भारत के राष्ट्रपति का चुनाव हिंदुस्तान के भविष्य की रूपरेखा का खाका खींच रहा है। जातियों और वर्णो में बंटे हिन्दू समाज को एकजुट करने की ओर क्या यह अगला कदम है ? एनडीए ने रामनाथ कोविन्द को मैदान में उतारा है तो विपक्ष ने मीरा कुमार को। दोनों ही दलित है। दोनों ही एक बड़े समय से सक्रिय राजनीति में कार्यरत रहे हैं। वोटों के हिसाब से एनडीए उम्मीदवार का जीतना तय है। तो क्या मीरा कुमार को उम्मीदवार बनाकर विपक्ष ने एक बड़ी भूल की है या यह 2019 की तैयारी के लिए 17 राजनैतिक दलों के विपक्ष के द्वारा दिखाई गयी एकजुटता है। राष्ट्रपति चुनावों की राजनीति का विश्लेषण करता अमित त्यागी का एक आलेख।
रतीय गणतन्त्र के गौरव का प्रतीक है ‘राष्ट्रपतिÓ। ब्रिटेन की संवैधानिक व्यवस्था में जो पद राजपरिवार का है, वही भारतीय संवैधानिक व्यवस्था में राष्ट्रपति का है। वह राज्य का प्रधान है किन्तु शासन का प्रधान नहीं है। वह संवैधानिक रूप से अत्यंत शक्तिशाली है किन्तु शासन के स्तर पर उसका ज्यादा हस्तक्षेप नहीं है। ब्रिटेन की लोकतान्त्रिक परम्पराओं को भारतीय संविधान में लिखित रूप से समाहित किया गया है। भारत के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के आपसी संबंध संविधान के अनु0 74(1) में वर्णित हैं। भारत का अगला राष्ट्रपति एक दलित होगा यह तय है। एनडीए से होगा यह संभावित है। एनडीए से रामनाथ कोविन्द एवं यूपीए की अगुवाई में विपक्ष की तरफ से मीरा कुमार का नाम उम्मीदवारों में आगे बढ़ा है। भारत के पहले दलित राष्ट्रपति के आर नारायणन के बाद यह दलित अस्मिता का अगला पड़ाव समझा जा रहा है। केरल के रहने वाले नारायणन एक झुग्गी से राष्ट्रपति भवन तक पहुंचे। अब रामनाथ कोविन्द कानपुर की एक दलित बस्ती से निकल कर रायसीना हिल्स पहुचने जा रहे हैं।
राष्ट्रपति के लिए उम्मीदवारों की घोषणा का घटनाक्रम भी कम रोचक नहीं रहा है। सबसे पहले एनडीए की तरफ से सर्वसम्मति से राष्ट्रपति चुनने का सुनने में आया। कभी सुषमा स्वराज का नाम आगे बढ़ा तो कभी सुमित्रा महाजन का। कभी आडवाणी जी रेस में आगे निकले तो कभी झारखंड की राज्यपाल द्रौपदी मुर्मु। विपक्ष इन सब नामों में खोया रहा और इन सबके बीच अचानक भाजपा संसदीय दल की मीटिंग हुयी और रामनाथ कोविन्द का चौकाने वाला नाम सामने आया। विपक्षी मंसूबे एक झटके में टूट गए। सबको इस पर कोई प्रतिक्रिया देते नहीं बन रही थी। यह नाम इसलिए भी चौकाने वाला था क्योंकि इस दलित नाम की अपेक्षा कोई नहीं कर रहा था। इसके बाद विपक्ष की बैठक हुयी। सोनिया गांधी के नेतृत्व में मीरा कुमार का नाम आगे आया। 17 राजनैतिक दलों से सुसज्जित विपक्ष ने सुशील कुमार शिंदे, प्रकाश अंबेडकर, गोपाल कृष्ण गांधी आदि नामों पर भी चर्चा की। यहाँ जो सबसे महत्वपूर्ण बात है, वह यह है कि विपक्ष की एकता सिर्फ मोदी और भाजपा विरोध के कारण हुयी है। इनमे आपस में कोई वैचारिक समानता नहीं है। इनका इतिहास तो और भी ज्यादा रोचक है।
आपातकाल के बाद इन्दिरा और कांग्रेस के प्रति लोगों में बड़े गुस्से के कारण सभी दल जनता पार्टी के बैनर तले एक साथ आ गए थे। सत्ता की मलाई खाने के लिए तत्कालीन जनसंघ (वर्तमान में भाजपा ), मुलायम, लालू, नितीश आदि के पुराने दल एक मंच पर थे। जनसंघ तब भी आरएसएस से सम्बद्ध मानी जाती थी। उस समय किसी ने संघ के नाम पर विरोध नहीं किया और सत्ता के लिए जनसंघ से हाथ मिला लिया। देखने वाली बात यह है कि उस समय के संघ में आज के संघ से ज्यादा कट्टर लोग माने जाते थे। चूंकि उस समय इन दलों को कांग्रेस विरोध के नाम पर सत्ता हाथ में आते देख जनसंघ अछूत नहीं लगी थी इसलिए उन्होने उसको अपने बड़े घटक के रूप में साथ रखा।
