की करेंसी बनायी क्योंकि अमेरिका ने ईरान पर सेंक्शन लगा रखा है। अमेरिकी डॉलर की ताकत कम करने के लिए और ईरान से तेल लेते रहने के लिए इन तीनों देशों ने मिलकर अपनी नई करेंसी बनायीं जो कमोडिटी ट्रेड में इनको मदद करेगी। अमेरिकी डॉलर का एकाधिकार कम करेगी, जबकि हमारी सरकार ने सीधे अमेरिकी दबाव में आकर पिछले नवंबर से ही ईरान से तेल लेना लगभग बंद करना शुरू कर दिया। जहां बाकी दुनिया के बड़े देश एक साथ होकर अमेरिकी डॉलर एकाधिकार के खिलाफ जंग लड़ रहे हैं वहीं हमारी सरकार की ऐसी क्या मजबूरी है कि वह हर बार अमेरिकी शर्तों पर घुटने टेक रही है। बस मीडिया तंत्र में तो विदेश नीतियों की खूब बड़ाई हो रही है किन्तु यह वही नीतियां है जो कांग्रेस की सरकार कर रही थी, तब इसे देश गिरवी रखकर निवेश लाना कहा जाता था। यही सरकार सत्ता में आने से पहले इन्हीं नीतियों का खूब विरोध किया करती थी। अब जहां दुनिया में ताकत का विकेन्द्रीकरण हो रहा है और सारे चालाक देश इसका फायदा ले रहे हैं, वहीं हम अभी तक अपनी चाटुकारिता नीति से उभर नहीं पा रहे हैं। जिन देशों ने इन्हें शत-प्रतिशत निवेश करने की छूट दी है जैसे कि दुबई, क़तर, अरब, उन देशो में कोई ख़ास आतंक का असर नहीं है। जिन देशों या सरकारों ने अमेरिकी डॉलर को लेने से मना कर दिया उन देशों में अस्थिरता दिखाई दी है। या तो जनांदोलन होता है या वहां त ता पलट हो जाता है। फिर इनकी सेना पहुंचती है और वहा के संसाधन अमेरिकी कब्जे में आ जाते हैं। इसी का तोड़ निकालने के लिए और आईएमएफ़ का अमेरिकी डॉलर द्वारा एकाधिकार कम करने के लिए जब पुतिन ने ब्रिक्स (ब्राज़ील, रूस, चीन, भारत और दक्षिण अफ्रीका) की स्थापना करते हुए अगुवाई की तब उन्हें सीरिया की लड़ाई में उलझाकर रख दिया गया। सारे सेंक्शन लगा दिये गए। ब्रिक्स की करेंसी तो पास नहीं होने दिया पर अपने सहयोगी देशों (फ्रांस, ब्रिटेन और जर्मनी) की करेंसी इंस्टेक्स बनने दिया।
जब भी एशियाई देशों में ख़ास चुनाव का वक्त होता है तो आतंकी हमले और युद्ध के माहौल बढ़ जाते हैं। ऐसा करके अमेरिका सत्ता को धमकाता है या मदद करता है। ये एक अलग चर्चा का विषय है, परन्तु ऐसा करके ये देश अपनी विदेश नीति में अच्छे से कामयाब रहा है ये तो मानना पड़ेगा। जैसे की परमाणु परीक्षण होते ही कारगिल युद्ध करवा देना हम देख चुके हैं। कारगिल युद्ध खत्म होने से पहले उसी बीच हमने सबसे पहला एफडीआई समझौता किया था। 2008 मंदी में जब हम डॉलर गिरने से रोक सकते थे, मजबूत हो सकते थे जिसका मनमोहन सरकार ने प्रयास भी किया था तब 26/11 का हमला होना और अभी उरी, पुलवामा जैसे हमले। यह सब कहीं न कहीं अमेरिका की कड़ी को जोड़ते हैं। बिना अमेरिका की अनुमति के पाकिस्तान छींक नहीं सकता तो यह समझना कोई कठिन नहीं है कि ऐसे हमले की अनुमति अनौपचारिक तौर पर कहां से आती है। ऐसे कई उदाहरण हैं जहां सरकार कोई भी हो नीति हमें इन्हीं की माननी पड़ी है। जब जब नहीं मानी और स ती दिखाई तब तब वैसे नेताओं को जान से हाथ धोना पड़ा है। चाहे वो शास्त्री जी हों या इन्दिरा जी। यही खेल दूसरे एशियाई देशों के साथ भी होता आ रहा है।
