2019 के चुनाव परिणाम सिर्फ मोदी की सत्ता में वापसी मात्र नहीं है बल्कि वामपंथियों के उस चक्रव्यूह पर भी करारी चोट है जो भारत को सनातन संस्कृति से दूर करने का षड्यंत्र रचते रहे हैं। इसके साथ ही खान मार्केट और लुटियन की राजनीति करने वाले उस बौद्धिक अय्याश वर्ग को भी सदमा पहुंचा है जो सिर्फ नकारात्मकता को उभारता है। उसे हर चीज़ में खोट दिखाई देती है। कभी उसे भारत में असहिष्णुता दिखाई देती है तो कभी भारत तेरे टुकड़े होंगे कहने वालों में देशभक्ति। कभी उसे रामायण और महाभारत जैसे धार्मिक ग्रंथ हिंसात्मक दिखते हैं तो कभी सनातनी परम्पराएं ढकोसला। कुल मिलाकर हर वह चीज़ जो भारत को अखंड बनाने की तरफ जोड़ती दिखती है वह इस खेमे के निशाने पर आ जाती है। इस खेमे की बौद्धिक उपज सिर्फ दिल्ली तक सीमित नहीं हैं बल्कि पूरे देश में विभिन्न क्षेत्रों में फैली हुयी हैं। कांग्रेस के रूप में इस वामपंथी विचारधारा को राजनीतिक प्रश्रय भी मिलता रहा। इनके चेहरे तब बाहर आए जब 2014 में भाजपा की सरकार बनने के बाद इस खेमे को बड़ा सदमा लगा और इसने तरह तरह के छल प्रपंच रचे। तब पुरुस्कार वापसी गैंग के जरिये इससे लाभान्वित लोगों का पूरा खेमा जगजाहिर हो गया। मैकाले ने जिस शिक्षा पद्धति के माध्यम से यह फौज तैयार करने की परिकल्पना की थी उसे इन लोगों ने अंग्रेजों के जाने के बाद भी खूब पुष्पित पल्लवित किया। सेकुलर और सांप्रदायिक जैसे शब्दों के द्वारा इन्होंने जो समाज में विष घोला उसके शिकार ये लोग स्वयं हो गए।
अमित त्यागी
सनातन परंपरा में कहा जाता है कि विधि के विधान के अनुसार ही इस मृत्युलोक में कार्य होते हैं। 2014 के चुनाव परिणाम शायद विधि के द्वारा ही रचे गए थे। इसके बाद 2019 के लोकसभा चुनाव के दौरान जिस तरह से विपक्ष के द्वारा मोदी को घेरा जा रहा था, जिस तरह से मोदी हटाओ देश बचाओ की परिकल्पना पर अलग अलग विचारधाराओं द्वारा आपसी सामंजस्य बैठाने की कोशिश की जा रही थी वह भी जनता ने साफ देखा। इन सबके बीच सभी दलों के नेताओं द्वारा बयान के माध्यम से एक दूसरे पर कीचड़ उछाला गया। पर कई बयानों के पीछे भारत को कमजोर करने की वह मानसिकता काम कर रही थी जिसमें लक्ष्य स्वयं की जीत नहीं था बल्कि सिर्फ और सिर्फ मोदी और राष्ट्रवाद को कमजोर करना था। इन सबके द्वारा जनता के बीच एक संदेश साफ था कि मोदी को हटाने के नाम पर एकजुट होने वाले इन दलों और उनके नेताओं को आखिरकार मोदी से दिक्कत क्या है? इसका जवाब जनता को इन नेताओं पर लगे आरोपों और चल रहे मुकदमों में मिलता था। इनके परिवारवाद और भाई भतीजावाद में मिलता था। इन दलों पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों में मिलता था।
धीरे धीरे जनता में यह बात घर कर गयी कि मोदी हटाने के नाम पर चल रही यह राष्ट्रीय मुहिम सिर्फ और सिर्फ स्वयं के हितों की पूर्ति के लिए हैं। जनता के हितों से इस मुहिम का कोई सरोकार नहीं है। जनता के अंदर इस समझबूझ बढऩे की एक बड़ी वजह सोशल मीडिया पर उसका सक्रिय होना एवं संचार माध्यमों से उस तक सूचनाओं का पहुंचना भी रहा। टीवी पर चल रही बहसों का तो जनता पर इतना प्रभाव नहीं था जितना जियो के सस्ते डेटा के बाद मोबाइल पर आने वाली सूचनाओं का। 2014 के बाद जिस तरह से वामपंथियों के दुष्प्रचार को भाजपा खेमे के द्वारा सोशल मीडिया के माध्यम से उभारा गया उसके बाद आम जनमानस यह अच्छी तरह समझने लगा था कि इनका अजेंडा क्या है। चूंकि, भारत का आम जनमानस भावुक प्राणी है और देश से प्यार करने वाला है इसलिए वह बौद्धिकता के आवरण के पीछे छिपे दुराग्रह को समझने में सक्षम हो गया है।
वैचारिक दुराग्रह फैलाने वाले वामपंथी भारत की संस्कृति और पौराणिक घटनाओं पर भी समय समय पर चोट करते रहते हैं। जैसे रामायण और महाभारत में इन लोगों को हिंसा का दर्शन दिखाई देता है। इन महाकाव्यों में जो परिवार, राष्ट्र एवं धर्म रक्षा का दर्शन है वह इन वामपंथियों को कहीं दिखाई नहीं देता है। वामपंथ के बड़े नेता सीताराम येचुरी का एक बयान इस संदर्भ में महत्वपूर्ण है। ”यह कहना गलत है कि हिन्दू हिंसा में विश्वास नहीं रखते। रामायण और महाभारत जैसे महाकाव्य हिंसा से भरे हुये हैं।’’ एक बड़े वामपंथी नेता का यह बयान अकारण नहीं था। इसके पीछे वह मानसिकता छुपी है जिसके प्रचार के द्वारा हिन्दू धर्म से जुड़ी विभिन्न जातियों के बीच यह लोग मतभेद पैदा करते हैं। फूट डालो और राज करो की अंग्रेजी मानसिकता का यह भारतीय प्रारूप है। विदेशी शक्तियों के द्वारा इस सोच को ईंधन दिया जाता है। चूंकि आज़ादी के छह दशक बाद तक आम जनमानस इस विचारधारा को नहीं समझ पा रहा था इसलिए वह इनके हिडेन एजेंडे को नहीं समझता था। सोशल मीडिया के सक्रिय होने के बाद यह एजेंडा आम आदमी को भी समझ आने लगा। 