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यूपीए बनाम एनडीए सरकार : कौन सही, कौन आगे?

 

प्रियंका वाड्रा के सक्रिय राजनीति में आने के बाद उत्तर प्रदेश की राजनीति का परिदृश्य अचानक से बदल गया। सपा-बसपा के द्वारा गठबंधन में कांग्रेस को स मान न देने के कारण प्रियंका का आना कांग्रेस का मास्टर स्ट्रोक बन गया है। अब कांग्रेस के साथ ही भाजपा को भी इसका फायदा मिलता दिखने लगा है। सपा-बसपा गठबंधन की जड़ें कमजोर हो गयी हैं। बसपा को सपा की अनुकूल सीटें देने पर मुलायम सिंह आहत हैं। उनका टिकट वितरण के बाद अपनी लाचारी दिखाना सपा के असंतुष्टों को अखिलेश विरोध दिखाने का अवसर दे चुका है। शिवपाल यादव एवं कांग्रेस के साथ आने की संभावनाएं बनती तो दिख रही हैं किन्तु अभी तक ऐसा हो नहीं पाया है। 2014 में भ्रष्टाचार एक बड़ा चुनावी मुद्दा था किन्तु 2019 में ऐसा नहीं है। जीएसटी और नोटबंदी से अर्थव्यवस्था पर कुछ लगाम लगी थी किन्तु उसके द्वारा भी भाजपा के वोटबैंक में कोई फर्क पड़ता नहीं दिख रहा है। गरीबी हटाओं का नारा देने वाली कांग्रेस भाजपा को उस तरह से नहीं घेर पा रही है जैसा 2014 में भाजपा ने उसे घेरा था। इस तरह के घटनाक्रमों के बीच एनडीए की वापसी तय लग रही है। कई मोर्चों पर लचर प्रदर्शन के बावजूद भ्रष्टाचार और घोटालों से एनडीए सरकार दूर रही है। शायद यही एक बड़ी वजह बन रही है जिसके आधार पर अन्य गठबंधनों पर एनडीए अब भी भारी पड़ता दिख रहा है।

अमित त्यागी

अटल बिहारी बाजपेयी ने 1996-2004 के मध्य तीन बार प्रधानमंत्री की कुर्सी संभाली। 20014-2019 तक नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री रहे हैं। 2004-2014 तक मनमोहन सिंह यूपीए के प्रधानमंत्री रहे हैं। इस तरह से एनडीए और यूपीए के कार्यकाल के दस दस साल पूरे हो चुके हैं। यूपीए और एनडीए के दोनों कार्यकालों के संयुक्त तुलनात्मक अध्ययन से कुछ रोचक तथ्य सामने आते हैं। जैसे अटल जी की पहली तेरह दिन की सरकार भाजपा की सरकार थी जिसे अन्य दलों का सहयोग मिला था। इसके बाद भाजपा के द्वारा एनडीए का गठन किया गया। यानि कि सबसे पहले गठबंधन सरकार चलाने का श्रेय अटल जी को दिया जा सकता है। उसके पहले ज़्यादातर कांग्रेस शासित कार्यकाल रहा था। वर्तमान में प्रियंका वाड्रा के राजनीतिक परिदृश्य में आने के कारण कांग्रेस उत्साहित है। प्रियंका की तुलना इन्दिरा गांधी से की जा रही है। अब क्या प्रियंका गांधी (वाड्रा) और इन्दिरा गांधी की राजनीति में कोई समानता है? अगर है तो उसे समझते हैं।

सन 1966 की बात करें तो उस समय इन्दिरा गांधी का राजनीति में आगमन हुआ। तब डॉ राम मनोहर लोहिया का कहना था कि अब हर सुबह अखबार में एक सुंदर चेहरा दिखाई दिया करेगा। कांग्रेस में उस समय एक उत्साह था क्योंकि जवाहर लाल नेहरू जैसे बड़े नाम की बेटी उनके साथ थी। उसी समय चीन से हार हुयी थी इसलिए कांग्रेस की जनता में स्थिति कमजोर थी। जनता में असंतोष के कारण आंदोलन पनप रहे थे। लाल बहादुर शास्त्री जैसे व्यक्तित्व के आकस्मिक निधन के बाद जब इन्दिरा गांधी प्रधानमंत्री का चेहरा बनी तो कांग्रेस को मुश्किल वक्त से उबरने की आस जगी। पर ऐसा नहीं हुआ। 1962 में लोकसभा की 361 सीटें जीतने वाली कांग्रेस को 1967 में सिर्फ 283 सीटें ही मिलीं। देश के साथ राज्यों में कांग्रेस चुनाव हार गयी। इन्दिरा गांधी का करिश्मा कांग्रेस के ज़्यादा काम नहीं आया। 1967 में आम चुनावों के कुछ महीनों बाद कांग्रेस को एक बड़ा झटका और लगा। उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में कांग्रेस की चुनी हुयी सरकारों में भारी दलबदल हुआ। दोनों राज्यों में कांग्रेस की सरकारें गिर गईं। उत्तर प्रदेश में चरण सिंह एवं मध्य प्रदेश में गोविंद नारायण सिंह गैर कांग्रेसी मु यमंत्री बने।