चूंकी इस देश के पास प्राकृतिक संसाधन की बहुत कमी है इसलिए ये शुरू से ही हर एशियाई देशों से संधि करके निवेश और जंग का खेल खेलता रहा है। संयुक्त राष्ट्र में ये ऐसे प्रस्ताव ही पारित करवाता है (जैसे की डबल्यूटीओ), जो इसका बाज़ार इन देशों में खुला रखे। दो पड़ोसी देश की समस्या कभी भी सुलझने नहीं दी है क्योंकि अमेरिकी हित देशों को उलझाए रखने में हैं। भारत के संदर्भ को देखें तो सबसे ज्यादा प्राकृतिक संसाधन और युवा श्रमशक्ति की उपलब्धि के कारण होना ये चाहिए था कि विदेश/बड़े पूंजीपति भारत के बाहर लाइन लगाते निवेश करने के लिए। हम अपनी शर्तों पर उन्हें चुनते। हम अपनी स्वदेशी नीतियां इतनी ताकतवर बनाते कि विदेशी निवेश के बावजूद वो बाजार में हमसे पिछड़ जाते। परन्तु नीयत हो तो कर्म भी उस दिशा में होगा। हमारे राजनेताओं (चाहे वो किसी भी बड़ी पार्टी के हो) की कर्म/नीयत सब तो वो तय करते हैं जिन्होंने इन्हे प्राइवेट मीडिया प्रचार तंत्र के माध्यम से किसी वर्ग ख़ास का हीरो बना रखा है। उतनी ही गलती हम जनता की है जो इस मीडिया प्रचार तंत्र पर लगातार भरोसा करते हैं। क्या आप अब भी उन चैनेलों को देखना चाहेंगे जो एजेंडे के तहत सच्चाई सामने नहीं लाना चाहते। अमेरिकी एजेंडे को समझाने की कोशिश ये बड़े मीडिया हाउस क्यों नहीं करते इस पर आप भी तो विचार कीजिये।
– मनीष मिश्र
(लेखक आईटी कंपनी में उच्चाधिकारी हैं। )
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पाकिस्तान को पानी रोकना एक सराहनीय कदम
पुलवामा आतंकी हमले के बाद भारत ने पाकिस्तान के खिलाफ बड़ा कदम उठाते हुए वहां को जाने वाला पानी रोक दिया है। केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने जब इसकी घोषणा की तो पूरे भारत में एक सकारात्मक संदेश गया। बक़ौल गडकरी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में हमारी सरकार ने निर्णय लिया है कि हम पाकिस्तान को दिए जाने वाले अपने हिस्से के पानी को रोकेंगे। इस पानी को पूर्वी नदियों और सप्लाई के जरिए ज मू-कश्मीर और पंजाब के लोगों के लिए भेजा जाएगा। रावी नदी पर शाहपुर-कांडी डैम का निर्माण शुरू हो चुका है।
परियोजना हमारे हिस्से के पानी को स्टोर करेगी। सभी परियोजनाओं को राष्ट्रीय परियोजना घोषित किया गया है। इन तीनों नदियों पर बने प्रॉजेक्ट्स की मदद से पाक को दिए जा रहे पानी को अब पंजाब और ज मू-कश्मीर की नदियों में प्रवाहित किया जाएगा। गौरतलब है कि 1960 में भारत के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और पाकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब ख़ान ने सिंधु जल संधि की थी। इस
संधि के मुताबिक़ सिंधु नदी की सहायक नदियों को पूर्वी और पश्चिमी नदियों में बांटा गया था। समझौते में सिंधु, झेलम और चेनाब का पानी पाकिस्तान को दिया गया और रावी, व्यास, सतलुज का पानी भारत को दिया गया। इसमें ये भी था कि भारत अपनी वाली नदियों के पानी का, कुछ अपवादों को छोड़कर, बेरोकटोक इस्तेमाल कर सकता है। वहीं पाकिस्तान वाली नदियों के पानी के इस्तेमाल का कुछ सीमित अधिकार भारत को भी दिया गया था। जैसे बिजली बनाना, कृषि के लिए सीमित पानी। पाकिस्तान भारत की बिजली से पैदा की जाने वाली बिजली की बड़ी परियोजनाओं पर आपत्ति उठाता रहा है। 