2019 के चुनाव परिणाम का आंकलन करते समय बड़े बड़े राजनीतिक पंडित जनता के बीच की इस भावना का मूल्यांकन करने में चूक जाते हैं। राजनीतिक दल ईवीएम की आड़ में अपनी हार छुपाते हैं तो वामपंथी विचारधारा सेकुलर छवि का रोना रोती है। शायद यही वामपंथी विचारधारा के पतन की शुरुआत का कारण रहा। 2014-2019 इस दौरान संक्रमण काल रहा। पश्चिम बंगाल में एक लंबे समय तक राज करने वाले वामपंथी अब वहां से भी सिमट गए हैं। इकलौते केरल में इनका राजनीतिक अस्तित्व आज भी कायम है। दिल्ली के बौद्धिक गलियारों में इनका बौद्धिक उत्पात मचा रहता है। उसका जनता के सरोकारों एवं जनता से कोई लेना देना नहीं होता है। सिर्फ और सिर्फ एक नेरेटिव सेट करना एवं अंदर की कुंठा निकालने के अतिरिक्त इसमें कुछ नया नहीं दिखता है। अब इस वामपंथी विचारधारा को समझ लेना चाहिए कि भारत की जनता समस्या और सिर्फ समस्या दिखाने वालों को पसंद नहीं करती है। वह चाहती है कि समाधान सामने आये। समाधान देने में वामपंथी खेमा हमेशा पीछे रह जाता है।
सौ साल की मानसिक ग़ुलामी को ढोती विचारधाराएं
यदि सौ साल पहले के राजनीतिक परिदृश्य पर लौटें तो अंग्रेजों के शासन के समय आज की कई बड़ी विचारधाराओं का एक साथ उदय हुआ था। 1906 में मुस्लिम लीग बनी जिसका देश के लिये योगदान भारत का बंटवारा था। इस एक्शन के रिएक्शन में 1915 में हिन्दू महासभा बनी। फिर 1925 में कम्यूनिस्ट पार्टी बनी और इसी वर्ष राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारधारा भी सामने आई। एक ओर कम्यूनिस्ट पार्टी एक राजनीतिक संगठन था तो दूसरी तरफ आरएसएस एक वैचारिक और सांस्कृतिक संगठन तक सीमित था। इसके पहले अंग्रेजों द्वारा अपने राजनीतिक हितों की पूर्ति के लिये 1885 में कांग्रेस की स्थापना की गयी थी। इन संगठनों के समय काल और तत्कालीन परिस्थितियों का विश्लेषण करने से एक बात तो साफ दिखती है कि उस समय के राजनीतिक दलों पर अंग्रेजों का प्रभाव था। अपने हितो को साधने के लिये अंग्रेज़ कुछ राजनीतिक विकल्प देश के सामने रख रहे थे। उसमें जुड़े लोग भारतीय दिखते थे किन्तु उनके स्वार्थ और लक्ष्य अंग्रेज़ी नीतियों से पूरे होते थे। चाहे एक अंग्रेज़ ए ओ हयूम के द्वारा शुरू की गयी कांग्रेस हो या जिन्ना की मुस्लिम लीग, इनके द्वारा अंग्रेजों ने सिर्फ और सिर्फ अपनी नीतियों को राजनीतिक अमली जामा पहनाया। इसके बाद देश का बंटवारा हो गया और अंग्रेज़ अपने पदचिन्हों पर चलने वाले लोग पीछे छोड़ गए। सनातन धर्म के अंदर की कुरीतियों को उजागर करके उनका समाधान करने के स्थान पर उनका राजनीतिक इस्तेमाल का जिम्मा वामपंथियों के हिस्से आया। वह भारत के सांस्कृतिक गौरव और सनातनी परम्पराओं का विकृत रूप दिखाने लगे। दलित और पिछड़े वर्ग की जातियों में सवर्णों के प्रति घृणा इनका सुनियोजित एजेंडा बन कर समानान्तर चलता रहा। मुस्लिम तुष्टीकरण की राजनीति उसका अगला पड़ाव थी। वामपंथी विचारधारा के लोग सिर्फ उनके दल में हो, ऐसा भी नहीं है। कांग्रेस के अंदर भी इसी विचारधारा के लोग बैठे थे जो हिन्दू धर्म की आस्थाओं पर चोट कर रहे थे। आम जनमानस को इसका आभास तब हुआ जब कांग्रेस सरकार द्वारा रामसेतु को मानने से इंकार कर दिया गया। इसके लिये बाकायदा उच्चतम न्यायालय में एक हलफनामा दिया गया। वामपंथी विचारधारा ने रामायण को एक काल्पनिक कहानी तक बता दिया। भारत की नस नस में बसे प्रभु राम तब शायद स्वयं आहत हुये। इसके बाद ही कांग्रेस की सरकार के स्थान पर 2014 में भाजपा को प्रचंड जीत मिली। सीताराम येचुरी का रामायण और महाभारत पर दिये गये बयान के निहितार्थ यहां से समझ आते हैं। रामसेतु पर सरकार का हलफनामा एवं सीताराम येचुरी का बयान देश को किस विचारधारा से चलाना चाहते हैं शायद अब इसे बताने की आवश्यकता नहीं है।
इसके साथ ही एक बात और समझना बेहद आवश्यक है कि इस विचारधारा और इन दलों के साथ जुड़े लोग कोई विदेशी नहीं हैं। अपने ही लोग हैं। इसी देश के रहने वाले हैं। हमारी तरह ही दिखते हैं। हमारे जैसे ही बात करते हैं। बस विचारधारा राष्ट्रनिर्माण की नहीं रखते हैं। अब जिस तरह से देश में विचारधारा की लड़ाई के नाम वामपंथ और राष्ट्रवाद आमने सामने आ खड़ा हुआ है उसमें दोनों तरफ से बयान आने लगे हैं। जनता को दोनों के बयानों से आभास होने लगा है कि किसका एजेंडा क्या है। बंगाल में मुस्लिम तुष्टीकरण की वामपंथी सोच जिसको अमली जामा वहां ममता बनर्जी पहनाती हैं तो वहां का हिन्दू एकजुट होकर भाजपा की तरफ आ जाता है। पूर्वोत्तर में सेवा के नाम पर धर्मांतरण एवं वहां की जनता का गरीबी के नाम पर छला जाना जब तक उनके समझ आया तब तक यह विचारधारा उनके छह दशक बर्बाद कर चुकी थी। बांग्लादेशी घुसपैठियों के द्वारा वहां की बढ़ती मुस्लिम आबादी इस विचारधारा को अपने नागरिकों के अधिकारों का हनन नहीं बल्कि वोटबैंक ज़्यादा नजऱ आई। इस विचारधारा से जुड़े लोगों से पूछने का सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्यों भारत का मुस्लिम समाज आज भी दिशा भ्रम की स्थिति में है। उसके भारतीय होने एवं पाकिस्तानी ठप्पा लगाने के लिये कौन सी विचारधारा दोषी है? मुस्लिम तुष्टीकरण की राजनीति करने वाली वामपंथी विचारधारा (जिसमें कांग्रेस भी शामिल है) के द्वारा क्यों मुस्लिमों का उत्थान नहीं हुआ? यह यक्ष प्रश्न आज भी मुस्लिम समाज के सामने है।