यह प्रकरण इस बात का प्रमाण है कि सिर्फ चेहरे के नाम पर भारतीय जनता वोट नहीं देती है। भारत की जनता उसे वोट देती है जिसके चेहरे के साथ काम भी उसे पसंद हों। प्रियंका गांधी अभी सिर्फ एक चेहरा हैं। जनता के बीच में उनकी कोई उपलब्धि फिलहाल तो नगण्य है। इन्दिरा गांधी को भी जनता ने तब स्वीकार किया था जब वह कुछ बड़े काम कर चुकी थीं। यदि वापस 1967 की तरफ लौटें तो इन्दिरा गांधी ने उस समय 1967 की घटनाओं से सबक लिया। 1969 आते आते जनकल्याणकारी मुद्दों से स्वयं को जोड़ लिया। जब कांग्रेस का विभाजन हुआ तब उन्होंने अपनी अलग कांग्रेसआई बनाई। उस दौरान कांग्रेस के बड़े नेता मूल कांग्रेस में ही थे। इंदिरा गांधी ने गरीबी हटाओ का नारा दिया और 14 निजी बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया। गरीबों को यह कदम गरीबों का हितैषी लगा। राजा महाराजाओं को मिलने वाले प्रिवी पर्स भी इन्दिरा गांधी ने समाप्त कर दिये। इस तरह से वह एक छवि बनाकर और काम करके चुनाव में गईं तो 1971 में उन्हें 352 सीटों पर जीत मिली। गौरतलब यह भी है कि गरीबी हटाओं के नारे के साथ आई कांग्रेस के कार्यकाल में सबसे ज़्यादा गरीबों का दोहन हुआ।

एनडीए बनाम यूपीए कार्यकाल 

सोनिया गांधी के प्रधानमंत्री बनने से इनकार करने के बाद मनमोहन सिंह 22 मई, 2004 को पहली बार देश के प्रधानमंत्री बने और 26 मई, 2014 तक इस पद पर रहे। मनमोहन सिंह का पहला कार्यकाल (2004-09) दूसरे की तुलना में बेहतर माना जाता है। इस कार्यकाल के आखिरी साल को छोड़ दें तो अर्थव्यवस्था को ज्यादा मुश्किलों का सामना नहीं करना पड़ा था और इन पांच सालों में तीन बार वृद्धि दर नौ प्रतिशत के पार गई थी। जब 2004 में अटल जी ने पद छोड़ा था तब विकास दर आठ प्रतिशत थी। मनमोहन सरकार ने अपने पहले वर्ष में सिर्फ सात प्रतिशत की वृद्धि दर ही प्राप्त की थी। यूपीए सरकार के दूसरे, तीसरे और चौथे वित्त वर्ष (2005-06, 2006-07 और 2007-08) न केवल उसके बल्कि देश के कामयाब वित्त वर्षों में शुमार किए जाते हैं। इस दौरान अर्थव्यवस्था की विकास दर क्रमश: नौ फीसदी से ऊपर ( 9.5, 9.6 और 9.3 प्रतिशत) रही थी। विकास दर के लिहाज से वित्त वर्ष 2006-07 तो आजादी के बाद भारत का सबसे अच्छा साल माना जाता है। इस दौरान हासिल की गई 9.6 प्रतिशत की विकास दर आजादी के बाद की सबसे तेज वृद्धि है।  हालांकि यह खुशी ज़्यादा दिनों तक नहीं रही। इसके एक साल बाद ही अमेरिका में आई आर्थिक मंदी से जब पूरी दुनिया प्रभावित होने लगी तो भारत भी इससे अछूता नहीं रहा। यूपीए के पहले कार्यकाल के आखिरी वित्त वर्ष 2008-09 में जीडीपी की वृद्धि दर घटकर 6.7 फीसदी ही रह गई थी। यूपीए सरकार के दूसरे कार्यकाल के पांच सालों (वित्त वर्ष 2009-10 से 2013-14) के दौरान अर्थव्यवस्था की विकास दर क्रमश: 6.7, 8.6, 8.9, 5.7 और 6.9 प्रतिशत रही थी। यूपीए-2 के समय अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर का औसत केवल 7.2 प्रतिशत था जबकि यूपीए-1 के दौरान यह 8.4 प्रतिशत रहा था। अगर यूपीए के दोनों कार्यकाल का औसत निकाला जाये तो 10 सालों में देश 7.8 प्रतिशत के औसत से विकास करने में सफल रहा था।