450 मेगावाट क्षमता वाली बगलिहार पनबिजली परियोजना भारत प्रशासित कश्मीर के चेनाब नदी पर 2008 में पूरी की गई वहीं भारत के कश्मीर में वहां के जल संसाधनों का राज्य को लाभ नहीं मिलने की बात कही जाती रही है। जब बीजेपी के समर्थन से महबूबा मु ़ती ज मू-कश्मीर की मु यमंत्री थीं तो उन्होंने कहा था कि सिंधु जल संधि से राज्य को 20 हज़ार करोड़ का नुकसान हो रहा है और केंद्र उसकी भरपाई के लिए क़दम उठाए। पाकिस्तान के पंजाब और सिंध इलाके को कृषि के लिए यहीं से पानी मिलता है। पाकिस्तान के ज़्यादातर इलाके के लिए सिंचाई का यही ज़रिया है। पाकिस्तान की इंडस्ट्री और शहरों की बिजली के लिए भी ये समझौता बहुत मायने रखता है। समझौते के मुताबिक कोई भी एकतरफ़ा तौर पर इस संधि को नहीं तोड़ सकता है या बदल सकता है।
बंटवारे के बाद सिंधु घाटी से गुजरने वाली नदियों पर हुए विवाद की मध्यस्थता वल्र्ड बैंक ने की थी लिहाजा यदि भारत यह समझौता तोड़ता है तो पाकिस्तान सबसे पहले विश्व बैंक के पास जाएगा और विश्व बैंक भारत पर ऐसा नहीं करने के लिए दबाव बना सकता है। लेकिन जानकार कहते हैं कि भारत वियना समझौते के लॉ ऑफ़ ट्रीटीज़ की के अंतर्गत यह कह कर पीछे हट सकता है कि पाकिस्तान चरमपंथी गुटों का उसके खिलाफ इस्तेमाल कर रहा है। अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय ने भी कहा है कि अगर मूल स्थितियों में परिवर्तन हो तो किसी संधि को रद्द किया जा सकता है। लेकिन इन सबके लिए मोदी को अपना 56 इंची सीने वाला तेवर दिखाना होगा।
संजीव पांडे
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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निहित स्वार्थों की वजह से 1947 में उलझा कश्मीर मुद्दा
अखंड भारत का सपना पूरा करने के अब कश्मीर में अनु0-370 एवं 35-ए का समाधान आवश्यक है। ये दोनों प्रावधान कश्मीर को जो अलग राज्य का दर्जा प्रदान करते हैं उसके द्वारा वहां की स्थानीय सरकारें अपने निहित स्वार्थों की पूर्ति के लिये प्रदेश से धोखा करती रही हैं। कश्मीरी लोगों के पिछड़ेपन एवं कश्मीर में प्रशासनिक भ्रष्टाचार के लिये भी यही धाराएं काफी हद तक जि मेदार हैं। देश की बड़ी जांच संस्थाएं ज मू-कश्मीर में भ्रष्टाचार की जांच को स्वतंत्र नहीं कर सकती। एक ओर जहां देश के अन्य राज्यों में विधानसभा का कार्यकाल पांच साल होता है वहीं ज मू कश्मीर विधानसभा का कार्यकाल छह साल होता है। अब पहले ज मू कश्मीर से जुड़े कुछ ऐतिहासिक तथ्यों को समझते हैं। 26 अक्टूबर 1947 में कश्मीर राज्य के भारत में वैध विलय के बाद भी कश्मीर के मुस्लिम नेता इस बात पर पसोपेश में थे कि वह भारत के साथ रहें या पाकिस्तान के साथ जाएं। ऐसे वक्त में जवाहर लाल नेहरू ने शेख अब्दुल्ला को दिल्ली बुलाया। बातचीत के बाद सन 1952 में दिल्ली में एक समझौता होता है। इस समझौते के अनुसार ज मू कश्मीर की रियासत और भारत की केंद्र सरकार के बीच के रिश्ते तय किये जाते हैं। इस समझौते के द्वारा 35-ए उनको मिल गया। 1950 में लागू हुये भारतीय संविधान के अनु0-370 के तहत कश्मीर को विशेषाधिकार पहले ही दिये जा चुके थे। हालांकि, बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर 370 के पक्षधर नहीं थे।
