अपने अनूठी एवं विस्मयकारी राजनीतिक ताकत से शरद पवार ने महाराष्ट्र में सरकार बनाने की असमंजस्य एवं घनघोर धुंधलकों के बीच जिस तरह का आश्चर्यकारी वातावरण निर्मित किया, वह उनके राजनीतिक कौशल का अद्भुत उदाहरण है। महाराष्ट्र में राजनीतिक नाटक का जिस तरह पटाक्षेप हुआ है उससे यही सिद्ध हुआ है कि इस राज्य में श्री शरद पवार के कद को छू पाना किसी अन्य क्षेत्रीय नेता के बस की बात नहीं है। मगर पूरा नाटक भी उन्हीं की पार्टी और उनके ही घर में विद्रोह हो जाने की वजह से हुआ। लेकिन इन बदली राजनीतिक फिजाओं एवं बाजी को उन्होंने जिस राजनीतिक परिवक्वता, साहस एवं दृढ़ता से पलटा और एनसीपी, कांग्रेस एवं शिवसेवा की शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे के मुख्यमंत्री के नेतृत्व में सरकार बनाने का रास्ता साफ किया। भले ही महाराष्ट्र में चुनाव के बाद से ही लोकतांत्रिक मूल्य तार-तार होते रहे हो, राजनीति में दलबदल एवं अनैतिकता को बल मिलता रहा हो, लेकिन सत्ता पाने के लिये किसी भी दल ने राजनीति में नैतिक मूल्य एवं लोकतांत्रिक सिद्धान्तों को जीने का साहस नहीं दिखाया, यह एक त्रासद एवं विडम्बनापूर्ण स्थिति का बनना दुःखद एवं चिन्ताजनक है। राज्यपाल की भूमिका एवं गठबंधन के दौर में राजनीतिक उलझनों के फैसले सुप्रीम कोर्ट में होना भी परेशानी का सबब है। सरकार बनाने की प्रक्रियाओं को पारदर्शी एवं लोकतांत्रिक मूल्यों की परिधि में बनाने का स्पष्ट रास्ता दिखाना स्वस्थ एवं आदर्श लोकतंत्र की प्राथमिकता होनी ही चाहिए।
महाराष्ट्र में यकायक बनी देवेंद्र फड़णवीस सरकार को बहुमत परीक्षण के पहले ही जिस तरह इस्तीफा देने को विवश होना पड़ा उससे भाजपा ने सहानुभूति एवं जन-विश्वास हासिल करने का मौका तो खोया ही, नरेन्द्र मोदी के कद को भी गिराया है। मोदी के चैकाने वाले निर्णय एवं रातोरात बाजी पलटने के अनूठेपन को भी आघात लगा है, विपक्षी दलों सहित आम जनता एवं राजनीतिक विश्लेषकों को अब मोदी के खिलाफ बोलने की जगह भी मिल गयी है। क्यों भाजपा ने सोच-विचार किए बिना ही अजीत पवार पर भरोसा कर लिया? कहीं वह सत्ता के लालच में अजीत पवार के झांसे में तो नहीं जा फंसी? हैरत नहीं कि अजीत पवार ने शरद पवार से छिटकने का दिखावा इसीलिए किया हो ताकि भाजपा को न सत्ता मिले और न ही सहानुभूति और उसका जनाधार भी गिरे। जो भी हो, भाजपा को सरकार गठन के मामले में उतावलापन दिखाने से बचना चाहिए था। आखिर उसने कर्नाटक के अनुभव से कोई सबक क्यों नहीं सीखा? राजनीतिक नफा-नुकसान की परवाह न करते हुए भाजपा ने जिस तरह सरकार बनाई और फिर गंवाई उससे उसके विरोधी दलों को खुद को सही साबित करने का एक बड़ा मौका मिला है। यह कहने का भी मौका भी दिया कि सत्ता के लिए यह दागी का समर्थन भी ले सकती है। कभी उसकी रणनीति अचूक मानी जाती थी, लेकिन अब विपक्ष को खिल्ली उड़ाने का मौका मिला है। जिसका झारखंड तक असर जा सकता है। शिवसेना के साथ आने से महाराष्ट्र में यूपीए ज्यादा मजबूत हुआ है। इसकी मुख्यघटक कांग्रेस की सॉफ्ट हिंदुत्व की छवि बनाने की कोशिश भी इस नए गठजोड़ से परवान चढ़ सकती है। कांग्रेस को मुस्लिम परस्त छवि से छुटकारा भी मिलेगा। लेकिन इन स्थितियों से शिवसेना के सामने अस्तित्व बचाने का बड़ा प्रश्न खड़ा हो गया है।