इसके विपरीत वाजपेयी सरकार ने जब कार्यभार संभाला था तब देश में उदारीकरण को शुरू हुए सात साल भी नहीं हुए थे। उन पर उदारीकरण और वैश्वीकरण की नीतियों को और मजबूत करने की जि मेदारी के साथ ही तत्कालीन राजनीतिक माहौल में स्थिरता लाने का दबाव भी था। वाजपेयी के प्रधानमंत्री बनने के दो महीने के भीतर ही भारत ने परमाणु परीक्षण भी किये थे जिनके चलते उसे कठोर वैश्विक आर्थिक प्रतिबंधों का सामना भी करना पड़ा था जिसका प्रभाव आर्थिक दर पर पड़ा था। वाजपेयी सरकार के छह सालों (वित्त वर्ष 1998-99 से 2003-04 तक) की एक विशेष बात यह भी थी कि इस दौरान एक साल वृद्धि दर बढ़ती थी तो अगले साल यह घट जाती थी। वित्त वर्ष 1998-99 में 6.7 फीसदी से शुरू हुआ यह सिलसिला अगले पांच सालों में क्रमश: 8.0, 4.1, 5.4, 3.9 और 8.0 फीसदी तक पहुंचा था। इस तरह एनडीए-1 सरकार के दौरान देश की विकास दर का औसत 6.0 फीसदी रहा। 2014 में जब एनडीए-2 यानी नरेंद्र मोदी की सरकार बनी तो उस वक्त मनमोहन सिंह सरकार के रूके हुए फैसलों की वजह से अर्थव्यवस्था चरमरा सी गई थी। मोदी ऐसे हालात को दूर करने का वादा करके प्रधानमंत्री बनने में कामयाब तो हो गये लेकिन उनको अपेक्षाओं पर खरे उतरने में समय लग गया। मोदी सरकार के पहले वित्त वर्ष (2014-15) में विकास दर 7.2 प्रतिशत रही थी। इसके बाद अगले वित्त वर्ष में यह आंकड़ा 7.5 प्रतिशत हो गया था। इसके बाद अर्थव्यवस्था के और र तार पकडऩे की उ मीद थी लेकिन नोटबंदी के फैसले के चलते वित्त वर्ष 2016-17 में यह आंकड़ा फिसलकर 7.15 प्रतिशत पर आकर टिक गया। 2017-18 में विकास दर सिर्फ 6.6 प्रतिशत के आस पास रही।

यूपीए में वृद्धि एवं महंगाई दर दोनों रही ज़्यादा

एनडीए-2 के चार साल में अर्थव्यवस्था ने 7.1 फीसदी की औसत दर से तरक्की की। एनडीए की दोनों सरकारों की औसत विकास दर 6.45 प्रतिशत रही है। यूपीए की दोनों सरकारों के दौरान अर्थव्यवस्था की 7.8 फीसदी की औसत विकास दर से यह 1.35 फीसदी कम है। इसका मतलब यह हुआ कि एनडीए के शासन में अर्थव्यवस्था का विकास यूपीए के शासन की तुलना में करीब 14 प्रतिशत कम हुआ। इस तरह से पिछले दो दशक के जीडीपी आंकड़े नरेंद्र मोदी के यूपीए से तीव्रतर विकास करने के दावों की पुष्टि नहीं करते हैं। किन्तु इसके साथ एक तथ्य यह भी है कि सिर्फ आंकड़े सफलता या असफलता के मापदंड नहीं हो सकते हैं चाहे सरकार किसी भी दल की रही हो।

जो लोग सिर्फ विकास दर या जीडीपी को विकास के मापदंड का माध्यम बनाते हैं उन्हें यह भी समझना होगा कि ये कैसे बढ़ती है। यदि किसान खेत में केमिकल फर्टिलाइजर डालता है तो जीडीपी बढ़ती है किन्तु यदि साधारण प्राकृतिक खाद से स्वास्थ्य वर्धक खेती करता है तो जीडीपी नहीं बढ़ती। केमिकल से भरी फसल खाकर अगर आप बीमार हो जाएं और अस्पताल में इलाज़ कराएं तो जीडीपी बढ़ती है। किन्तु अगर आयुर्वेद के द्वारा देसी इलाज़ से ठीक हो जाएं तो जीडीपी नहीं बढ़ती। अगर आप कार, ट्रैक्टर आदि कुछ भी सामान खरीदें तो ही जीडीपी बढ़ती हैं। सिर्फ भौतिकतावादी चीजों का उपभोग ही जीडीपी को बढ़ाने का काम करता रहता है। ऐसे में जीडीपी से ज़्यादा महंगाई दर का आंकड़ा महत्वपूर्ण हो जाता है।

