अब भारत का राजनीतिक परिदृश्य एकदम से बदल गया है। यूं तो देश में राष्ट्रवाद की हवा चल रही है और 370 हटने के बाद से यह हवा अब आंधी में बदल चुकी है किन्तु राज्यों की राजनीति के संदर्भ में स्थानीय मुद्दे एवं राज्य सरकार की परफॉर्मेंस भी जनता के ज़ेहन में होते हैं। अब जनता राष्ट्रवाद तो चाहती है किन्तु स्थानीय सरकार से परिणाम भी चाहती है। महाराष्ट्र और हरियाणा के चुनाव परिणाम इसकी पुष्टि भी कर देते हैं। महाराष्ट्र और हरियाणा में भाजपा और सहयोगी उतना अच्छा परिणाम नहीं दे पाये जितना उनसे शीर्ष नेतृत्व अपेक्षा रख रहा था। इसके साथ ही चुनावी राजनीति में एक विषय यह भी है कि कब, किस समय क्या निर्णय लेना है ? दोनों राज्यों में चुनाव के पहले सेना द्वारा पीओके में घुसकर आतंकी कैंपों पर हमला करना और सभी मीडिया संस्थानों द्वारा उसका महिमा मंडन करना केंद्र सरकार की चुनावी रणनीति को बताता है। उत्तर भारत में राष्ट्रवाद का विषय स्थानीय विषयों पर हावी होता रहा है। इसके साथ ही फिल्मी सितारों के साथ प्रधानमंत्री मोदी का मिलना भी एक मास्टर स्ट्रोक रहा। महाराष्ट्र की राजनीति में इस मुलाकात ने बड़ा प्रभाव डाला। इनमें कई सितारे ऐसे थे जिन्होंने मोदी-1 में पहले स्वयं को असुरक्षित या डर से भरा हुआ बताया था। इस दौरान आमिर खान और शाहरुख खान मोदी के साथ सेल्फ़ी खिंचाते दिखे और उनके चेहरे पर कोई डर का भाव नहीं था। यानि कि अब भारत एक सुरक्षित स्थान है, इसका तमगा इन लोगों ने दे दिया है। प्रधानमंत्री मोदी द्वारा गांधी के विचारों पर चलने एवं उसके अनुरूप देश निर्माण की संकल्पना फिल्मी सितारों के समक्ष रखी गयी जिसे बॉलीवुड ने हाथों हाथ लिया। इन सब घटनाक्रमों का प्रभाव चुनावी राजनीति पर पड़ा और भाजपा ने उसका भरपूर फायदा लिया। हरियाणा के परिणाम के बाद अब आगे दिल्ली एवं झारखंड में चुनाव होने जा रहे हैं। दिल्ली में केजरीवाल ने निम्न वर्ग में मुफ्त बिजली और पानी से काफी अच्छी पैठ बना ली है। केजरीवाल की मोहल्ला क्लीनिक एवं सरकारी स्कूल की सुधरी दशा से भी दिल्ली में केजरीवाल मजबूत दिखते हैं। भाजपा ने इसे संतुलित करने के लिए एक बड़ा दांव चला है और अवैध कॉलोनियों को वैध करने की घोषणा कर दी है। दिल्ली में लगभग 1700 कॉलोनियों पर इसका प्रभाव पडऩा है। यह एक बड़ा वोटबैंक है जो किसी भी चुनाव में फर्श से अर्श तक पहुंचाने के लिए काफी है। पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के लोग दिल्ली में बड़ी संख्या में मौजूद हैं और मनोज तिवारी का होना उनमें करंट भर देता है। इस तरह दिल्ली में भाजपा लड़ाई में आती दिखने लगी है। झारखंड में लोग मुख्यमंत्री से नाराज़ हैं इसलिए वहां मुख्यमंत्री का चेहरा बदलकर भाजपा फिर से वापसी की स्थिति में आ सकती है। चूंकि, भाजपा ने अब चुनावों को राष्ट्रवाद पर लाकर सेट कर लिया है। राष्ट्रीय दल कांग्रेस का कमजोर नेतृत्व और मुद्दा विहीन राजनीति के कारण सिर्फ पत्तों को फेंटकर ही भाजपा के लिए वापसी की राह आसान तो बन जाती है किन्तु हरियाणा के परिणामों ने कांग्रेस को ऑक्सीजऩ तो दे ही दी है।
अमित त्यागी
हरियाणा और महाराष्ट्र के चुनावों के परिणाम भाजपा के लिए खतरे की घंटी है। इन राज्यों में कमजोर होने के बावजूद जिस तरह से कांग्रेस ने केवल सत्ता विरोध के जरिये वापसी की है वह इस बात का प्रतीक है कि जनता सिर्फ वादों से नहीं वोट देती है बल्कि काम भी चाहती है। पहले छत्तीसगढ़, राजस्थान एवं मध्यप्रदेश और अब हरियाणा में भाजपा का हारना इस बात को दर्शाता है कि हिन्दी भाषी राज्यों की राज्य सरकारें जनता की अपेक्षाओं को पूरा नहीं कर पा रही हैं। राष्ट्रवाद का स्थायी भाव स्थानीय मुद्दे पर हावी नहीं हो पा रहा है। इन प्रदेशों में भाजपा की हार के एक बड़े मायने इसलिए भी है क्योंकि यही राज्य भाजपा के वह मुख्य राज्य माने जाते हैं जहां से भाजपा का प्रारम्भिक लालन पालन हुआ है। इन प्रदेशों में भाजपा कार्यकर्ताओं की अनदेखी एवं स्थानीय नेताओं की उपेक्षा के कारण यह राज्य लगातार भाजपा के हाथ से निकलते जा रहे हैं। भाजपा के इस पतन का कारण अब स्वयं भाजपा ही बन रही है। भाजपा को यह समझना होगा कि सिर्फ मोदी के नाम पर वोट पाने का मुगालता पालना उसे बंद करना होगा। कार्यकर्ताओं की जय उसे बोलनी ही होगी। एक ओर उत्तर प्रदेश में कमलेश तिवारी की हत्या से भाजपा की हिन्दुत्व वाली छवि को नुकसान पहुंचा तो जनाधार वाले स्थानीय नेताओं का समायोजन न करना भी भाजपा के पतन का कारण बन रहा है। इसके साथ ही भाजपा द्वारा राष्ट्रवाद और हिन्दुत्व में बहकर जातिगत आंकड़े न साधना भी राज्य स्तर पर उल्टा दांव साबित हो रहा है। हरियाणा में जाट, मुस्लिम और दलित गठजोड़ ने भाजपा के विरोध में जाकर भाजपा की खाट ही खड़ी कर दी। महाराष्ट्र में भी भाजपा और शिवसेना गठबंधन को दो तिहाई सीटों पर जीतने की आशा थी किन्तु वहां भी ये दोनों बहुमत तक ही पहुंच पाये हैं। अब आगे दिल्ली और झारखंड के चुनाव सामने हैं। इसके बाद बिहार और 2022 में उत्तर प्रदेश में विधानसभा के चुनाव हैं। यह सब हिन्दी भाषी राज्यों में अब भाजपा खेमे को काफी कुछ काम करना है। इसलिए दूर से देखने पर तो भाजपा के लिए चुनाव अब आसान हो गए दिखते हैं किन्तु धीरे धीरे दरकती ज़मीन की दरारे भी भाजपा को भरनी हैं। चुनाव का प्रबंधन किस तरह किया जाता है इसमें भाजपा खेमा माहिर तो दिखता है किन्तु अब उसके सामने जमीनी चुनौतियां भी आने लगी हैं। हालांकि, देश की चुनावी राजनीति को राष्ट्रवाद पर सेट करने के कारण भाजपा के लिए काफी कुछ आसान भी हो जाता है।