आज समय बदल गया है। कांग्रेस कमजोर हो गयी है और भाजपा कुछ ज्यादा ही हष्ट-पुष्ट। बस अब इन दोनों दलों की आपस में अदला-बदली हो गयी है। अब कांग्रेस इन घटक दलों के साथ है। यह दल आज भी सत्ता में घुसने की बाट जोह रहे हैं। पहले ये दल जनसंघ का हाथ थामे थे आज मरणासन्न कांग्रेस का। इन दलों की उठापटक और उछलकूद की वजह से जनता को इनसे मोह भंग होता जा रहा है। जनता भाजपा से जुड़ती जा रही है। ऐसा नहीं है कि भाजपा की सरकार बेहद लोकप्रिय सरकार है बल्कि एक नाकारा विपक्ष की वजह से भाजपा लगातार मजबूत होती जा रही है। भाजपा ने विपक्ष की कमजोरियों का फायदा उठाते हुये एक बड़ा दांव चला। ऐसा नाम उछाल दिया जिसका विरोध आसान नहीं था। राष्ट्रपति के चुनाव में यह बात तो पहले दिन से तय थी कि जो व्यक्ति एनडीए का उम्मीदवार होगा, वह ही पद पर आसीन होगा। वजह साफ थी। भाजपा के पास 48 प्रतिशत से ज््यादा मत हैं। 2014 लोकसभा में भारी बहुमत और इसके बाद हुये विधानसभा चुनावों में लगातार जीत से भाजपा का मत प्रतिशत तेजी से बढ़ता चला गया है। इस वर्ष हुये पाँच राज्यों के चुनावों और उसमे भी खास तौर पर उत्तर प्रदेश में मिली प्रचंड जीत ने भाजपा के मत प्रतिशत को ज्यादा ही तेजी से बढ़ा दिया है। गौरतलब है, इन चुनावों के पहले भाजपा के पास केवल 42 प्रतिशत मत थे। जिसकी वजह से सहयोगी दलों एवं विपक्ष के ऊपर उसका आश्रय बरकरार था।
जैसे ही राष्ट्रपति के उम्मीदवार के रूप में भाजपा ने बिहार के राज्यपाल रामनाथ कोविन्द का नाम घोषित किया। एक तीर से कई शिकार कर दिये गए। वह दलित समाज से आते हैं तो पहली मिर्ची बहन जी को लगी। संघ की पृष्ठभूमि रखते हैं तो वाम और कांग्रेस को दर्द हुआ। नितीश कुमार की मोदी से बढ़ती नजदीकियों के कारण अपनी राजनीति बचाने की जुगत में लगे लालू को झटका लगा। विपक्ष को एकजुट करने की योजना बना रहे शरद यादव के मंसूबे टूट गए। यहाँ तक की एनडीए की एक घटक किन्तु राष्ट्रपति चुनावों के समय विरोध का इतिहास रखने वाली शिवसेना शुरू में नाम बर्दाश्त नहीं कर पायी। बुरी तरह तिलमिलाये यह लोग भाजपा का विरोध तो करना चाहते थे किन्तु भाजपा के दांव की काट इनके पास नहीं थी। यह लोग मन मसोस कर रह गए। धीरे धीरे इन लोगों को होश आना शुरू हुआ। पहले बहन जी ने कहा कि विपक्ष द्वारा दलित समाज का उम्मीदवार न होने की स्थिति में वह कोविन्द के पक्ष में मतदान करेंगी। बाद में मीरा कुमार का नाम आगे आने पर वह पलटी मार गईं। इसके बाद शिवसेना ने बाला साहब की दुहाई देते हुये दलित शक्ति का समर्थन कर दिया। नितीश कुमार ने बिहार के राज्यपाल रहते हुये कोविन्द के अच्छे कार्यकाल का हवाला देते हुये समर्थन कर दिया। जेडीयू का कहना है कि रामनाथ कोविन्द ने राज्यपाल की गरिमा का सदा पालन किया। शराब बंदी कानून पर हस्ताक्षर करके एक अनुपम मिसाल पेश की। कुलपतियों की नियुक्ति प्रक्रिया को भ्रष्टाचार के लेन देन से दूर रखा। बहरहाल, ये तो सिर्फ बातें हैं। वास्तव में नितीश और लालू में इतनी खटास बढ़ चुकी है कि नितीश अब भाजपा के साथ बिहार में सरकार चलाने की सोचने लगे हैं। दोनों दल अक्सर करीबी दिखाते हुये लालू को चिढ़ाते रहते हैं। लालू के परिवार पर आय से अधिक संपत्ति के मामले और लगातार बेनामी सम्पत्तियों पर पड़ रहे छापे भी नितीश-लालू की कमजोर जुगलबंदी के परिचायक हैं। उधर उत्तर प्रदेश के समाजवादी मुलायम सिंह खामोश हैं। वह जब खामोश होते हैं तब वह बोलने से ज्यादा बड़ी सियासत कर रहे होते हैं। मीरा कुमार के नेतृत्व में विपक्ष एक जुटता दिखा तो रहा है किन्तु 2019 आते आते यह कितना रह पाएगा। यह प्रश्न ज्यादा महत्वपूर्ण है। इन सब घटनाक्रमों के बीच इस तरह से कोविन्द के अगले राष्ट्रपति बनने में कोई अड़चन आती नहीं दिख रही है।
राष्ट्रपति पद पर गैर राजनैतिक व्यक्ति का होना।