अगर महंगाई की बात करें तो 2013-14 में महंगाई दर 10.1 प्रतिशत थी। दिसंबर 2018 में महंगाई दर 2.2 प्रतिशत थी। महंगाई दर घटने का असर आम जनता की गाढ़ी कमाई पर पड़ता है। उनकी क्रय शक्ति बढ़ जाती है। महंगाई का दूसरा असर बचत की वास्तविक दरों पर होता है। उदाहरण के लिए महंगाई दर दहाई के अंकों में होने की स्थिति में बचतकर्ता सिर्फ (-2) प्रतिशत ब्याज अर्जित करता था जो 4 प्रतिशत रहने की स्थिति में 3 प्रतिशत है। यानि कि 5 प्रतिशत का अंतर आ गया है। चूंकि, मध्य वर्ग, बुजुर्ग और पेंशन पाने वाले लोग ही ज़्यादातर अपने धन को बचत खाते में रखते हैं इसलिए सबसे ज़्यादा इस वर्ग को मिला है। जीएसटी का लाभ भी देश के एक बड़े उपभोक्ता वर्ग को मिला है। 100 से ज़्यादा वस्तुओं के दाम घटे हैं। इसके साथ ही सरकार को मिलने वाला टैक्स बढ़ा है। टैक्स चोरी करने वाले जीएसटी का ज़्यादा विरोध कर रहे हैं। आम व्यापारी जीएसटी फाइल करने की प्रक्रिया से तो असंतुष्ट हो रहा है किन्तु जीएसटी का विरोध नहीं कर रहा है। इन संरचनात्मक बदलावों के कारण एनडीए कार्यकाल की विकास दर तो यूपीए कार्यकाल से कम दिखाई देती है किन्तु महंगाई दर घटने के कारण गरीब जनता तक नीतियों के ज़्यादा लाभ इस दौरान पहुंचे हैं। इसके साथ ही महंगाई दर घटने का सबसे ज़्यादा फायदा नि न और मध्य वर्ग को होता है। यूपीए के कार्यकाल में जरूरी चीजों के दाम आसमान तक पहुंच जाते थे। ज़मीन की कीमतें तो इस कदर बढऩे लगी थीं कि प्रोपर्टी डीलिंग सबसे बड़ा कारोबार बन कर उभर गया था। इसके द्वारा सबसे ज़्यादा काला धन पैदा होता था जिसका उपयोग चुनाव में किया जाता था। यही काला धन विदेशी बैंकों में जमा होता था। महंगाई दर घटने का अर्थ है कि अब यह पैसा विदेशों में न जाकर भारत के बाज़ार में घूमता है। नागरिकों की क्रय शक्ति बढऩे से वह ज़्यादा सामान खरीदते हैं। इससे कारोबार बढ़ता है और रोजगार के अवसर पैदा होते हैं।

चुनावी सर्वेक्षणों में भ्रष्टाचार कोई मुद्दा नहीं 

2019 के लोकसभा चुनाव के पूर्व होने वाले सर्वेक्षण शुरू हो चुके हैं। इन सर्वेक्षणों में प्रश्नों के अपने कुछ आधार रहते हैं। जैसे अगला प्रधानमंत्री कौन होना चाहिए, मोदी सरकार की विफलताएं क्या रही हैं, मोदी सरकार किन क्षेत्रों में सफल है। बेरोजगारी, महंगाई आदि पर सरकार जनता के मापदण्डों पर कितना खरी उतरी है। सरकार ने कितने लोगों को रोजगार दिया आदि आदि। इन सर्वेक्षणों में लोगों के अपने अपने उत्तर और तर्क होते हैं। कुछ एनडीए सरकार को पसंद करते हैं तो कुछ एनडीए सरकार को पसंद नहीं करते हैं। जैसे देश का प्रधानमंत्री कौन होना चाहिए इस प्रश्न पर लगभग 80 प्रतिशत लोगों की पसंद नरेंद्र मोदी हैं। राहुल गांधी, ममता बनर्जी, मायावती एवं अन्य को प्रधानमंत्री के पद पर देखने की इच्छा जनता में बेहद कम दिखाई देती है। यह सबसे प्रमुख वजह है कि कांग्रेस और महागठबंधन के दावों की हवा अंतिम समय तक निकल जाएगी। अगर गरीबों के लिए नीतियों की बात करें तो कांग्रेस ने गरीबी हटाओ के नारे के साथ देश पर एक बड़े समय तक राज किया किन्तु गरीबी हटाने में नाकामयाब रही। बल्कि आंकड़ों के हिसाब से भारत में गरीबों की सं या बढ़ती चली गयी। गरीबों को मिलने वाली सुविधाओं में भ्रष्टाचार सबसे बड़ा मुद्दा था। मनमोहन सरकार में गरीबों को सीधे सब्सिडी देने की जो शुरुआत हुयी उसे मोदी सरकार में अच्छी तरह से ज़मीन पर उतारा गया। उज्जवला योजना, जन धन योजना और शौचालय का निर्माण गरीबों को मिलने वाली ऐसी सुविधाएं रहीं जिसमें उच्च स्तर पर कोई भ्रष्टाचार नहीं दिखाई दिया। हां, जमीनी स्तर पर कार्यपालिका में भ्रष्टाचार अभी भी व्याप्त है। निचले स्तर पर होने वाली रिश्वत प्रक्रिया के गुस्से को राहुल गांधी राफेल के रूप में भुनाना चाहते थे किन्तु उच्चतम न्यायालय से उनके मंसूबे बिखर गए।

