लक्ष्मण रेखा के बारे में ये रामायणें क्या कहती हैं?
प्राय: सभी भाषाओं की श्रीरामकथाओं-रामायणों में स्वर्णमृग (राक्षस मारीच) का कथा प्रसंग है। स्वर्ण मृग मायावी सर्वप्रथम सीताजी को आकर्षित करता है तथा सीताजी उसको प्राप्त करने के लिए श्रीराम को कहती हैं। श्रीराम सीताजी की सुरक्षा का भार लक्ष्मणजी को सौंपकर उस मृग के पीछे चले जाते हैं। श्रीराम के स्वर्ण मृग के पीछे जाने के बाद श्रीरामजी के स्वर में हा सीते, हा लक्ष्मण ध्वनि सीताजी सुनती हैं।
सीताजी लक्ष्मण को उनके सहायतार्थ जाने को कहती हैं तब लक्ष्मणजी उन्हें कहते हैं कि श्रीराम बहुत सक्षम हैं, उनको कोई भी तीनों लोकों में हानि नहीं पहुँचा सकता है। वे तो देवों के देव हैं, किन्तु लक्ष्मणजी द्वारा बहुत समझाने के उपरान्त भी सीताजी अत्यन्त दु:खी रहती है। वे अन्त में लक्ष्मणजी से कहती हैं कि यदि तुम यहाँ से न जाओगे तो मैं गोदावरी नदी में समा जाऊँगी, विषपान कर लूँगी अथवा दुर्गम पहाड़ से कूद जाऊँगी। इतना ही नहीं सीताजी लक्ष्मणजी को कई मार्मिक एवं तीर की तरह चुभने वाले कटु वचन कहती हैं। लक्ष्मणजी अन्त में विवश होकर श्रीरामजी की सहायतार्थ जाने को तैयार हो जाते हैं। सीताजी की सुरक्षा को दृष्टिगत रखते हुए दसों दिशाओं, वन, वनदेवी को सौंपकर चल देते हैं। कई रामायणों में अलग से बताया गया है कि वे सीताजी की सुरक्षा हेतु लक्ष्मण रेखा खींचकर गए थे।
अत: सीताजी की सुरक्षा के इन दो प्रयत्नों की जानकारी, विशेष रूप से लक्ष्मण रेखा का वर्णन है। रामायणों में क्यों? और किस प्रकार उल्लेख है? पाठकों के लिए प्रस्तुत है।
वाल्मीकि रामायण में लक्ष्मण रेखा प्रसंग
कपट मृग (सुवर्ण मृग) को देखकर सीताजी ने श्रीराम से कहा कि जीवित मृग आपकी पकड़ में आ जाए तो एक आश्चर्य की वस्तु होगा। सीताजी ने फिर श्रीराम से कहा- यदि कदाचित् यह श्रेष्ठ मृग जीते जी पकड़ा न जा सके तो इसका चमड़ा ही बहुत सुन्दर है। घास-फूँस की बनी चटाई पर हम इस मृत मृग का स्वर्णमय चमड़ा बिछाकर मैं आपके साथ बैठना चाहती हूँ। श्रीराम ने लक्ष्मणजी से कहा कि मैं इस मृग को मारने हेतु तथ चमड़े को प्राप्त करने जा रहा हूँ। अत: तुम आश्रम पर रहकर सीताजी के साथ सावधान रहना। तथा मैं जब तक लौट न आऊँ तुम इनकी रक्षा करना। लक्ष्मण! बुद्धिमान पक्षिराज गृघ्रराज जटायु बड़े बलवान हैं तुम उनके साथ सदा यहाँ सावधान रहना तथा चौकन्ने रहना।
इतना कहकर श्रीराम कपट मृग के पीछे वन में चले गए तथा कुछ समय बाद-
स प्राप्तकालमाज्ञाय चकार च तत: स्वनम्।
सदृश राघवस्येव हा सीते लक्ष्मणेति च।।
वाल्मीकि रामायण अरण्यकाण्ड सर्ग ४४-१९