मुस्लिम तुष्टीकरण एवं वामपंथी विचारधारा की पोषक कांग्रेस
राष्ट्रवाद का नाम आते ही क्यों मुस्लिम समाज बिदक जाता है? क्यों मुस्लिम समाज को बार बार यह कहना पड़ता है कि भारत उनका भी देश है? क्यों मुस्लिम समाज को पाकिस्तान समर्थक न होने के तर्क देने पड़ते हैं? यह कुछ ऐसे सवाल हैं जिन पर विमर्श एवं गहन चिंतन की आवश्यकता है। इसको समझने के लिए 1940-1947 के बीच के दौर को समझते हैं। यह वह दौर था जब जिन्ना और नेहरू के बीच सत्ता प्राप्ति का टकराव शुरू हो चुका था। जिन्ना किसी भी कीमत पर प्रधानमंत्री बनना चाहते थे। नेहरू को अपने आगे न झुकता देख उन्होंने पाकिस्तान का राग अलापना शुरू कर दिया था। उनके पाकिस्तान प्रेम ने मुस्लिमों के अंदर अलग देश की भावना बलवती करनी शुरू कर दी। उस समय देश में लगभग 10 करोड़ के आस पास मुस्लिम थे। उनमें से ज़्यादातर ने जिन्ना के साथ जाने का मन बनाया था। जिस भूभाग को पाकिस्तान के रूप में चिन्हित किया गया वह भारत का पूर्वी और पश्चिमी भाग था। दक्षिण के राज्यों से यह दोनों भूभाग काफी दूर थे। अब ऐसा नहीं है कि दक्षिण के राज्यों के मुसलमान पाकिस्तान नहीं जाना चाहते थे या पाकिस्तान समर्थक नहीं थे। चालीस के दशक में उन्होंने भी पाकिस्तान के समर्थन में जिन्ना का साथ दिया। तत्कालीन दस करोड़ मुसलमानों में से एक तिहाई लोग भारत में रह गए और बाकी दो तिहाई पूर्वी और पश्चिमी पाकिस्तान में चले गए। अब महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि भारत में बचे 3.5 करोड़ मुसलमानों में से काफी ऐसे भी थे जो पाकिस्तान में जाना चाहते थे किन्तु दक्षिण के सुदूर राज्यों से होने के कारण वह पाकिस्तान नहीं जा सके। या यूं भी कह सकते हैं कि जो लोग 1947 के प्रारम्भ में पाकिस्तान समर्थक थे वह लोग अगस्त 1947 में बंटवारे के बाद भारत में रह तो गए किन्तु उनकी विचारधारा और भावनाएं पाकिस्तान से मिली रहीं।
अब इनके हिंदुस्तानी होने की परिकल्पना वैधानिक रूप से तो सही हो सकती है किन्तु प्रायोगिक तौर पर इसको स्वीकार करना मुश्किल लगता है। बिहार, मुंबई, उड़ीसा, मद्रास, उत्तर प्रदेश, बिहार जैसे राज्यों को पाकिस्तान में सम्मिलित नहीं किया जा सकता था इसलिए ऐसे राज्यों में इस तरह के मुस्लिमों की संख्या काफी बड़ी मात्रा में थी। यहां रहे मुस्लिमों के अंदर नेहरू, मौलाना आज़ाद एवं गांधी जी के प्रति अपेक्षा का भाव रहा कि वह उनके अधिकारों के लिए संघर्ष करेंगे। चूंकि, वह लोग अंदर से पाकिस्तान जाने का मन बना चुके थे किन्तु जा नहीं पाये। इसलिए यह अपेक्षा स्वाभाविक भी थी। इनके अंदर डर भी था कि भारत के हिन्दू इनका क्या हाल करेंगे। भारतीय संविधान के निर्माण के बाद इन अल्पसंख्यकों को विशेष अधिकार भी दिये गये ताकि उनके हितों की रक्षा भी हो सके। अब यहां से वामपंथी विचारधारा ने काम करना शुरू किया। मुस्लिमों के अंदर के डर को इस विचारधारा ने बहुत ढंग से भुनाया। एक तरफ हिंदुओं में इन मुसलमानों को पाकिस्तानी कहकर प्रचारित किया तो दूसरी तरफ मुसलमानों को डर दिखाकर उनका तुष्टीकरण किया। धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद के नाम पर मुस्लिम वोट बैंक का निर्माण कर लिया गया। इसके साथ ही हिंदुओं में दलित और आदिवासियों पर भी वामपंथी विचारधारा ने अपने डोरे डाले। भारत के जिन आदिवासी इलाकों में प्राकृतिक संसाधनों की प्रचुरता है। वहां के संसाधनों की लूट के विदेशी षड्यंत्र का साथ देने के लिए वामपंथी गरीबों के हितैषी बन कर पूंजीवाद को फायदा पहुंचाने लगे। भारत में बौद्ध धर्म का प्रचार, अंबेडकर के नाम पर अलग विचारधारा, कबीर पंथ एवं ऐसे ही अनेक पंथ के जरिये सनातन को कमजोर करने की साजिशें बढऩे लगीं।