एनडीए सरकार में ऊपरी स्तर पर भ्रष्टाचार में दिखी कमी के कारण एवं क्षेत्रीय और अन्य दलों पर कार्यवाही की संभावना बढऩे की वजह से ये सब एक मंच पर आने लगे। सपा और बसपा के बीच बेमेल गठबंधन इसका जीता जागता प्रमाण है। सत्ता के लिए जिस तरह से धड़ाधड़ समझौते हो रहे हैं उसके हिसाब से कोई भी राजनीतिक दल साफ नहीं कहा जा सकता है। भाजपा को बिहार में जेडीयू के सामने झुकना पड़ा और अपनी जीती हुयी सीटें जेडीयू को देनी पड़ीं। महाराष्ट्र में शिवसेना ने पिछले कुछ माह में भाजपा को जमकर कोसा। प्रधानमंत्री मोदी को सीधे निशाने पर लिया। किन्तु जैसे ही हिन्दुत्व का मुद्दा भाजपा के पक्ष में जाता दिखा तो उसी भाजपा के साथ हाथ मिला लिया। शिवसेना की राजनीति करने के अंदाज़ पर लोगों ने सवाल उठा दिये हैं। भाजपा ने यहां भी अपनी सीटों में से ज़्यादा सीटें इस बार शिवसेना को दे दी हैं। इस तरह से क्षेत्रीय दलों के किरदार 2019 के चुनाव में फिर से अहम हो गए हैं जो 2014 में गौण हो गए थे। भाजपा के लिए क्षेत्रीय नेताओं की अहमियत अब बढऩे लगी है। खासतौर पर दलित और पिछड़े नेताओं की। उत्तर प्रदेश जहां सबसे ज़्यादा जातिगत राजनीति होती है वहां दलित और नेत्रियों पर बड़ा दारोमदार रहने जा रहा है। प्रियंका गांधी के आने के बाद महिलाओं का एक बड़ा वर्ग कांग्रेस की तरफ आकर्षित होगा। अब यह कितना वोट में तब्दील होगा कहा नहीं जा सकता।

क्षेत्रीय क्षत्रपों की बढ़ी अहमियत

जैसे जैसे क्षेत्रीय दल 2019 की राजनीति में अहम हो रहे हैं वैसे वैसे राष्ट्रीय दलों के क्षेत्रीय दलों की अहमियत बढ़ती चली जा रही है। चूंकि 2019 में भी यूपीए और एनडीए ही प्रमुख गठबंधन होने जा रहे हैं इसलिए इन दलों के स्थानीय नेता जो अब तक हाशिये पर थे उन पर काम शुरू हो गया है। तीसरे गठबंधन के द्वारा ताल तो ठोकी जा रही है किन्तु उसे गाहे बगाहे यूपीए की ही बी टीम माना जा रहा है। अगर भाजपा के संदर्भ में बात करें तो भाजपा के क्षेत्रीय नेताओं को संगठन और सरकार में स मान मिलना कम हो गया था। मोदी-शाह की जोड़ी और कमल निशान की लहर के आगे वे बेबस नजऱ आते थे। उनके कार्यकर्ताओं के काम भी नहीं होते थे। ऐसे में ये क्षेत्रीय नेता भाजपा से असंतुष्ट होने लगे थे। अब इन नेताओं को मनाने के प्रयास शुरू ही चुके हैं। कुछ को संगठन में तो कुछ को अन्य पदों पर समाहित किया जा रहा है। दूसरी तरफ कांग्रेस अपने खत्म होते कैडर से परेशान है। प्रियंका के आने से न कांग्रेस सिर्फ उत्तर प्रदेश में मजबूत होने जा रही है बल्कि इसका प्रभाव अन्य राज्यों पर भी पड़ेगा। मध्य प्रदेश, राजस्थान एवं छत्तीसगढ़ में सरकार बनाने के बाद कांग्रेस का कार्यकर्ता अब पूरी तरह से सत्ता से बेदखल नहीं है। कांग्रेस जितना मजबूत हो रही है उसका 2019 में तो भाजपा को फायदा होगा किन्तु 2024 के लिए यह एक चुनौती भी होने जा रहा है। इस तरह से 2019 का चुनाव अब भ्रष्टाचार, यूपीए और एनडीए कार्यकाल की तुलना एवं क्षेत्रीय क्षत्रपों को साधने पर आकर टिक गया है। राम मंदिर और 370 में से किसी एक मुद्दे पर अगर भाजपा कार्यवाही करती है तो एनडीए को राजीव गांधी के बराबर बहुमत लाने से कोई नहीं रोक सकता है।

