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वनवासी समाज को तोड़ने के पीछे

अंग्रेजों का भारत को शक्ति, संपदा और शिक्षा पर अधिकार करने का षड्यंत्र

–रमेश शर्मा

भारत में वनवासी या आज की भाषा में जनजाति समाज अलग है और ग्राम्य या नगरीय समाज अलग, यह अभियान पहले अंग्रेजों ने चलाया था अब वामपंथी चला रहे हैं। अंग्रेज ऐसा करके भारत की संपदा, शिक्षा और शक्ति पर पर अपना अधिकार करना चाहते थे, अपनी सत्ता को सशक्त करना चाहते थे । अब इसी रास्ते पर वामपंथी चल रहे हैं। उन्हे भी अपने राजनैतिक पकड़ बनाने के लिये यही मार्ग सूझा । हमें यदि भारत को उसके अतीत की प्रतिष्ठा के अनुरूप स्वर्णिम भविष्य का निर्माण करना है तो षड्यंत्र को समझना होगा ।
अंग्रेजों को यह समझने में कठिनाई नहीं हुई कि “विश्व गुरु” और “सोने की चिड़िया” के रूप में भारत की छवि का आधार वन शक्ति है वन सम्पदा और वन्य समाज दोनों । भारत में शिक्षा, चिकित्सा, वैज्ञानिक अनुसंधान, सैन्य अभ्यास का केन्द्र वनों में ही होता था । कच्चे माल की आपूर्ति भी वनों से होती है और वनवासी समाज ही इन सबकी सुरक्षा और समन्वयक की भूमिका का निर्वाह करता था । भारत की इस ज्ञान और धन में सर्वश्रेष्ठता से आकर्षित होकर ही संसार भर के लोग भारत आये । वे इसके कारक सूत्र समझने केलिये नगर या गाँव तक सीमित न रहे, वनों में भी गये । यदि वनों में न जाते तो सिकन्दर के समकालीन अरस्तू और इसके बाद फाईयान और हुयेनसाँग के लेखन में भारतीय वनों का विवरण न मिलता । उन लोगों ने जाना कि भारत की इस सर्वोच्चता का आधार वन और वनवासी ही हैं । वनों से कच्चा खनिज, औषधीय जड़ी बूटियाँ और मसाले आदि वनोपज के रूप में गाँव में आते थे । गाँव के शिल्पज्ञ उनका शोधन या प्रोसेसिंग करके पैकेज बनाकर संसार भर में निर्यात करते थे । बदले में स्वर्ण आता था । पूरा संसार इसी से आकर्षित होकर भारत आया । कोई सीखने के लिये, कोई कोई लूटने के लिये और कोई ज्ञान और धन की इस संपदा पर अधिकार करने ।
भारत पर हुये आक्रमणों को हम तीन प्रकार से देख सकते हैं। सबसे पहले सिकन्दर से लेकर शक, हूण कुषाण आदि के आक्रमण सत्ता विस्तार के लिये हुये थे । इसलिए ये हारे हों या विजयी हुये हों इन्होंने भारतीय समाज व्यवस्था में कोई हस्तक्षेप नहीं किया । आक्रमणों का दूसरा क्रम सातवीं शताब्दी से आरंभ हुआ । इनका मुख्य उद्देश्य लूट था । लेकिन अपनी लूट को धार्मिक आवरण से ढंककर सामाजिक हस्तक्षेप किया और बल पूर्वक धर्मान्तरण आरंभ किया । सत्ता की स्थापना के बाद भी यह समूह लूट ,हत्या और स्त्री हरण के अभियान चलाता रहा । यदि इन हमलावरों का उद्देश्य लूट और स्त्री हरण न होता तो बाबर, अहमदशाह, नादिर शाह आदि के आक्रमण दिल्ली पर न होते चूँकि तब तो दिल्ली पर इस्लामिक सत्ता ही रही थी । इन सबका उद्देश लूट और स्त्री हरण ही रहा । तीसरा क्रम यूरोपीय जनों का है । इनका उद्देश्य भी धन और सत्ता हथियाना ही था । पर ये धन लूट के माध्यम से नहीं व्यापार के माध्यम से और सत्ता षड्यंत्र के माध्यम से अर्जित करना चाहते थे । भारतीय समाज को आपस में लड़ाना इनके षड्यंत्र का मुख्य अंग था । इसके लिये उन्होने वनवासियों शेष समाज से तोड़कर और वन संपदा पर अधिकार करने की चाल चली। अंग्रेजों ने वन शक्ति की महत्ता का सर्वेक्षण पन्द्रहवी शताब्दी में किया था और चर्च के माध्यम से सोलहवीं शताब्दी से अपना अभियान चलाया जिसे सेवा, शिक्षा और सुविधा देने का आवरण दिया । पर इसकी चर्चा भारतीय अभिलेखों में आरंभ से नहीं 1773 के बाद से मिलती है । अंग्रेजों और यूरोपियन के आरंभिक अभियान का विवरण न मिलने का कारण यह है कि इतिहास सदैव दूसरे अध्याय से लिखा जाता