भारतवर्ष त्यौहारों का देश है। हर एक त्यौहार का अपना एक सांस्कृतिक, आध्यात्मिक एवं सामाजिक महत्व होता है। इन सारे त्यौहारों में होली ही एक त्यौहार है जो पौराणिक, ऐतिहासिक, सांस्कृतिक के साथ-साथ आमोद-प्रमोद के लिये मनाया जाने वाला खुशियों का त्यौहार है।। बुराई पर अच्छाई की विजय का, असत्य पर सत्य और शत्रुता पर मित्रता की स्थापना का यह पर्व विलक्षण एवं अद्भुत है। पुराने गिले-शिकवे भुला कर एक दूसरे के रंग में रंग जाने, हर्ष और उल्लास से एक दूसरे से मिलने और एक दूजे को आपसी सौहार्द एवं खुशियों के रंग लगाने के अनूठे दृश्य इस त्यौहार में मन को ही नहीं माहौल को भी खुशनुमा बनाते हंै। रंगों से ही नहीं, नृत्य गान, ढोलक-मंजीरा एवम अन्य संगीत वादक यंत्रों को बजा कर मनोरंजन करते हंै।
पौराणिक मान्यताओं की रोशनी में होली के त्योहार का विराट् समायोजन बदलते परिवेश में विविधताओं का संगम बन गया है। इस अवसर पर रंग, गुलाल डालकर अपने इष्ट मित्रों, प्रियजनों को रंगीन माहौल से सराबोर करने की परम्परा है, जो वर्षों से चली आ रही है। एक तरह से देखा जाए तो यह अवसर प्रसन्नता को मिल-बांटने का होता है। यह पर्व सबका मन मोह लेता, जहाँ भक्त और भगवान एकाकार होते हैं एवं उनके बीच वात्सल्य का रसरग प्रवहमान होता है। सचमुच होली दिव्य है, अलौकिक है और मन को मांजने का दुर्लभ अवसर है।
होली का पावन त्यौहार एक प्राचीन भारतीय त्यौहार है। भारत देश के अलग अलग हिस्सों मे होली के त्यौहार को अलग अलग नाम से पुकारा जाता है। उदाहरण के तौर पर होलिकापूजन, होलिकादहन, धुलेडी, धुलिवन्दन, धुरखेल वसंतोत्सव आदि। होली का पर्व हर साल के फाल्गुन माह की पूर्णिमा को मनाया जाता है। होली के त्यौहार में विभिन्न प्रकार की क्रीड़ाएँ होती है। होलिका का पूर्ण सामग्री सहित विधिवत् पूजन किया जाता है, अट्टहास, किलकारियों तथा मंत्रोच्चारण से पापात्मा राक्षसों का नाश हो जाता है। होलिका-दहन से सारे अनिष्ट दूर हो जाते हैं। वस्तुतः होली आनंदोल्लास का पर्व है। इस पर्व के विषय में सर्वाधिक प्रसिद्ध कथा प्रह्लाद तथा होलिका के संबंध में भी है। नारदपुराण में बताया गया है कि हिरण्यकशिपु नामक राक्षस का पुत्र प्रह्लाद अनन्य हरि-भक्त था, जबकि स्वयं हिरण्यकशिपु नारायण को अपना परम-शत्रु मानता था। उसके राज्य में नारायण अथवा श्रीहरि नाम के उच्चारण पर भी कठोर दंड की व्यवस्था थी। अपने पुत्र को ही हरि-भक्त देखकर उसने कई बार चेतावनी दी, किंतु प्रह्लाद जैसा परम भक्त नित्य प्रभु-भक्ति में लीन रहता था। हारकर उसके पिता ने कई बार विभिन्न प्रकार के उपाय करके उसे मार डालना चाहा। किंतु, हर बार नारायण की कृपा से वह जीवित बच गया। हिरण्यकशिपु की बहिन होलिका को अग्नि में न जलने का वरदान प्राप्त था। अतः वह अपने भतीजे प्रह्लाद को गोद में लेकर अग्नि में प्रवेश कर