जिस दिन को हम स्वतन्त्रता दिवस के रूप में मनाते हैं वास्तव में वह सत्ता का हस्तांतरण था। भारत उस समय विभिन्न रियासतों में बंटा था। हर रियासत को एक विकल्प दिया गया था कि वह भारत के साथ रहना चाहता है या नहीं। उस समय की रियासतों की सं या पांच सौ से ज़्यादा थी। इन रियासतों को भारत में जुडऩे या न जुडऩे के लिये दिल्ली स्थित गृह मंत्रालय के द्वारा एक प्रारूप तैयार किया गया था। दो पेज के इस प्रारूप में सब नियम एवं शर्तें लिखी हुईं थीं। सिर्फ कुछ कॉलम इसमें खाली रखे गए थे। रियासत का नाम, उनके राजा का नाम, विलय की तारीख को भरकर हस्ताक्षर करने का विकल्प इसमें खुला हुआ था। महाराजा हरीसिंह नें इस विलय पत्र पर हस्ताक्षर किए थे। आज भी काफी लोगों को इस बात की गलतफहमी बनी हुयी है कि भारत में विलय की संधि पर कश्मीर ने हस्ताक्षर नहीं किये थे। विषय के संदर्भ में तत्कालीन वाइसराय माउण्टबेटन ने रियासतों को भारत या पाकिस्तान में विलय का विकल्प दिया था। इन दोनों विकल्पों के अतिरिक्त कोई अन्य विकल्प रियासतों के पास नहीं था। चूंकि, कश्मीर एक मुस्लिम बाहुल्य इलाका था इसलिए माउण्टबेटन एवं उनके अन्य अंग्रेज साथियों को इस बात का कतई अंदेशा नहीं था कि कश्मीर का विलय भारत में भी हो सकता है। उनके आंकलन के अनुसार कश्मीर के राजा हरिसिंह पाकिस्तान के साथ जाने वाले थे। सामरिक और भौगोलिक रूप से महत्वपूर्ण यह भूभाग चीन और सोवियत संघ की सीमाओं से सटा हुआ था। पहाड़ी इलाका होने के कारण हिमालय के इस भूभाग का किसी भी देश की सुरक्षा के लिए विशेष महत्व था। विलय की प्रक्रिया के दौरान हरिसिंह ने निर्णय लेने में काफी समय लगा दिया। इस बीच 15 अगस्त 1947 की तारीख पास आ गयी। उस समय के प्रमुख मुस्लिम नेता शेख अब्दुल्ला प्रार भ में भारत के साथ विलय के पक्षधर रहे किन्तु जैसे जैसे समय बीतता चला गया और हरिसिंह फैसला लेने में देर करते रहे। इस बीच शेख अब्दुल्ला का मन बदलने लगा। वह एक स्वतंत्र राज्य की मांग करने लगे।
चूंकि, मुस्लिम बाहुल्य वाले कश्मीर भूभाग की भौगोलिक, परिवहन, व्यापारिक एवं भाषायी स्थिति पाकिस्तान के नजदीक दिखती थी इसलिए पाकिस्तान इस भूभाग को अपना मानने लगा था। इस बीच कुछ कबायली लड़ाकों ने कश्मीर पर आक्रमण कर दिया। पाकिस्तान की तत्कालीन सरकार और सेना ने नाज़ुक मौके का फायदा उठाकर कबालियों का समर्थन करके उनको उकसा दिया। उनको हथियार एवं अन्य जरूरी सामान मुहैया करा दिये। पाकिस्तानी फौज से नेपथ्य से समर्थन पाकर ये लड़ाके गैर मुस्लिमों की हत्या, लूटपाट एवं महिलाओं के साथ बलात्कार करने लगे। हालात इतने ज़्यादा बदतर हो गए कि स्वयं राजा हरिसिंह ने श्रीनगर से पलायन कर दिया। 25 अक्तूबर 1947 के दिन ज मू आकर सुरक्षित जगह पर उन्होंने शरण ली। ज मू आकर हताश हरिसिंह का कहना था कि ‘हम कश्मीर हार गए’। 27 अक्तूबर 1947 को पहली बार भारतीय सेना ने कश्मीर की तरफ कूच किया। इसके पहले 25 अक्तूबर को महाराजा हरिसिंह ज मू आ चुके थे। उन्होंने विलय के प्रारूप पर हस्ताक्षर कर दिये। अब इस बारे में कोई स्पष्ट जानकारी अभी तक उपलब्ध नहीं है कि महाराजा के हस्ताक्षर के बाद सेना ने कूच किया था या सेना के कूच करने के बाद महाराजा ने एक दिन पहले की तारीख पर हस्ताक्षर किए थे। इस बात की संभावना ज़्यादा दिखती है कि स्वतंत्र राज्य चाहने वाले हरिसिंह की अक्ल तब ठिकाने आ गयी जब पाकिस्तान ने कश्मीर पर हमला कर दिया। उनको भारत के साथ रहना लाभकारी लगा। पर वाइसराय माउंटबेटन ने इसमें एक पेंच लगा दिया। उन्होंने कश्मीर के महाराजा हरि सिंह की विलय की बात तो स्वीकार कर ली किन्तु यह तय कर दिया कि जैसे ही कश्मीर की क़ानून व्यवस्था ठीक हो जायेगी हमलावरों को खदेड़ दिया जाएगा। वैसे ही भारत में राज्य के विलय का मुद्दा जनता के हवाले से निपटाया जाएगा।
