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राम मंदिर पर नियमित सुनवाई निर्णय की ओर उच्चतम न्यायालय

राम मंदिर विषय पर चल रही नियमित सुनवाई के बीच मामला तेज़ी से निर्णय की तरफ बढ़ रहा है। बीच बीच में आने वाली बाधाओं को दूर करने में उच्चतम न्यायालय लगातार कामयाब भी हो रहा है। सुनवाई के दौरान कुछ लोगों ने फिर से प्रक्रिया को विलंबित करने के उद्देश्य से मध्यस्थता का विषय उठा दिया जिसे स्वयं न्यायालय ने खारिज कर दिया। नियमित सुनवाई के पहले न्यायालय स्वयं मध्यस्थता का प्रयास कर चुका था जिस पर बात कहीं नहीं पहुंच पायी। अब जब न्यायालय ने मामले की सुनवाई की अंतिम तिथि 18 अक्तूबर तय कर दी है तब फैसले की किरण दिखाई देने लगी है। शायद 17 नवंबर 2019 को मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई की सेवा निवृत्ति के पहले इस विषय पर फैसला भी आ जाये।

अमित त्यागी

राम मंदिर के विषय पर उच्चतम न्यायालय में चल रही नियमित सुनवाई के बीच उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश का आचरण इस बात का संकेत दे रहा है कि शायद वह अपनी सेवानिवृत्ति के पहले राम मंदिर विषय पर फैसला सुना देंगे। वह पक्षकारों द्वारा विषय को विलंबित करने वाले प्रयासों को नियमित तौर पर दूर कर रहे हैं। मुस्लिम पक्षकारों द्वारा जब एक बार फिर मध्यस्थता की मांग की गयी तब मुख्य न्यायाधीश ने इसे लटकाने वाली प्रक्रिया का हिस्सा मानते हुये नकार दिया। यहां यह बात गौरतलब है कि सुनवाई के दौरान किसी न्यायाधीश के सेवा निवृत्त होने की स्थिति में सुनवाई फिर से शुरू होती है और पिछली सुनवाइयों के दौरान खर्च समय और ऊर्जा व्यर्थ हो जाती है। चूंकि राम मंदिर विषय देश के संवैधानिक इतिहास का सबसे महत्वपूर्ण विषय है। करोड़ों लोगों की संवेदनाओं, मनोविज्ञान और भावनाओं पर इसका प्रभाव होना है। कुछ लोगों का तर्क है कि एक समय सीमा में बांधने से फैसले की गुणवत्ता पर असर पड़ सकता है किन्तु इसके विपरीत एक तर्क यह भी है कि ज़्यादा समय लगने के कारण इस विषय से राजनीतिक हित साधे जाने लगे हैं। इसकी प्रक्रिया पूरी होने पर और फैसला आने के बाद इस विषय पर राजनीति रुक जायेगी। यदि मध्यस्थता की बात करें तो उच्चतम न्यायालय ने मध्यस्थता का विरोध नहीं किया है बल्कि सुनवाई की प्रक्रिया रोक कर मध्यस्थता को मना किया है। न्यायालय का कहना है कि सुनवाई के दौरान मध्यस्थता की भी कार्यवाही होती है तो उन्हें एतराज नहीं है।