राष्ट्रपति के पद के लिए जब नामों पर चर्चा हो रही थी तब इस तरह के मुद्दे भी बीच बीच में गूंज रहे थे कि राष्ट्रपति के पद पर एक गैर-राजनैतिक व्यक्ति को बैठना चाहिए। जब जब विपक्ष किसी गैर राजनैतिक व्यक्ति को राष्ट्रपति के पद पर बैठाने की बात करता है तब तब उसके अपने पुराने कर्म ही आड़े आ जाते हैं। जब अटल जी ने राष्ट्रपति के लिए अब्दुल कलाम का नाम आगे किया था तब विपक्ष द्वारा उनका विरोध किया गया था। डॉ कलाम न ही राजनैतिक व्यक्ति थे न ही उनका झुकाव किसी एक दल की तरफ था। वह देशसेवा करने वाले एक वैज्ञानिक थे। एक ऐसे मुस्लिम थे जो गीता और कुरान दोनों को पड़ता था। खैर, विरोध के बावजूद एक बार डॉ कलाम राष्ट्रपति बने भी किन्तु दूसरी बार आम सहमति न बनते देख उन्होने स्वयं को चुनावों से दूर कर लिया। 2007 और 2012 के चुनावों में प्रतिभा पाटिल एवं प्रणब मुखर्जी जीते और यह दोनों ही पूर्व में कांग्रेस के सक्रिय सदस्य रह चुके थे। इस तरह से राष्ट्रपति के लिए वर्तमान में जो भी परिपाटी चली आ रही है उसका निर्धारण कांग्रेस के नेतृत्व में ही हुआ है।
सिर्फ दलित नही हैं रामनाथ कोविन्द :
जहां तक बात रामनाथ कोविन्द की है तो वह दलित समुदाय से आते हैं। एक शांत और निर्विवादित नेता है। दो बार राज्यसभा सांसद रह चुके है। कानून और संविधान के अच्छे जानकार हैं। आज के दौर के राष्ट्रिय और अन्तराष्ट्रिय मसलों पर भी गहरी समझ रखते हैं। प्रणब मुखर्जी की तरह ही बुद्धिमान माने जाते हैं। वह डमी राष्ट्रपति नहीं होंगे, ऐसा तो विपक्षियों का भी मानना है। चूंकि, उनकी पृष्ठभूमि संघ की रही है इसलिए वह विचारधारा के प्रश्न पर भी नहीं झुकेंगे। जो लोग संभावित राष्ट्रपति को सिर्फ दलित चेहरे के चश्मे से देख रहे हैं उनको समझना चाहिए कि उनकी योग्यता सिर्फ दलित नहीं है। वह लगभग डेढ़ दशक तक उच्च एवं उच्चतम न्यायालय में वकालत कर चुके हैं। पूर्व प्रधानमंत्री के निजी सचिव, राज्य सभा के सदस्य, 2002 में संयुक्त राष्ट्र महासभा में भारत का प्रतिनिधित्व एवं बिहार के राज्यपाल का पद भी उनकी योग्यता की कहानी कहता है। जो लोग सिर्फ उनका दलित चेहरा देख रहे हैं वह लोग कहीं कहीं अभी भी हिन्दुओं को जाति की राजनीति से बाहर नहीं आना देना चाहते हैं। यह एक राष्ट्रघातक पक्ष है। यह सही है कि भाजपा ने उनके दलित होने के कारण ही अन्य उपयुक्त उम्मीदवारों के ऊपर उन्हे तरजीह दी है किन्तु इससे उनकी योग्यता कम नहीं हो रही है।
रामनाथ कोविन्द दलित परिवार में जन्मे जरूर हैं किन्तु उनके हाव-भाव और आचरण में इस बात की कभी झलक नहीं मिली कि वह खुद को शोषित या वंचित मानते हैं। वह हीन भावना या प्रतिशोध वाले आचरण से दूर एक सौम्य एवं सर्वग्राही स्वभाव वाले नेता की छवि रखते हैं। राज्यसभा के कार्यकाल में भी वह बेहद सक्रिय रहे हैं और भाजपा की तरफ से टी एन चतुर्वेदी के बाद वह सर्वाधिक चर्चाओं में भाग लेने वाले सदस्य हैं। इतना सब कुछ होने के बावजूद वह एक लो प्रोफ़ाइल नेता हैं जो अनावश्यक विवादों से दूर रहता है।
लकीर के फकीर नहीं है। नयी परम्पराएँ डालने में यकीन।
कोविन्द की सबसे बड़ी खासियत यह है कि वह लकीर के फकीर नहीं हैं। वह आवश्यकता पड़ने पर नयी परिपाटी डालने में विश्वास रखते हैं। बिहार के राज्यपाल रहते हुये अपने लगभग दो वर्ष के कार्यकाल में उन्होने कुछ ऐसी परिपाटियाँ शुरू कर दी हैं जिन्हे लोग सराहते हैं। जैसे जब बजट सत्र होता है उस समय आपने अनुमंडल के हिसाब से राजभवन में सुबह के जलपान की व्यवस्था आरंभ की। उस दौरान कार्यक्रम में मुख्यमंत्री, विधानसभा अध्यक्ष एवं विधान परिषद के सभापति भी उपस्थित रहते थे। यह विधायकों से सीधे संवाद एवं मिलने जुलने की एक नयी परंपरा थी। इसके साथ ही विधानमंडल के संयुक्त अधिवेशन के दौरान पूर्व के राज्यपाल बजट भाषण के कुछ पन्ने ही पढ़ कर इतिश्री कर लिया करते थे। इसके बाद इसे सदन के पटल पर रखकर इसको पूरा पढ़ा हुआ मान लिया जाता था। कोविन्द ने बजटीय सम्बोधन की पूरी किताब को पढना आरंभ किया। इस तरह से एक नयी परिपाटी का जन्म हुआ एवं राज्यपाल के पद की गरिमा भी बढ़ी। उनकी और उनके परिवार की सादगी का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि एक बार उनकी पत्नी (लेडी गवर्नर) किसी बड़े अस्पताल न जाकर सीधे सरकारी अस्पताल गईं। उनके पद को देखते हुये यह एक बड़ी बात थी।