थोड़ा पीछे लौटे तो 2014 में लोकसभा जीत के बाद से ही भाजपा ने देश की चुनावी दिशा को अपने रेगुलेटर से सेट करना शुरू किया था। लोकसभा के संदर्भ में चुनावी रेगुलेटर पूरी तरह भाजपा के हाथ में है और वह उसे अपने हिसाब से सेट कर लेती है। भारत के अंदर पाकिस्तान के लिए जो गुस्सा था उसे भाजपा ने खूब भुनाया है। 370 हटाने के ऐतिहासिक निर्णय के बाद भाजपा पर जनता का भरोसा और बढ़ गया है। भाजपा सरकार की आक्रामक विदेश नीति, पाकिस्तान को मुंह तोड़ जवाब, मोदी-ट्रम्प की दोस्ती और पीओके भारत के पास वापस आने की सुगबुगाहट के बीच मंदी, बेरोजगारी एवं अन्य स्थानीय मुद्दे लगातार गौण होते जा रहे हैं, ऐसा भाजपा को लगता रहा। पर जनता ने इन मुद्दों के साथ अन्य मुद्दों को भी अपने ध्यान में रखा है। हालांकि, जनता राष्ट्रनिर्माण की भाजपाई विचारधारा को पसंद कर रही है। राम मंदिर के विषय पर उच्चतम न्यायालय का निर्णय आता दिखने लगा है और उस कारण हिन्दुत्व का विषय भी उबाल पर है। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के द्वारा अयोध्या की दिवाली को राज्य मेला घोषित कर दिया गया है। योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने के बाद से ही अयोध्या में दिवाली भव्यता के साथ मनाई जाने लगी है। एक ओर केंद्र सरकार द्वारा राष्ट्रवाद पर काम करना और दूसरी तरफ उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा हिन्दुत्व के विषय पर काम करने से भाजपा खेमा जनता के बीच अपना संदेश देने में लगातार कामयाब होता जा रहा है। चूंकि, विपक्षी दल कांग्रेस बिलकुल लाचार और हताशा की स्थिति में है इसलिए अगर जनता में नाराजगी भी होती है तो वह सत्ता परिवर्तन का आधार नहीं बन पाती है।
शीर्ष नेतृत्व की आंतरिक कलह से जूझती कांग्रेस
सब विषयों से पहले बात कांग्रेस की करते हैं। कांग्रेस का कमजोर नेतृत्व एवं मुद्दा विहीन राजनीति लगातार विपक्ष को हताशा से भर रही है। आज़ादी के 72 साल बाद संसद के भीतर और बाहर विपक्ष कभी भी इतनी लाचार और दयनीय स्थिति में नहीं रहा है। ऐसा लगता है जैसे विपक्ष के पास से उसका दिशासूचक यंत्र ही खो गया है जो राजनीति की मझधार से उसे बाहर निकाल सकता था। इसलिए कांग्रेस और कांग्रेस के कार्यकर्ता अलग अलग दिशा में दिशाहीन घूमते दिखते हैं। जिस केन्द्रीय नेतृत्व के इर्द गिर्द कार्यकर्ता एकत्र होते हैं। जिस सूर्य के चारों तरफ गृह चक्कर लगाते हैं उस सूर्य का प्रकाश और ऊर्जा समाप्त होती दिखती है। नेहरू-गांधी परिवार का सूर्य अब तीन भागों में बंट गया है। सोनिया, राहुल और प्रियंका के खेमे अब खुल कर एक दूसरे के सामने आने लगे हैं। पहले जो पारिवारिक वर्चस्व की लड़ाई परिवार के अंदर थी अब वह सड़क पर कार्यकर्ताओं के बीच आ गयी है। हालांकि, प्रियंका, राहुल और सोनिया एक दूसरे के खिलाफ कुछ नहीं बोलते हैं किन्तु इनके खेमे के लोग अब शांत नहीं हैं। संजय निरूपम और अशोक तंवर का कहना है कि राहुल गांधी के लोगों को लगातार निशाना बनाया जा रहा है। ऐसे विषयों पर न प्रियंका गांधी कुछ बोलती हैं और न ही सोनिया गांधी। ये दोनों न ही ऐसी बातों का खंडन करती हैं और न ही इनका समर्थन करती हैं। इस कारण से जिस कांग्रेसी कार्यकर्ता को राहुल गांधी में अरुचि होने में 15 साल का लंबा समय लगा उसे प्रियंका गांधी से मोहभंग होने में सिर्फ 8 महीने ही लगे। कांग्रेस का कार्यकर्ता प्रियंका के अंदर इन्दिरा गांधी की छवि और तेवर महसूस करना चाहता था। वह चाहता था कि प्रियंका आगे बढ़कर कठोर निर्णय लें और कांग्रेस कार्यकर्ताओं का सूर्य बनें। पर ऐसा न करके प्रियंका ज़मीन से ज़्यादा ट्विटर वार में हैं। अगर कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व के बीच में कोई सामंजस्य होता तो शायद भाजपा के विरोध में चल रही हवा उसे हरियाणा में पूर्ण बहुमत तक पहुंचा देती। पर ऐसा नहीं हो पाया।