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सपा-बसपा के गठबंधन से नाराज़ मुलायम सिंह यादव, कहा भाजपा तैयारी में आगे

समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव के नेतृत्व पर उन्हीं के पिता मुलायम सिंह यादव ने प्रश्न चिह्न लगाते हुए कहा है कि सपा और बसपा के बीच जो गठबंधन हुआ है, वह अनुचित है और उत्तर प्रदेश के हित में नहीं है। अखिलेश यादव पर बरसते हुए वरिष्ठ सपा नेता मुलायम ने राज्य के नए गठबंधन के फैसले, सीटों को बराबर वितरित करने पर भी सवाल उठाए हैं। टिकट देने में देरी करने पर भी मुलायम ने असंतोष व्यक्त किया है। नेताजी का मानना है कि अखिलेश ने टिकट वितरण में देर कर दी है। भाजपा तैयारियों के मामले में हमसे आगे निकल गई है। इसके अलावा मुलायम सिंह यादव ने अपनी पार्टी पर कहा है कि ”पार्टी को खत्म कौन कर रहा है? अपनी ही पार्टी के लोग। इतनी मज़बूत पार्टी बनी थी। अकेले तीन बार सरकार बनाई। तीनों बार हम मु यमंत्री रहे। रक्षा मंत्री भी रहे। मज़बूत पार्टी थी। हम राजनीति नहीं कर रहे हैं, लेकिन हम सही बात रख रहे हैं।’’ इसके अलावा नेताजी को अपनी बेबसी की टीस भी है कि उन्हें संरक्षक बना दिया गया है जिससे वे अब पार्टी के निर्णय नहीं ले सकते हैं। इसके कुछ दिन पहले मुलायम सिंह यादव ने लोकसभा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को दोबारा प्रधानमंत्री के पद पर देखने की इच्छा भी व्यक्त की थी।

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तमिलनाडु : एआईएडीएमके के साथ भाजपा, कांग्रेस के साथ डीएमके

भारतीय जनता पार्टी और अन्नाद्रमुक के बीच तमिलनाडु में गठबंधन हो गया है। गठबंधन के मुताबिक भाजपा तमिलनाडु की 5 सीटों पर लोकसभा चुनाव लड़ेगी। इसके अलावा भाजपा और एआईएडीएमके पुडुचेरी में भी साथ चुनाव लड़ेंगे। पीयूष गोयल भाजपा के तमिलनाडु प्रभारी हैं। इससे पहले अन्नाद्रमुक ने पीएमके के साथ समझौता किया, जिसके तहत वेन्नियार की पार्टी को 40 में से सात सीटें दी गईं। केंद्र शासित क्षेत्र पुडुचेरी की सीट भी पीएमके के हिस्से में गई है। जयललिता की मृत्यु के बाद से ही एआईएडीएमके के अंदर तीन धड़े काम कर रहे थे जिसमें से दो धड़े लगातार भाजपा के संपर्क में देखे जा रहे थे। भाजपा के द्वारा एआईएडीएमके से गठबंधन होते ही विपक्षी दल डीएमके ने कांग्रेस से गठबंधन कर लिया। इसमें कांग्रेस तमिलनाडु में 9 सीटों और पुडुचेरी में एक सीट पर चुनाव लड़ेगी। अभी तक यह तय नहीं हुआ है कि आखिर डीएमके लोकसभा चुनाव में कितनी सीटों पर चुनाव लडऩे वाली है। पार्टी सूत्रों के अनुसार डीएमके अपने अन्य सहयोगियों के साथ बैठक करने के बाद ही सीटों की सं या को लेकर निर्णय लेगी।

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2019 में भ्रष्टाचार एवं परिवारवाद से दूर नेत्रियों के किरदार होंगे अहम 