रावण के बताए हुए उपाय को काम में लाने का समय आ गया है। यह समझकर सुवर्णमृग (मारीच) ने श्रीराम के समान स्वर में हा सीते, हा लक्ष्मण कहकर पुकारा। यह सुनकर सीताजी बहुत भयभीत हो गईं तथा लक्ष्मण को श्रीराम की सहायता करने हेतु जाने का कहा। लक्ष्मणजी ने उन्हें अनेक प्रकार से समझाया कि श्रीराम देवताओं तथा इन्द्र आदि से साथ मिले हुए तीनों लोक भी यदि आक्रमण करें तो वे अकेले श्रीराम के बल का वेग नहीं रोक सकते। सीताजी ने लक्ष्मण से कहा तू बड़ा दुष्ट है। श्रीराम को अकेले वन में आते देख मुझे प्राप्त करने के लिए ही अपने भाव छिपाकर तू भी अकेला ही उनके पीछे-पीछे चला आया है अथवा यह भी सम्भव है कि भारत ने तुझे भेजा हो। लक्ष्मण सीताजी के ऐसे कटुतापूर्ण तथा मार्मिक वचनों से दु:खी हो गए। अन्त में लक्ष्मण ने सीताजी से कहा- विशाल लोचने। वन के सम्पूर्ण देवता आपकी रक्षा करें। ऐसा कहकर दु:खी मन से श्रीराम के पास जाने हेतु चल पड़े। उनके जाने के बाद रावण संन्यासी के रूप में आया तथा सीताजी का हरण करने को तत्पर हो गया। यह देखकर जटायु ने उसे ललकारा, दोनों में युद्ध हुआ तथा जटायु के पंखों को रावण ने काट दिए तथा सीताजी का हरण कर लंका चला गया। इस प्रकार इस रामायण में लक्ष्मण रेखा का कहीं भी उल्लेख नहीं है।
श्रीरामचरितमानस में लक्ष्मण रेखा प्रसंग
इस रामायण के अरण्यकाण्ड में मारीच राक्षस-कपट मृग बनकर श्रीराम के आश्रम में आया। वह अत्यन्त ही विचित्र था, जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता। सोने का शरीर, मणियों से जड़कर बनाया था।
सीता परम रुचिर मृग देखा। अंग अंग सुमनोहर वेषा।।
सुनहु देव रघुबीर कृपाला। एहि मृग कर अति सुन्दर छाला।।
श्रीरामचरितमानस अरण्यकाण्ड २७-२
सीताजी ने उस परम् सुन्दर मृग को देखा जिसके अंग-अंग की छटा अत्यन्त मनोहर थी। सीताजी ने श्रीराम से कहा हे देव! कृपालु रघुवीर! सुनिये। इस मृग की छाल बहुत सुन्दर है। सीताजी ने कहा- हे सत्यप्रतिज्ञा प्रभो! इस मृग को मारकर इसका चमड़ा ला दीजिए। तब प्रभु ने लक्ष्मणजी को समझाकर कहा हे भाई। वन में बहुत से राक्षस फिरते रहते हैं, तुम बुद्धि और विवेक के द्वारा बल एवं समय का विचार करके सीता की रखवाली करना। इतना कहकर श्रीराम धनुष चढ़ाकर मृग के पीछे-पीछे चल दिए। श्रीराम के अचूक बाण से वह मृग मारा गया तथा घोर शब्द करके पृथ्वी पर गिर पड़ा। उस मायावी मृग ने पहले लक्ष्मणजी का नाम लिया तथा बाद में श्रीरामजी का नाम स्मरण किया। इधर जब सीताजी ने कपट मृग की दु:ख भरी वाणी हा लक्ष्मण सुनी तो बहुत भयभीत होकर लक्ष्मण से कहने लगी।
जाहू बेगि संकट अति भ्राता। लछिमन बिहसिकहासुनु माता।।
भृकुटि बिलास सृष्टिलय होई। सपनेहुँ संकट परई कि सोई।।
श्रीरामचरितमानस अरण्यकाण्ड २८-२
हे लक्ष्मण तुम शीघ्र जाओ, तुम्हारे भाई बड़े संकट में हैं। तब लक्ष्मणजी ने हँसकर कहा हे माता! सुनो जिसके भ्रकुटि विलास (भौह के संकेत) मात्र से सम्पूर्ण सृष्टि का लय (प्रलय) हो जाता है, वे श्रीरामजी क्या कभी स्वप्न में भी संकट में पड़ सकते हैं?