इसके बाद रही सही कसर तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने पूरी कर दी। अपनी अन्तराष्ट्रीय छवि चमकाने के लिए नेहरू ने कश्मीर में संयुक्त राष्ट्र या अंतर्राष्ट्रीय तत्वावधान में जनमत संग्रह कराने की बात कह दी। एक अनावश्यक कदम के द्वारा उस समय ही सुलझने जा रहा कश्मीर मुद्दा लंबे अरसे के लिए गले की फांस बना दिया गया। भारतीय फ़ौज ने पाकिस्तानियों को श्रीनगर में घुसने से तो रोक दिया किन्तु पाकिस्तान की सियासत को भारत में घुसने से न रोक सके। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर जनमत संग्रह की बात से पाकिस्तान का मनोबल इतना ज़्यादा बढ़ गया कि 1948 की शुरुआत में ही एक बार फिर लड़ाई छिड़ गई। अबकी बार पाकिस्तान ने खुले आम अपने सैनिक तैनात कर दिये। ज मू और कश्मीर का कुछ हिस्सा पाकिस्तान के कब्जे में चला गया जिसको आज भी हम पीओके (पाक अधिकृत कश्मीर) के नाम से जानते हैं। इसके बाद के युद्धविराम ने भारत के हिस्से वाली रियासत को भी ज मू और कश्मीर दो भागों में बांट दिया। इसके बाद जो खूनी खेल हुआ वह दिल दहलाने वाला था। हजारों जाने चली गयीं। आज भी उस समय की गलतियां हम लोग भुगत रहे हैं।
अमित त्यागी
(लेखक विधि विशेषज्ञ एवं स्तंभकार हैं। )
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सैनिकों के प्रति अचानक क्यों बढ़ता है लोगों का स मान
प्रेमभाव, दरियादिली आखिर क्यों जागती है, जब कोई शहादत होती है? तब इतना हुजूम, मीडिया, राजनीति करने वाले कुछ यूं इबादतें व्यक्त करते करते हैं कि लगता है जैसे इनकी नजर में वतन पर मर मिटने वाले ही आज सबकुछ हैं। तब मंदिर मस्जिद सब झूठे नजर आते हैं। पर कुछ समय बाद उनका अस्तित्व स्वाहा: हो जाता है। सबकुछ पूर्व की भांति जस का तस! आखिर यह सब क्या है? यह दिखावा प्रवृत्ति है या यह फोटों खिंचवाने की आतुरता है? ये देश प्रेम है या अहम की चोट है या स्वयं का असुरक्षित भाव है? काश! शांति काल में भी ये जज्बात बने रहें तो ये देश सोने की चिडिय़ा इतिहास क्यों बनता, बनावटी दो मुंहें क्यों! यदि देश के सुरक्षाकर्मियों की दैनिक नन्दनी गौर से अवलोकन करेंगे तो आप भी वास्तविकता समझ पाएंगे।
सेना में अधिकारियों और जवानों में भारी विभिन्नताएं एवं विसंगतियां हैं। चाहें, रहन सहन हो, वेतन भत्ते हों, सुविधाओं की बात हों। खान पान हो या जीवन का कोई भी क्षेत्र हो। जब वह छुट्टियों में आता है तो रेलगाडिय़ों में बिना सीट आरक्षण के टॉयलेट के पास बैठा होता है। लोगों का रास्ता बाधित होता है इसलिए लोगों की हेयदृष्टि का शिकार होता है। जो आज कैंडल लेकर बड़ी बड़ी फेंक रहे हैं शायद ही कभी उनसे बोले होंगे आइए हमारी बर्थ के एक कोने में बैठ जाओ, आखिर कब तक टॉयलेट की गैलरी में…! अब बात मीडिया या नेताओं की करें तो शहादत के बाद उस घर के जीव जंतुओं की कोई खबर नहीं लेता। वे पेट्रोल पंप, जमीन-प्लॉट देने, बच्चों की शिक्षा, नौकरी देने का जो आश्वासन दे रहे थे, कभी उस