सुनवाई की वर्तमान प्रक्रिया के दौरान जो मुख्य बिन्दु उभर कर सामने आ रहे हैं उसमें एक बिन्दु यह है कि उच्चतम न्यायालय ने माना है कि 1949 के पहले भी गर्भगृह में मूर्तियां होने और पूजा होने के मौखिक साक्ष्य मौजूद हैं। न्यायालय ने 1935 में रेलिंग के पार और गर्भ गृह में मूर्ति होने के मौखिक साक्ष्य को स्वीकार कर लिया है। यह बात इसलिए महत्वपूर्ण बन जाती है क्योंकि मुस्लिम पक्ष की लगातार दलील है कि 22-23 दिसंबर 1949 की रात को चुपके से हिन्दुओं ने केन्द्रीय गुंबद में मूर्ति लाकर रख दी थी। धीरे धीरे यह विषय निर्णय की तरफ बढ़ रहा है। अब जिस तरह की गतिविधियां दिखाई दे रही हैं उसके अनुसार नवंबर 19 तक फैसला आने की स्थिति बन रही है। अब फैसला जो भी आए वह इस विषय के लिए महत्वपूर्ण होगा और आवश्यक भी। जैसे उच्च न्यायालय के द्वारा ज़मीन को तीन भागों में बांटने का निर्णय दिया गया था। संभव है ऐसा ही कुछ निर्णय उच्चतम न्यायालय द्वारा भी आ जाये। ऐसे समय में दोनों पक्षों को ही संयम रखने की आवश्यकता होगी। उत्तर प्रदेश की राज्य सरकार पर एक बड़ी जि़म्मेदारी होगी कि वह उन्मादियों के बीच कानून व्यवस्था को सुचारु रूप से चलाये। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों को राम मंदिर पर आने वाले फैसले को लेकर सतर्कता बरतने और थाने स्तर पर तैयारी शुरू करने के निर्देश दे दिए हैं। यह निर्देश सभी जोन के अपर पुलिस महानिदेशकों को दिये गए हैं। योगी आदित्यनाथ का कहना है कि अधिकारी अपना खुफिया तंत्र मजबूत करें। मंदिर पर फैसला आने के बाद जोश में होश खोने वालों और निराशा में कुछ करने वालों पर नजर रखें। कश्मीर से अनुच्छेद 370 खत्म होने के बाद अराजकता फैलाने का मौका ढूंढने वालों पर भी नजर रखने की जरूरत है। जिला, रेंज और जोन के अधिकारियों को पुलिस व एसटीएफ जैसी एजेंसियों के साथ तालमेल से काम करना चाहिए। इसके लिए साइबर थानों की संख्या बढ़ाने की जरूरत बताई गयी। सभी जोनल मुख्यालय पर एक-एक साइबर थाना खोलने का प्रस्ताव है। जबकि मुख्यमंत्री का मानना है कि थाने जोन नहीं रेंज स्तर पर खोले जाएं। फोरेंसिक लैब और साइबर थाने एक ही परिसर में बनाये जाएंगे।

शिया बनाम सुन्नी और राम मंदिर निर्माण का कानूनी रास्ता

इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने 30 सितंबर 2010 को दिये अपने फैसले में ज़मीन को तीन हिस्से में बांटे जाने का निर्देश दिया था। इसके सात साल बाद गत वर्ष इस पर न्यायालय द्वारा नियमित सुनवाई शुरू हुयी थी। इस बीच एक ऐसा हलफनामा दाखिल हुआ था जिसके द्वारा राम मंदिर के निर्माण का रास्ता प्रशस्त होता दिखने लगा। यह हलफनामा दायर किया था शिया बोर्ड ने। जिसके अनुसार उन्हें विवादित भूमि पर राम मंदिर बनाए जाने पर कोई आपत्ति नहीं है। दूर से देखने पर शिया बोर्ड का हलफनामा ज़्यादा महत्वपूर्ण नहीं लगता है क्योंकि इस विवाद में तीन पक्षकारों में से एक सुन्नी बोर्ड है। शिया बोर्ड तो कहीं परिदृश्य में है ही नहीं। किन्तु जब थोड़ा और गहराई में उतरते हैं तो समझ आता है कि 1944 तक उस मस्जिद में इंतजाम का जिम्मा शिया समुदाय के पास रहा था। सुन्नी वक्फ बोर्ड ने उस समय यह कहकर मस्जिद पर कब्जा कर लिया था कि यह मस्जिद बाबर ने बनवाई है और वह सुन्नी था। उस समय सुन्नी वक्फ बोर्ड ने यह बात छिपा ली कि उसकी नीयत रामलला के स्थान पर खराब है। सुन्नी बोर्ड की निगाह में यह कभी सुन्नी-शिया का मसला नहीं था बल्कि मसले को उलझाने की नीयत ज़्यादा थी। सुन्नी और शिया मस्जिदें अलग-अलग होती हैं और वर्तमान में दोनों ही फिरकों की मस्जिदें अपने-अपने बोर्ड में दर्ज होती हैं। अयोध्या में राम मंदिर ही बनना चाहिए और गतवर्ष शिया बोर्ड ने 1944 के पहले की स्थिति बरकरार रखने वाली याचिका डाली थी। उन्होंने अपनी संपत्ति का अधिकार वापस न्यायालय के माध्यम से मांगा था। शिया बोर्ड का कहना है कि विवादित जमीन पर मस्जिद बनाया जाना जायज नहीं है, क्योंकि बल प्रयोग कर मस्जिद बनाना इस्लाम के खिलाफ है। मस्जिद की तामीर वहीं होनी चाहिए जहां मुस्लिम आबादी होती है। बाबर हिंदुस्तान में आया था, हिंदुस्तान में पैदा नहीं हुआ था। ये लोग हिंदुस्तान को लूटने आए थे। इनमें और अंग्रेजों के बीच कोई अंतर नहीं था। 1528 में शुरू हुये इस विवाद में पुरातत्व विभाग की रिपोर्ट के अनुसार भी वहां मंदिर के अवशेष मिले थे।