तब सीताजी ने कुछ मर्म वचन (हृदय में चुभने वाले वचन) कहे तथा लक्ष्मणजी माता सीताजी को वन और दिशाओं के देवताओं को सौंपकर वहाँ चल पड़े जहाँ श्रीराम वन में थे। इस प्रकार लक्ष्मणजी का सीताजी की सुरक्षा हेतु कोई लक्ष्मण रेखा का यहाँ उल्लेख नहीं है, किन्तु लंकाकाण्ड में मन्दोदरी ने रावण को समझाते हुए कहा-
कंत समुझि मन तजहु कुमति ही।
सोई न समर तुम्हहि रघुपति ही।।
रामानुज लघु रेख खचाई।
सोउ नहिं नाधेहु असि मनुसाई।।
श्रीरामचरितमानस लंकाकाण्ड ३६-१
हे कांत! मन में सोच विचार कर कुबुद्धि को छोड़ दो। आपको और रघुनाथजी से युद्ध शोभा नहीं देता। उनके छोटा भाई ने जरा-सी रेखा खींच दी थी। उसे आप नहीं लाँघ सके, ऐसा तो आपका पुरुषत्व है। इस प्रकार यहाँ लक्ष्मण-रेखा का वर्णन है, किन्तु लक्ष्मण रेखा धनुष या बाण से खींची गई स्पष्ट नहीं है। लक्ष्मण रेखा का वर्णन अरण्यकाण्ड में न होकर लंकाकाण्ड में है।
हनुमन्नाटक में लक्ष्मण रेखा प्रसंग
हनुमन्नाटक में भी सीताजी की सुरक्षा हेतु लक्ष्मणजी द्वारा खींची लक्ष्मण रेखा का वर्णन इस प्रकार है-
स व्याह रद्धर्मिणि देहि भिक्षामलंघयँलक्ष्मणलक्ष्मलेखाम
जग्राह तां पणितले क्षिपन्तीमाकारयन्ती रघुराज पुत्री।।
हनुमन्नाटक भाषा टीका समेत अंक ४-६
रावण ने कहा- हे धर्मपरायण। भिक्षा दो। तब ज्योंहि लक्ष्मण जी धनुष रेखा को लाँघकर, रावण के हाथ में भीख देने लगी त्यों ही वह उन्हें हरण कर ले गया और हा आर्यपुत्र! हा लक्ष्मण! पुकारती (सीता) रह गईं। इस प्रकार यहां लक्ष्मण रेखा लक्ष्मणजी के धनुष द्वारा खींची गई बताया गया है।
आनन्दरामायण में लक्ष्मणरेखा प्रसंग
पंचवटी में मारीच ने जाकर एक सुवर्णमृग का रूप धारण किया तथा सीता को मोहित कर लिया। तब तमोगुणी छायारूपिणी सीता सुवर्णमृग को देखकर श्रीराम से बोली। हे रघुत्तम राम! इस मृग को पकड़कर मुझे दे दो। मैं उसके साथ क्रीड़ा करूँगी।
मृगश्चेद्वाणभिन्नांग: करोमि कंचुकीं त्वच:।
तत्तस्या वचनं श्रुत्वा ज्ञात्वा सर्वं रघूत्तम।
सीताय: रक्षणे बंधु संस्थाप्याशु मृगं ययौ।
तत: पलायनं चक्रे मृगो रामं विकर्षयन।।
आनन्दरामायण सारकाण्ड सर्ग ७-९०-९१
सीताजी ने श्रीराम से कहा- यदि बाण से मृग को मारकर ला दो तो मैं उसके चमड़े की चोली बनाऊँगी। सीता के वचन सुनकर तथा सोच-विचारकर रघूत्तम राम सीता की रक्षा के लिए भाई लक्ष्मण को नियुक्त करके शीघ्र ही मृग के पीछे चल दिए। हिरण भी श्रीराम के आगे दौड़ता हुआ उन्हें बहुत दूर घने जंगल में दौड़ाता हुआ ले गया।
रामबाणेन भिन्नाग: शब्दं दीर्घ चकारस:।
हॉ सौमिते समागच्छ हा हतोऽस्म्यद्य कानने।।
