संसदीय चुनाव दस्तक दे रहा है। सत्ता पक्ष खम ठोक कर अपने वापिस आने का दावा कर रहा है और साथ ही विपक्षी दलों के गठबंधन को अवसरवादियों का जमावाड़ा बता रहा है। आने वाले दिनों में दोनों ओर से हमले तेज होंगे। कुछ अप्रत्याशित घटनाएं भी हो सकती हैं। जिनसे मतों का ध्रुवीकरण किया जा सके। पर चुनाव के बाद की स्थिति अभी स्पष्ट नहीं है। हर दल अपने दिल में जानता है कि इस बार किसी की भी बहुमत की सरकार बनने नहीं जा रही। जो दूसरे दलों को अवसरवादी बता रहे हैं, वे भी सत्ता पाने के लिए चुनाव के बाद किसी भी दल के साथ गठबंधन करने को तत्पर होंगे। इतिहास इस बात का गवाह है कि भजपा हो या कांग्रेस, तृणमूल हो या सपा, तेलगुदेशम् हो या डीएमके, शिवसेना हो या राष्ट्रवादी कांग्रेस, रालोद हो या जनता दल, कोई भी दल, अवसर पडऩे पर किसी भी अन्य दल के साथ समझौता कर लेता है। तब सारे मतभेद भुला दिये जाते हैं। चुनाव के पहले की कटुता भी याद नहीं रहती। इससे यह स्पष्ट है कि चुनाव के पहले मतदाताओं को भ्रमित करने के लिए जो भी राजनैतिक आतिशबाजी की जाती है, वो मात्र छलावा होता है। अंदर से सब एक ही हैं।
इसलिए मेरे कुछ प्रश्न सभी राजनैतिक दलों से हैं। क्या भ्रष्टाचार के मामले में कोई भी दल अछूता है? क्या चुनाव उतने ही पैसे में लड़े जाते हैं, जितने चुनाव आयोग द्वारा स्वीकृत हैं? या उससे कई गुना ज्यादा खर्च करके चुनाव लड़ा जाता है? क्या जातिवाद और सा प्रदायिकता के मामले में कोई भी दल अपने को पाक-साफ सिद्ध कर सकता है? क्या ये सही नहीं है कि उ मीदवारों को टिकटों का बंटवारा जाति और स प्रदाय के मतों के अनुसार किया जाता है? क्या ये सही नहीं कि वोट पाने के लिए सार्वजनिक धन को लुटाने या कर्जे माफ करने में कोई भी दल पीछे नहीं रहता? क्या ये सच नहीं है कि इस तरह की खैरात वाली राजनीति से देश की अर्थव्यस्था और बैंकिग व्यवस्था चरमरा गई है? क्या ये सही नहीं है कि विकास के मॉडल में किसी भी राजनैतिक दल का दूसरे दल से कोई बुनियादी अंतर नहीं है? क्या ये सही नहीं है कि चुनाव जीतने के बाद मंत्री पदों का बंटवारा योग्यता के आधार पर नहीं बल्कि दल के नेता की इच्छा के अनुसार होता है? क्या ये सही नहीं कि केंद्र सरकार में भी तमाम योग्य सांसदों की उपेक्षा कर अयोग्य और चाटुकार उ मीदवारों को प्राय: महत्वपूर्णं पद दे दिये जाते हैं?
जब ये सब सही है, तो फिर इस चुनावी दंगल से क्या हासिल होगा? क्या देश से भ्रष्टाचार, जातिवाद, सा प्रदायिकता, क्षेत्रवाद, गरीबी, असमानता आदि दूर हो जाएंगे? क्या जो सरकार बनेगी, वो मतदाताओं की आकांक्षाओं के अनुरूप काम करेगी? अगर उत्तर है नहीं, तो फिर ये सब हंगामा और नाटकबाजी क्यों? क्यों न एकबार राष्ट्रीय सरकार के गठन का प्रयोग किया जाए। जो भी राजनैतिक दल आज चुनाव के मैदान में उतर रहे हैं, उन सबके जीते हुए सांसद मिलकर लोकतांत्रिक प्रक्रिया से एक साझी सरकार का गठन करे। साथ ही गत 72 वर्षों के अनुभव के आधार पर व्यावहारिक नीतियों और कार्यक्रमों का, सामूहिक और सार्थक विचार-विमर्श के उपरांत निर्णय करें। 5 वर्ष तक ये राष्ट्रीय सरकार चलाने का ईमानदार प्रयास करें और अपने-अपने दायित्व का शब्दश: उसी भावना के साथ निर्वहन करें, जिस भावना के लिए राष्ट्रपति महोदय शपथग्रहण समारोह में इन्हें शपथ दिलाते हैं। इस शपथ का एक-एक शब्द जनहित के लिए होता है, अगर उस पर ध्यान दिया जाए तो। पर हकीकत ये है कि शपथ ग्रहण करने के बाद उसकी भावना को राष्ट्रपति भवन के भीतर छोड़ आया जाता है। फिर तो शासन ऐसे चलता है, जिससे जनता का कम और अपना लाभ ज्यादा हो।