गई। किंतु प्रभु-कृपा से प्रह्लाद सकुशल जीवित निकल आया और होलिका जलकर भस्म हो गई। इस प्रकार होली का पर्व सत्य, न्याय, भक्ति और विश्वास की विजय तथा अन्याय, पाप तथा राक्षसी वृत्तियों के विनाश का भी प्रतीक है। मुख्यतः होली का त्योहार दो चरण मे मनाया जाता है पहले चरण में होली के एक दिन पहले रात को सार्वजनिक चैक पर होलिका सजा कर उसका दहन किया जाता है। होलिका दहन में पूजन की पवित्र विधि के लिए एक लोटा शुद्ध जल, कुमकुम, हल्दी, चावल, कच्चा सूत, पताशे, मूंग, चने, गुड़, नारियल, अबीर- गुलाल, हल्दी, कच्चे आम, जव, गेहूं, मसूर दाल, आदि पूजन सामग्री उपयोग में ली जाती है।
विधिवत होली की प्रदक्षिणा की जाती है और पवित्र प्रज्ज्वलित होली से सुख शांति, अच्छे धन-धान्य, तथा समृद्ध जीवन की कामना की जाती है। कई जगहों पर इस दौरान पारंपरिक गीत-संगीत और नृत्य भी किये जाते हैं और लोग एक दुसरे को गुलाल लगा कर अभिनन्दन करते हैं। दूसरे चरण में दूसरे दिन रंगों की होली खेली जाती है।
होली की मस्ती एवं माहौल एक माह तक रहता है, इसके उपलक्ष्य में अनेक सांस्कृतिक एवं लोक चेतना से जुड़े कार्यक्रम होते हैं। महानगरीय संस्कृति में होली मिलन के आयोजनों ने होली को एक नया उल्लास एवं उमंग का रूप दिया है। इन आयोजनों में बहुत शालीन तरीके से गाने बजाने के सांस्कृतिक कार्यक्रम होते हैं। घूमर जो होली से जुड़ा एक राजस्थानी कार्यक्रम है उसमें लोग मस्त हो जाते हैं। चंदन का तिलक और ठंडाई के साथ सामूहिक भोज इस त्यौहार को गरिमामय छबि प्रदान करते हैं। देर रात तक चंग की धुंकार, घूमर, डांडिया नृत्य और विभिन्न क्षेत्रों की गायन मंडलियाँ अपने प्रदर्शन से रात बढ़ने के साथ-साथ अपनी मस्ती और खुशी को बढ़ाते हैं।
होली और बसंत का अटूट रिश्ता है। बसंत के आगमन से सम्पूर्ण प्रकृति में नई चेतना का संचार होता है। होली का आगमन बसंत ऋतु की शुरुआत के करीब-करीब आस-पास होता है। लगभग यह वक्त है, जब शरद ऋतु को अलविदा कहा जाता है और उसका स्थान वसंत ऋतु ले लेती है। इन दिनों हल्की-हल्की बयारें चलने लगती हैं, जिसे लोक भाषा में फागुन चलने लगा है, ऐसा भी कह दिया जाता है। यह मौसमी बदलाव व्यक्ति-व्यक्ति के मन में सहज प्रसन्नता, स्फूर्ति पैदा करता है और साथ ही कुछ नया करने की तमन्ना के साथ-साथ समाज का हर सदस्य अपनी प्रसन्नता का इज़्ाहार होली उत्सव के माध्यम से प्रकट करता है। इससे सामाजिक समरसता के भाव भी वर्धमान बनते हैं। भारतीय लोक जीवन में होली की जड़ें काफी गहरी जम चुकी हैं।