अब प्रश्न यह है कि अगर उच्चतम न्यायालय से फैसला हक़ में नहीं आता है तब सरकार के पास क्या विकल्प है कि वह राम मंदिर का निर्माण प्रशस्त करे। सरकार से मंदिर निर्माण के लिए कानूनी हस्तक्षेप की उम्मीद की जाए तो उसके भी रास्ते हैं। राम जन्मभूमि विवाद करोड़ों हिन्दुओं की आस्था का विषय है। उच्च न्यायालय के फैसले के आधार पर इस विवाद में तीन पक्षकार हैं। रामलला विराजमान, निर्मोही अखाड़ा एवं सुन्नी वक्फ बोर्ड। इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले के अनुसार 2.77 एकड़ संपत्ति का बंटवारा इन तीनों के बीच कर दिया गया था। न्यायालय का फैसला किसी एक पक्ष के पक्ष में किया निर्णय नहीं था बल्कि तीनों पक्षों में समझौते का प्रयास ज़्यादा था। अब एक महत्वपूर्ण तथ्य देखिये। विवादित ढांचा ध्वस्त होने के बाद तत्कालीन केंद्र सरकार ने 1993 में विवादित स्थान समेत संपूर्ण परिसर की 67 एकड़ जमीन का अधिग्रहण कर खुद का अधिकार कर लिया था। इसके बाद उच्चतम न्यायालय ने 1994 में अधिग्रहण को मान्यता देते हुए अयोध्या से जुड़े मुकदमों के निस्तारण न होने तक भूमि के इस्तेमाल पर रोक भी लगा दी थी। चूंकि, यह विवादित ज़मीन का दीवानी वाद है इसलिए इसमें ज़मीन का मालिकाना हक़ रखने वाला पक्ष एक पक्ष अवश्य होना चाहिए जबकि इस पूरे विवाद में सरकार कहीं भी कोई पक्ष नहीं है। तत्कालीन नरसिम्हा राव सरकार की अनिच्छा के कारण उच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार को मुकदमे में औपचारिक पक्ष नहीं बनाया, जबकि संसद द्वारा 1993 में बनाए गए कानून के अनुसार केंद्र सरकार के पास राम-जन्मभूमि परिसर की संपूर्ण भूमि का स्वामित्व है। इस तरह सरकार के पास राम मंदिर विषय पर कोई भी कानूनी निर्णय लेने का अंतिम सर्वाधिकार सुरक्षित है।

(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार है)