घर में शहीद की तरह फिर लौट कर नहीं आते। पर शहादत के बाद इतना अंतर्विरोध, इतनी भ्रांतियां, दिखावा, छल-फरेब, झूठ। आखिर क्यों? पेंशनर सैनिकों की बदहाली भी किसी से छिपी नहीं है। फिर उल्लेख करता हूं जब परिवार के खर्चे उच्चतम स्तर पर होते हैं तब सैनिक रिटायर्ड हो जाते हैं, वे जिस माहौल से आते हैं उससे विपरीत परिस्थितियों को रिटायर्ड जीवन में पाते हैं। जिस कारण सिविलियन जीवन में भी सामंजस्य नहीं बिठा पाते। सरकारी पॉलिसियों के अंतर्विरोध के कारण अच्छी नौकरियां भी अधिकारियों के लिए सुरक्षित होती हैं। जबकि उनमें से बहुत सैनिक, अधिकारियों से भी अधिक ज्ञान, शिक्षा व योग्यता रखते हैं पर उनके नसीब में गार्ड या सिक्युरिटी गार्ड की ही नौकरी आती है। केंद्र व राज्य सरकारें द्वारा भी राजनीति के चलते इन योग्य, ईमानदार, अनुशासित और मेहनत हुनरबन्द मानवशक्ति का दोहन नहीं हो पाता। शायद उसे भी भ्रष्ट, आलसी, पान-त बाकू की पीक दीवारों पर थूकने वाले निक मे, निठल्ले कर्मचारी ही पसंद होते हैं। सेवा में रहने के दौरान अधिकांश सैनिक मनीप्लान समयाभाव या जागरूकता नहीं होने के कारण नहीं कर पाते। सीमित जमा पूंजी जि मेदारियां निभाते शनै: शनै: कब समाप्त हो गयी पता ही नहीं चलता। अधिकारियों की पेंशन की अपेक्षा सैनिकों की पेंशन भी ऊंट के मुंह में जीरा ही है। ओआरओपी का पूर्ण लाभ भी सभी को नहीं प्राप्त हुआ। इसलिए यदि सैनिकों का मनोबल बनाये रखना हो तो बहुत सुधार आवश्यक है। वे किसी के रहमों कर्म पर कब तक रहेंगे। अधिकारियों के शोषण और अंतर्विरोध सुविधाओं से बचाव भी आवश्यक है।
-कमांडो अनिल सिंह चौहान
(लेखक 26-11 हमले के दौरान हुयी कमांडो कार्यवाही का हिस्सा थे)
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युद्ध नहीं गरीबी के खिलाफ हो युद्ध
कभी सीरिया, कभी लेबनान, कभी अफग़़ानिस्तान तो कभी भारत। आतंकवाद की वीभत्स तस्वीर हमारे सामने आती ही रहती हैं। अक्सर आतंकवाद करने वाले यह नहीं समझते कि उनकी गैरकानूनी गतिविधियों का बच्चों पर क्या प्रभाव पड़ता है। गरीबी और गुरबत में जीने वाली आम जनता के बीच से बच्चों की दिल झकझोरने वाली तस्वीरें अगर आतंक के आकाओं का दिल पसीज दें तो शायद वह आतंक का रास्ता ही छोड़ दें। अभी जब पूरा देश पुलवामा के शहीदों को लेकर शोक में डूबा है। तब मेरे सामने अचानक एक बालक आ गया। यह बालक उन शहीदों की याद में जलाई गई मोमबत्तियों की लौ को तापकर ठंड से बचने की कोशिश में था। रात का यही कोई 11 बजकर 18 मिनट हुआ था। हमारे एक साथी आले घर पहुंचने की जल्दी में थे। यह एक सर्द रात थी। कुछ ही देर में आधी पहर होने को था। अचानक हमारे पैर बाइक के ब्रेक पर दबते चले गए। आंखों के सामने जो कुछ था, उसे जाने बगैर आगे बढ़ ही नहीं पा रहे थे। पांच साल का एक बालक अमर शहीदों की मूर्ति के नीचे करवट लेकर लेटा था। पास में कुछ मोमबत्तियां जल रही थीं, जिसकी गर्मी बालक को मिल रही थी। पूरे देश की चाहत है कि पाकिस्तान पर हमला कर दिया जाए, ताकि दिल में जल रही बदले की आग को ठंडा किया जा सके। पर बगैर बोले इस बालक की चाहत मोमबत्ती की आग बरकरार रखने की थी, ताकि उसकी रात इन मोमबत्तियों की लौ से निकल रही गर्मी को पाकर कट जाए।