उत्तर प्रदेश की राजनीति में पिछड़े और दलित को वोट बैंक मानने वाले क्षेत्रीय दल सपा और बसपा में परिवारवाद काफी दिखाई दे रहा है। सपा में मुलायम सिंह यादव के बाद अखिलेश यादव ने पार्टी को संभाला है। बसपा में मायावती अपने भतीजे को पार्टी की कमान सौंपने जा रही हैं। कांग्रेस में गांधी परिवार का वर्चस्व जग जाहिर है। ऐसे में भाजपा को भी अपने दल के उन लोगों को आगे बढ़कर बड़ी जि़ मेदारी देनी होगी जो नेता परिवारवाद से दूर हैं। केन्द्रीय मंत्री कृष्णाराज को भाजपा एक बड़े परिदृश्य में इस्तेमाल कर सकती है। उनके ऊपर न भ्रष्टाचार का कोई आरोप है न ही परिवारवाद का। जबकि बसपा की नेत्री मायावती पर भ्रष्टाचार के मामले में सीबीआई की जांच चल रही है। प्रियंका वाड्रा के पति ज़मीन से संबन्धित मामलों में पूरे देश में चर्चित हैं। एक तरफ मायावती बसपा को जीवित रखने के लिए सपा से गठबंधन कर चुकी हैं तो दूसरी तरफ प्रियंका वाड्रा सिर्फ चुनावी मौसम में बाहर आती हैं। भाजपा को 2019 में जीत दिलाने के क्रम में भाजपा की नेत्रियों पर अहम जि़ मेदारी होगी। दलित नेत्रियों की भूमिका तो भाजपा के लिए कुछ ज़्यादा ही अहम होगी। अपने सौ य स्वभाव एवं जमीनी जुड़ाव के कारण कृष्णाराज पर एक बड़ी जि़ मेदारी होगी। इसके लिए पहले कृष्णाराज को अपने घरेलू जनपद शाहजहांपुर में अपनी स्थिति 2014 की तरह मजबूत करनी होगी फिर इसके बाद पूरे उत्तर प्रदेश में पासी बाहुल्य क्षेत्रों में अपनी धाक जमानी होगी। 2019 में चूंकि भाजपा सत्ता में वापसी करती दिख रही है इसलिए जीत के बाद समर्पित लोगों का मंत्रिमंडल में प्रमोशन भी तय है।

-अमित त्यागी

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)

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सिर्फ वादे-दिखावे और लचर प्रबंधन से हुआ यूपीए को नुकसान

कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने 2004 के चुनाव में जीत के बाद खुद प्रधानमंत्री नहीं बन कर अपने वफादार टेक्नोक्रैट डॉ. मनमोहन सिंह को पीएम का पद दे दिया। कांग्रेस ने बजाय एक मजबूत नेता चुनने के एक मजबूर नेता चुना, वो भी इसलिए ताकि सभी महत्वपूर्ण नियुक्तियों और नीतियों में सोनिया का दखल बना रहे। प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह एक विचारक और विद्वान माने जाते हैं। सिंह को उनके परिश्रम, कार्य के प्रति बौद्धिक सोच और विनम्र व्यवहार के कारण अत्यधिक स मान दिया जाता है। इनके अलावा यदि कांग्रेस प्रशासनिक निपुणता के अलावा राजनैतिक निपुणता वाले को सत्ता सौंपती तो आज की स्थिति कुछ और होती। यूपीए ने जिस नेता को बागडोर सौंपी है, अक्सर उनके शासन के दौरान यह नजर आता रहा कि वो कुछ छिपा रहे हैं। देश में बढ़ती अराजकता के खिलाफ यूपीए कार्यकाल के दौरान हुए जन आंदोलनों (मसलन अन्ना आंदोलन और निर्भया आंदोलन) को समझने में महानुभाव असफल रहे।  इस बात को तो कांग्रेस सरकार के एक कद्दावर मंत्री भी मान चुके हैं।  एक बार पत्रकारों के साथ बातचीत में वित्तमंत्री पी. चिदंबरम ने माना था कि 2010-11 सबसे कठिन दिन थे। उन्होंने माना कि हमसे कई भूलें हुईं, हमारा लोगों से तालमेल टूट गया था। इसकी वजह यह है कि 2010-11 में दिल्ली और देश के अन्य हिस्सों में भ्रष्टाचार के विरोध में प्रदर्शन हो रहे थे, उस समय लोगों के गुस्से और बदलते हालातों को यूपीए सरकार सही तरीके से समझ नहीं सकी।

