कहानी शुरू हुए एक वर्ष से कुछ अधिक ही हो गया होगा, जब मोदी-शाह की जोड़ी ने रमन सिंह, वसुंधरा राजे व शिवराज सिंह को इशारा किया था कि वे अब अपने राज्यों की सत्ता त्यागे व केंद्र में मंत्री पद संभाले। कई मायनों में यह गलत भी न था। तीनों राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने चाहे पहले कितना भी अच्छा काम किया होगा मगर सन 2013 में वे मोदी लहर पर सवार होकर जीते थे। इसमें वसुंधरा व शिवराज की सीटें जितनी अप्रत्याशित थीं, उतनी ही अप्रत्याशित हारते दिख रहे रमन सिंह की किनारे की जीत थी। जीत के बाद ये तीनों अहम का शिकार हो गए। इसी कारण कहीं न कहीं मोदी सरकार के अच्छा करते रहने के बावजूद अपनी प्रतिष्ठा नहीं बचा पा रहे थे व ‘एन्टी इंकम्बेन्सीÓ का सामना कर रहे थे। ऐसे में इनका मुख्यमंत्री के रूप में बने रहना भाजपा हाईकमान यानि मोदी व शाह को गले नहीं उतर रहा था। मोदी और शाह की रणनीति में सन 2019 के लोकसभा चुनावों को जीतने में इन तीनों राज्यों की अलोकप्रिय होती सरकारें बाधा उत्पन्न कर रही थी। इस कारण वे इन राज्यों में नए मुख्यमंत्री बनाना चाहते थे। चूंकि ये लोग मोदी जी के साथ के मुख्यमंत्री रहे हैं इसलिए अपने को नरेंद्र मोदी का समकक्ष मानते हैं। ऐसे में जो पकड़ मोदी-शाह की जोड़ी की शेष भाजपा शासित राज्यों में है वह इन तीनों राज्यो में नहीं थी। ये तीनों मुख्यमंत्री अपनी शैली में सरकारें चलाते रहे व केंद्र से प्रभावी तालमेल की कमी से अपनी-अपनी पैठ व लोकप्रियता जो ये अपने अपने राज्यों में रखते थे, को खो रहे थे। यही बात मोदी-शाह की जोड़ी को खटकती थी। जहां वसुंधरा राजे अपनी दबंगई में किसी की नहीं सुनती वहीं विशेष रूप से मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह भविष्य में मोदी के लिए बड़ी चुनौती बन सकते थे। भैयाजी जोशी के नेतृत्व में संघ की एक बड़ी लॉबी भी इन तीनों मुख्यमन्त्रियों के साथ थी, तो भाजपा में आडवाणी जी, गृहमंत्री राजनाथ सिंह व विदेश मंत्री सुषमा स्वराज की वरदहस्त भी इन पर थी। वास्तव में यह मोदी पूर्व भाजपा की मजबूत मंडली थी जो मोदी जी के आभामंडल के आगे फीकी पड़ गयी थी। इस लॉबी का मानना है कि भाजपा के परंपरागत अगड़े वोट बैंक उनके साथ हैं व मोदी जी ने नए पिछड़े, दलित व आदिवासी वोटबैंक को जोडऩे के चक्कर मे अगड़ों की उपेक्षा की है और नोटबंदी व जीएसटी लागू कर उसकी कमर ही तोड़ दी है। इसीलिए मोदीजी के खिलाफ अगड़ों (ब्राह्मण, क्षत्रिय व वैश्य समाज) को इस लॉबी ने अप्रत्यक्ष रूप से भड़काया व मोदी सरकार के खिलाफ अनेक अभियान व आंदोलनों को हवा दी। इस लॉबी का मानना था कि मोदी सरकार अपनी लोकप्रियता खो रही है व उनके अभियान उसे और अलोकप्रिय बना देंगे, ऐसे में लोकसभा चुनावों में भाजपा 180 सीटों तक सिमट जाएगी। इस स्थिति में एनडीए के घटक दलों को भी मिलाकर मोदी जी बहुमत नहीं जुटा पाएंगे। ऐसे में जबकि अन्य विपक्षी पार्टियों को साथ लाने की जरूरत होगी तब सर्वमान्य चेहरा राजनाथ सिंह हो सकते हैं क्योंकि उनके संबंध सभी राजनीतिक दलों से कहीं ज्यादा प्रगाढ़ हैं व उनके बीच उनकी स्वीकार्यता अटल जी जैसी है। तब विपक्षी पार्टियों के सहयोग से यह लॉबी राजनाथ सिंह को प्रधानमंत्री पद के लिए सर्वसम्मत उम्मीदवार के रूप में आगे कर देगी और मोदी-शाह की जोड़ी हाशिए पर आ जायेगी।