लोकसभा चुनाव में दुर्गति के बाद कांग्रेस के पास आगामी विधानसभा चुनावों में अच्छा मौका था कि वह स्वयं को मजबूत करे। प्रियंका गांधी के रूप में एक तरोताजा चेहरा उनके पास भी था। पर कांग्रेस के लिए इन लोगों ने कोई बड़ा टर्न नहीं लिया। अब कांग्रेस की हालत यह हो गयी है कि वह बस इंतज़ार करती रहती है कि भाजपा कोई गलती करे और उसका फायदा कांग्रेस को मिल जाये। हरियाणा में कांग्रेस को बड़ा फायदा मिला तो महाराष्ट्र में इसका थोड़ा सा ही फायदा कांग्रेस ले पायी। 2004 में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के समय भाजपा के चुनावी प्रबंधन की जिस कमी के कारण वह सत्ता में वापस आ गयी थी उस कमी को दूर करके भाजपा का प्रबंधन भी पूर्ण सतर्क दिखता है। भाजपा के इसी गुण के कारण पुराने कांग्रेसी परिवार भी भाजपा में जुड़ते जा रहे हैं। प्रियंका गांधी के रवैये से परेशान उत्तर प्रदेश में तीन बार की सांसद रत्ना सिंह ने भाजपा का दामन थाम लिया है। एक अन्य बड़े नेता जितिन प्रसाद भी लोकसभा चुनाव के समय भाजपा में जाने के काफी करीब पहुंच गए थे। अब वर्तमान में जैसे ही हरियाणा, महाराष्ट्र चुनाव की घोषणा हुयी तो राहुल गांधी नाराज हो गए। अब चूंकि पार्टी की अध्यक्ष स्वयं उनकी मां हैं तो उनकी नाराजगी किससे है यह समझना भी ज़्यादा मुश्किल नहीं है। राहुल और प्रियंका के ऐसे व्यवहार से युद्ध के लिए तैयार कांग्रेसी सैनिकों में उसी तरह की हताशा का भाव घर कर जाता है जैसे युद्ध के समय सेनापति के गायब होने से प्रभाव पड़ता है। कांग्रेस की महासचिव प्रियंका गांधी का हरियाणा और महाराष्ट्र में प्रचार में न जाना भी न तो कांग्रेसी कार्यकर्ताओं को रास आया न ही विपक्ष से दमदार भूमिका की उम्मीद करने वाले मतदाताओं को। यहां तक कि उत्तर प्रदेश के प्रभार के बावजूद प्रियंका गांधी ने उत्तर प्रदेश उपचुनाव से भी दूरी बनाए रखी। सोनिया गांधी ने भी पूरे प्रचार में कोई रुचि नहीं दिखाई। सिर्फ राहुल गांधी ने महाराष्ट्र में अपनी उपस्थिति दर्ज की और उनके करीबी माने जाने वाले और मुंबई कांग्रेस के अध्यक्ष रहे संजय निरूपम उनकी सभा तक में नहीं गए। अब कांग्रेस में अंदर क्या चल रहा है उसके लिए यह सब बातें पर्याप्त हैं। इसके लिए किसी रॉकेट साइन्स का जानकार होने की आवश्यकता भी नहीं है। अब जिस तरह से उत्तर प्रदेश के उपचुनाव और हरियाणा, महाराष्ट्र में भाजपा का ग्राफ गिरा है तब अगर कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व ने थोड़ी सी भी गंभीरता दिखाई होती तो स्थिति भाजपा के लिए और भी ज़्यादा खराब हो सकती थी।
अब इसके एक कदम आगे और बढ़ें एवं कांग्रेस के ‘युवराज’ राहुल गांधी पर बात करें तो वह अभी भी उस राफेल के विषय पर अटके हैं जिसको 2019 के लोकसभा चुनावों में जनता नकार चुकी है। राजनाथ सिंह विजयदशमी के दिन उसका पूजन करके भारतीय जनमानस में एक छवि बना चुके हैं। इसके साथ ही कांग्रेस की एक बड़ी समस्या नेहरू गांधी परिवार से बाहर न आ पाने की भी है। लोकसभा चुनाव में हार के बाद कांग्रेसी नहीं चाहते थे कि राहुल पर कोई आंच आए। इसलिए आनन फानन में उनका इस्तीफा दिलवाया गया और अन्तरिम अध्यक्ष के रूप में सोनिया गांधी को विराजमान कर दिया गया। उनको दो महीने से ज़्यादा समय हो गया है और कांग्रेस नए अध्यक्ष के नाम पर अब भी खामोश है। एक बार तो यह आस जागी थी कि शायद कांग्रेस में नेहरू गांधी परिवार से बाहर का कोई व्यक्ति अध्यक्ष बन सकता है किन्तु अब नहीं लगता है कि कांग्रेस इस मोहपाश से बाहर आ पाएगी। वही ढाक के तीन पात की तर्ज पर कांग्रेसी सूर्य नेहरू-गांधी परिवार से आयेगा और वह तेजहीन ही साबित होगा। स्वस्थ लोकतन्त्र में विपक्ष का प्रभावी होना पहली शर्त होता है। अब न तो केंद्र में विपक्ष मजबूत दिखता है और न राज्यों में। हर जगह ऐसा हाल है कि अगर भाजपा सरकारें कहीं गलती भी करती हैं तो विपक्ष उसे भुनाने सड़कों पर भी नहीं दिखता है। सब के सब सोशल मीडिया पर उछल कूद करते रहते हैं।
हरियाणा में हुड्डा को लाने में देर की कांग्रेस ने
हरियाणा में कांग्रेस पूर्ण बहुमत से सरकार में आ सकती थी किन्तु कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व ने चुनाव के सिर्फ चार सप्ताह पहले हुड्डा को कमान सौंपी। अगर कांग्रेस का आलाकमान लोकसभा चुनाव के तुरंत बाद हुड्डा को हरियाणा में जि़म्मेदारी दे देता तो शायद कांग्रेस और ज़्यादा सीटें जीत जाती। इसके साथ ही कुमारी शैलजा को भी हरियाणा के परिदृश्य में लाया गया। हुड्डा और शैलजा के परिदृश्य में आते ही जाट और दलित वोट बैंक भाजपा से छिटक गया। मुस्लिम तो पहले से ही भाजपा से दूर था। इस तरह से यह समीकरण कांग्रेस के लिए काम कर गया। कुछ स्थानों पर तो जाट कांग्रेस के साथ आया किन्तु एक बड़े क्षेत्र में वह दुष्यंत और अभय चौटाला की तरफ छिटक गया। दुष्यंत चौटाला जाटों के एक नए युवा नेता के रूप में उभरते दिख रहे हैं। जिस तरह से कांग्रेस में प्रियंका और राहुल के बीच वर्चस्व की अप्रत्यक्ष लड़ाई दिखने लगी है उसी तरह अभय और दुष्यंत में वर्चस्व की लड़ाई प्रत्यक्ष रूप से काफी पहले सामने आ चुकी थी। हरियाणा में दुष्यंत चौटाला की जजपा किंग मेकर बन कर उभरी है। नौ दिसंबर 2018 को अस्तित्व में आई जजपा ने एक साल के अंदर अपनी सियासी जमीन खासी मजबूत की है।