तत्कालीन कांग्रेस नेतृत्व उस समय स्वयं सत्ता में रहने के लिए वामपंथी विचारधारा को समर्थन देता रहा। नेहरू ने परिवारवाद को आगे बढ़ाने के क्रम में लाल बहादुर शास्त्री के स्थान पर इन्दिरा गांधी को अपना उत्तराधिकारी चुना। 1967 तक कांग्रेस ने जब तक अपने दम पर सरकारें बनाई तब तक वामपंथी उनसे दूर दूर दिखे किन्तु जैसे ही 1969 में इन्दिरा कांग्रेस विभाजित होकर अलग हुयी तब इन्दिरा गांधी को वामपंथियों का प्रत्यक्ष सहयोग लेना पड़ गया। तब मुस्लिम वर्ग को कांग्रेस के खेल समझ में आने लगे। जो मुस्लिम वर्ग परंपरागत रूप से कांग्रेस का मतदाता था उसने अन्य विकल्प तलाशने शुरू कर दिये। इसके बाद अल्पसंख्यकों को बताया जाने लगा कि तुम्हारे और हिन्दुओं के हितों में अंतर है। जिन्ना के दौर की रूढि़वादी सोच को मुस्लिम समाज में भरा जाने लगा। इसको समझने के लिए सच्चर कमिटी की रिपोर्ट को समझना पर्याप्त है। एक तरफ मुसलमानों के अंदर असुरक्षा और दूसरी तरह हिन्दुओं में जातिगत विभाजन वामपंथी विचारधारा का भारत को सबसे बड़ा योगदान है। कांग्रेस ने इस विचारधारा को आगे बढ़ाने के लिए बौद्धिक वामपंथियों को खूब छात्रवृत्ति दीं। विदेश यात्राएं करवाईं। तत्कालीन सोवियत संघ को भारत में जि़ंदा रखा। इसके बदले सोवियत संघ से अच्छी ख़ासी धनराशि भारत के वाम पंथियों को लगातार मिलती रही। कांग्रेस और वामपंथी राजनीतिक रूप से तो आपस में विरोधी दिखे किन्तु वैचारिक रूप से एक दूसरे के पूरक ही रहे। दोनों लोग मिलकर राष्ट्रवादी ताकतों को लगातार कमजोर करते रहे। कांग्रेस का कमजोर होना और वामपंथियों का लगभग खत्म होना आज राष्ट्रवाद का वह स्वर्णिम काल है जिसके लिए चार दशक से काम चल रहा था।
मुस्लिम हितों की सबसे बड़ी विरोधी है वामपंथी विचारधारा
मुस्लिम हितों की अगर सबसे बड़ी दुश्मन किसी को माना जाये तो वह वामपंथी विचारधारा है। भारत का संविधान सेकुलर राष्ट्र की परिकल्पना रखता है। धर्म के आधार पर किसी भी अधिकार में विभेद संविधान ने नहीं किए हैं। अनु0 29, 30 अल्पसंख्यकों को अलग से अधिकार देते हैं तो भी सच्चर कमिटी के अनुसार मुसलमान पिछड़े क्यों हैं? क्यों उनके अंदर डर को उभारा जाता है। क्यों उनके अंदर जनसंख्या, शिक्षा और स्वास्थ्य को लेकर जागरूकता नहीं की जाती है। क्या पांच साल के मोदी कार्यकाल में ऐसा कोई विकास कार्य हुआ जो मुसलमानों के लिए नहीं था? क्या कभी मुस्लिम को कभी इस आधार पर अधिकारों से वंचित किया गया क्योंकि वह मुस्लिम है।
इसका जवाब वामपंथी विचारधारा के पास शायद नहीं होगा। क्योंकि यह सब तो उनका एजेंडा ही नहीं है। वह तो सिर्फ जेएनयू में बौद्धिक दुर्गंध फैलाते हैं। भारत तेरे टुकड़े होने जैसे देशविरोधी नारे लगवाते हैं। दलित उत्पीडऩ को राष्ट्रीय विमर्श बनाते हैं। पुरुस्कार वापसी और असहिष्णुता जैसे शब्द गड़ते हैं। अगर कुछ नहीं करते हैं तो सिर्फ ज़मीन पर काम। अपनी हर गलतियों का ठीकरा राष्ट्रवादियों पर थोपना इनका शगल बन गया है। अगर यह लोग ज़मीन पर काम करते, वास्तविक पीडि़तों के हितों की रक्षा करते एवं राष्ट्रवादी सरकार की कमजोरियों को जनता के सामने रखते तो शायद यह स्वयं को बचा भी सकते थे।
किन्तु इन लोगों ने ऐसा नहीं किया। अपनी बौद्धिक अय्याशी जारी रखी। खान मार्केट और लुटियन वाली राजनीति को बढ़ावा दिया। इससे इतर सुदूर ग्रामीण जनता ने मोदी की कमियों के बावजूद उनको जि़ंदा रखा। आज जो मोदी को प्रचंड जीत मिली है उसका दोष हालांकि वामपंथ और वामपंथी विचारधारा के लोग ईवीएम को दे रहे हैं किन्तु अब उनके अपने गिरेबान में झांकने का समय आ गया है कि भारत ने अब नयी करवट ले ली है। छात्रवृत्ति लेते हुये, एसी की ठंडक में बैठकर की जाने वाली कसरतें अब इतिहास के साथ दफन हो चुकी हैं।
कांग्रेस के लिए चिंतन एवं पुनर्गठन का समय
नरेंद्र मोदी 2013 से ही एक चुनौती बन कर उभरने लगे थे लेकिन कोई भी यह स्वीकार करने को तैयार नहीं था। मोदी को एक चाय वाला, संघ प्रचारक या राजनीति का नौसिखिया खिलाड़ी समझने की भूल की जाती रही। सत्ता के मठाधीश यह मानते रहे कि गुजरात से आया यह आरएसएस का पूर्व प्रचारक भला इतने सशक्त और पुराने खुर्राट राजनेताओं का क्या बिगाड़ पाएगा? अपने इसी अहंकार में वे न तो नरेंद्र मोदी को समझ पाए, न अमित शाह की क्षमताओं को। पहला नतीजा 2014 में सामने आया फिर इसके बाद साल दर साल नतीजे आये। एक एक कर भाजपा राज्यों में भी जीत का झण्डा बुलंद करती रही। 2019 में जब एक बार लगा कि यह जोड़ी खतरे में है तब और बड़ा नतीजा सामने आया।
वास्तव में देश की जनता का मिजाज़ अलग है। यहां कभी किसी को अपशब्द बोलकर, उसे खुल्लम-खुल्ला हीन बता कर आप ‘नायक’ नहीं बन सकते। वामपंथियों और कांग्रेस के अन्दर के अल्ट्रा लेफ्ट नेताओं ने यही किया। वे हिन्दुओं को सरेआम गालियां देने लगे। दिग्विजय सिंह, मणिशंकर अय्यर, पी. चिदंबरम इस कारण बड़े नेता होने के बावजूद हवा में बह गए। अब परिणाम प्रत्यक्ष है। अगर नहीं समझा गया, तो आगे मोदी की चुनौती और प्रचंड ज्वाला बनती जाएगी। क्षेत्रीय दल भाजपा के इस विराट स्वरूप का मुकाबला नहीं कर सकते हैं। ऐसे में कांग्रेस को ही आगे बढ़कर चिंतन, मनन एवं स्वयं का पुनर्गठन करना होगा। कमजोर और लचर विपक्ष हमेशा लोकतन्त्र के लिए अच्छा संदेश नहीं होता है। कांग्रेस को अब एक पक्षीय नज़रिए से बाहर आना होगा। जिस देश में 80 प्रतिशत हिन्दू हों वहां उनको चिढ़ाने का काम कोई नहीं कर सकता है। जिस किसी ने ऐसा किया तो उसे इसके परिणाम भी भुगतने पड़े हैं। कांग्रेस को चाहिए कि अब वह सरकार के कामकाज पर एक समीक्षक की तरह नजऱ रखे और वामपंथी विचारधारा के चंगुल से बाहर आ जाये। क्योंकि, इस विचारधारा का अवसान तो अब हो चुका है।