होली शब्द का अंग्रेजी भाषा में अर्थ होता है पवित्रता। पवित्रता प्रत्येक व्यक्ति को काम्य होती है और इस त्योहार के साथ यदि पवित्रता की विरासत का जुड़ाव होता है तो इस पर्व की महत्ता शतगुणित हो जाती है। प्रश्न है कि प्रसन्नता का यह आलम जो होली के दिनों में जुनून बन जाता है, कितना स्थायी है? डफली की धुन एवं डांडिया रास की झंकार में मदमस्त मानसिकता ने होली जैसे त्योहार की उपादेयता को मात्र इसी दायरे तक सीमित कर दिया, जिसे तात्कालिक खुशी कह सकते हैं, जबकि अपेक्षा है कि रंगों की इस परम्परा को दीर्घजीविता प्रदान की जाए। स्नेह और सम्मान का, प्यार और मुहब्बत का, मैत्री और समरसता का ऐसा शमां बांधना चाहिए कि जिसकी बिसात पर मानव कुछ नया भी करने को प्रेरित हो सके।
होली सौहाद्र्र, प्रेम और मस्ती के रंगों में सराबोर हो जाने का हर्षोल्लासपूर्ण त्यौहार है। यद्यपि आज के समय की गहमागहमी, अपने-तेरे की भावना, भागदौड़ से होली की परम्परा में बदलाव आया है । परिस्थितियों के थपेड़ों ने होली की खुशी को प्रभावित भी किया है, लेकिन देश-विदेश में धर्मस्थल के रूप में ख्याति प्राप्त बृजभूमि ने आज भी होली की प्राचीन परम्पराओं को संजोये रखा है। यह परम्परा इतनी जीवन्त है कि इसके आकर्षण में देश-विदेश के लाखों पर्यटक ब्रज वृन्दावन की दिव्य होली के दर्शन करने और उसके रंगों में भीगने का आनन्द लेने प्रतिवर्ष यहाँ आते हैं।
होली के पावन प्रसंग पर हमें इस बात के लिए दृढ़ संकल्पित होना होगा कि अपने मन, वाणी और व्यवहारों में अंतर्निहित आसुरी प्रवृत्तियों का परिष्कार करें एवं उसके स्थान पर पवित्रता की देवी को प्रतिष्ठित करें, जोड़-घटाव घटित हुए हैं, जिन्होंने व्यक्ति को कहीं राजमार्ग, तो कहीं अंधी गलियों में जाने को विवश किया है। होली के रंग और प्रभु के दर्शन में स्त्री, पुरुष का भेद नहीं, यह तो सभी को मदमस्त कर देते हैं, तभी तो ‘होली में जेठ कहे भाभी’ वाली कहावत प्रसिद्ध है। यहाँ जात-पाँत का भी कोई अन्तर नहीं, सभी होली के रंग में रंगकर एकाकार हो जाते है। शत्रुता, कटुता और मनोमालिन्य की ग्रन्थियाँ टूट जाती हैं। ब्रज वृन्दावन में आकर सभी यही चाहते हैं कि किसी भी प्रकार ‘चल्यो आइयो रे श्याम मेरे पलकन पै’ फिर भक्त और भगवान का सम्बन्ध ही ब्रज में कुछ ऐसा है कि भक्त भगवान से दर्शन देने की जिद करते हैं और अपने भगवान से होली खेलने के लिए जिद करते हैं। यह अपूर्व परिदृश्य किसका मन नहीं मोह लेती, जहाँ भक्त और भगवान के बीच ऐसे वात्सल्य का रसरग बह रहा हो। वृन्दावन में होली दिव्य है, यहाँ राधा-कृष्ण और सखियों की प्रधानता है।
होली जैसे त्यौहार में जब अमीर-गरीब, छोटे-बड़े, ब्राह्मण-शूद्र आदि सब का भेद मिट जाता है, तब ऐसी भावना करनी चाहिए कि होली की अग्नि में हमारी समस्त पीड़ाएँ दुःख, चिंताएँ, द्वेष-भाव आदि जल जाएँ तथा जीवन में प्रसन्नता, हर्षोल्लास तथा आनंद का रंग बिखर जाए। होली का कोई-न-कोई संकल्प हो और यह संकल्प हो सकता है कि हम स्वयं शांतिपूर्ण जीवन जीये और सभी के लिये शांतिपूर्ण जीवन की कामना करें। ऐसा संकल्प और ऐसा जीवन सचमुच होली को सार्थक बना सकते हैं।
(ललित गर्ग)