सिर्फ ऐसा भी नहीं है कि वह सिर्फ सादगी पसंद हैं। वह सख्त भी हैं और अनुशासन को मानने वाले भी। इसकी बानगी तब देखने को मिली जब उन्होने गलत उच्चारण के कारण लालू पुत्र, तेजप्रताप यादव को ही टोक दिया था और उनसे शपथ दुबारा पढऩे को कहा। दरअसल तेजप्रताप अपेक्षित शब्द को बार बार उपेक्षित पढऩे की बड़ी भूल कर रहे थे। इसके द्वारा तेजप्रताप की शिक्षा और योग्यता की काफी खिल्ली उडी किन्तु राज्यपाल के पद की गरिमा बढ़ गयी।
राष्ट्रपति का पद महत्वपूर्ण होगा 2019 के लिए।
हालांकि, भारत के राष्ट्रपति के पास ज्यादा शक्तियाँ नहीं होती हैं फिर भी वह अंतिम शक्ति के रूप में सबसे महत्वपूर्ण पद है। कैबिनट द्वारा पारित कोई भी विधेयक तब जाकर अधिनियम में परिवर्तित होता है जब राष्ट्रपति उस पर अपने हस्ताक्षर करता है। भाजपा के घोषणा पत्र में कुछ ऐसे मुद्दे हैं जिसमे उसके लिए राष्ट्रपति का पद महत्वपूर्ण है। राममंदिर और 370 ऐसे ही विषय हैं। राम मंदिर का विषय इस समय न्यायालय में विचाराधीन है। अब यदि फैसला हिन्दुओ के पक्ष में आता है तो ठीक है। ऐसा न होने की स्थिति में भाजपा सरकार पर इस बात का बहुत दवाब होगा कि वह संसद के माध्यम से इस विषय पर कोई कार्यवाही करें। भाजपा को सत्ता में पहुचाने में राम मंदिर आंदोलन का एक बड़ा योगदान है। इसी मुद्दे के कारण हिन्दू उससे जुटा। अभी तक भाजपा राज्यसभा में बहुमत न होने की बात कहकर स्वयं को बचा लेती थी किन्तु 2018 में भाजपा का राज्य सभा में भी बहुमत आ जाएगा। उस समय उसके पास कोई बहाना नहीं होगा। इसी के साथ भाजपा की संरक्षक संस्था आरएसएस का मुख्य मुद्दा 370 है। जिस तरह से कश्मीर में हालात अस्थिर हैं। वहाँ कट्टरपंथी उत्पात मचा रहे हैं। वहाँ भी माहौल भाजपा से कुछ अपेक्षा कर रहा है। संघ से से भाजपा में भेजे गए राम माधव कश्मीर मामलों के प्रभारी हैं। उनको इतनी महत्वपूर्ण जिम्मेदारी देकर भाजपा ने अपने रुख को स्पष्ट तो ही रखा है। नरेंद्र मोदी नर्म संघी नहीं है। वह संघ की नीतियों को जमीन पर पहुचाने वाले नेता है।
अब अगले वर्ष राज्यसभा में बहुमत के बाद केंद्र की भाजपा सरकार से कई बड़े फैसलों की उम्मीद जनता कर रही है। राम मंदिर और 370 जैसे विषयों में कैबिनेट की मजूरी के बाद राष्ट्रपति का पद महत्वपूर्ण हो जायेगा। राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के बिना कोई कानून नहीं बन सकता है। ऐसे में संघ की विचारधारा के व्यक्ति का उस पद पर पहुचना भाजपा के भावी इरादे और हिंदुस्तान की दिशा का इशारा कर रहा है।
योग्यता पर देंगे ध्यान, तभी बनेगा भारत महान।
क्या अब समय नहीं है कि हम जाति पर आधारित व्यवस्था को कर्म आधारित व्यवस्था में बदलने की प्रक्रिया शुरू कर दें। राजनीति को ब्राह्मण, ठाकुर, दलित के चश्मे से बाहर लाकर देखना शुरू कर दें। हालांकि, जाति आधारित व्यवस्था एक संवैधानिक व्यवस्था है किन्तु यदि हम योग्यता को पैमाना मानने लगेंगे तो शायद एक न एक दिन यह व्यवस्था भी टूट जाएगी। 2014 के लोकसभा एवं 2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव ने जाति आधारित राजनीति करने वाले दलों की जड़ों में म_ा डाल दिया है। सपा और बसपा जैसे क्षेत्रीय दल ऐसे गायब हो गए हैं जैसे गधे के सिर से सींग। इन दलों के समझदार नेता संकीर्ण राजनैतिक बयान देने से बच रहे हैं किन्तु इनके छुटभैये अब भी पिछली गलतियों से सबक नहीं ले रहे हैं। वह बयान देते हैं और भाजपा को और मजबूत करते हैं। यदि राष्ट्रपति चुनाव के मद्देनजर बात करें तो पहले शिवसेना का विरोध इसके बाद समर्थन तथा जेडीयू का पहले लचर पक्ष बाद में समर्थन इसी कडी का हिस्सा है।