…………………………………………………………………………………………………………………………………………………………………
गाली गलौज की औछी राजनीति का गवाह बना 2019 का लोकसभा चुनाव
2019 लोकसभा चुनाव निपट गये। एनडीए को प्रचंड बहुमत भी मिल गया। लोग कहेंगे कि यह लोकतंत्र की विजय है जबकि मैं कहूंगा लोकतंत्र अब गाली और अभद्र भाषा का तंत्र बनता जा रहा है। क्या नेताओं का यह गालीचरित्र देश को स्वस्थ्य लोकतंत्र दे पायेगा? क्या इस व्यक्तिगत नफरत की भाषा से लोकतंत्र मजबूत हो पायेगा? यदि इसको थोड़ा जनता खुले मन मस्तिष्क से समझे तो उसे समझ आयेगा कि यह जो नफरत की भाषा का प्रयोग इस लोकसभा चुनाव में सभी दलों के नेताओं ने एक दूसरे पर किया, क्या उसका असर चुनाव बीतने के बाद पार्टियों के कार्यकर्ताओं, समर्थकों और जनता में आपसी वैमनस्य नहीं बढ़ायेगा? अब बात चाहे किसी की हो। भाषा चाहे रामराज्य लाने वाली पार्टी के मुख्य नेता मोदी जी की हो या उनकी पार्टी के अन्य नेताओं की। नफरत के बदले प्यार देने की बात करने वाले कांग्रेस के अधिनायक राहुल गांधी की ही हो जो देश के सम्मानित प्रधानमंत्री को चौकीदार चोर है कहकर नफरत व्यक्त करते नजर आये। उनकी पार्टी के अन्य नेताओं की भाषा बहुत ही निम्नस्तरीय और स्तरहीन रही। रामराज्य और राम मंदिर बनाने का सिर्फ वादा करने वाली पार्टी भाजपा भी शायद भूल गई कि तुलसीदास जी ने रामराज्य की परिभाषा ही अपनी चौपाई में यह कहकर व्यक्त की थी ‘सब नर करै परस्पर प्रीति, चलत स्वधर्म कीरत श्रुति रीती।।’ यानि जहां सब मानव आपस में प्रेमभाव रखे, मानवता के धर्म का पालन करते हों वहीं तो रामराज्य है।
कुल मिलाकर जनता को समझना चाहिये जो सिर्फ चुनाव जीतने के लिये घृणितभाषा से समाज में नफरत घोलते हैं, समाज को बांटते हैं, वह लोग देश की एकता और संप्रभुता को कैसे और कब तक कायम रख पायेंगे? यह घृणित सत्य है कि वे सत्ता जनता की सेवा के लिये नही अपितु सत्तासुख और धनसंपदा सुख के लिये ही साम दाम दंड भेद कर कैसे भी सत्ता प्राप्त करना चाहते हैं। चुनाव में एक दूसरे के प्रति नफरत और गाली की भाषा का प्रयोग करके जनता और समाज में जीवन भर के लिये नफरत भर देते हैं। चुनाव के बाद यह सब विभिन्न पार्टियों के नेता जो चुनाव भर एक दूसरे को नफरत की भाषा से संबोधित करते नजर आये, वे अब चुनाव के बाद एक दूसरे की फाइव स्टार पार्टियों में खुले आम गले मिलते और एक दूसरे के पापों को छुपाने की डील करते नजर आयेंगे। चलिये फिर भी एक सकारात्मक रुखे कि चुनी हुई सरकार को श्रीराम सद्बुद्धि प्रदान करे, वह भारत में सही मायनों में रामराज्य की स्थापना के लिये कार्य करे, राम की अवधारणा को जन जन तक पहुंचाए और इससे भी बड़ी बात वामपंथी विचारधारा से देश को बचाते हुये दक्षिणपंथ का विराट स्वरूप देश के सामने प्रस्तुत करे।
अशित पाठक
(लेखक राष्ट्रवादी विचारक हैं)
…………………………………………………………………………………………………………………………………………………………………
कांग्रेस की गलतियों का खामियाजा बनाम गोडसे से प्रेरित युवा
भारत में गांधी बनाम गोडसे की बहस अचानक तेज़ हो गयी है। भोपाल की सांसद साध्वी प्रज्ञा ने सबसे पहले गोडसे के पक्ष में बयान दिया। चारों ओर उनके बयान की आलोचना होती दिखी। प्रधानमंत्री मोदी ने भी उनके बयान की आलोचना की और स्वयं को उससे अलग कर लिया। अब एक महत्वपूर्ण विषय यह है कि क्यों अचानक गोडसे भारत के राजनीतिक परिदृश्य में आ गये हैं? क्यों आज का राष्ट्रवादी युवा गांधी के स्थान पर गोडसे को पसंद करने लगा है? यह विषय जितना विचारणीय है उतना ही चिंतनीय भी। गोडसे ने गांधी की हत्या की और उसे उसकी सज़ा हुयी। इस हिसाब से एक अपराधी को भारत के जनमानस को तिरस्कृत कर देना चाहिए। किन्तु फिर भी आज वह हीरो बन कर उभर रहा है। थोड़ा गहराई से सोंचे तो इसके पीछे वामपंथी विचारधारा के पिछले सात दशक के वह कर्म हैं जो वह हिंदुओं को विभाजित करने के लिए कर रहे थे। उन्होंने हिंदुओं को नीचा दिखाने के लिए पहले मुस्लिम तुष्टीकरण किया इसके बाद दलितों को सवर्णों के सामने ला खड़ा किया। कांग्रेस तो इससे भी आगे निकल गयी। उसने जाने अंजाने ऐसे काम किए जिससे वह हिन्दू विरोधी दिखने लगी। 2014 में लोकसभा में सिर्फ 44 सीटें जीतने वाली कांग्रेस ने एके अंटोनी की अध्यक्षता वाली एक कमिटी में एक समीक्षा की। इस कमेटी ने कहा था, कि वृहद् हिंदू समाज की उपेक्षा कांग्रेस को भारी पड़ी है। ए.के.एंटोनी ने जून, 2014 में इस बात को लेकर चेताया भी था कि कांग्रेस की धर्म निरपेक्ष होने की जो साख थी, उसमें अब लोगों का विश्वास नहीं है। कांग्रेस के द्वारा धर्मनिरपेक्षता की आड़ में हिंदुओं के हितों की अनदेखी करने से लोग मोदी की तरफ आकर्षित हो गये। इसके साथ ही दिग्विजय सिंह जो लगातार हिन्दू विरोधी बयान के लिए जाने जाते हैं, उनकी छवि भी कांग्रेस को हर जगह भारी पड़ी। इस बार जैसे ही कांग्रेस ने दिग्विजय सिंह को भोपाल से टिकट दिया तब उनके द्वारा दिये गये पूर्व बयान, भगवा आतंकवाद एवं उनके पुराने कर्म परिदृश्य में तैर गये।
