दिल्ली की अरविन्द केजरीवाल सरकार ने लोकसभा चुनाव में हार के बाद वर्ष 2020 में होने वाले विधानसभा चुनाव के लिए दिल्ली में महिलाओं को मेट्रो और डीटीसी बस में मुफ्त यात्रा की जो घोषणा की हैं, उसने अनेक सवाल खड़े कर दिये हैं। राजनीति में इस तरह खैरात बांटने एवं मुक्त की सुविधाओं की घोषणाएं करके मतदाताओं को ठगने एवं लुभाने की कुचेष्टाएं न केवल घातक है बल्कि एक बड़ी विसंगति का द्योेतक हैं। यह विसंगति इसलिये है कि दिल्ली सरकार एक तरफ तो कह रही है कि दिल्ली में विकास के लिए पैसा नहीं लेकिन मुफ्त की यात्रा के लिए 1300 करोड़ की सलाना सब्सिडी देने के लिए तैयार हो गई है। लोकतंत्र में इस तरह की बेतूकी एवं अतिश्योक्तिपूर्ण घोषणाएं एवं आश्वासन राजनीति को दूषित करते हैं। लोकतंत्र में सत्ता की कुर्सी पर कोई राजा बन कर नहीं, सेवक बन कर बैठता हैं। उसे शासन और प्रशासन में अपनी कीमत नहीं, मूल्यों का प्रदर्शन करना होता हैं। यह आदर्श स्थिति जिस दिन हमारे राष्ट्रीय चरित्र में आयेगी, उस दिन महानता हमारे सामने होगी। फूलों से इत्र बनाया जा सकता है, पर इत्र से फूल नहीं उगाए जाते। उसके लिए बीज को अपनी हस्ती मिटानी पड़ती है। केजरीवालजी! जनता की मेहनत की कमाई को लुटाने के लिये नहीं, बल्कि उसका जनहित में उपयोग करने के लिये आपको जिम्मेदारी दी गयी है। इस जिम्मेदारी का सम्यक् निर्वहन करके ही आप सत्ता के काबिल बने रह सकते हंै। इस तरह खेरात में रेवड़िया बांटने या जनधन का दुरुपयोग करने से पात्रता हासिल नहीं हो सकती। लगता है कि राजनीतिक दल इस बात से पूरी तरह बेखबर हैं कि लोक लुभावन राजनीति के कैसे दुष्परिणाम हो सकते हैं। वे सत्ता हासिल करने के लिए सामाजिक और आर्थिक हालात को एक ऐसी अंधेरी खाई की तरफ धकेल रहे हैं जहां से निकलना कठिन हो सकता है।
देश की राजनीति एक बड़ी हद तक मूल्यों पर चलती थी। दल और मतदाता दोनों ही कहीं न कहीं नैतिकता और आदर्शों का पालन कर राजनीतिक गरिमा बनाए रखते थे, लेकिन आज स्थिति बदल गई है। अब राजनीतिक दल चुनावों के समय या चुनावों से पूर्व जिस तरह लोक-लुभावन घोषणाएं करते रहते हैं उस पर प्रश्न खड़ा करने का समय आ चुका है। पार्टियां जिस तरह अपनी सीमा से कहीं आगे बढ़कर लोक-लुभावन वादे करने लगी हैं उसे किसी भी तरह से जनहित में नहीं कहा जा सकता। बेहिसाब लोक-लुभावन घोषणाएं और पूरे न हो सकने वाले आश्वासन पार्टियों को तात्कालिक लाभ तो जरूर पहुंचा सकते हैं, पर इससे देश के दीर्घकालिक सामाजिक और आर्थिक हालात पर प्रतिकूल असर पड़ने की भी आशंका है। प्रश्न है कि क्या सार्वजनिक संसाधन किसी को बिल्कुल मुफ्त में उपलब्ध कराए जाने चाहिए? क्या जनधन को चाहे जैसे खर्च करने का सरकारों को अधिकार है? तब, जब सरकारें आर्थिक रूप से आरामदेह स्थिति में न हों। यह प्रवृत्ति राजनीतिक लाभ से प्रेरित तो है ही, सांस्थानिक विफलता को भी ढकती है, और इसे किसी एक पार्टी या सरकार तक सीमित नहीं रखा जा सकता। अर्थव्यवस्था और राज्य की माली हालत को ताक पर रखकर लगभग सभी पार्टियों व सरकारों ने गहने, लैपटॉप, टीवी, स्मार्टफोन से लेकर चावल, दूध, घी तक बांटा है या बांटने का वादा किया है। दिल्ली से पहले यह सब खेल तमिलनाडु की राजनीति से शुरू हुआ था जहां साड़ी, मंगलसूत्र, मिक्सी, टीवी आदि बांटने की संस्कृति ने जन्म लिया। आज देश के ऐसे बहुत से राज्य हैं जहां इसका विस्तार हो गया है। यह संस्कृति थमने का नाम ही नहीं ले रही है। सस्ते दर पर अनाज मुहैया कराने की परंपरा घातक साबित होने वाली है। अगर ऐसा ही रहा तो किसानों को खेती में सिर खपाने की क्या जरूरत है? सीमांत किसान, जिस पर देश के 50 प्रतिशत कृषि उत्पादन का भार है, मनरेगा या अन्य किसी दिहाड़ी कामकाज से जुड़कर 300 रुपये प्रतिदिन कमा ही लेगा। जाहिर है इस पैसे से वह पर्याप्त अनाज प्राप्त कर लेगा। सवाल है कि ऐसे में खेती कौन करेगा?