वहाँ श्रीराम के बाण से घायल होकर वह जोर से श्रीराम के स्वर में चिल्लाने लगा- ‘हा लक्ष्मणÓ मैं वन में मारा गया। उस शब्द को सुनकर सीताजी ने लक्ष्मण को जाने का कहा। तब लक्ष्मण बोले हे सीते! यह श्रीराम का वाक्य (स्वर) नहीं है। डरो मत। सीताजी ने लक्ष्मण से कहा कि मैं तुम्हारा अभिप्राय समझती हूँ। तुम भरत के कहने के अनुसार राम का मरण अथवा राम के मर जाने पर मुझे भोगना चाहते हो। किन्तु याद रक्खो कि मैं मर जाऊँगी किन्तु तुम्हारी अभिलाषा। कभी पूरी नहीं होने दूँगी। सीताजी के इस वचन को सुनकर लक्ष्मण जानकीजी से बोले हे माता! मेरी बात सुनो। रामजी की आज्ञा से तुम्हारी रक्षा में मैं तत्पर हूँ। तुमने मुझको जो वाणी रूपी बाणों से प्रताड़ित किया है, उसका फल तुम शीघ्र प्राप्त करोगी।
तथापि श्रुणु म्रद्वाक्यं यन्मयाऽत्रोच्यते हितम्।
नयैतां घनुषा रेखां कृतां त्वसरितोऽघुनो।।
त्वद्रक्षणार्थं दुष्टानां दुर्विलंघ्यां महन्तमाम्।
मा त्वमुल्लंघयस्वेमां प्राणै: कंठगतैरपि।।
इत्युक्त्वा धनुष: कोटया कृत्वा रेखां समंतत:।
बाह्यदेशे पंचवहया: सौमित्र: परिघोपमाम्।।
आनन्दरामायण सारकाण्ड सर्ग ७-९८ से १००
इतना होने पर भी मेरे कहे हुए इस हितकारी वचन को सुन लो। मैं धनुष से तुम्हारे चारों ओर यह रेखा खींच देता हूँ। यदि तुम्हारी रक्षा के लिए और दुष्टों के दूर्लंघनीय तथा भयंकर भय उत्पन्न करने वाली होगी। तुम्हारे प्राणों के कंठ में आ जाने पर भी तुम इस रेखा का उल्लंघन मत करना। इतना कहकर धनुष की कोर से लक्ष्मण ने पंचवटी के बाहर खाई की भाँति सीताजी के चारों ओर रेखा खींच दी। इतना कहकर वह श्रीरामजी की ओर चल पड़े।
इसी समय रावण वहाँ भिक्षुक का रूप धारण करके पंचवटी के द्वार पर पहुँच खड़ा होकर नारायण हरि कहकर चुप हो गया। तब छायामयी सीता उसको भिक्षा देने के लिए आईं। सीताजी ने हाथ बढ़ाकर भिक्षुक से कहा भिक्षा लो। सीता से भिक्षुक ने कहा कि मैं रेखा के भीतर से बँधी हुई भिक्षा नहीं लेता हूँ। यदि तुम राम के गृहस्थाश्रम की रक्षा करना चाहती हो तो रेखा के बाहर आकर भिक्षा दो। बाँयें पाँव को रेखा से बाहर रख और लम्बा हाथ करके जानकीजी बोली- यह भिक्षा ले लो। उसी समय रावण ने उनको पकड़ लिया और भिक्षुक का रूप त्याग कर तथा सीताजी को गधों के रथ पर बैठाकर ले जाने लगा। वह भागा जा रहा था। तभी जटायु ने उसे देख लिया। उस समय पक्षिराज जटायु ने रावण से तुमुल युद्ध किया तथा अन्त में पंख काट दिए जाने से घायल होकर भूमि पर गिर पड़ा। रावण सीताजी को लंका ले गया।
मराठी राम-विजय रामायण रचयिता पं. श्रीधर स्वामी में लक्ष्मण रेखा प्रसंग
रावण वन में गुप्त वेष धारण कर छिपकर खड़ा हो गया तथा मारीच भी सुवर्णमृग का रूप ग्रहण करके श्रीराम के आश्रम में जा पहुँचा।