है । पहले अध्याय के विन्दु इतने सूक्ष्म होते हैं कि उल्लेख से छूट जाते हैं। किसी नये क्षेत्र में कोई भी युद्ध या व्यापारिक अभियान यूँ ही मुँह उठाये नहीं होता । पहले सर्वे होता है, समाज शक्ति और संपदा का आकलन किया जाता है फिर कदम बढ़ाया जाता है । भारत पर मध्य ऐशिया के आक्रमण हों या यूरोप के व्यपारिक अभियान। इन दोनों ने भी ऐसा ही किया । भारत पर 712 में मोहम्मद बिन कासिम का आक्रमण हो अथवा पन्द्रह वीं शताब्दी से यूरोपीय जनों का आगमन हो । इन सबने अपने उद्देश्य पूर्ति के लिये पहले एजेन्ट भेजे । स्थानीय समाज और सत्ता दोनों का अध्ययन किया । सूचनाएँ भेजी, मार्ग निर्धारित हुये, मार्ग में सहयोगियों की सूची बनी, उनसे सौदा तय हुआ फिर इनके दलों का आवागमन आरंभ हुआ । लेकिन इतिहास की किसी पुस्तक में इन सर्वे टीमों का कोई उल्लेख नहीं है । यह सर्वे टीम का निष्कर्ष ही होगा कि अंग्रेजों ने जो सूरत में अपना पहला कारखाना खोला वह वनोपज पर आधारित था । इस बहाने उन्होंने अपनी पकड़ बनाना आरंभ की । वनवासी भारतीय व्यापारियों को अपनी उपज या संग्रह न बेचे उन्होने भारतीय व्यापारिक समाज को “आर्य” बताया और कहा कि आर्य हमलावर थे । जबकि ऋग्वेद में स्पष्ट है कि आर्य कोई नस्ल नहीं अपितु एक श्रेष्ठ नागरिक होने की आचार संहिता है । किंतु लगातार आक्रमणों से हलकान भारतीय समाज अपने ही ग्रंथों के संदेश से दूर हो गया था । अंग्रेजों ने इसी का लाभ उठाया । यहीं तक नहीं रुके । वन्य क्षेत्र में उनके चर्च और मिशनरी का मानों जाल बिछ गया और वनवासी बंधुओं का मतान्तरण आरंभ कर दिया । उन्होंने वन में रहने वाले समाज का नाम ट्राइवल दिया जिसे हिन्दी में आदिवासी कहा । अंग्रेज जब सत्ता में आये तो उन्होने एक कानून भी बना दिया कि आदिवासियों का कोई धर्म नहीं होता । यह कानून बनाने के पीछे उनका षड्यंत्र यह था कि यदि कोई आदिवासी ईसाई धर्म में दीक्षित हो तो यह मतान्तरण धर्मान्तरण कानून के दायरे में न आ सकें । अपने लगातार अभियान से उन्होंने वनवासी समाज को शेष समाज से काटकर अलग किया और शोषण आरंभ कर दिया । उन्होंने समूची वन संपदा पर अपना अधिकार घोषित करके वनवासियों को भुखमरी के कगार पर छोड़ दिया । जिन वनवासियों ने आवाज उठाई उनका दमन किया, सामूहिक नर संहार किये । अंग्रेजों द्वारा किये गये नर संहार के विवरण बंगाल, बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ और मध्यप्रदेश के महाकौशल क्षेत्र के इतिहास में मौजूद हैं किंतु उनका मिशनरी नेटवर्क इतना तगड़ा है कि इन सामूहिक नरसंहार का कोई सक्षम प्रतिरोध न हो सका । अंग्रेज सत्ता से भले गये पर वनवासी क्षेत्र में उनका मिशनरी नेटवर्क यथावत रहा । अपने पहले की सभी सुविधाओं के साथ ।
अब अंग्रेजों को भारत से गये पचहत्तर वर्ष बीत गये । हम स्वतंत्रता का अमृत महोत्सव मना रहे हैं पर देश में अंग्रेजों के इस षड्यंत्र से मुक्त नहीं हो पाये कि वनवासी अलग और ग्राम या नगर वासी अलग। अंग्रेजों द्वारा अलगाव के लिये जो कानून बनाए थे वे भी यथावत हैं । मिशनरी नेटवर्क को कानूनी संरक्षण भी है । अंतर इतना हुआ कि अब ट्राइवल और आदिवासी शब्द के साथ जनजाति शब्द भी उपयोग करने लगे ।
भारत का अमृत महोत्सव को सार्थक करने के लिये यह आवश्यक है कि प्रबुद्ध जनों को सामाजिक स्तर पर राष्ट्रीय और सामाजिक एकरूपता का अभियान चलाना चाहिये । भारतीय वाड्मय में सामाजिक स्वरूप और वन ग्राम और नगर की त्रिस्तरीय समाज रचना का सत्य और अंग्रेजों के बाँटो और राज करो के षड्यंत्र से समाज को जाग्रत करना होगा तभी हम भारत की खोज हुई प्रतिष्ठा की पुनर्स्थापना कर सकेंगे।

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