देश आतंकवाद से जूझ रहा है, यह बालक गरीबी और हालात से जूझ रहा है। इस बालक में भी बहुत आग है, इसलिए उसने लाख पूछने के बाद भी न मां, न पिता, न घर के बारे में कुछ बताया। वह लेटा था। कुछ देर हमें देखने के बाद वह बस उठकर बैठ गया। हाथ आगे बढ़ाए, मोमबत्ती के ऊपर कर दिए। एक बार पलट कर नहीं देखा। अब यह नहीं कहा जा सकता कि बालक घर से नाराज होकर आया था या उसका घर ही नहीं था। पर गरीबी आतंक को जन्म देती रही है। आतंकवादियों के छिपने के ठिकानों को तो नष्ट किया जा सकता है, पर आतंकवाद को जन्म देने वाली गरीबी को भी खत्म करने की आग हम सब को अपने दिलों में जलाकर रखनी होगी। वरना मोमबत्तियों की गर्मी से खुद को जिंदा रखने की कोशिश करते करते न जाने कितने लोग बारूद की गर्मी में पल बढ़कर आतंकवाद के आका बन जाते हैं। फिर हम सब अपने शहीद सैनिकों की याद में मोमबत्तियां जलाते रह जाएंगे।
-विवेक सेंगर
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं )
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पाकिस्तान से युद्ध या युद्ध से सत्ता और व्यापार
आज़ादी के 72 वर्ष के बाद भी धर्म के बंटवारे का अधर्म जिसको पाकिस्तान नाम दिया गया था जो एक जिगरी दुश्मन की तरह पाला जा रहा है क्योंकि इसकी दुश्मनी से राष्ट्रवाद का एक ऐसा राजनीतिक ज्वार आता है कि राजनीतिक सत्ताओं की हारी हुई बाजी जीत में बदल जाती है। देश की पाकिस्तानी सीमाएं हो या पाकिस्तानी सांपो को पालती कश्मीर की जन्नत सी वादियां। या फिर पाकिस्तान से क्रिकेट के मैदान की दांत काटी दुश्मनी जिसको बाज़ारी उन्माद देकर कंपनियों की, खिलाडिय़ों की और क्रिकेट कंट्रोल बोर्डों की अरबों खरबों की कमाई होती रही है। और यही दुश्मनी का उन्माद जब उफान पर होता है तो सभी टीवी चैनल पाकिस्तान भारत की दुश्मनी के नाम पर पाकिस्तान के स्टूडियो से कुछ उन्मादी चेहरे लाइव जोड़ कर फिर भारत के नेताओं से जो कांव कांव होती है उससे टी आर पी का खेल टी वी चैनलों को करोड़ो के वारे-न्यारे कर जाता है। जानी दुश्मनी के नाम युद्ध का डर दिखाकर हथियार, गोली और बम बनाने वाली क पनियों की तो चांदी ही कट जाती है। औने पौने के अत्याधुनिक हथियार लाखों डॉलरों में लाइन लगाकर बिकते हैं। और तो और इस दुश्मनी के उन्माद की राष्ट्रभक्ति और बलिदान की श्रद्धांजलि तिरंगों और मोमबत्ती के रूप में वंदेमातरम का ऐसा हुंकार लगाती है कि पूरे भारत में न के बराबर बिकने वाले इन तिरंगों और मोमबत्तियों का व्यापार एक दम उछाल पर आ जाता है। यह व्यापार जब जगह जगह इवेन्ट में बदल जाता है तब तो कहने ही क्या जहां नेता रूपी भेडिय़ा कलफदार कुर्ता पहने भीड़ की भेड़ चाल को लिये यह साबित करने की कोशिश करता है कि सबसे बड़ा राष्ट्रभक्त और श्रद्धासुमन अर्पित करने वाला यही है। यही तो नेता जी को मौका है कि बड़ी बड़ी होर्डिंग लगाकर राष्ट्रप्रेम चमकाने दिखाने का। श्रद्धांजलि देने का। अरे भाई होर्डिंग बैनर वाले को भी व्यापार करने का मौका मिलना चाहिये न और नेता जी को राजनीति का धंधा चमकाने का। हां, हम अच्छा समझते यदि उन होर्डिंगों, बैनर, तिरंगों और मोमबत्तियों में खर्चे गए पैसों को उन बलिदानियों के परिवार को दे दिया जाता। तो शायद पूरे देश से एक बहुत बड़ी मदद और सच्ची श्रद्धांजलि होती। पर यह हो नहीं सकता क्योंकि व्यापार की भेड़चाल और भेड़चाल से व्यापार जो होता है भाई। और तो और बलिदान में भी जाति, पंथ और क्षेत्र ढूंढा जाने लगता है क्योंकि इसी से तो अलग अलग दलों के नेताजी का वोटबैंक बढ़ेगा।