यह स्थिति न आए इसके लिए संघ, पार्टी व सरकार के साथ ही राज्यों पर अपना नियंत्रण रखने के लिए मोदी-शाह के लिए जरूरी था कि इस लॉबी को कमजोर किया जाए क्योंकि लोकसभा चुनावों के समय अगर यह लॉबी हावी हो गयी तो सच में भाजपा बहुमत से खासी पीछे रह सकती है और सत्ता का सिंहासन मोदी जी के नीचे से सरक सकता है। इसके लिए इस जोड़ी ने विशेष रणनीति बनाई।
1) उच्चतम न्यायालय द्वारा एससी एसटी एक्ट में संशोधन के खिलाफ संसद में संविधान संशोधन लाया गया जिससे पार्टी से जुड़ा नया वोटबैंक मजबूत किया जा सके।
2) तीनों राज्यों में तीसरे मोर्चे को खड़ा किया जिसने भाजपा के वोट काटे।
3) तीनों मुख्यमंत्रियों को बदनाम करने के अनेक अप्रत्यक्ष अभियान चलाए गए।
4) जब स्थिति हाथ से निकलने वाली लगे व पुरानी लॉबी घबरा जाए तब चुनाव प्रचार अभियान पर अपना नियंत्रण कर इस तरह अभियान चलाया जाए कि सम्मानजनक हार या किनारे पर जीत मिल जाए।
आप सभी जानते हैं कि यही किया गया और परिणाम आपके सामने है।
मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ व राजस्थान, तीनों का कुल क्षेत्रफल 8 लाख वर्ग किलोमीटर है जो भारत के कुल क्षेत्रफल 32.87 लाख वर्ग किलोमीटर के एक चौथाई यानि 25 प्रतिशत क्षेत्रफल के आसपास है। अब यह भाजपा के कब्जे से बाहर है। दूसरी बड़ी बात, तीनों प्रदेश खनिज संपदा से भरपूर हैं और तीनों में गोवा व गुजरात सहित 2014 के लोकसभा चुनावों से पूर्व भाजपा की सरकारें थी। ऐसे में यह हार व इसके बुरे प्रभावों से निपटना मोदी-शाह के लिए बड़ी चुनौती है। मगर इस जोड़ी को अपने ‘गेम प्लानÓ पर भरोसा है। आज गोवा में मनोहर पर्रिकर की टूटी-फूटी व गुजरात में विजय रुपाणी की तेजहीन भाजपा सरकारें हैं और बाकी तीन राज्य अब हाथ से निकल गए और शिवराज, वसुंधरा व रमन अब मोदी को चुनौती देने लायक नहीं बचे। यानि 2014 से पूर्व के भाजपा क्षत्रपों का पतन और मोदीजी का भाजपा पर वर्चस्व स्थापित। तीनों राज्यों में राजपूत मुख्यमंत्री केंद्र में राजपूत गृहमंत्री राजनाथ सिंह को मजबूत करते थे जो नरेंद्र मोदी के लिए बड़ी चुनौती थे। अब यह गठजोड़ पस्त है और लगे हाथ इनके हाथ मजबूत करने निकले योगी आदित्यनाथ भी कमजोर व प्रभावहीन साबित हो गए। अब यह कहा जा सकता है कि मोदी सरकार ने एससी एसटी एक्ट में संशोधन इसी लॉबी से निबटने के लिए किया था। पहले उच्च वर्ग हिंदुओं को भड़काया गया जिससे इन तीनों राज्यों में भाजपा के वोट बंटे और फिर अंतिम समय राम मंदिर की तान छेड़ कर सम्मानजनक हार या किनारे पर जीत की रणनीति अपनाई गयी। यानि भाजपा की ठाकुर-राजपूत लॉबी हाशिए पर और भाजपा में उभर रहे क्लब 180 की असमय मौत? अब भाजपा पर मोदी-शाह की जोड़ी की पकड़ मजबूत तो हो गयी मगर बड़े नुकसान के बाद।