चूंकि, गांधी पर कांग्रेस ने अपना कब्जा कर रखा है इसलिए उसके विरोध में गोडसे उनकी विरोधी साध्वी प्रज्ञा के हथियार बन गये। इसके साथ ही 2010 में दिग्विजय सिंह ने मुंबई आतंकी हमले पर लिखी एक पुस्तक का विमोचन किया था। पत्रकार अजीज बर्नी की लिखी इस पुस्तक का नाम था ’26/11 आर.एस.एस.की साजिश’। अब इस नाम से इतना तो स्पष्ट हो रहा है कि इस पुस्तक का विषय क्या रहा होगा। दिग्विजय सिंह की छवि को कांग्रेस पहचानने में लगातार भूल करती जा रही है। मई 2018 में कांग्रेस ने दिग्विजय सिंह को मध्य प्रदेश कांग्रेस कमेटी की समन्वय समिति का प्रमुख बना दिया। शायद अंटनी की महत्वपूर्ण बात जिसके द्वारा कांग्रेस की नकारात्मक धारणा बन रही थी, कांग्रेस ने नहीं मानी। यह कुछ ऐसी छोटी छोटी बातें हैं जो आम जनमानस में कांग्रेस के लिए हिन्दू विरोधी छवि बनाती रहीं। दिग्विजय सिंह इस छवि के प्रणेता के रूप में उभरे। मणिशंकर अय्यर और पी चिदम्बरम ने इस आग में घी का काम किया। दिग्विजय सिंह अगर लोकसभा चुनाव के उम्मीदवार नहीं होते तो शायद भाजपा के लिए प्रखर हिन्दुत्व का मुद्दा उभारना भी आसान नहीं होता। दिग्विजय सिंह के आते ही साध्वी प्रज्ञा के बहाने भाजपा ने आखिर के तो तीन चरणों में प्रखर हिन्दुत्व को जमकर भुनाया। गोडसे जाने अंजाने उसका प्रतीक बन गये। आज का गरम खून का युवा गांधी विरोध में गोडसे का समर्थक बनने लगा। इनमें से एक बड़ा युवा वर्ग ऐसा है जिसने शायद गांधी को न कभी पढ़ा है, न कभी समझा है, न कभी जिया है ।
वापस यदि 1947 में पहुंचे तो चूंकि, भारत के विभाजन के समय गांधी राष्ट्रीय परिदृश्य के सर्वमान्य नेता थे इसलिए गोडसे समर्थक गांधी को देश विभाजन का जिम्मेदार मानते हैं। हालांकि, गांधी प्रारम्भ में विभाजन के पक्ष में नहीं थे किन्तु बाद में उन्होंने विभाजन रोकने के लिए भी निर्णायक कदम नहीं उठाए। उस दौरान बंटवारे के समय काफी बड़ा कत्लेआम हुआ और बड़ी संख्या में हिन्दू मारे गये। गोडसे ने गांधी को विभाजन और हिन्दू नरसंहार का जिम्मेदार माना और उनकी हत्या कर दी। वास्तव में यदि देखा जाये तो तब तक गांधी नेपथ्य में जा चुके थे और उनका राजनीतिक वजूद खत्म हो चुका था। गोडसे अगर गांधी की हत्या नहीं करता तो शायद गांधी का कद इतना बड़ा नहीं होता। गांधी की हत्या के बाद उनका अन्तराष्ट्रीय कद और ज़्यादा बढ़ गया। कांग्रेस ने अगले 15 साल उनके नाम पर सत्ता पर कब्जा जमाये रखा। अब चूंकि यह बात जनता में स्पष्ट घर कर चुकी है कि कांग्रेस का गठन अंग्रेजों द्वारा सिर्फ राजनीतिक इस्तेमाल के लिए किया गया था तब कांग्रेस, गांधी और उनकी विचारधारा सभी युवाओं को उससे दूर करने लगी है। चूंकि, कांग्रेस एवं वामपंथी मुस्लिम तुष्टीकरण की राजनीति करने की अपनी धारणा बनवा चुके हैं इसलिए उनके विरोध में हिन्दू युवा गोडसे को अपने आदर्श के रूप में देखने लगा है। इस प्रक्रिया में अब कुछ नये अध्याय भी जुड़ सकते हैं। यह भी संभव है कि गोडसे के व्यक्तित्व के नये आयाम पर अब बहस हो। इससे आगे यह भी संभव है कि कुछ नये आयाम गढ़े भी जा सकते हैं।
-अमित त्यागी
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं )
…………………………………………………………………………………………………………………………………………………………………
कांग्रेस और वामपंथियों से दूरी का आह्वान किया था लोहिया ने
लोहिया का कहना था कि एक सच्चे समाजवादी को कांग्रेस और वामपंथियों से बराबर दूरी बनाकर रखनी चाहिए। वो कभी भी खुद को माक्र्सवादी कहलाना पसंद नहीं करते थे। लोहिया ने सदैव खुद को कुजात गांधीवादी कहा। कम्युनिस्ट अंधों की तरह हर समस्या का हल रूसी पृष्ठभूमि में ढूंढते हैं अन्यत्र उन्हें कुछ भी दिखाई नहीं देता जबकि भारत की समस्याओं का हल केवल भारत के पास ही है। लोहिया ने अपनी पुस्तक भारत माता-धरती माता के पहले अध्याय में ही पृष्ठ 10 पर लिखा है कि ‘आनंद, प्रेम और शांति का अह्वान तो रामायण में है ही पर हिंदुस्तान की एकता जैसा लक्ष्य भी स्पष्ट है। राम भारत के उत्तर-दक्षिण की एकता के परिचायक थे और कृष्ण पूर्व-पश्चिम एकता के’। लोहिया जैसा व्यक्तित्व नास्तिक होते हुए भी रामायण और महाभारत के सभी चरित्रों पर विश्वास करते हैं वो कम्युनिस्टों की तरह रामायण और महाभारत के अस्तित्व पर शक नहीं करते थे।