राम चबूतरा ही है जन्मस्थान

उच्चतम न्यायालय में रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद पर मुस्लिम पक्ष ने माना है कि राम चबूतरा ही जन्मस्थान है क्योंकि हिन्दू दावेदार भी सालों से इसी पर विश्वास करते रहे हैं। इस मामले में 1885 में डिस्ट्रिक्ट जज का आदेश है कि हिंदू राम चबूतरे को जन्मस्थान मानते थे। मुस्लिम पक्षकारों का कहना है कि जब कोर्ट का आदेश है तो हम इससे अलग कैसे हो सकते हैं? मुस्लिम पक्ष के वकील राजीव धवन ने अयोध्या विवाद से जुड़ी कई पुरानी याचिकाओं का भी जिक्र किया है जिनके जरिए उन्होंने यह साबित करने की कोशिश की है कि मस्जिद पर 1949 तक लगातार मुस्लिम पक्ष का कब्जा रहा था। मुतावल्ली ने अर्जी दाखिल की थी जिस पर सरकार ने आदेश दिया था कि अगर मस्जिद पर मुसलमानों का कब्जा नहीं होता तो वह मुतावल्ली अर्जी क्यों लगाता। अदालत फैसला क्यों देती?  इससे साबित होता है कि मस्जिद पर मुस्लिम कब्जा था। इसके लिए हिन्दू पक्ष के एक गवाह के बयान का भी हवाला दिया गया। भगवान राम की मूर्ति गर्भगृह में नहीं थी। गर्भ गृह के अंदर किसी भी भगवान की तस्वीर नहीं थी लेकिन तब भी जो लोग पूजा करने आते वह रेलिंग की तरफ जा कर गर्भ गृह की तरफ जाते थे। गोपाल सिंह विशारद ने राम जन्मभूमि पर पूजा के व्यक्तिगत अधिकार का दावा करते हुए मुकदमा दायर किया था और उनकी मौत के बाद उनकी याचिका का कोई औचित्य नहीं रहा।

हिन्दू पक्ष के एक गवाह की गवाही पढ़ते हुए कहा गया कि पूजा सिर्फ राम चबूतरे पर होती थी और लोग राम चबूतरे के पास लगी रेलिंग की तरफ भी जाते थे। मूर्ति गर्भ गृह में कैसे गई इस बारे में उसको जानकारी नहीं है। 1949 में पता चला कि गर्भ गृह में भगवान का अवतरण हुआ है, लेकिन उससे पहले वहां मूर्ति नहीं थी। पौराणिक विश्वास के अनुसार पूरे अयोध्या को भगवान राम का जन्मस्थान माना जाता रहा है लेकिन इसके बारे में कोई एक खास जगह नहीं बताई गई है। दूसरी तरफ सुन्नी वक्फ बोर्ड के वकील जफरयाब जिलानी का कहना है कि जन्मस्थल पर रामजन्म का विश्वास तो है पर सबूत नहीं। रामचरित मानस और रामायण में कहीं विशिष्ट तौर पर राम जन्मस्थान का कोई जिक्र नहीं है। दूसरा ये कि कोई सबूत नहीं कि 1949 से पहले मध्य गुंबद के नीचे राम का जन्म हुआ था क्योंकि 1949 से पहले वहां पूजा का कोई अस्तित्व या सबूत नहीं मिलता है। इस दलील पर जस्टिस बोबड़े ने पूछा कि आप ये सबूत भी देंगे कि 1949 से पहले वहां नियमित नमाज होती थी? इस पर जिलानी बोले कि इसके लिखित नहीं जुबानी सबूत हैं। इसके बाद जस्टिस बोबड़े ने पूछा कि क्या आप मानते है कि राम चबूतरा जन्मस्थान है? तो जफरयाब जिलानी ने कहा कि कोर्ट का आदेश है इस मामले में, जिसमें कोर्ट ने माना था कि राम चबूतरा जन्मस्थान है। हिंदू लोगों की मान्यता है। हम उससे अलग कैसे जा सकते हैं।