आला चमकत पंचवटी। श्रीरामरूप न्याहाली दृष्टी। हृदय जाहला परम संतुष्ठी। अंतरी कष्टी नव्हेचि। जैसे सुवर्णगट सुरंग। तैसे मृगाचे दिसे अंग। ऐसे देखता सीतारंग। हात घाली मनुष्या। मृग क्षणा-क्षणा परतोन। पाहे राघवा कड़े विलोकुन। तो तो पद्माक्षी बोले वचन। पद्मजातजनकाप्रति। म्हणे ऐसा मृग अजिपर्यंत। आम्ही देखिला नाही यथार्थ। याचे त्वचेची कंचुकी सत्य। उत्तम होइल के लिया। अयोध्येसी प्रवेश करिता। ते कंचुकी लेईन प्राणनाथा। षण्मास उरले आता। मनुसंवत्सरामाजी पैं।।
मराठी श्रीराम-विजय रामायण अरण्यकाण्ड अध्याय १३-५१-५५
मारीच (सुवर्णमृग) दौड़ता हुआ पंचवटी में आ गया। उसने श्रीराम के रूप को निहारा और वह हृदय में परम तृप्त हुआ। वह मन में खिन्न नहीं था। जैसे सुन्दर रंगोवाले जरीदार वस्त्र दिखाई देता हो, वैसे उस मृग का शरीर दिखाई दे रहा था। वह मृग क्षण-क्षण पीछे मुड़कर श्रीराम की ओर देखता तो कभी सीताजी की ओर भी देखता। तब ही सीताजी ने श्रीराम से कहा कि ऐसा मृग सचमुच हमने आज तक नहीं देखा। सचमुच इसके चमड़े (खाल) से बढ़िया सुन्दर कंचुकी बनेगी। हे प्राणनाथ! अयोध्या में प्रवेश करते समय मैं वह कंचुकी पहनूँगी। चौदह वर्ष में से अब छ: मास तो शेष रहे हैं।
सीताजी के मन की इच्छा को और आगे घटित होने वाले भावी को जानकर श्रीराम धनुष पर बाण चढ़ाए हुए तेजी से सुवर्णमृग के पीछे चल दिए। उस समय उन्होंने लक्ष्मण से कहा तुम यहाँ सावधान रहकर जानकी की रक्षा करना। लक्ष्मण गुफा के द्वार पर रक्षा करने बैठ गए। लक्ष्मण दौड़ो-दौड़ो यह कहते हुए उस राक्षस (रावण) ने वन में श्रीराम की शब्द ध्वनि उत्पन्न की। सीता ने यह सुनकर लक्ष्मण से कहा कि मेरे श्रीराम वन में फँस गए हैं। तब लक्ष्मण ने कहा हे जानकी, यह कपट वचन है। लक्ष्मण के ऐसा बोलने पर सीताजी को क्रोध हो गया तथा कहा कि अब ज्ञात हो गई तुम्हारी बन्धुता मेरे सम्बन्ध में पूरी अभिलाषा रखकर तुम वन में आए हो। तुम राक्षसों द्वारा श्रीराम का वन में वध होने पर मुझे अपनी पत्नी बना लेना चाहते हो। अथवा सचमुच कैकेयी ने वन में राम का वध करने के लिए तुम्हें भेजा है। इन कटु एवं मार्मिक वचनों को सुनकर लक्ष्मण ने कहा- मैं बालक हूँ और तुम जननी हो। मेरे मन का यही भावार्थ है। तुम्हारी यह बात तुम्हें फलेगी और तुम छ: महीने बन्धन में पड़ी रहोगी। जब रघुनाथजी राम फिर से मिलेंगे तो महान अनर्थ भुगतोगी।
तब लक्ष्मण ने गुफा के द्वार पर धनुष की डोरी से एक रेखा खींच दी और कहा- यदि तुम इस रेखा के बाहर जाओगी तो परम संकट होगा। श्रीराम की तुम्हें सौगन्ध है। घोर अरण्य में रोते हुए लक्ष्मण श्रीराम को खोजने निकल पड़े। तत्पश्चात् रावण लक्ष्मण द्वारा अंकित रेखा के बाहर खड़ा हो गया। उसने कहा अब बिना फलों के आहार के यहाँ मेरे प्राण निकलना चाहते हैं अत: तुम गुफा के बाहर आकर मेरे मुख में फल डाल दो। रावण ने कहा दौड़ो मेरे प्राण निकले जा रहे हैं। तब सीताजी फल लेकर रेखा के निकट पहुँच गई ज्यों ही सीता ने भिक्षा डालने के लिए हाथ लक्ष्मण रेखा के बाहर बढ़ाया त्यों ही उस राक्षस ने सीताजी को खींचकर झट से उन्हें उठा लिया एवं सच्चा रूप लंकापति रावण का बताकर हरण कर लिया। जटायु से मुठभेड़ हुई तथा उसके पंख काटकर घायल कर सीता सहित लंका की ओर चला गया।