लोहिया राम, कृष्ण और शिव का भारत के समाज और राजनीति पर चिंतन करते हैं और इसके पक्ष में उन्होंने सैकड़ों लेख भी लिखे। उन लेखों के सार कुछ यूं हैं कि राम त्रेता के मीठे, शान्त और सुसंस्कृत युग के देव हैं। कृष्ण पके, जटिल, तीखे और प्रखर बुद्धि युग के देव हैं। राम गम्य हैं। कृष्ण अगम्य हैं। कृष्ण ने इतनी अधिक मेहनत की, कि उनके वंशज उन्हें अपना अंतिम आदर्श बनाने से घबराते हैं। यदि बनाते भी हैं तो उनके मित्रभेद और कूटनीति की नकल करते हैं, उनका अथक निस्व उनके लिए असाध्य रहता है। वो तो यहां तक लिखते हैं कि राम, कृष्ण और शिव हिन्दुस्तान की उन तीन चीजों में हैं, मैं उनको आदमी कहूं या देवता। इसके तो ख़ास मतलब नहीं होंगे, जिनका असर हिन्दुस्तान के दिमाग पर ऐतिहासिक लोगों से भी ज्यादा है । धर्म की विजय के लिये अधर्म से अधर्म करने को तैयार रहने के प्रतीक कृष्ण हैं। मैं यही तो किस्से नहीं बतलाऊंगा, पर आप खुद याद कर सकते हो कि कब सूरज को छुपा दिया जब कि वह सचमुच नहीं छुपा था। कब एक जुमले के आधे हिस्से को जरा जोर से बोलकर और दूसरे हिस्से को धीमे बोल कर कृष्ण अर्धसत्य बोल गये। इस तरह की चालबाजियां तो कृष्ण हमेशा ही किया करते थे। पर वह राष्ट्ररक्षा के लिये और धर्मार्थ होती थीं। इसके विपरीत राम मर्यादित अवतार थे। ताकत के ऊपर सीमा जिसे वे उलांघ नहीं सकते थे। कृष्ण बिना मर्यादा के अवतार थे किन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि कृष्ण झूठ बोलते थे और जो कोई झूठ बोले, धोखा करे, वही कृष्ण हो सकता है।
राम और कृष्ण का चरित्र इतना व्यापक है कि लोहिया ने हमेशा अपने समाजवाद में उसका जि़क्र किया। पर उनके नाम पर चलने वाली समाजवादी पार्टी ने लोहिया के नाम का सिर्फ इस्तेमाल किया। उनके पदचिन्हों को छोड़ दिया। उनकी परम्पराएं तोड़ दी। परिवारवाद को बढ़ावा दिया। ऐसा समाजवाद तो मैंने लोहिया की किसी किताब में नहीं पढ़ा। अगर देखा जाये तो चित्रकूट में रामायण मेला लोहिया की संकल्पना थी। मौजूदा समाजवादी पार्टी लोहिया के सप्त-क्रांति और चौखम्बा नीति से न तो परिचित है और न उसकी चर्चा करती है, न ही उनकी दृष्टि लोहिया की तरह विशाल है। लोहिया के चिंतन में राष्ट्रीयता सर्वोपरि है। कम्युनिस्ट और समाजवादी दोनों ही कांग्रेस के पिछलग्गू बने घूमते हैं जिसका लोहिया ने हमेशा विरोध किया। सच्चे समाजवादी को तो कम्युनिस्टों और कांग्रेसियों को अपने मंच से दूर ही रखना चाहिए। पर क्या ऐसा हो रहा है? बिलकुल नहीं। ये तो सत्ता प्राप्त करने के लिये बेमेल गठबंधन कर रहे हैं। वामपंथी विचारधारा के पोषक बन रहे हैं और लगातार समाजवाद के साथ साथ लोहिया की आत्मा को छलनी कर रहे हैं।
– डॉ स्वप्निल यादव
(लेखक लोहियावादी विचारक हैं।)
…………………………………………………………………………………………………………………………………………………………………
आइए, लोकतंत्र के साथ
जऱा मीडिया के जोंकतंत्र की भी कर लें बात…
राजनीति में लाख बुराई है, पर एक अच्छाई भी है कि जो जनता के दिल से उतर जाते हैं, वे चुनाव में हरा दिए जाते हैं। लेकिन मीडिया में यह अच्छाई नहीं है। यहां पर आप पब्लिक की नजऱों से गिर जाएं, फिर भी अपने रैकेट, गिरोहबाज़ी और पॉलिटिकल कनेक्शन्स के दम पर राज करते रह सकते हैं।
मैं ‘सनसनी’ बेचने वाले ऐसे कई पत्रकारों को जानता हूं, जो ‘मनोहर कहानियां’ टाइप पत्रिकाओं की संपादकी करने से अधिक डिज़र्व नहीं करते, लेकिन न सिफऱ् बड़े मीडिया समूहों के संपादक बने बैठे हैं, बल्कि अनेक योग्य और संजीदा पत्रकारों से अधिक सफल और सम्मानित हैं। स्वाभाविक है कि जब ‘सनसनी’ बेचने वाले ऐसे लोग सफल और सम्मानित हो जाते हैं, तो अपने ‘धाकड़पन’ में वे ख़ुद को पैगम्बर ही नहीं, ख़ुदा समझने लगते हैं।
हाल के वर्षों में आपने स्वयं भी महसूस किया होगा कि कई कथित बड़े पत्रकारों ने पत्रकारिता-धर्म के नाम पर देश की चुनी हुई सरकार के खि़लाफ़ योजनाबद्ध तरीके से लगातार कैम्पेन चलाया और अब यह स्थापित करने की भी ज़रूरत नहीं है कि ये कैम्पेन विपक्षी पार्टियों से ठेका प्राप्त करके चलाए गए। इन कथित बड़े पत्रकारों ने ग्राउंड रियलिटी पर लगातार पर्दा डाला और उसे नकारात्मकता के साथ पेश किया।
इन पत्रकारों का रैकेट इतना ज़बर्दस्त है कि इनके नाम पर फेसबुक जैसे सोशल मीडिया माध्यमों पर आपको सैकड़ों पेज और ग्रुप दिखाई दे जाएंगे, जिन्हें इनका कोई फैन-वैन नहीं, बल्कि राजनीतिक दलों के पेड कार्यकर्ता चलाते हैं, जो इनकी ब्रांडिंग करते हैं और उस ब्रांडिंग के दम पर ये अपने पसंदीदा राजनीतिक दलों को फ़ायदा पहुंचाने का प्रयास करते हैं।
लोकतंत्र में विपक्ष की आवाज़ बनना और विपक्षी दलों के लिए काम करना दोनों दो अलग-अलग चीज़ें हैं। अभी इस चुनाव में भी आप देख लें। किस पार्टी को कितनी सीटें मिलेंगी, इसका सटीक आंकलन करने में चूक बिल्कुल संभव है, लेकिन यह कैसे संभव है कि कोई निष्पक्ष पत्रकार, जो काफी अनुभवी भी हो, किसी पार्टी या नेता के लिए लहर को बिल्कुल भी महसूस न कर पाए? और इस हद तक महसूस न कर पाए कि उसे आने वाली हों 350 सीटें, पर वह खूंटा गाड़कर बैठा हो 150 सीटों पर?