राष्ट्रीय सरकार का ढांचा लगभग उसी तरह होगा, जैसा ई.पू. की सदियों में भारत के गणराज्यों में होता था। वो प्रथा कई शताब्दियों तक सुचारू रूप से चली। रोमन साम्राज्य में भी इसी को बहुत दिनों तक सफलतापूर्वक चलाया गया। बाद में गणराज्य व्यवस्था में जो दोष उभर आए थे और जिनके कारण वह व्यवस्था क्रमश: लुप्त हो गई, उन दोषों पर भी मंथन कर लिया जाए। किसी एक व्यक्ति के हाथ में सत्ता का ऐसा संकेन्द्रण न हो कि वो तानाशाह बन जाए और बिना किसी की सलाह माने अपने अहम से सरकार चलाए।
यह विषय राजनैतिक दलों के लिए ही नहीं देश के बुद्धिजीवी वर्ग, राजनैतिक चिंतक व आम आदमी के लिए भी विचार करने योग्य है। हो सकता है कि हम सबके सामूहिक चिंतन, सद्भभावना और भगवतकृपा से कुछ ऐसा स्वरूप निकलकर सामने आए कि हम राजनीति की वर्तमान दलदल से बाहर निकलकर सुनहरे भारत का निर्माण कर सकें। जिसमें हर नागरिक को स मान से जीने का अवसर हो। भारतवासी सुखी, संपन्न व संतुष्ट हो सके।
जब जब विरोधियों को लगता है कि मोदी का ग्राफ गिर रहा है और वह कमजोर हो रहे हैं तभी अचानक मोदी खेमा ऐसे वापसी करता है कि विपक्षी खेमा चारों खाने चित्त हो जाता है। चूंकि राजनीति में विमर्श का बड़ा महत्व होता है। जनता के बीच चलने वाला विमर्श ही राजनीतिक दलों का वोट बैंक निर्धारित करता है। इसलिए तीन प्रमुख राज्यों में हार के बाद राष्ट्रीय विमर्श कांग्रेस की सत्ता में वापसी एवं मोदी का गिरता ग्राफ बन गया था। मोदी विरोध एवं मोदी समर्थन वाले मीडिया समूह अपनी अपनी ढपली पर अपने अपने राग अलाप रहे थे। राम मंदिर चुनावी मुद्दा बनता दिख रहा था। संतों के द्वारा एक समानान्तर आंदोलन चलाया जा रहा था। सवर्णों को आधार बनाकर 2019 के लोकसभा चुनावों हेतु समीकरण दिये जा रहे थे। इसी बीच मोदी सरकार ने आर्थिक आधार पर आरक्षण का संवैधानिक संशोधन करके एक बड़ा दांव चल दिया। देश में विमर्श की दिशा ही बदल गयी। मोदी से नाराज़ चल रहा सवर्ण उससे वापस जुड़ गया। इसके बाद जीएसटी में परिवर्तन करके मोदी ने व्यापारी वर्ग की नाराजगी कम कर दी। इतना ही नहीं आयकर सीमा बढ़ाकर 5 लाख करना, आयुष्मान भारत योजना का विस्तार, अवैध बांग्लादेश प्रवासियों पर निर्णय एवं किसानों को प्रति एकड़ 12 हज़ार रुपये प्रतिवर्ष देने जैसी घोषणाएं पाइप लाइन में हैं। चूंकि मोदी से लोग सिर्फ नाराज़ थे, हताश नहीं थे इसलिए राष्ट्रीय विमर्श को मोदी की तरफ स्थानांतरित होने में देर नहीं लगी । रही सही कसर चुनाव से पूर्व आने वाली घोषणाएं पूरी करने वाली हैं। इवैंट के द्वारा माहौल अपनी तरफ बनाने में मोदी की महारत से विपक्ष में बड़ी हलचल मच गयी है। भ्रष्टाचार में फंसे क्षेत्रीय दलों के नेता अब स्वयं को बचाने के लिए एक मंच पर आ गए हैं। कभी भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाकर भ्रष्ट नेताओं के नाम उजागर करने वाले केजरीवाल जब उन्हीं नेताओं के साथ मंच पर खड़े दिखते हैं तो जनता में उनकी विश्वसनीयता की पोल खुल जाती है। प्रियंका वाड्रा को कांग्रेस के द्वारा सक्रिय राजनीति में लाना एवं माया-मुलायम की वर्षों पुरानी तल्खियों के मध्य बुआ-बबुआ साथ आकर भाजपा के समीकरण गड़बड़ाने लगे हैं। दूर से देखने पर एकजुटता दिखाता एवं बंगाल में ममता की रैली में एक मंच पर दिखा विपक्ष भीतर ही भीतर कई खेमों में बंटा हुआ है। राफेल पर उच्चतम न्यायालय का निर्णय, आरक्षण पर मास्टर स्ट्रोक और बहुत से लोकलुभावन निर्णयों के बाद मोदी के दांव ब्रह्मास्त्र बन कर सामने आ रहे हैं।
By Vineet Narain