हरियाणा के ताऊ कहे जाने वाले देवीलाल के परपोते दुष्यंत चौटाला की पार्टी जजपा ने भाजपा और कांग्रेस जैसे बड़े दलों को सकते में ला दिया है और मुख्यमंत्री का पद मांगना भी शुरू कर दिया है। दुष्यंत चौटाला की करीबी कांग्रेस से मानी जा रही है। इसकी वजह उनके भाई अभय चौटाला की भाजपा से करीबी है। अभय और दुष्यंत में इन दिनों छत्तीस का आंकड़ा है। अभय चौटाला की करीबी अकाली दल से मानी जाती है जो पंजाब में भाजपा की सहयोगी है। इसके साथ ही दुष्यंत चौटाला के आत्मविश्वास की झलक मतदान के बाद ही दिखने लगी थी जब उन्होंने कहा था कि हरियाणा में न भाजपा और न ही कांग्रेस को 40 सीटें मिलेंगी। भाजपा के खिलाफ जाटों की नाराजगी को कांग्रेस और जजपा ने शानदार तरीके से कैश किया है। कुछ स्थानों पर जाट कांग्रेस के साथ गए हैं तो कुछ स्थानों पर जजपा के साथ। ऐसे में जजपा और कांग्रेस स्वाभाविक सहयोगी बनते दिख रहे हैं। दुष्यंत चौटाला के किंगमेकर बनने के बाद उनके बाबा देवीलाल की राजनीति की याद आ जाती है क्योंकि एक समय ऐसा था जब हरियाणा की सियासत में चौधरी देवीलाल की जबरदस्त पकड़ थी। देवीलाल की पार्टी ने 1987 के हरियाणा विधानसभा चुनाव में 90 में से 85 सीटें जीतकर तहलका मचा दिया था। इसके बाद उनकी राजनीतिक विरासत को उनके बेटे ओम प्रकाश चौटाला ने संभाला और प्रदेश के मुख्यमंत्री बने। 1987 की घटना के 32 साल बीतने के बाद उनकी विरासत संभाल रहा चौटाला परिवार आज दो धड़ों में बंट गया है। एक खेमा भाजपा की करीबी वाला इंडियन नेशनल लोक दल (इनेलो) का है जिसे ओम प्रकाश चौटाला के बेटे अभय चौटाला चलाते हैं और दूसरा उनके भतीजे दुष्यंत चौटाला की जेजेपी पार्टी है। 10 महीने में जेजेपी ने तीन चुनाव लड़ लिए हैं, पहले जींद उपचुनाव लड़ा, उसके बाद लोकसभा एवं इस बार विधानसभा चुनाव में पूरी 90 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतार कर किंग मेकर की भूमिका में आ गए।
हरियाणा चुनाव परिणाम का असर, दिल्ली में अवैध कॉलोनियों का नियमतीकरण
हरियाणा के चुनाव परिणाम का असर दिल्ली पर पडऩा तय है। हरियाणा और दिल्ली की भौगोलिक स्थिति में काफी समानता है और वहां सड़क मार्ग में एक ‘सी’ की आकृति का निर्माण होता है। हरियाणा में भाजपा का कमजोर विपक्ष के बावजूद बहुमत प्राप्त न करना दिल्ली में भाजपा कार्यकर्ताओं के हौसलों को पस्त करने वाला है। भाजपा के लिए जो एक सहानुभूति वाली बात है वह यह है कि हरियाणा में आम आदमी पार्टी को एक भी सीट पर जीत नहीं मिली। आप और कांग्रेस का गठबंधन भी हरियाणा में नहीं हुआ इसलिए दिल्ली में भी इन दोनों दलों के साथ लडऩे की संभावना न के बराबर ही है। बिजली, पानी, मोहल्ला क्लीनिक और सरकारी स्कूल में बेहतर काम करके केजरीवाल ने निम्न और निम्न मध्य वर्ग में अपनी अच्छी पैठ बना रखी है। इसलिए केजरीवाल को चुनौती देने के लिए किसी मास्टर स्ट्रोक की तलाश थी। भाजपा ने यह मास्टर स्ट्रोक केंद्र सरकार के माध्यम से 1797 अवैध कॉलोनियों को नियमित करने का आदेश देकर खेला। चूंकि यह लाखों दिल्ली वासियों पर असर डालने वाला फैसला है इसलिए इसका असर व्यापक होने जा रहा है। केंद्र सरकार के इस फैसले के बाद केजरीवाल यह समझ नहीं पाये कि उन्हें इसका कैसे जवाब देना चाहिए। उन्होंने इस पर कहा कि अगर केंद्र सरकार इसका क्रेडिट लेना चाहे तो ले लें, यह मुद्दा तो हम संघर्ष करके उठा रहे थे।
दिल्ली की राजनीति को समझने के लिए थोड़ा दिल्ली के परिसीमन को भी समझना आवश्यक है। उसके लिए पहले थोड़ा दिल्ली का राजनैतिक इतिहास समझते हैं। आज़ादी के बाद दिल्ली के राजनैतिक परिदृश्य को देखें तो हम पाते हैं कि दिल्ली में व्यापारी वर्ग का वर्चस्व रहा। इनमें पंजाबियों और वैश्य समाज की भूमिका प्रमुख रही। पाकिस्तान से आये शरणार्थियों में पंजाबी एक बड़ी संख्या में थे और उन्होंने दिल्ली की राजनीति में अपनी पैठ भी बना ली थी। 1990 तक दिल्ली की राजनीति इन दोनों समुदाय के लोगों के इर्द गिर्द ही सिमट कर रह गयी थी। बीजेपी की ओर से साहनी, मदन लाल खुराना, या वीके मल्होत्रा और कांग्रेस की तरफ से एच.के.एल. भगत इस समुदाय के प्रमुख नेता रहे। इसके अतिरिक्त रामचरण अग्रवाल, कंवरलाल गुप्ता, राधारमण भी प्रभावी राजनीति करते रहे। कुल मिलाकर अगर देखा जाये तो ये दोनों समुदाय ही दिल्ली की राजनीति की धुरी बने रहे। मुस्लिम नेताओं में मीर मुश्ताक और सिकंदर बख्त भी सीमित क्षेत्र में अपना प्रभाव रखते थे। उदारीकरण के आने के बाद दिल्ली में कारोबार बढ़ा। नए उद्यम लगे और उसमें काम करने के लिए दिल्ली में यूपी और बिहार से आने वाले लोगों की तादाद बहुत तेज़ी के साथ बढऩे लगी। इन लोगों ने दिल्ली में ही अपने वोट बनवा लिए और इस तरह दिल्ली में एक नए किस्म का वोट बैंक पैदा हो गया। देश के ग्रामीण इलाकों से आये इन लोगों के वोट बैंक पर कांग्रेस अपना प्रभुत्व भी जमाने में कामयाब रही।