गुजराती गिरधर रामायण में लक्ष्मण रेखा प्रसंग
रह्यो रावण गुप्त थई ने वनमां वृक्षकुंजनी माहे,
पछी मारीच बेमुखी मृग थईने तत्क्षण आण्यो त्याहें।।
सीता ए बाड़ी कराछे मृग आव्यो तेने द्वार,
कुंदन जेवी त्वचा झलके शोभा नो नहि पार।।
गुजराती गिरधर रामायण अरण्यकाण्ड अध्याय १२-४२-४३
रावण वृक्षों के कुंज के अन्दर छिपकर वन में बैठ गया। तदनन्तर मारीच दो मुँहवाला हिरण बनकर तत्क्षण वहाँ आ गया। सीताजी ने जो उद्यान (बगीचा) तैयार किया था, उस स्थान में वह मृग आ गया। वह अत्यन्त ही सुन्दर था। उस पर रत्न जैसे बुट्टे झलक रहे थे। अनेक प्रकार के रंग उसके शरीर पर दिखाई दे रहे थे। वह मृग एक मुख से हरी घास चर रहा थ, तो दूसरे मुँह से चारों तरफ देख रहा था। मृग को देखकर सीता मोहित हो गई। सीताजी ने सोचा कि उस हिरण की चमड़ी अत्यन्त कोमल है। उसकी कंचुकी (चोली) बनवा लूँ। ऐसा सोच विचार करके सीताजी ने श्रीराम से कहा- हे महाराज, यह देखिये वह मृग जिसकी त्वचा सोने की सी है। अत: हे भगवान इस मृग का वध करके उसके चर्म की मेरे लिए कंचुकी बनवा दीजिए। सीता ने श्रीराम से कहा- हे स्वामी चौदह वर्ष में से अब थोड़े दिन शेष है। उसके पश्चात् तब उसकी कंचुकी को पहनकर मुझे अयोध्यापुरी में जाना है।
श्रीराम से सीता ने कहा कि यदि आप मेरा कहा हुआ न मानोगे तो मैं अपने शरीर को त्याग दूँगी। यह सुनकर श्रीराम हाथ में धनुष-बाण लेकर तैयार हो गए तथा उन्होंने लक्ष्मण से कहा- सीता की किसी अन्य स्थान पर ले जाकर रक्षा करना। हे बन्धु! सावधान होकर रहना। यहाँ बहुत से राक्षस विचरण करते हैं। यह कहकर श्रीराम तत्क्षण मृग के पीछे चल दिए। अन्त में श्रीराम ने उस मृग को एक आघात से मार डाला। इधर लक्ष्मणजी पंचवटी में पर्णकुटी के बाहर खड़े होकर उनकी रक्षा कर रहे थे। तब रावण ने यह देखा कि श्रीराम मृग के पीछे-पीछे चले गए हैं। इधर लक्ष्मण आश्रम में है। अत: मैं कपट करके लक्ष्मण को यहाँ से निकाल दूँगा तो मेरा कार्य सिद्ध हो जाएगा।
पछे रामना जेवो स्वर काढ़ी ने, रावणे पाडी रीर,
हुं महासंकटमां पड्यो छु माटे, धाजो लक्ष्मण वीर।
गुजराती गिरधर रामायण अरण्यकाण्ड अध्याय १४-१५