मुस्लिम पक्ष के वकील राजीव धवन का कहना है कि महज विश्वास के आधार पर यह स्पष्ट नहीं होता कि अयोध्या में मंदिर था। भारत में यह फैलाना आसान है कि किसी देवता का अमुक स्थान है। मैं मानता हूं कि भारत में पूजा की कई मान्यताएं हैं। लेकिन, अयोध्या में रेलिंग के पास जाकर पूजा किए जाने से उसे मंदिर नहीं मानना चाहिए। धवन ने दलील दी थी कि 1528 में मस्जिद बनाई गई थी और 22 दिसंबर 1949 तक वहां लगातार नमाज हुई। वहां तब तक अंदर कोई मूर्ति नहीं थी। उन्होंने इलाहाबाद हाईकोर्ट के दो जजों के फैसलों के हवाले से मुस्लिम पक्ष के कब्जे की बात कही। उन्होंने कहा था कि बाहरी अहाते पर ही उनका अधिकार था। दोनों पक्षकारों के पास 1885 से पुराने राजस्व रिकॉर्ड भी नहीं हैं। अयोध्या विवाद पर सुप्रीम कोर्ट में रोजाना सुनवाई चल रही है। चीफ जस्टिस की अध्यक्षता में संविधान पीठ के सामने अब तक हिंदू और मुस्लिम पक्ष के साथ निर्मोही अखाड़े की तरफ से दलीलें पेश की जा चुकी हैं। सुप्रीम कोर्ट का फैसला नवंबर मध्य में आने की उम्मीद है। मुख्य न्यायाधीश का कहना है कि हम 18 अक्टूबर तक सुनवाई खत्म करना चाहते हैं ताकि जजों को फैसला लिखने में चार हफ्ते का वक्त मिले। इसके लिए सभी को मिलकर सहयोग करना चाहिए। 2010 में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने अपने फैसले में कहा था कि अयोध्या का 2.77 एकड़ का क्षेत्र तीन हिस्सों में समान बांट दिया जाए। एक हिस्सा सुन्नी वक्फ बोर्ड, दूसरा निर्मोही अखाड़ा और तीसरा रामलला विराजमान को मिले। हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में 14 याचिकाएं दाखिल की गई थीं।

 

राष्ट्रहित में मील का पत्थर हो सकती है मदनी-भागवत की मुलाकात

अभी हाल ही में मुस्लिम विद्वान मौलाना महमूद मदनी और संघ प्रमुख मोहन भागवत की मुलाकात हुयी तो यह एक बड़ा कदम माना जा सकता है। मौलाना मदनी जमीयत उलेमा ए हिन्द के प्रमुख हैं। इस संगठन का आज़ादी की लड़ाई में एक अहम योगदान रहा है। इस बैठक से जो जानकारी मिली उसके आधार पर यह लग रहा है कि दोनों ही विद्वान इस बात पर सहमत हैं कि धार्मिक कट्टरता और वैमनस्यता देश के लिए घातक है। इससे सिर्फ विनाश हो सकता है और कुछ नहीं। इससे भारत की अन्तराष्ट्रीय छवि भी खराब होती है। बैठक के बाद मदनी का एक बयान आया जो महत्वपूर्ण है। उन्होंने कहा कि वह दोनों इस बात पर सहमत थे कि 1947 में धार्मिक उन्माद ने देश विभाजित करा दिया। स्वतन्त्रता पूर्व के मुसलमान अगर उस धार्मिक उन्माद के जिम्मेदार थे तो आज देश के बहुसंख्यक वर्ग का प्रतिनिधित्व करने वाले नेताओं को आस्था के आधार पर उभरने वाले किसी भी वैमनस्य को टालने की जरूरत है। सुनने में आ रहा है कि इस बैठक में भाजपा के संगठन मंत्री रामलाल की प्रमुख भूमिका रही है। रामलाल पहले संघ से संगठन में भेजे गए थे अब संगठन से वापस संघ में भेजे जा रहे हैं।