दिल्ली का परिसीमन और भाजपा का वोट बैंक
सन 2008 में दिल्ली की 70 विधानसभा क्षेत्रों का नया परिसीमन हुआ था। 2008 के परिसीमन में चालाकी के साथ इस वोट बैंक को दिल्ली में अनुकूलता के साथ बांट दिया गया। ऐसा कहा जाता है कि ऑफ द रिकॉर्ड बातचीत में तत्कालीन कांग्रेसी अपनी इस चालाकी से फूले नहीं समाते थे। वे कहते थे कि कांग्रेस अब दिल्ली में कभी नहीं हार सकती और विधानसभा चुनावों में बीजेपी केवल मन मसोसकर कर रह जाया करेगी। इस परिसीमन के तत्काल बाद विधानसभा चुनाव होने थे। चूंकि उस समय केंद्र और दिल्ली विधानसभा दोनों में कांग्रेस की सरकार थी तो ऐसी चर्चाएं आम थीं कि दिल्ली की विधानसभा चुनावों में खुद को फायदा पहुंचाने के लिये कांग्रेस ने परिसीमन को प्रभावित किया है। नए परिसीमन में सीटों पर वोटर कुछ इस तरह संयोजित किए गए थे कि दिल्ली विधानसभा की 70 में से लगभग 50 सीटों पर कांग्रेस का वोट बैंक निर्णायक भूमिका में आ गया था। लोअर मिडल क्लास, झुग्गी झोपड़ी क्लास, अवैध बस्तियां एवं मुस्लिम बहुल इलाके मुख्यत: कांग्रेस के वोटर हुआ करते थे। हालांकि, ज़्यादातर सीटों पर वोटरों की संख्या तो एक से डेढ़ लाख के मध्य ही थी किन्तु फिर भी सवर्ण वोटों के आधार पर चुनाव जीतने वाली भाजपा के अनुकूल परिस्थितियां नहीं थी। एक बेहद गौर करने वाली बात है कि 26 नवम्बर 2008 को मुंबई पर हमला हुआ था और उस समय केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी। देश में सरकार के लिए बेहद गुस्सा था। 29 नवम्बर को दिल्ली में विधानसभा के लिए वोटिंग हुयी थी। इतनी प्रतिकूल परिस्थितियों में भी चुनाव परिणाम आने पर कांग्रेस विजयी हुयी थी।
इसके बाद 2008 के विधानसभा और 2009 के लोकसभा चुनावों में जब कांग्रेस विजयी हुयी तब नयी रणनीति कारगर होती दिखाई देने लगी। इसके बाद 2012 में अन्ना आंदोलन में दिल्ली ने बढ़ चढ़कर भाग लिया। आंदोलन के बाद बनी परिस्थितियों के द्वारा एक नए दल आम आदमी पार्टी का उदय हुआ। कांग्रेस के उकसाने पर राजनीति में आने वाले अरविंद राजनीति में नए किन्तु कुशल रणनीतिक खिलाड़ी बन कर उभरे और उन्होंने कांग्रेस के वोट बैंक के सहारे दिल्ली की सत्ता प्राप्त कर ली। 2013 के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस को आठ सीटें मिली और 2015 के चुनावों में एक भी उम्मीदवार जीतकर नहीं आ सका। 2015 की विधानसभा में आप के ज़्यादातर विधायक या तो दिल्ली में पैदा नहीं हुए हैं या 1990 के बाद यहां आकर बसने वाले परिवारों से आते हैं। सस्ती बिजली और मुफ्त पानी का नारा सबसे ज्यादा इन्हीं नयी बसी बस्तियों में चला था जो दिल्ली का परंपरागत वोट बैंक नहीं है। इस पूरे राजनैतिक परिदृश्य में एक खास बात ये रही कि भाजपा के वोट बैंक पर हमने चर्चा नहीं की है। क्योंकि वो तो कमोवेश परिवर्तित ही नहीं हुआ। बीजेपी का पारंपरिक वोट अभी भी उनके साथ है लेकिन परिसीमन ने कांग्रेस को साफ कर दिया। अब जो 1797 अवैध कॉलोनी को नियमित करने का जो निर्णय भाजपा ने दिया है उसके बाद परिसीमन के बाद भाजपा की हार वाला फॉर्मूला बदल भी सकता है। जहां तक भाजपा की जीत की बात है तो भाजपा को स्थानीय मुद्दों पर तो काम करना ही है, उसके साथ ही जातिगत आंकड़ों को तोडऩे एवं क्षेत्रीय दलों से निपटने के लिए प्रखर हिन्दुत्व के विषय पर टिका रहना ही होगा।
छोटे दलों और जातिवाद से निपटने का एक ही उपाय है ‘प्रखर हिन्दुत्व’
राजनीतिक परिदृश्य में लोग बड़े दलों की तरफ नजऱें गढ़ाये बैठे रहते हैं और छोटे दल अपना काम कर जाते हैं। छोटे दलों के पास खुद प्राप्त करने के लिए तो ज़्यादा कुछ नहीं होता है किन्तु बड़े दलों का खेल खराब करने की पूरी क्षमता होती है। बसपा, सपा, आप, माकपा, जजपा, एनसीपी, शिवसेना जैसे दलों की भूमिका राज्यों के चुनाव में एकदम से बड़ी बन जाती है। उदाहरण अगर बसपा का लेते हैं तो मध्य प्रदेश में 1993 के चुनावों में बसपा ने 11 सीटे जीत ली थीं। 2013 के विधानसभा चुनावों में बसपा के चार विधायक जीते थे और उसको मिलने वाले मतों का प्रतिशत 6.42 प्रतिशत रहा था। राजस्थान में भी 2013 में बसपा ने पहले उपस्थिति दर्ज की एवं 3.4 प्रतिशत मतों के साथ बसपा के दो विधायक जीते। छत्तीसगढ़ में 4 प्रतिशत मतों के साथ बसपा का एक विधायक जीता था। इसी तर्ज पर हरियाणा में जजपा ने अपनी उपस्थिति दर्ज करा दी है और कांग्रेस और भाजपा को अपने सामने घुटने पर ला खड़ा किया है। एक आंकड़े के अनुसार चुनाव में 3-4 प्रतिशत का झुकाव चुनाव परिणाम को प्रभावित कर देता है। तो ऐसे में 4 प्रतिशत वोट प्राप्त करने वाला दल स्वत: ही एक महत्वपूर्ण दल बन ही जाता है। इसे 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में हुये गठबंधन से समझा जा सकता है। 2010 में कांग्रेस को सिर्फ चार विधानसभा सीटों पर विजय मिली थी। 2015 में जब कांग्रेस, जदयू एवं राजद में गठबंधन हुआ तो कांग्रेस के खाते में कुल 243 सीटों में से 40 सीटें आ गईं थीं। गठबंधन के समीकरण में कांग्रेस ने 27 सीटें जीती थीं। चार सीटों से 27 सीटों का आंकड़ा कांग्रेस सिर्फ गठबंधन के कारण प्राप्त कर पायी थी। किन्तु जब ऐसा ही एक गठबंधन कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश में सपा के साथ 2017 में किया तो वहां दोनों दलों को इसका नुकसान हुआ। इसी तरह उत्तर प्रदेश में सपा और बसपा का गठबंधन भी नुकसानदायक ही साबित हुआ।