अनन्तर श्रीराम के स्वर जैसा स्वर उत्पन्न करके रावण चिल्ला उठा। हे भाई लक्ष्मण मैं बड़े संकट में पड़ गया हूँ। अत: दौड़कर आ जाना। सीता ने यह सुना तथा उनके मन में शोक उत्पन्न हो गया। सीताजी ने कहा- हे देवरजी शीघ्र जाओ। बिना भाई के युद्ध में जाकर कौन आज संकट में सहायता कर सकता है। युद्ध में बन्धु और संकट में मित्र, बुढ़ापे में स्त्री और विषम (कठिन समय) में पुत्र पिता की निश्चय ही देखभाल एवं रक्षा करता है। इसलिए हे लक्ष्मण असुरों ने तुम्हारे भाई को घेर लिया है। अत: उनकी सहायता के लिए तुरन्त चले जाओ। तब लक्ष्मण ने कहा हे सीताजी सुनिए। ये कुछ कपट वचन जान पड़ते हैं। श्रीराम देवो के देव हैं, उनको कोई संकट हो ही नहीं सकता।
लक्ष्मण ने कहा कि श्रीराम मुझे आपकी रक्षा हेतु सौंप गए हैं। अत: मैं विवश हूँ। सीताजी ने तब अत्यन्त कटु शब्द कहे तथा कहा कि आन्तरिक कपट के साथ तुम भाई का बुरा चाह रहे हो। लक्ष्मण ने सीताजी से कहा कि आप माता हैं तो मैं आपका पुत्र हूँ। मैं मन में ऐसा ही जानता हूँ। श्रीराम को भगवान् जानकर सेवा करता हूँ। तदनन्तर उन्होंने उस समय कुटी के पीछे धनुष से रेखा खींच दी तथा वे बोले- हे जानकी, बिना हमारे (लौट) आए यदि आप बाहर निकलें तो आपको श्रीराम की शपथ है। मैं निश्चयपूर्वक यह कह रहा हूँ कि बिना हमारे लौट आए जो यह रेखा लाँघकर कुटी में प्रवेश करेगा, वह प्राणी जलकर भस्म हो जाएगा। तत्पश्चात् रावण ने सीताजी को लक्ष्मण रेखा को पार करने के लिए विवश किया। जटायु से उसका युद्ध हुआ तथा उसके पंख काटकर घायल कर दिया। अंत में सीताजी का हरण कर लंका ले गया।
मैथिली रामायण रचयिता चन्द्रा झा में लक्ष्मण रेखा प्रसंग
रावण ने मारीच को अपने रथ पर चढ़ा लिया और रथ को रामजी के आश्रम में ले गया। मारीच मायावी हिरण बन गया। उसका रंग सोने का था और उस पर चाँदी के रंग की चित्तियाँ थी। उसकी आँखें नीलम जैसी थी। उसकी उछल-कूद को देखकर लगता था कि मानों वह बिना पंखों के ही उड़ रहा है। सींग रत्नों के और खुर मणियों के थे। वह घूम-घूमकर आश्रम के पास दौड़ रहा था। वह कभी सीताजी के पास आ जाता तो कभी दूर चला जाता।
राम बुझल दशवंदन-प्रपञ्च। वैदेही के कहलाने शल्च।।
अहँ एक माया-देह बनाउ। कुटी-मध्यकल कौशल जाउ।।
एक वर्ष रहु अग्नि समाय। पुन आयब लेब संग लगाया।।
रावण-बधक निकट अछिकाल। होयत मायाचारत विशाल।।
चन्द्रा झा कृत मैथिली रामायण अरण्यकाण्ड अध्याय ७-१ से ४
श्रीराम तुरन्त समझ गए कि यह सब रावण की चाल है। उन्होंने धीरे से सीता से कहा- तुम माया का शरीर बना लो और चुपके से कुटी के भीतर चली जाओ। एक साल तक अग्नि के बीच समाई रहना। उसके बाद मैं आऊँगा और तुम्हें अपने साथ कर लूँगा। रावण के वध का समय आ गया है। अब माया का विस्तार किया और मायामय नारी बन गई। माया की सीता ने हंसकर कहा हे स्वामी, सोने का हिरण होता है, यह तो कभी कानों से सुना नहीं। हिरण का शरीर सोने का है, उस पर रत्नों की चित्तियाँ है। इसे मैं पालूँगी आश्रम में बाँध कर रखूँगी। खाना खिलाऊँगी, पानी पिलाऊँगी आदि।