किसानों की समस्याओं को भी हल करने में ईमानदारी बरतने की बजाय सरकारें इसी तरह के लोक-लुभावन कदमों के जरिए उन्हें बहलाती रही हैं। ऐसी नीतियों पर अब गंभीरता से गौर करने की जरूरत है। अपने राज्य की स्त्रियों की सुरक्षा सुनिश्चित करना हरेक सरकार का अहम दायित्व है, लेकिन उनकी मुकम्मल सुरक्षा मेट्रो या बस में मुफ्त यात्रा की सुविधा मेें नहीं, बल्कि अन्य सुरक्षा उपायों के साथ टिकट खरीदकर उसमें सफर करने की आर्थिक हैसियत हासिल कराने में है। दुर्योग से सरकारें इस पर ज्यादा नहीं सोचतीं। वे जनता को बेवकूफ एवं अनपढ़ समझकर ढगने एवं लुभाने में ही इतिश्री समझ लेती है। चूंकि ऐसे लोक-लुभावन वादे आर्थिक नियमों की अनदेखी करके किए जाते हैं इसलिए उनका असर देश की अर्थव्यवस्था पर पड़ता है। हकीकत में इन तरीकों से हम एक ऐसे समाज को जन्म देंगे जो उत्पादक नहीं बनकर आश्रित और अकर्मण्य होगा और इसका सीधा असर देश की पारिस्थितिकी और प्रगति, दोनों पर पड़ेगा। सवाल यह खड़ा होता है कि इस अनैतिक राजनीति का हम कब तक साथ देते रहेंगे? इस पर अंकुश लगाने का पहला दायित्व तो हम जनता पर ही है, पर शायद इसमें चुनाव आयोग को भी सख्ती से आगे आना होगा।
अभी-अभी संपन्न लोकसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी को भारी शिकस्त झेलनी पड़ी है। राज्य की सात लोकसभा सीटों में से पांच में उसके प्रत्याशी तीसरे नंबर पर रहे। ऐसे में, मुख्यमंत्री केजरीवाल ने अपने पुराने नुस्खे को फिर से आजमाया है। पिछले विधानसभा चुनाव से पहले उन्होंने दिल्ली के हरेक परिवार को प्रतिमाह 20 हजार लीटर पानी मुफ्त में मुहैया कराने और बिजली का बिल आधा करने का यकीन दिलाया था और सत्ता में आने के चंद घंटों के भीतर उन्होंने अपने इन दोनों वादों को पूरा भी किया। लेकिन क्या इस तरह जनजीवन में मुफ्तखोरी की संस्कृति का बीजवपन नहीं किया जा रहा है? आज हम जीवन नहीं, मजबूरियां जी रहे हैं। जीवन की सार्थकता नहीं रही। अच्छे-बुरे, उपयोगी-अनुपयोगी का फर्क नहीं कर पा रहे हैं। मार्गदर्शक यानि नेता शब्द कितना पवित्र व अर्थपूर्ण था पर नेता अभिनेता बन गया। नेतृत्व व्यवसायी एवं स्वार्थी बन गया। आज नेता शब्द एक गाली है। जबकि नेता तो पिता का पर्याय था। उसे पिता का किरदार निभाना चाहिए था। पिता केवल वही नहीं होता जो जन्म का हेतु बनता है अपितु वह भी होता है, जो अनुशासन सिखाता है, विकास की राह दिखाता है, आगे बढ़ने का मार्गदर्शक बनता है और सुशासन देता है।
राजनीति में जनता के दिलों को जीतने के लिये सत्ता नहीं सेवा का भाव अपनाना होगा। गांधी जी ने एक मुट्टी नमक उठाया था, तब उसका वजन कुछ तोले ही नहीं था। उसने राष्ट्र के नमक को जगा दिया था। सुभाष ने जब दिल्ली चलो का घोष किया तो लाखों-करोड़ों पांवों में शक्ति का संचालन हो गया। नेहरू ने जब सतलज के किनारे सम्पूर्ण आजादी ही मांग की तो सारी नदियों के किनारों पर इस घोष की प्रतिध्वनि सुनाई दी थी। पटेल ने जब रियासतों के एकीकरण के दृढ़ संकल्प की हुंकार भरी तो राजाओं के वे हाथ जो तलवार पकड़े रहते थे, हस्ताक्षरों के लिए कलम पर आ गये। आज वह तेज व आचरण नेतृत्व में लुप्त हो गया। आचरणहीनता कांच की तरह टूटती नहीं, उसे लोहे की तरह गलाना पड़ता है। यह बात केजरीवालजी के जिस दिन समझ में आयेगी, वे झूठे आश्वासनों एवं घोषणाओं से ऊपर उठ जायेंगे तो उनकी जन-स्वीकार्यता स्वतः सामने आ जायेगी।
(ललित गर्ग)