मोदी-शाह चाहे कितना भी लोकसभा चुनावों में अपनी विजय के लिए आश्वस्त हो मगर राजनीतिक विश्लेषक अगले आम चुनावों में ‘हंग पार्लियामेंटÓ की भविष्यवाणी कर रहे हैं। अनुमान लगाया जा रहा है कि भाजपा 200 से 220 के बीच सिमट सकती है। ऐसे में हो सकता है कि एनडीए स्पष्ट बहुमत तक न पहुंच पाए। ऐसे में सबसे बड़ा दल होने के कारण प्रधानमंत्री तो भाजपा से ही बनेगा मगर शायद नरेंद्र मोदी नहीं। अगर मोदी नहीं तो भाजपा में ऐसा कौन है जो प्रधानमंत्री पद का सबसे ज्यादा स्वीकार्य उम्मीदवार हो सकता है? संघ परिवार में वैश्य लॉबी तो नोटबंदी व जीएसटी के बाद कमजोर हो ही गयी है व सरकार में डॉ हर्षवर्धन, पीयूष गोयल व विजय गोयल ही ले देकर उसका प्रतिनिधित्व कर रहे हैं जिनका कोई जनाधार नहीं। ब्राह्मण लॉबी की मुश्के पहले ही खासी कस दी गयी है, ऐसे में बीमार सुषमा स्वराज व जेटली पहले से ही निस्तेज कर ही दिए गए है। हां नितिन गडकरी ही ले-देकर ऐसे नेता बचे हैं जो अपनी साख व पकड़ मजबूती से बनाए हुए हैं। ऐसे में मोदीजी के नेतृत्व को चुनौती नितिन गडकरी ही दे सकते हैं या फिर स्वयं उनके हनुमान अमित शाह। सन 2014 के बाद जितने भी राज्यों में भाजपा सरकारें आयी हैं उनमें मोदी व शाह की पसंद के मोहरे मुख्यमंत्री हैं और वे मोदी जी के लिए चुनौती नहीं हो सकते।
अब मोदी जी के लिए जरुरी है कि वे अगले कुछ महीनों में कुछ ऐसा क्रांतिकारी कदम उठाए कि देश में सन 2014 के लोकसभा चुनावों के समय जैसा ज्वर पैदा हो जाए और वे अपने दम पर पुन: भाजपा को पूर्ण बहुमत दिला दे। ऐसे में पूरे संघ परिवार पर उनका वर्चस्व कायम हो जाएगा और सरकार भी उनके पूर्ण नियंत्रण में आ जायेगी। किंतु वर्तमान परिस्थितियों में ऐसा आसान नहीं दिखता। नरेंद्र मोदी लगातार विकास व हिंदुत्व की राजनीति के बीच उलझे हैं व अपनी दिशा तय नहीं कर पा रहे हैं। तीनों राज्यों में जीती कांग्रेस पार्टी उत्साह से लबरेज है और विपक्षी पार्टियां उसके पीछे लामबंद होकर महागठबंधन बनाने को उद्धत हैं, अगर वे ऐसा कर पायी तो नरेंद्र मोदी के लिए चुनौतियां बहुत कठिन होंगी। ऐसे में राहुल गांधी तो कम से कम सन 2019 में देश की बागडोर नहीं ही संभाल पाएंगे। किसी भी निष्पक्ष विश्लेषक को संयुक्त विपक्ष को पूर्ण बहुमत मिलने का विश्वास नहीं है। ऐसे में अगर सन 2019 में एनडीए भी बहुमत से दूर रहता है तो क्लब 180 का ख्वाब नए रूप में पुन: जन्म ले लेगा। नरेंद्र मोदी को अधिकांश विपक्षी दल पसंद नहीं करते ऐसे में वे उनके साथ नहीं आएंगे, राजनाथ सिंह अब मजबूत होने की स्थिति में हैं नहीं, तो इस बार इसकी बागडोर मोदी सरकार के सबसे सफल मंत्री नितिन गडकरी के हाथ में ही होगी। ऐसा इसलिए भी कि गडकरी पार्टी के अध्यक्ष के रूप में संघ व कार्यकर्ताओं में बेहद लोकप्रिय रहे व उन्होंने अपने कौशल से डूबी, बिखरी व निराश पार्टी को उभारकर मुख्यधारा में लाया था, केंद्रीय मंत्री के रूप अपने शानदार कार्य से उनकी नौकरशाही, विपक्ष व कारपोरेट घरानों में लोकप्रियता व विश्वसनीयता बहुत अधिक है। स्वयं नरेंद्र मोदी भी उनकी प्रतिभा के कायल हैं और वो उनको समर्थन आसानी से दे सकते हैं। राजनाथ गुट भी ऐसे में गडकरी के पीछे खड़ा मिलेगा, इस बात की संभावना बढ़ गयी है। अमित शाह इस रेस में अनुभव, विश्वसनीयता व नेटवर्क की कमी के कारण पीछे रहेंगे और नरेंद्र मोदी भी उन्हें आगे नहीं करना चाहेंगे। ऐसे में स्पष्ट दिख रहा है कि सन 2019 में अगर मोदी नहीं तो गडकरी।
अनुज अग्रवाल