राष्ट्रपति बनने के बाद रामनाथ कोविन्द से अपेक्षा रहेगी कि वह राष्ट्रपति भवन में स्वयं को दलित न मानते हुये पूरे समाज को एकजुट रखने पर ध्यान देंगे। वह दलितों को लाचार दिखाने वाली स्वार्थी राजनैतिक व्यवस्था को तोडऩे की तरफ बढ़ेंगे। वह उस राजनीति में सुधार करेंगे जिसमे ‘बांटो और राज्य करोÓ की नीति के तहत जाति और धर्मों में विभेद दिखाकर वैमनश्य फैलाया जाता रहा है। वह दलित, शोषित, उपेक्षित समाज के हितों की रक्षा के साथ साथ दीक्षित (सवर्ण) समाज में आपसी समझ बूझ बढाने का कार्य करेंगे। वैसे एक उल्लेखनीय जानकारी यह भी है कि रामनाथ कोविंद के पिता मैकूलाल एक मंदिर के पुजारी थे। कोविन्द भी एक विद्वान व्यक्ति हैं और उनकी विद्वता के द्वारा पहले जातियों में बंटा हिन्दू समाज एकजुट होगा और इसके बाद अलग अलग धर्मों के लोग हिंदुस्तान को एकजुट करने की दिशा में आगे बढ़ेंगे।
कौन हैं सांप्रदायिक? भाजपा या अन्य दल ?
जब जब सांप्रदायिक शब्द की व्याख्या की जाती है तब तब भाजपा को सांप्रदायिक दल कहा जाता है। भाजपा हिंदुओं को अपना वोट बैंक मान कर चलती है। राजनीति में सभी दलों ने अपने अपने वोट बैंक बना रखे हैं। समाजवादी दल यादव-मुस्लिम गठजोड़ पर टिकी है तो मायावती दलित-मुस्लिम गठजोड पर। यही खेल बिहार में लालू और नितीश कर रहे हैं तो बंगाल में ममता। जब तक हिन्दू वोट बैंक जाति में बटा रहा यह क्षेत्रीय दल अपनी जाति और मुस्लिम गठजोड़ आधारित राजनीति करते रहे। भाजपा के ऊपर सांप्रदायिक होने का आरोप लगा कर यह लोग मुस्लिमों को एक वोट बैंक बनाए रहे। जैसे ही जाति आधारित व्यवस्था का वोट बैंक टूटना शुरू हुआ। इन दलों की जान निकल गयी। पानी पी पी कर भाजपा को कोसने वाले यह सभी दल अब एक मंच पर आकर अपनी अस्मिता भी बचाने में लगे हैं और मुस्लिमों को प्रभावित करने की कोशिश भी। राष्ट्रपति चुनाव के जरिये यह अपनी एकजुटता दिखा रहे हैं। आज जब सोशल मीडिया और संचार माध्यम बेहद सक्रिय हैं तब आज का मतदाता बहुत जागरूक है। वह इस एकजुटता के पीछे की राजनीति भी समझ रहा है। 2019 तक इस एकजुटता का रहना भी मुश्किल ही दख रहा है। ऐसे में एक बड़ा सवाल यह उभर कर सामने आ रहा है कि वास्तविक रूप से सांप्रदायिक कौन है? अगर भाजपा सांप्रदायिक राजनीति कर रही है तो यह दल भी तो एक धर्म विशेष की राजनीति कर रहे हैं। क्षेत्रीय दलों की इसी तुष्टीकरण की नीति ने देश को पिछले तीन दशक में गर्त में धकेला है। इन दलों के बड़े बड़े ज्ञानवान नेता किनारे होते चले गये और इनके छुटभैये तुष्टीकरण करते रहे।
इन सबके बीच भाजपा का थिंक टैंक एक सुहाने झौके की तरह उभरा। उसने लोकतन्त्र से जुड़ी हर गतिविधि को एक त्योहार बना कर पेश किया। कोई भी चुनाव हो जनता ने उसको एक परंपरागत त्योहार की तरह मनाया। उसमे सहभागिता की। टीआरएस, वाईएसआर-कांग्रेस, शिवसेना, बीजद, जेडीयू, तेल्गूदेशम, अन्नादृमुक आदि दलों के राजग प्रत्याशी के सहयोग ने राष्ट्रपति पद की गरिमा बढ़ा दी है। मीडिया ने इस त्योहार को जन जन तक पहुचाया। बस यहाँ ही सांप्रदायिक शब्द का दुरुपयोग करने वाले चूक गये। वह सिर्फ आरोप लगाते रहे और सहभागिता का महत्व नहीं समझ सके। भाजपा ने तो राष्ट्रपति चुनाव को भी इतने बड़े कैनवास के साथ प्रस्तुत किया है कि लोग आनंदित हो रहे हैं। सिर्फ नामांकन के समय ही स्वयं मोदी, शाह का उपस्थित रहना। साथ ही अपने सभी मुख्यमंत्रियों एवं सहयोगी दलों के नुमाइंदे एक मंच पर लाकर भाजपा का थिंक टैंक मानसिक लड़ाई तो जीत ही चुका है। वोटों का गणित अपने पक्ष में होने के कारण अंतिम लड़ाई पर उसकी जीत तो पहले ही निश्चित हो चुकी है। अब जनता को जुलाई-2017 के नतीजों का नहीं बल्कि 2018 में राज्यसभा में पूर्ण बहुमत होने का ज्यादा इंतजार है। इसके बाद यह तय होगा कि 2019 के लिए जनता का रुझान भाजपा की तरफ है या नहीं? ठ्ठ