इतना सुनकर श्रीराम धनुष बाण लेकर चलने को तैयार हो गए तथा जाते हुए लक्ष्मण से कहा हे लक्ष्मण तुम सीता की रक्षा करना। आश्रम के बाहर मत जाना। राक्षस बहुत अधिक मायावी होते हैं। यह सुनकर लक्ष्मण ने श्रीराम से कहा कि यह सोने का हिरण मुझे मारीच राक्षस लगता है जो कि कपट वेष धारणकर यहाँ आ गया है।
श्रीराम ने लक्ष्मण को पुन: सीता की रक्षा हेतु होशियार रहने का कहा। हिरण ने श्रीराम को खूब थकाने की कोशिश की तथा अन्त में श्रीराम का तीर उस मृग को लग गया।
हा हम मुइलहुँ लक्ष्मण दौड़, कहि कहि मरती बेरि।।
से मारीच अपन तन धयलक जनन मरण नहि फेरि।।
चन्द्रा झा कृत मैथिलीरामायण अरण्यकाण्ड अध्याय ७-२५-२६
मारीच ने ऐसी आवाज निकाली हाय मैं मरा। हे लक्ष्मण दौड़ो। ऐसा बोलकर मारीच ने मरते समय अपना वास्तविक राक्षस रूप धारण कर लिया तथा वह अगले जन्म-मरण के चक्र से मुक्त हो गया। जानकीजी ने अपने कानों से सुना हाय लक्ष्मण दौड़ो। मैं मरा। सीताजी ने कोई दूसरा उपाय न देखकर लक्ष्मण से कहा हे मेरे देवर तुम्हारे भाई को राक्षस ने घायल कर दिया। मैंने उनकी चीख पुकार सुनी। तुम पलभर की देर मत करो अन्यथा अनर्थ हो जाएगा। लक्ष्मण ने सीताजी से कहा कि श्रीराम में तीनों लोकों को नाश करने की शक्ति है। आप व्यर्थ चिन्ता कर रही हैं।
यह सुनकर सीताजी ने कहा- तुम्हारे मन में जो भी कपट पाप है वह सब अब मैं जान गई हूँ। श्रीराम स्वप्न में भी यह नहीं जानते थे कि तुम उनकी स्त्री को हड़पने वाले हो। भरत ने यह सब सिखा-पढ़ाकर तुम्हें वन में भेजा है। आज तुम्हारा मनोरथ पूरा हो गया। भरत और तुम्हारे अधीन मैं रहने के पहले ही प्राण त्याग दूँगी। यह सब सुनते ही लक्ष्मण ने अपने हाथों से दोनों कानों को मूँद लिया। लक्ष्मण बोले भारी अनर्थ हुआ। विधाता ने मुझे बड़ा दु:ख दिया है। इतना कहकर लक्ष्मण ने वनदेवी से कहा- देखिए मैंने सीता के तीर जैसे तीखे वचन सह लिये। मैं दोनों हाथ जोड़कर कहता हूँ आप सुनिये। मैं सीताजी को अकेली छोड़कर जाता हूँ।
हम कहइत छी दुइ कर जोड़ि। सीताकाँ जाइत घी छोड़ि।।
सोपि देल अछि अपनेकँ हाथ। हम चललहुँ जत छथि रघुनाथ।।
धनुष-रेख-बाहर जनि जाउ। वञ्चक वचनन कि घुपपतिआउ।।
चन्द्रा झा कृत मैथिलीरामायण अरण्यकाण्ड अध्याय ७-५५ से ५७
मैं दोनों हाथ जोड़कर कहता हूँ आप सुनिये। मैं सीता को अकेली छोड़कर जाता हूँ, तत्पश्चात् लक्ष्मणजी ने सीताजी से कहा- मैं धनुष से लकीर खींच देता हूँ। आप उस लकीर (रेखा) से बाहर मत जाइए तथा ठगों की बात पर विश्वास मत कीजिएगा।
लक्ष्मणजी के जाने के बाद रावण संन्यासी के वेश में आया तथा सीताजी को विवश कर हरण कर लिया। जटायु ने रावण से युद्ध किया तथा रावण ने दोनों पंखों को काट कर घायल कर दिया।
प्रेषक
डॉ. नरेन्द्रकुमार मेहता
‘मानसश्रीÓ, मानस शिरोमणि, विद्यावाचस्पति एवं विद्यासागर