यानि कि एक बात तो साफ है कि जब तक क्षेत्रीय दल छोटे रहते हैं तब तक यह बेहतर सौदेबाजी की स्थिति में लाभ लेते हैं। जैसे ही ये कुछ बड़े होते हैं और गठबंधन करते हैं तब इनसे फायदा पुराने स्थापित दलों को होता है। भाजपा जब तक अपने प्रखर हिन्दुत्व पर स्थिर रहती है तब तक तो क्षेत्रीय दलों को संतुलित करती रहती है। जैसे ही वह नर्म हिन्दुत्व पर आकर सबको साथ लेकर चलने की बात करती है, क्षेत्रीय दल उस पर हावी हो जाते हैं। तब उसकी राज्य सरकारों की असफलता भी मुद्दा बनते हैं और अन्य विषय भी। चूंकि, प्रखर और छद्म हिन्दुत्व की लड़ाई के बीच सेकुलर मोर्चा बिखर चुका है इसलिए भाजपा को प्रखर हिन्दुत्व और विकास के बीच वास्तविक सामंजस्य बैठाना होगा। सिर्फ हिन्दुत्व की बात नहीं करनी होगी बल्कि रामराज की परिकल्पना जमीन पर भी दिखानी होगी। राहुल गांधी के द्वारा गतवर्ष मंदिर और कैलाश मानसरोवर की यात्राएं करना यह तो साबित करता है कि आज विपक्षी दल भी हिन्दू वोट बैंक पर काम कर रहे हैं। इसके विपरीत मोदी मस्जिद में जाने लगे थे। जनता को न राहुल गांधी का छद्म हिन्दुत्व पसंद आया और न ही मोदी का मस्जिद जाना। जनता ने इनके बीच में विकास को चुनावी मुद्दा बनाया और स्थानीय मुद्दों पर वोटिंग कर दी। यहां भाजपा अपने विपक्षियों से पिछड़ गयी। भाजपा के थिंक टैंक को समझना होगा कि सिर्फ विकास की बात करने पर क्या भारत में चुनाव जीते जा सकते हैं? क्या बिना हिन्दुत्व के मुद्दे के जाति में बंटा हिन्दू समाज एकजुट हो सकता है?
हरियाणा और महाराष्ट्र परिणाम के बाद यह ऐसे विषय हैं जिस पर भाजपा के थिंकटैंक को अब गंभीरता से सोचना है क्योंकि दिल्ली और हरियाणा के चुनाव सिर पर हैं। इसके साथ ही भाजपा की सरकारों को जनता से जुड़े मूलभूत विषयों पर भी काम जनता को दिखाने होंगे। दिल्ली में केजरीवाल ने जनता को दिखने वाली मूलभूत जरूरतों पर अपना काम दिखाया है। जनता ने इसे पसंद किया है और केजरीवाल भविष्य में विपक्ष के सशक्त नेता के रूप में उभर रहे हैं। जमीनी स्तर पर काम करके जनता का विश्वास आसानी से जीता जा सकता है। इस संदर्भ में पौष्टिक भोजन और कुपोषण पर आई रिपोर्ट के आंकड़े पर अब केंद्र सरकार को जमीनी काम करने की आवश्यकता है। यहां यह बात समझना महत्वपूर्ण है कि राजनीति में सिर्फ वही मुद्दे काम नहीं कार्य करते हैं जो दिखते हैं। बल्कि वह भी काम करते हैं जो नहीं दिखते हैं। चूंकि अब छह साल से केंद्र में भाजपा की सरकार है इसलिए सिर्फ नेहरू पर समस्याओं का ठीकरा फोड़कर मोदी नहीं बच सकते हैं। अब जनता हर विषय पर मोदी से परिणाम चाहती है। इस संदर्भ में देश में पहली बार किए गए राष्ट्रीय पोषण सर्वेक्षण ने शिशुओं और किशोरों के पोषण को लेकर जो रिपोर्ट पेश की है उस पर ध्यान देना बेहद आवश्यक है। एक बीमार राष्ट्र कभी विकसित नहीं बन सकता है।
सौरभ गांगुली, बंगाल और झारखंड की राजनीति
सौरभ गांगुली का बीसीसीआई का अध्यक्ष बनना और अमित शाह के बेटे जय शाह का प्रमुख पद पर आना बंगाल की राजनीति पर बड़ा प्रभाव डालने जा रहा है। बंगाल में भाजपा के पास कोई बड़ा नाम नहीं है जिसे वह ममता के सामने मुख्यमंत्री के रूप में प्रस्तुत कर सके। सौरभ गांगुली को मुख्यमंत्री के रूप में पेश कर भाजपा को भी फायदा होगा और वामपंथी भी शायद इसका विरोध नहीं कर पाएंगे। युवाओं में लोकप्रिय सौरभ काफी संख्या में अन्य दलों के युवाओं के वोट में सेंध लगा सकते हैं। खेल से जुड़े होने के कारण धर्म और जातिगत आधार पर होने वाले विभाजन भी सौरभ गांगुली के कारण रुक सकता है। जिस तरह बाबुल सुप्रियो एवं रूपा गांगुली के नामों का भाजपा ने भरपूर उपयोग किया है ठीक वैसे ही सौरव गांगुली भाजपा के बंगाल में अगले बड़े नाम हो सकते हैं। सौरव का फायदा भाजपा उत्तर प्रदेश एवं बिहार में भी ले सकती है। इस तरह से सौरव का बीसीसीआई का अध्यक्ष बनना सिर्फ एक कड़ी मात्र नहीं है बल्कि इसके कई और सियासी मायने होने जा रहे हैं। बंगाल से सटे झारखंड के चुनावों में भी सौरव अपना प्रभाव रखेंगे। झारखंड में मुख्यमंत्री रघुवर दास से जनता में नाराजगी देखी जा रही है। हरियाणा में चोट खाने के बाद भाजपा अब झारखंड में खतरा नहीं लेगी। चूंकि झारखंड में लोग मोदी या भाजपा से अभी असंतुष्ट नहीं हुये हैं इसलिए सिर्फ मुख्यमंत्री के नाम को बदलकर भाजपा वापसी कर सकती है। पहले भी भाजपा द्वारा विधायकों और सांसदों के टिकट काटकर वापसी करने का निर्णय सफल रहा है। 