सोशल मीडिया पर भाजपा के
समर्थन में देश का युवा
सोशल मीडिया पर भाजपा के पक्ष और विपक्ष में एक माहौल बना रहता है। भाजपा के ऊपर सांप्रदायिक होने का आरोप लगता रेहता है। भाजपा विरोधी भाजपा के हर कदम को सियासी कदम बताते नहीं चूकते हैं। ऐसे में क्या भाजपा के हर दांव को राजनैतिक चश्मे से ही देखा जाना चाहिए। भाजपा के समर्थकों का कहना है कि भाजपा ने जब अब्दुल कलाम को राष्ट्रपति बनाया था तो कहा गया कि वे मुस्लिम कार्ड खेल रही है । केशव मौर्य को उत्तर प्रदेश अध्यक्ष बनाया तो ओबीसी कार्ड खेल रही है। महाराष्ट्र में फडणवीस को मुख्यमंत्री बनाया तो ब्राह्मणों की पार्टी बन गयी। किरेन रिजिजू को गृह राज्यमंत्री बनाया तो नार्थ ईस्ट कार्ड खेल दिया। अमित शाह अध्यक्ष बने थे तो बनियो की पार्टी हो गयी। योगी आदित्यनाथ को उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाया तो हिंदुत्व कार्ड खेल रहे है। और अब रामनाथ कोविंद को राष्ट्रपति के लिए नामांकित किया गया तो दलित कार्ड खेल दिया। आखिर भाजपा को क्या करना चाहिए? क्या हर कदम विपक्ष से पूछ कर रखना चाहिए। अरे भाई! अगर विपक्ष खुद कमजोर है तो इसका दोष भाजपा को देना कहाँ तक उचित है। विपक्ष की कमजोरी का अंदाज़ा तो इस बात से लग सकता है कि उनके पास एक भी स्तरीय नेता नहीं है जो मोदी के आस पास ठहर सके। राहुल से उम्मीद खत्म हो चुकी है। केजरीवाल अपने ही बने जाल में फंस चुके हैं। नितीश भाजपा की तरफ रुझान रखे हैं और ममता सिर्फ क्षेत्रीय नेता बन कर रह गयी हैं। इन सब राजनैतिक गतिविधियों को गहराई से देख रहा देश का युवा अब ही मोदी के साथ खड़ा दिख रहा है।
भाजपा के दलित उम्मीदवार को
पचा नहीं पा रहे मठाधीश दल
आज अधिकांश समाचार पत्र, पत्रिकाएं रीडर रिस्पॉन्स थियरी में यकीन करते हैं। वह वही लिखना पसंद करते हैं जो उनका पाठक वर्ग पढ़ना चाहता है। वह सच से दूर चले जाते हैं और फिर उनके आंकलन जमीनी हक़ीक़त से मेल नहीं खाते हैं। बड़े बड़े संस्थानों के चुनावी विश्लेषण इसलिए ही ध्वस्त हो जाते हैं क्योंकि वह निष्पक्ष नहीं होते हैं।
सामाजिक दासता को जड़ से ख़त्म करने के लिये दलित समाज के एक काबिल व्यक्ति को भारत के प्रथम नागरिक के रूप में कुछ स्वकथित दलित राजनीतिज्ञ सिर्फ इसलिये नही पचा पा रहे हैं क्योंकि उन्होंने अपने नेतृत्व का लाइफ टाइम ठेका किसी व्यक्ति विशेष को दिया हुआ है। भाजपा के ट्रम्प कार्ड से जहां बात बात पर दलितों की उपेक्षा हो रही है। शोषण हो रहा है। जैसे जुमलों से विधवा विलाप करने वाली बहन जी के होंठो पर ताला लगा दिया गया। इसके बाद कांग्रेस ने मीरा कुमार का नाम आगे बढ़ा कर उनको उन्ही की तरह की राजनीति से खदेड़ दिया। कोविन्द के द्वारा सरदार बल्लभ भाई पटेल, महात्मा गांधी के बाद अब कुछ राजनीतिक विचारक इसे भाजपा के अम्बेडकर समाज मे अतिक्रमण की दृष्टि से देखने भी लगे हैं। दलित समाज और जाति विशेष की राजनीति करने वालों के गालों पर इसे भाजपा का जोरदार तमाचा ही कहा जाएगा।