जो शिवसेना कांग्रेस एवं एनसीपी की कट्टर दुश्मन मानी जाती रही है, जिनका दूर-दूर तक वैचारिक एवं सैद्धान्तिक दृष्टि से कोई संबंध नहीं था, उनके बीच कैसे अचानक राजनैतिक एकता मजबूत हो गयी? क्या यह सत्तालोलुपता का लोभ एवं शर्मनाक प्रदर्शन नहीं है? आखिर जनता ने तो भाजपा एवं शिवसेना के गठबंधन को सरकार बनाने का निर्णय दिया था, फिर शिवसेना ने जनता के साथ विश्वासघात क्यों किया? उसे निर्णायक मोड़ पर ही कैसे यह याद आ गया कि भाजपा ने उससे यह वादा कर रखा है कि दोनों दलों के नेता बारी-बारी से मुख्यमंत्री बनेंगे? यह झूठ था, लेकिन वह उसे दोहराने पर अड़ी रही। इसकी वजह उसका यह भरोसा ही था कि अगर उसने भाजपा से नाता तोड़ा तो उसकी धुर विरोधी कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी उसकी सरकार बनाने के लिए आगे आ जाएंगी। ऐसा ही हुआ, लेकिन शायद सब कुछ शिवसेना के मन मुताबिक नहीं हुआ और इसीलिए सरकार गठन में अनावश्यक देरी हुई और लगातार शिवसेना की छिछालेदर होती रही। शिवसेना अपनी और साथ ही लोकतंत्र की जीत के कितने भी दावे करे, इस यथार्थ को कोई नहीं बदल सकता कि महाराष्ट्र की भावी सरकार मौकापरस्ती की राजनीति का शर्मनाक उदाहरण होगी। महाराष्ट्र का जनादेश इसके लिए नहीं था कि शिवसेना विरोधी दलों के साथ मिलकर सरकार बनाए। अब ऐसा ही होने जा रहा है। यह जनादेश के साथ लोकतांत्रिक मूल्यों-मर्यादाओं-सिद्धान्तों का वैसा ही निरादर है जैसा निरादर फड़णवीस सरकार बनने से हुआ था। चूंकि लोकतांत्रिक मूल्यों के अनादर के साथ जनादेश की मनमानी व्याख्या करके पहले भी सरकारें बनती रही हैं इसलिए यह अनिवार्य है कि छल-छद्म एवं अनैतिकताओं को आधार बनाकर सरकार बनाने की स्थितियों पर रोक लगाने के उपाय किए जाने अब जरूरी हो गये हैं। ऐसा नहीं है कि महाराष्ट्र की राजनीति में यह कोई पहली घटना है। यदि राज्य के राजनीतिक इतिहास पर नजर डालेंगे तो आपको पता चलेगा कि मौकापरस्ती वहां पहले भी होती रही है, तीनों राजनीतिक दलों की बैठकों में भी यह चल रहा था, और रातोरात बदले परिदृश्यों एवं तीन दिनों की सरकार के पलटवार में भी यही हुआ।
शरद पवार ने हारी बाजी को जीत में बदलने का अपनी राजनीतिक करिश्मा आखिर दिखा ही दिया, इससे यह तो तय हो गया कि महाराष्ट्र की राजनीति में उनके कद का कोई दूसरा नेता नहीं है। उनकी राजनीतिक परिपक्वता एवं कौशल उन्हें अनूठा साबित करती है। पिछले लम्बे समय से महाराष्ट्र में जिस तरह के राजनीतिक समीकरण बन और बिगड़ रहे थे, वह माहौल लोकतंत्र की स्वस्थता की दृष्टि से उचित नहीं था, वहां हर क्षण लोकतंत्र टूट-बिखर रहा था, लेकिन इन टूटती-बिखरती राजनीतिक स्थितियों के बीच एकाएक शरद पवार ने अपना जादू दिखा ही दिया, सचमुच महाराष्ट्र में हर क्षण बदलते राजनीतिक परिदृश्य हैरान करने वाले थेे। क्योंकि इन परिदृश्यों में कुछ भी जायज नहीं कहा जा सकता। असल में राजनीति में वैसे भी कुछ भी नैतिक एवं जायज होता ही कहा है। बावजूद इसके कुछ तो है शरद पवार में करिश्मा या जादूई चमत्कार सरीका कि वे इस तरह राजनीतिक