भागवत-मदनी की यह मुलाकात इस परिप्रेक्ष्य में भी महत्वपूर्ण है क्योंकि नवंबर तक राम मंदिर पर फैसला आने की उम्मीद जताई जा रही है। मुस्लिम समाज का प्रबुद्ध वर्ग एवं इस्लामिक जानकार (जो राजनीति से दूर हैं) इस विषय को अदालत के बाहर सहमति से सुलझाने के पक्ष में दिखाई देते रहे हैं। जैसे मौलाना सलमान नादवी जैसे विद्वान मस्जिद को अयोध्या से बाहर कहीं स्थानांतरित करने के पक्षधर हैं। ऐसे ही अनेक और विद्वान हैं जो ऐसा चाहते हैं। इन दलीलों के पीछे उनका तर्क होता है कि खलीफा उमर बिन खत्ताब के दौर में कूफा(इराक) में भी मस्जिद को स्थानांतरित करके खजूर मार्केट बनाया गया था। जब नदवी की यह नेक सलाह लोगों को रास नहीं आई तब उन्हें मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। ऐसा सिर्फ मुस्लिम पक्ष में होता हो ऐसा भी नहीं है। दोनों ही तरफ से जब भी कोई विद्वान सौहार्द की तरफ बढ़ता है तब तब राजनीतिक लोग उस विषय को पटरी से उतार देते हैं। शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे मंदिर निर्माण के लिए कानून का सहारा लेने की बात कर चुके हैं। प्रधानमंत्री मोदी ने उसके बाद ऐसे बयान बहादुरों को न्यायालय में लंबित मामले में शांत रहने की नसीहत भी दी थी। देखा जाये तो 1859 से अब तक आपसी समझौते द्वारा अयोध्या विवाद को हल करने के 9 बार प्रयास हो चुके हैं जो हर बार असफल साबित हुये हैं। 1859 में अंग्रेज़ सरकार ने एक व्यवस्था दी थी कि भीतरी स्थल का उपयोग मुसलमान करेंगे और बाहरी स्थल का हिन्दू उपयोग करेंगे। भारत के तीन प्रधानमंत्रियों ने भी इस विषय पर सुलह के प्रयास किए थे। 1990 में चन्द्रशेखर ने विहिप और मुस्लिम पक्ष की बात शुरू कराई। ढांचा ध्वस्त होने के बाद नरसिंह राव ने अपनी किताब ‘अयोध्या 6 दिसंबर 1992’ में लिखा है कि वह अराजनैतिक साधुओं से विषय को सुलझाने के लिए लगातार संपर्क में थे। 1992 तक उनकी यह बात चलती भी रही। तभी अचानक साधुओं ने मना कर दिया। इस पर राव का कहना था कि उन्हें यह सुनकर बहुत आश्चर्य हुआ। वह इस बात से हतप्रभ थे कि क्यों अचानक साधुओं की सोच बदल गयी। या कोई सियासी ताकत थी जो उन्हें नियंत्रित कर रही थी। जो उनके और साधुओं के बीच चल रहा था अगर वह सफल हो जाता तो मंदिर का विषय अचानक से अराजनैतिक हो जाता। इसके बाद वाजपेयी द्वारा समझौते के प्रयास को आगे बढ़ाया गया। मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने तो तब समझौते का प्रारूप भी बना लिया था। कांची के शंकराचार्य जयेन्द्र सरस्वती ने विहिप को मनाने की जि़म्मेदारी ली थी।

अब चूंकि यह विषय पूरी तरह से राजनीतिक हो चुका है। भाजपा ने राम मंदिर विषय से ही स्वयं को स्थापित किया है तब राम मंदिर के फैसले के बाद सांप्रदायिक सौहार्द बनाने की दिशा में मोहन भागवत और महमूद मदनी की मुलाक़ात महत्वपूर्ण हो ही जाती है।  इस मुलाकात की सफलता और सही नीयत में देश का आर्थिक विकास छुपा है। भारत की जीडीपी में बढ़ोत्तरी छुपी है। देश की एकता और अखंडता की भावना छुपी है। मोहन भागवत तो पहले भी कह चुके हैं कि मुसलमान के बगैर हिन्दुत्व नहीं बचेगा। अब यह मुलाकात इसी वक्तव्य की अगली कड़ी बन कर उभरी है। 370 के हटने के बाद और राम मंदिर निर्माण का मार्ग प्रशस्त होने के मार्ग में यह बातचीत मील का पत्थर बन गयी है।

-अमित त्यागी

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