गौरतलब है कि दलित समाज की राजनीति का इस्तेमाल पिछले कुछ वर्षों से बड़े गंदे तरीके से किया जा रहा था। जेएनयू, सहारनपुर का इस्तेमाल दलितों को उकसाने के तौर पर किया गया। अन्य जगहों पर वामपंथियों द्वारा कराई जा रही घटनाओं से राष्ट्रवाद को एक बड़ा खतरा पैदा होने लगा था। जिसमें मोहरे के तौर पर एक सम्प्रदाय विशेष और एक वर्ग विशेष के कॉकटेल को राष्ट्र की अखंडता पर एसिड अटैक की तरह उड़ेला जाता रहा है। भारतीय संविधान में वर्णित अखण्डता और सम्प्रभुता जैसे अहम मुद्दों पर ये सब मौन हो जाते हैं। मक़बूल फिदा हुसैन जैसे पागल चित्रकार की तरह भारत माता की एक अलग तस्वीर बनाने में लगे ये लोग अजीब कुंठा के शिकार हैं। इनका असंतोष कश्मीर में देखा जा सकता है। अपनी बनाई विकृत तस्वीर में रंग भरने का काम रँगरेज और चंगेज समाज की नुमाइंदगी कर रहे कुछ एक वामपंथी नेता बखूबी करते रहे हैं।
इसी क्रम में कुछ दलित नेता अपनी बात कहने में दलित शब्द का इतना ज्यादा प्रयोग करते हैं कि वास्तविक और प्रताडि़त दलित पीछे रह जाता है। ये लोग भूल जाते हैं कि अब भारत का संविधान भेदभाव करने पर कठोर दंड देता है। बेवजह खुद को लाचार और दलित बनाकर पेश करना 21वी सदी में तुच्छ बुद्धि का परिचायक है। भाजपा द्वारा राष्ट्रपति पद के लिये घोषित उम्मीदवार आज के परिदृश्य में सर्वथा उचित, योग्य होने के साथ ही आवश्यकता के अनुरूप है। विपक्षी मीरा कुमार भी योग्यता के मामले में उन्नीस नहीं हैं। आब आगे निकट भविष्य में जाति को पेटेंट करा चुकीं राजनीतिक पार्टियों पर हमेशा के लिये विराम लगाने के लिए यह सच स्वीकारना ही पड़ेगा कि आज से पचास वर्ष पूर्व जो माहौल था वह अब बदल रहा है। देश आगे बढ़ रहा है। आप भी आगे बढ़िए।
कोविद का राष्ट्रपति बनना
बिहार के राज्यपाल रामनाथ कोविद अब भारत के राष्ट्रपति होंगे। वे भाजपा के उम्मीदवार घोषित हो गए हैं तो उनकी विजय निश्चित ही होगी। कोविद का नाम जैसे ही टीवी चैनलों ने उछाला, बहुत से पत्रकार-बंधुओं के फोन आने लगे और वे पूछने लगे कि यह कोविद कौन हैं ? संयोग की बात है कि रामनाथजी कोविद और मेरा परिचय लगभग 50-52 साल पुराना है। यह उन्होंने ही मुझे बताया था। उस समय वे किसी भी दल में नहीं थे। वे कानपुर से दिल्ली आ गए थे और यहां कानून की पढ़ाई करते वक्त कई बड़े नेताओं के साथ वे काम भी करते थे। जब अपने हिंदी शोधग्रंथ संबंधी विवाद के संबंध में मैं बड़े नेताओं से मिलने जाता था तो उनके घर पर इनसे भेंट होती थी। उनकी यह विनम्रता और सहजता है कि पिछले कुछ वर्षों में वे मुझसे मिलने मेरे गुडग़ांव के नए निवास पर भी आते रहते थे। मैं पिछले दिनों पटना गया तो उन्होंने वहां राजभवन में भी गर्मजोशी से मेरा स्वागत किया। मुख्यमंत्री नीतीशकुमार और कोविदजी के आपसी संबंध भी मधुर रहे हैं। इससे यही अंदाज लगाया जा सकता है कि मोदी-कोविद संबंध कितने अच्छे रहेंगे। पटना में कोविदजी से मिलने के पहले मैं नीतीशजी से मिला था। उनके मुंह से राज्यपाल की तारीफ सुनकर मुझे अच्छा लगा था।
कोविद को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाए जाने पर कई लोगों को अचरज हो सकता है, क्योंकि उनका नाम इतना प्रसिद्ध नहीं है और उसका कहीं जिक्र भी नहीं था। लेकिन वे देहात में जन्मे हैं और अनुसूचित जाति के हैं। वे वकालत करते रहे हैं। वे दो बार भाजपा के राज्यसभा में सदस्य रह चुके हैं और अनेक समाजसेवी संगठनों के अध्यक्ष रह चुके हैं। उनके राष्ट्रपति बनने का जो भी विरोध करेगा, उस पर दलित-विरोधी ठप्पा लगेगा। इसके अलावा उन पर कोई भी सांप्रदायिक संकीर्णता का आरोप नहीं लगा सकता। उनका जीवन निष्कलंक और अविवादास्पद रहा है। वे विचारशील व्यक्ति हैं। वे विनम्र और मधुरभाषी जरुर हैं लेकिन उन्हें कोई रबर का ठप्पा मानकर नहीं चल सकता। कोविद जागृत विवेक के व्यक्ति हैं। वे कानूनदां है और उत्तरप्रदेश जैसे बीहड़ प्रदेश की राजनीति में सक्रिय रहे हैं। राष्ट्रपति के दायित्व, मर्यादा और गरिमा को वे अच्छी तरह समझते हैं। मुझे विश्वास है कि कोविदजी एक अच्छे राष्ट्रपति सिद्ध होंगे।