2019 लोकसभा चुनाव में भी यह फॉर्मूला सफल था। इस तरह से देखा जाये तो अब राष्ट्रवाद की परिभाषा अब सिर्फ मोदी और शाह तक सीमित न होकर स्थानीय स्तर के बड़े नामों पर भी आकर टिकने लगी है। अब भाजपा की प्रदेश सरकारों से भी जनता उसी स्तर का प्रदर्शन चाहती है जैसा मोदी केंद्र में कर रहे हैं। जनता की अपेक्षा में गलत भी नहीं है क्योंकि वोट मोदी के नाम पर ही मिलता है। अब अतिशीघ्र होने जा रहे मंत्रीमंडल विस्तार में दिल्ली और भाजपा के कुछ चेहरे समाहित किए जा सकते हैं। सुरेश प्रभु की मंत्रीमंडल में वापसी एवं पीयूष गोयल, निर्मला सीतारमन के विभाग बदलने की भी तैयारी चल रही है। बिहार से जेडीयू के भी कुछ लोग नए मंत्रिमंडल में समाहित किए जाने की संभावना है।
महाराष्ट्र में दलगत स्थिति
भाजपा 103
शिवसेना 57
एनसीपी 53
कांग्रेस 46
एमएनएस 01
हरियाणा में दलगत स्थिति
भाजपा 40
कांग्रेस 31
आईएनएलडी 01
अन्य दल 08
जजपा 10
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राजनीति की बहती भावनायें और वोटर की नब्ज़ बना राष्ट्रवाद
राजनीति, भावनाएं और वोटर की नब्ज़ पकडऩे की कला में कुछ भी नया नहीं है। अगर इतिहास से शुरू करें तो सबसे पहले गांधी की राजनीतिक भावनाओं ने सुभाष चंद्र बोस को भारत का नेता न मानकर नेहरू के परिवार को इस देश का गांधी बना दिया। उसके बाद जयप्रकाश नारायण का वो आंदोलन जो जनता की भावनाओं से खड़ा हुआ उस आंदोलन की परिणिति लालू, मुलायम और वी.पी सिंह और न जाने कितने जातिवादी और अवसरवादी नेताओं का उदय कर गयी जिन्होंने बाद में जाति की भावनाओं को भड़काकर सत्ता का चरम पाया। उसके बाद मायावती जैसे नेताओं ने दलित उत्थान के नाम पर भावनाओं के ज्वार को सत्ता का ऐश्वर्य सुख हासिल कर भुनाया। कुल मिलाकर यदि देखा जाये तो सत्ता ‘लाल बहादुर शास्त्री’ जैसे एक दो नेताओं को छोड़ वोटर की नब्ज़ पर आधारित रही। शास्त्री ने जनता की भावनाओं को भड़काकर या गलत दिशा में ले जाकर नहीं अपितु जनता की भावनाओं के अनुरूप कार्य किया। सत्ता से ज्यादा दिलों पर राज किया। लाल बहादुर शास्त्री ने ‘जय जवान जय किसान’ का केवल नारा ही नहीं दिया बल्कि उनकी जय करने के कार्य को जमीनी हकीकत में बदलने का भरसक प्रयास भी किया। यह हमारा दुर्भाग्य है कि वह भी किसी की सत्ता प्राप्त करने की भावनाओं का शिकार हो गये और देश को भावनाओं में बिलखता छोड़ गये। अब आज की पीढ़ी के आंदोलन की बात करते हैं जिनका मैं स्वयं हिस्सा रहा हूं। अन्ना हज़ारे एवं बाबा रामदेव के कालेधन और भ्रष्टाचार के आन्दोलन के प्रमुख नेतृत्वकर्ताओं में से एक रहा। नौकरी छोड़ी और देश के लिए समर्पित स्वदेशी आंदोलन के महान जननायक भाई राजीव दीक्षित जी के विनम्र आग्रह पर मैं बाबा रामदेव के भारत स्वाभिमान आंदोलन का महत्वपूर्ण हिस्सा बना। अपने और अपने परिवार का सुनहरा भविष्य दांव पर लगा पांच वर्ष इस उम्मीद से वन्देमातरम कहता रहा कि देश बदलेगा। व्यवस्था परिवर्तन होगा। विदेशी बैंकों में जमा काला धन आएगा। भारत में स्वदेशी तंत्र होगा। गुंडे माफिया और भ्रष्ट नेता जेलो में होंगे। योग,आयुर्वेद का बोलबाला होगा।
परंतु किस विषय पर कितना जमीनी काम हुआ है यह सब आपके सामने है। हज़ारो कार्यकर्ता और देश के करोड़ों लोग राष्ट्र को एक ‘परिवार’ द्वारा बेचने से बचाने की भावना में ऐसे बहे कि राष्ट्र बिकने से बचा हो या नहीं, पर स्वदेशी के नाम पर बाबा जी के उत्पाद खूब बिकने लगे। इसके बाद जब 2014 आया तब तक राष्ट्रवाद कुलांचे भर रहा था। गांधी परिवार देश का ‘मोगम्बो’ यानि सबसे बड़ा विलेन हो गया था। चारों तरफ मोदी मोदी गूंज रहा था। हम सब देशवासियों की भावनायें या यूं कहूं राजनीति द्वारा प्रेरित भावनाओं की तेज धारा मोदी जी के साथ बह रही थी। प्रचंड बहुमत भी मिला। 2014 से 2018 तक सिर्फ राष्ट्रवाद का बोलबाला रहा। टीवी पर हिंदुस्तान-पाकिस्तान, पुलवामा-बालाकोट-उरी और हिन्दू-मुसलमान छाया रहा। 2019 में फिर राष्ट्रवाद की भावनाओं की सुनामी आई। एक नई भक्ति भावना जागृत हुई कि रोजगार मिले न मिले पर पाकिस्तान को सबक मिलना चाहिये। चाहे, किसान को फसलों के मूल्य के लिये भटकना पड़े या कजऱ् निपटाने के लिये मरना पड़े, पर उसने भी कहा कि पाकिस्तान की टेड़ी पूंछ सीधी कर दो। चाहे भाजपा में कांग्रेस एवं अन्य पार्टियों के छटे गुंडे, माफिया, बलात्कारी भर लो लेकिन पाकिस्तान को नेस्तनाबूद कर दो। बेटियों को बचाये या पढ़ाये, यह कोई चिन्ता की बात नहीं है। चिन्ता तो सिर्फ इस बात की है कि बंगाल में मुसलमानों ने हिन्दुओं का जीना हराम कर दिया है। बाकी राज्यों में जहां मोदी सरकार है वहां कितना रामराज्य आ चुका है उस पर चर्चा नहीं है।