इस दौरान भ्रष्टाचार, महंगाई से पिछले कई सालों से जूझ रही जनता की उ मीदों पर यूपीए सरकार की ओर से केवल बयान ही बयान फेरे गए। आम जनता महंगाई का कोई तोड़ तलाशने के लिए कहती तो दिग्गज मंत्री यह कहकर अपना पल्ला झाड़ लेते कि आखिर हम क्या करें, हमारे पास कोई अलादीन का चिराग तो है नहीं। जिस जनता ने इन्हें चुनकर भेजा है, उन्हें बस यही सुनकर काम चलाना पड़ता कि उनके प्रतिनिधियों के पास कोई जादुई छड़ी नहीं है, जिसे घुमा दिया और सारी समस्याएं दूर हो गईं। समस्या सुलझाना तो दूर आग में घी डालने का भी काम कुछ नेताओं ने किया। जैसे कांग्रेसी सांसद राज बब्बर ने एक बयान दिया कि आपको 12 रुपये में भरपेट भोजन मिल सकता है। अपने मु य विपक्षी दल बीजेपी के मुकाबले कांग्रेस पार्टी तकनीकी के उपयोग में 2014 के आम चुनाव में काफी पीछे रही। इस बात को कांग्रेस पार्टी के कई नेताओं ने भी स्वीकारा। कई नेताओं का कहना था कि उनकी सरकार ने बहुत अच्छा काम किया, लेकिन उसका प्रचार नहीं किया जा सका। कांग्रेस ने राहुल गांधी की इमेज बनाने के लिए करीब पांच सौ करोड़ रुपये खर्च किए थे लेकिन कवरेज के मामले में ये आम आदमी पार्टी के अरविंद केजरीवाल की भी बराबरी नहीं कर पाए। भाजपा ने थ्री डी रैली, बेहतरीन कवरेज मैनेजमेंट के सहारे अपनी इमेज चमका ली थी।

-रामबरन सिंह

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प्रियंका कार्ड

उत्तर प्रदेश में हाशिए पर जा चुकी कांग्रेस अब भले ही प्रियंका गांधी वाड्रा को महासचिव बनाकर सपा बसपा के वोट बैंक में सेंधमारी का प्रयास कर रही हो लेकिन भ्रष्टाचार व अनर्गल आरोप प्रत्यारोप से घिरी कांग्रेस को शायद ही इसका कुछ फायदा मिले। पुलवामा में  सीआरपीएफ जवानों पर हुए हमले से भी प्रदेश में रही कांग्रेस की नीतियों से निराशा ही है जिसका खामियाजा भी कांग्रेस को ही भुगतना पड़ेगा।

रही बात अमेठी सांसद व कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की तो अमेठी लोक सभा क्षेत्र में कई दशकों से काबिज गांधी परिवार व कांग्रेस ने सदैव कांग्रेस से जुड़े लोगो को ही विकास की दौड़ में शामिल किया है। हालात ये है कि पूरे लोक सभा क्षेत्र में जितने भी गांव व बूथ शामिल हैं उनमें कांग्रेसी का पता लगाना इतना आसान है कि जिस गांव में जिसके घर के अगवाड़े व पिछवाड़े इंडिया मार्क हैंडपंप लगा हो और घर के दरवाजे तक सी सी रोड बना हो और सौर ऊर्जा लगी हो समझो वही लोग कांग्रेसी हैं और गांव के गरीबों मजदूरों व किसानों के वोटों के सौदागर हैं, इन्हीं लोगों के घर के दरवाजे पर कांग्रेस के लोगों की चमचमाती गाडिय़ां रूकती है। शायद ही कभी किसी गांव में किसी गरीब के दरवाजे पर ये जाते हो, सांसद विकास निधि का पैसा भी इन्हीं लोगों पर अमूमन खर्च किया जाता है। सामन्तवाद आज भी अमेठी में जिन्दा है तो सिर्फ कांग्रेस की वजह से ही, आज भी बादशाहत कायम है। आम जनता को मिलता है तो सिर्फ आश्वासन वो भी चुनाव बाद खत्म हो जाता है। चुनाव में जीत के प्रति आश्वस्त कांग्रेसी कहते हैं कि सपा के  साथ ही बसपा के वोट तो पूरा मिलेंगे जो सत्य भी है । लेकिन कांग्रेस के लोग यह नहीं बता सकते कि अमेठी वालों के लिए कांग्रेस ने किया क्या है? हाल में सांसद निधि से लग रहे इंडिया मार्क हैण्डप प व ऊर्जा सब के सब कांग्रेसियों के घर व दरवाजे की शोभा बढ़ा रहे हैं। ये शायद ही किसी आम आदमी के दरवाजे लगे हो। अमेठी को मिला वीवीआईपी का तमगा बचा रहे, इसलिए भी लोग कांग्रेस को वोट कर देते हैं, इसे कांग्रेसी बखूबी जानते हैं। जब अमेठी का हाल यह है तो इससे सहज अंदाजा लगाया जा सकता है कि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की कितनी पैठ अभी शेष है।

डीपी सिंह

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