बाजी को पलट कर सबको न केवल विस्मित कर गये बल्कि स्वयं महाराष्ट्र की राजनीति का सिकन्दर भी साबित कर गये। उनके इस नये राजनीतिक तेवर पर भले ही प्रश्न खड़े किये जा रहे हो, लेकिन प्रश्न तो शिवसेना पर भी हैं कि उसने 30 साल पुरानी दोस्ती क्यों तोड़ी? जनता पूछ रही थी कि जब हमने आपको भाजपा के साथ सरकार बनाने का जनादेश दिया तो उसके साथ सरकार क्यो नहीं बना पाये? एक प्रश्न यह भी है कि शिवसेना इतनी जल्दी बाला साहेब के सिद्धांतों को कैसे भूल गयी? उसके हिन्दुत्व एजेंडे का क्या होगा? सचमुच तीन कट्टर विरोधी पार्टियों के बीच गठबंधन क्यों एवं कैसे स्वीकार्य हुआ। जनता ने तो इस तरह के गठबंधन के लिये अपने वोट नहीं दिये थे? यह तो जनता के मतों की अवहेलना एवं अपमान है। भले ही शिवसेना अध्यक्ष उद्धव ठाकरे इसे लोकतंत्र के नाम पर खेल बता रहे हो। लेकिन उन्होंने सत्तामद में जो किया, वह भी लोकतंत्र का खेल एवं मखौल ही था। महाराष्ट्र में जो कुछ हुआ, उसे मूल्यहीन एचं दिशाहीन ही कहा जा सकता है।
महाराष्ट में चले सत्ता के खेल ने अनेक प्रश्न खड़े किये हैं। महाराष्ट्र की राजनीति पलटने वाले अजित पवार क्यों तो भाजपा के साथ गये और क्यों पुनः लौटे? दरअसल फडणवीस सरकार में डिप्टी सीएम की शपथ लेने के बाद उन पर पारिवारिक, मनोवैज्ञानिक, राजनैतिक दबाव बढ़ता गया। साथ आए विधायक लौट गए। परिवार के सारे लोग नाराज थें। अजित के दिमाग में डाला गया कि अगर परिवार टूटा तो दोष उन पर ही जाएगा। सीनियर पवार ने उन्हें पार्टी से नहीं निकाला था। बहन सुप्रिया सूले की भावुक अपील और उनके पति सदानंद सूले जब उन्हें मनाने पहुंचे तो अजित ने लौटने का अंतिम फैसला कर लिया। एनसीपी नेता प्रफुल्ल पटेल ने भी अहम भूमिका निभाई। लेकिन प्रश्न है कि उनके कारण लोकतंत्र का जो नुकसान हुआ, उसको कैसे जायज ठहराया जा सकता? उसकी भरपाई कैसे होगी?
महाराष्ट्र में लोकतंत्र इतना काला हो जायेगा, या सत्तालोभी उसे इतना प्रदूषित कर देंगे, किसी ने नहीं सोचा। किसी को फायदा तो किसी को नुकसान होना ही है। पर अनुपात का संतुलन बना रहे। सभी कुछ काला न पड़े। जो दिखता है वह मिटने वाला है। लेकिन जो नहीं दिखता वह शाश्वत है। शाश्वत शुद्ध रहे, प्रदूषित न रहे। यह सच है कि हमारे लोकतंत्र में न जाने कितने ऐसे मौके आ चुके हैैं जब निर्णायक जनादेश के अभाव में जोड़-तोड़ से सरकारें बनी हैैं। यह तय है कि आगे भी तब तक बनती रहेंगी जब तक इस सवाल का जवाब नहीं खोजा जाता कि किसी दल को बहुमत न मिलने की स्थिति में बिना जोड़-तोड़ और छल-छद्म यानी लोकतंत्र की हत्या किये सरकार का गठन हो? लोकतंत्र और संविधान की दुहाई देना तभी ठीक है जब राजनीतिक दल इस पर गौर करें कि अनैतिक राजनीति की जड़ें हमारी लोकतांत्रिक प्रक्रिया में ही निहित हैैं। इस पर केवल गौर ही नहीं किया जाना चाहिए, बल्कि इस खामी को दूर भी किया जाना चाहिए। यदि ऐसा नहीं किया जा रहा तो इसका कारण यही हो सकता है कि राजनीतिक दलों को लोकतांत्रिक मूल्यों की हत्या से सुख मिलता है लेकिन कब तक राजनेता यह सुख भोगते रहेंगे और कब तक लोकतंत्र निरीह एवं लाचार बना इन शर्मनाक दृश्यों को देखता रहेगा?
– ललित गर्ग –