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
आखिर क्यों बने कोविन्द भाजपा की पसंद
रामनाथ कोविंद का नाम घोषित करने का सबसे बड़ा लाभ भाजपा को यह है कि उनका विरोध करना दूसरे दलों को भारी पड़ सकता है। दलित चेहरा होने के कारण विरोध करने वालों पर दलित विरोधी होने का ठप्पा लग जाएगा। बेवजह कोई भी दल इस तरह का खामियाजा नहीं भुगतना चाहेगा। राष्ट्रपति चुनाव में पार्टी के दलित नेता रामनाथ कोविंद से बेहतर चेहरा कोई नहीं हो सकता था, जिससे पार्टी पूरे दम के साथ यह कह सके कि उसने एक दलित को देश के राष्ट्रपति की कुर्सी तक पहुंचाया। लोकसभा और फिर यूपी के विधानसभा चुनावों में जिस तरह से दलितों ने अपने पुराने सिपहसलारों को छोड़ भाजपा को समर्थन किया उस बढ़त को पार्टी किसी भी सूरत में खोना नहीं चाहती है। ऐसे में राष्ट्रपति चुनाव के लिए किसी दलित चेहरे को आगे करने से बड़ा दांव और क्या हो सकता था। कोविंद के सहारे पार्टी सबका साथ सबका विकास के नारे को भी आगे बढ़ा सकेगी। राजनीतिक अनुभव के मामले में भी कोविंद का पक्ष काफी मजबूत है। वह 12 साल तक राज्यसभा के सांसद रहे और भाजपा के दलित मोर्चा के अध्यक्ष रह चुके हैं। कुछ समय के लिए पार्टी के प्रवक्ता भी रहे और अब पिछले दो सालों से बिहार के राज्यपाल हैं। कोविंद कानून के भी अच्छे जानकार हैं। कानपुर यूनिवर्सिटी से बीकॉम और एलएलबी की पढ़ाई करने वाले कोविंद ने दिल्ली हाइकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में 16 साल तक वकालत की है। ऐसे में राष्ट्रपति जैसे पद पर तमाम कानूनी प्रक्रियाओं और संविधान की बेहतर जानकारी उनकी राह आसान करेगी।
बिहार का राज्यपाल रहने के कारण मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का समर्थन भी उन्हे मिल गया है। बिहार में राज्यपाल रहने के दौरान लालू और नीतीश से उनके मधुर संबंध रहे हैं। सौम्य स्वभाव के कारण विपक्ष के कई नेताओं से भी उनके अच्छे संबंध माने जाते हैं। ऐसे में उनके चेहरे पर कुछ व्यक्तिगत मत भी पड़ सकते हैं। रामनाथ कोविंद की छवि निर्विवादित नेता की रही है, पार्टी में तमाम पदों पर रहने के अलावा वह राज्यसभा की कई कमेटियों के सदस्य भी रहे हैं। हमेशा उनका दामन पाक साफ रहा। न कभी कभी उनके नाम के साथ कोई विवाद जुड़ा और न ही किसी भ्रष्टाचार के मामले में वह लिप्त हुये। ऐसे में कोविंद की यह खूबी भी उनकी राह आसान कर गई। राजनीति में जहां आज लोग हाईक्लास जीवन जीने के लिए पहचाने जाते हैं वहीं कोविंद आज भी साधारण जीवन जीते हैं। यहां तक की गांव का पैतृक मकान भी उन्होने बारातशाला बनाने के लिए दान कर दिया है।
रामनाथ कोविंद का अब तक का सफर
• राम नाथ कोविन्द का जन्म एक अक्टूबर 1945 में उत्तर प्रदेश के कानपुर जिले की (वर्तमान में कानपुर देहात जिला ), तहसील डेरापुर के एक छोटे से गाँव परौंख में हुआ था।
• कोविन्द का सम्बन्ध कोरी या कोली जाति से है जो उत्तर प्रदेश में अनुसूचित जाति के अंतर्गत आती है।
• वकालत की उपाधि लेने के बाद दिल्ली उच्च न्यायालय में वकालत प्रारम्भ की।
• वह 1977 से 1979 तक दिल्ली हाई कोर्ट में केंद्र सरकार के वकील रहे।
• वर्ष 1986 में दलित वर्ग के कानूनी सहायता ब्युरो के महामंत्री भी रहे।
• वर्ष 1991 में भारतीय जनता पार्टी में शामिल हुए।
• वर्ष 1994 में उत्तर प्रदेश राज्य से राज्य सभा के निर्वाचित हुए।
• वर्ष 2000 में पुन: उत्तरप्रदेश राज्य से राज्य सभा के लिए निर्वाचित हुए।
• कोविन्द लगातार 12 वर्ष तक राज्य सभा के सदस्य रहे।
• वह भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय प्रवक्ता भी रहे।
• वह भाजपा दलित मोर्चा के राष्ट्रीय अध्यक्ष और अखिल भारतीय कोली समाज अध्यक्ष भी रहे।
• 8 अगस्त 2015 को बिहार के राज्यपाल के पद पर नियुक्ति हुए।