हमारी इंडस्ट्री आज ऐसे ही लोगों से भरी पड़ी है। कुछ इस तरफ भी हैं और कुछ उस तरफ भी हैं। मीडिया से न्यूट्रल स्पेस आज पूरी तरह ख़त्म हो चुका है। मीडिया मालिकों को भी न्यूट्रल जर्नलिस्ट और संपादक नहीं चाहिए, क्योंकि न्यूट्रल जर्नलिस्ट और संपादक उनके लिए फंडिंग नहीं ला सकते, न अवैध और अनैतिक प्रयोग कर सकते हैं। वे आदर्शों और सिद्धांतों की बातें करेंगे, जबकि आज का मीडिया आदर्शों और सिद्धांतों से नहीं चलता है।
वैसे, ‘सनसनी’ बेचने वाले ये पत्रकार और संपादक भी संस्थाओं को चलाते कम, डुबाते ज़्यादा हैंं। आने वाले महीनों में भी ऐसे संपादक अनेक चैनलों को बंद कराने वाले हैं। खासकर चुनावी मौसम में जो कुकुरमुत्ते पैदा हुए, वे ‘सनसनी’ बेचने वाले इन संपादकों का शिकार होकर जल्द ही बंद हो जाएंगे। इसके बाद एक बार फिर से सैकड़ों पत्रकार रोड पर होंगे, लेकिन ‘सनसनी’ बेचने वाले संपादक अपनी करोड़ों की दौलत पर ऐश करेंगे।
अभिरंजन कुमार
…………………………………………………………………………………………………………………………………………………………………
भाषण तो दिया अब अल्पसंख्यकों का विश्वास भी जीतिए
संसदीय दल का नेता चुने जाने के बाद दोबारा प्रधानमंत्री बनने जा रहे नरेंद्र मोदी का भाषण बेहद प्रभावशाली रहा। वाकपटु प्रधानमंत्री की भाषणकला के तो मुरीद लाखों-करोड़ों लोग हैं। लेकिन मोदी के इस भाषण की सोशल मीडिया पर भरपूर सराहना हो रही है। भाषण नए सांसदों को नसीहत देने के लिए था। अल्पसंख्यकों का विश्वास जीतने की बात को मुस्लिम समुदाय ने हाथों-हाथ लिया है। संयोगवश यह बयान मुस्लिमों के सबसे पवित्र माह रमजान में आया है। सबका साथ, सबका विकास के साथ ही मोदी का नया नारा है सबका विश्वास। विश्वास शब्द जितना सरल और सहज दिखता है उतना है नहीं। जब एक व्यक्ति का विश्वास जीतने में लम्हे नहीं बरसों लगते हैं तो किसी बिरादरी, समुदाय का विश्वास एक भाषण में जीत लेंगे मुझे लगता है कि ऐसा मुगालता मोदी जी में कतई नहीं होगा। बिरादरी और समुदाय का भरोसा हासिल करने में तो दशकों, कभी-कभी तो सदियां लग जाती हैं। लेकिन इसके लिए सकारात्मक कदम उठाने पड़ते हैं।
देवबंद के अलावा, शिया समुदाय के नेताओं, तमाम बड़ी मस्जिदों के ईमामों और आलिमों ने मोदी के भाषण का स्वागत किया है। यह स्वागत भी स्वागतयोग्य है। क्योंकि भरोसा कायम करने की कवायद एकतरफा नहीं हो सकती। दोनों पक्षों को अपनी-अपनी अकड़ छोड़कर कुछ कदम आगे चलना पड़ता है। याद करिए एक मुस्लिम धर्म गुरु की ओर से इस्लामी टोपी पहनाए जाने पर मोदी का उससे कैमरे के सामने इंकार करने की घटना को किस तरह से प्रचारित किया गया था। गुजरात के दंगों के दाग से मोदी न्यायिक रूप से बेशक उबर गए हों लेकिन मुसलमानों के मन में उनकी छवि नकारात्मक ही है, इससे किसी को इंकार नहीं होना चाहिए। इसलिए मुसलमानों का विश्वास जीत पाना मोदी के लिए आसान नहीं होगा। सवाल यह भी उठता है कि अविश्वास कब तक? क्या विश्वास कायम करने की कोई पहल भी न हो। पहल मोदी ने कर दी है। मुसलमानों ने उसका भरपूर स्वागत भी किया है। अब बारी उस पर अमल करने की है। आप अगर तटस्थ दिमाग से सोचें तो मुस्लिमों को वोट बैंक समझने वाले सियासी दलों ने भी मुस्लिमों को अतीत में आखिर दिया क्या है। भयपूर्ण वातावरण, अशिक्षा, बेरोजगारी और जहालत। भयादोहन करके वोट हासिल करने वाले सियासी दलों को मुसलमान अपना हिमायती और खैरख्वाह समझते रहे और वे उन्हें वोटबैंक समझते रहे। इस मुल्क के सभी नागरिकों को समझना होगा कि देश किसी व्यक्ति द्वारा नहीं, संविधान और कानून द्वारा चलाया जाता है। मोदी हों अथवा कोई भी, उनकी मजबूरी है संविधान के अनुरूप चलने की। मुसलमानों को समझना होगा कि क्या एक भी बड़बोला शख्स एक भी मुसलमान को इस मुल्क से पाकिस्तान भेज पाया? भेज भी नहीं पाएंगे। संविधान में भरोसा रखिए। मोदी पर बेशक हो न हो, लेकिन सुप्रीम कोर्ट पर यकीन रखिए। लेकिन मोदी पर यकीन रखेंगे तो माहौल अपेक्षाकृत ज्यादा बेहतर बन पाएगा क्योंकि वह सभी के प्रधानमंत्री हैं। अकेले हिंदुओं, सिखों के नहीं, मुसलमानों के भी, ईसाईयों के भी।
मोदी को भी अल्पसंख्यकों का भरोसा बनाए रखने के लिए बहुत कुछ करना होगा। अपने बड़बोले, छुटभैये कार्यकर्ताओं, जाहिल लोगों के बयानों, गोरक्षा के नाम पर धींगामुश्ती करने वालों की हरकतों पर लगाम लगाना होगा। फालतू और सांप्रदायिकता के जहर से बुझी बातें करके ये न सिर्फ माहौल खराब करते हैं बल्कि एक दूसरे के भरोसे में पलीता भी लगाते हैं। मदरसों, अल्पसंख्यक संस्थानों के वजीफे, उससे जुड़े लोगों के मानदेय मत रोकिए। मुस्लिम इलाकों में सफाई, विकास कार्य कराइए तभी भरोसा जीत पाएंगे।
कुमार अतुल