कुल मिलाकर सबकी चांदी कटती है। पर हां इस सबमें कुछ लोग हैं जो व्यापार नहीं करते। जी हां, वो सैनिक जो इस जिगरी दुश्मनी में बलिदान होते हैं। वो बूढ़े मां बाप जो अपने जिगर के टुकड़े को कलेजे पर पत्थर रख मातृभूमि के लिये आंखों के हृदय को चीरने वाली हूक और झर झर बहते आंसुओं की आहुति दे अर्पित कर देते हैं। कोई रंगीन सपनों को सजाए वो बेटी जो अपनी मांग का सिन्दूर मेहंदी सूखने से पहले भारत मां के सिंगार के लिये अर्पित कर देती है। वो मासूम जो अपने पापा की गोद में बैठने की बजाय उनको ही चिता की गोद में लेटा टकटकी बांधे राष्ट्र यज्ञ में आहूत होता देखता रहता है और समझने का प्रयास करता है कि सैनिक की राष्ट्रभक्ति का सिला क्या पूरे परिवार के बलिदान से मिलता है। हां यह सैनिक या उसके परिवार का निस्वार्थ बलिदान किसी व्यापार के लिये नहीं होता, यह सच में एक अदभुत निस्वार्थ प्रेम है। जो शायद सिर्फ और सिर्फ भारत मां की रक्षा के लिये होता है। जहां कोई सौदा नहीं बल्कि एक सैनिक का समर्पण है। भारत मां की रक्षा के लिये सर्वस्व सर्वोच्च बलिदान है। वह असीम त्याग है जो अदभुत और सर्वथा अतुलनीय है। इस बलिदानी पर परा को श्रद्धांजलि नहीं अपितु इसको स मान देने, गौरवान्वित होने और अनुकरण करने का संकल्प हर युवा को लेना चाहिये जो राष्ट्रभक्ति का उन्माद खत्म होने के बाद भी नारो में नहीं बल्कि इरादों में भी दिखनी चाहिये। मेरा अश्रुपूर्ण नमन है। वंदन है उन अदभुत, अतुलनीय निस्वार्थ बलिदान को। मैं इनके बलिदान को हमेशा की तरह अपने हृदय में सजाकर रखूंगा क्योंकि यही मेरी प्रेरणा होगी उन बलिदानियों को स मान देने की। आपकी भी यही भावना है यह मैं जानता हूं।
-अशित पाठक
(लेखक राष्ट्रवादी विचारक हैं)
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सेना का मनोबल नहीं गिरने देंगे
पुलवामा के आतंकी हमले ने एक साथ कई बड़ी चुनौतियों को जन्म दिया है। कश्मीर में जिस तरह पाक प्रायोजित आतंकवाद चल रहा है उसके लिए हम उसको उसी भाषा में जवाब देंगे। पुलवामा हमले के बाद सेना से अपेक्षा है कि वह सर्जिकल स्ट्राइक से भी बड़ी कार्यवाही करे। कुछ ऐसी कार्यवाही जो पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद की कमर तोड़ दे। हमारी सरकार ने सेना को इसकी पूरी छूट भी दे दी है। भारतीय जनता पार्टी सदा से ही सैनिकों के स मान और मनोबल को बढ़ाने का काम करती रही है। उरी हमले के बाद हमने सेना को सर्जिकल स्ट्राइक की छूट दी थी और सेना ने अपने साथ हुयी घटना का बदला भी लिया। सरकार जिस तरह से आतंकवाद से निपटने को संकल्पित है उससे देशवासियों को सरकार और सेना पर पूरा भरोसा है। सेना के समर्थन में ग्रामीण क्षेत्रों में भी लोग कैन्डल मार्च निकाल रहे हैं। हमारे रक्षा विशेषज्ञ एवं सेना इतनी सक्षम है कि उसको पता है कि कब और कहां कार्यवाही करनी है। वह किसी के दबाव में नहीं आएगी। जो लोग सेना को जवाबी कार्यवाही के लिए उकसा रहे हैं, हमारी सेना उनके उकसावे में आए बगैर स्वयं कार्यवाही करने में सक्षम है।
-हरिप्रकाश वर्मा
(लेखक बृजक्षेत्र भाजपा के महामंत्री हैं )