अब 2024 के लिए भी वोटबैंक की भावनाओं का राष्ट्रीयकरण हो चुका है। 370 की सभी सुविधाओं से कश्मीर की अलगाववादी पाकिस्तान परस्त जनता को सबक सिखा दिया गया है। यह अलग बात है कि यह काम किसी के इशारे पर कहीं पर निगाहे कहीं पर निशाना लगाने के लिये किया गया है। अब जनता को कौन समझाये कि चीन और अमेरिका में ट्रेड वॉर छिड़ा हुआ है और इसके पीछे हाउडी यानि क्या क्या समझौते हुये होंगे। 2024 के लिये राम मंदिर की राजनैतिक भावनाओं का ट्रम्प कार्ड तो अभी भी जिंदा है। पर इन सब राष्ट्रवादी भावनाओं में किसी को बम्पर व्यापार में मुनाफा हुआ तो किसी की जिओ जिओ हो गई। बीएसएनएल जैसी सरकारी कंपनियों को खत्म कर राजनैतिक प्राइवेटाइजेशन कर दिया जा रहा है। देश की जनता ऑनलाइन लाईव दर्शन से राष्ट्रभक्ति से प्रेरित हो रही है। क्या इससे राजनीतिक रामराज्य आयेगा? यदि दूसरी नजऱ से देखें तो राष्ट्रवादी सत्ता से एक फायदा तो हुआ है। वामपंथी और नेहरू-गांधी परिवार का आधिपत्य समाप्त हो गया है। देश में राजनीति के लिये ही सही ‘हिंदुत्व और राष्ट्रवाद’ का आधिपत्य तो हो गया है। राजनैतिक भावनाओं से भाजपा की सरकार आगामी विधानसभाओं में और 2024 के लोकसभा में बनने एवं बिगडऩे में अब ‘राम’ का योगदान बड़ा होगा। राम नाम के रामराज और वास्तविक रामराज के अंतर को तुलसीदास इस दोहे में संपूर्णता से परिभाषित करते हैं। ‘सब नर करहिं परस्पर प्रीति। चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीती।।’
– अशित पाठक
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आर्थिक मंदी पर राष्ट्रव्यापी आंदोलन की तैयारी करती कांग्रेस
संसद के शीतकालीन सत्र के करीब आर्थिक मंदी के मुद्दे पर केंद्र की मोदी सरकार को घेरने के लिए कांग्रेस दिल्ली में बड़े प्रदर्शन की तैयारी कर रही है। इसको लेकर कांग्रेस विपक्षी दलों को भी साथ लेने की कोशिश में है। कांग्रेस गिरती अर्थव्यवस्था को लेकर नवंबर के शुरुआत में देश भर में प्रदर्शन करेगी। इसी कड़ी में दिल्ली में एक बड़ा प्रदर्शन किया जाएगा जिसमें दूसरे विपक्षी दलों को साथ लेने की कोशिश होगी। अभी दिल्ली में प्रदर्शन की तारीख और स्वरूप कांग्रेस साफ नहीं कर पा रही है। गौरतलब है कि कांग्रेस ने बीते 12 सितंबर को ऐलान किया था कि आर्थिक मंदी के मुद्दे पर पार्टी 15 से 25 अक्टूबर के दौरान देशव्यापी प्रदर्शन करेगी लेकिन त्यौहारों की तारीख और दो राज्यों के चुनाव के कारण इस योजना को आगे बढ़ा दिया गया था। इसको लेकर राज्यों इकाइयों को निर्देश भी जारी कर दिए गए थे। यहां यह महत्वपूर्ण है कि एक ओर जहां अर्थव्यवस्था की रफ्तार में गिरावट को सरकार अंतराष्ट्रीय कारणों से जोड़ रही है, वहीं कांग्रेस का आरोप है कि मोदी सरकार की गलत नीतियों के कारण मंदी आई है। कांग्रेस की शिकायत है कि सरकार मंदी की बात मानने से भी इंकार कर रही है। अर्थव्यवस्था के आंकड़ों और छंटनी आदि की खबरों को लेकर कांग्रेस ने लगातार प्रेस कॉन्फ्रेंस भी की हैं। राहुल गांधी और पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने पिछले दिनों में इस मुद्दे पर सरकार को घेरने की कोशिश की एवं कांग्रेस ने आर्थिक मंदी को महाराष्ट्र और हरियाणा विधानसभा चुनाव में बड़ा मुद्दा बना कर पेश किया। दोनों राज्यों में कांग्रेस को इसका कोई फायदा नहीं मिला।
दोनों राज्यों के चुनाव नतीजों को लेकर कांग्रेस खेमे में भी कभी भी उत्साह नहीं दिखा था, ऐसे में कांग्रेस को लगता है कि मंदी के मुद्दे पर बड़े पैमाने पर प्रदर्शन के जरिए वो लोगों को समझा पाएगी कि अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर मोदी सरकार नाकाम है। अब आगे रणनीति ये है कि कांग्रेस अगर ये एजेंडा बना पाने में कामयाब रही तो सत्ताधारी दल बीजेपी को बैकफुट पर धकेला जा सकता है। कांग्रेस संसद के भीतर और बाहर इस मुद्दे को जम कर उठाएगी। संसद का शीतकालीन सत्र 18 नवंबर से 13 दिसंबर तक चलेगा। अब यह देखना दिलचस्प होगा कि आने वाले दिनों में कांग्रेस आर्थिक मंदी को कितना बड़ा मुद्दा बना पाती है वो भी तब जबकि नवंबर के मध्य में सुप्रीम कोर्ट अयोध्या जमीन विवाद पर फैसला सुनाने वाला है।
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उपचुनाव में किसको कितना फायदा, किसको कितना नुकसान
देश के 17 राज्यों की 51 सीटों पर हुए विधानसभा उपचुनावों में भाजपा को कुल 15 सीटें हासिल हुई हैं। भाजपा ने सर्वाधिक सात सीटें उत्तर प्रदेश में जीती हैं। एनडीए 21 सीटों पर विजयी हुआ है। यूपीए को 13 सीटों पर जीत मिली है। इसके अलावा 17 सीटें अन्य क्षेत्रीय पार्टियों ने जीतीं हैं। उत्तर प्रदेश में जबकि सपा ने तीन सीटें जीती हैं। कांग्रेस को यूपी में कोई फायदा नहीं हुआ है। कांग्रेस ने पंजाब और गुजरात में सर्वाधिक तीन-तीन सीटें, तमिलनाडु में अन्नाद्रमुक ने दोनों सीटें जीतकर बढ़त हासिल की है। 51 सीटों पर हुए उपचुनावों में भाजपा को कुल 15 सीटें हासिल तो जरूर हुई हैं, लेकिन इसके साथ ही उसे चार सीटों का नुकसान भी हुआ है, जबकि पहले उसके पास 19 सीटें थीं। नुकसान वाले राज्यों में गुजरात, राजस्थान, पंजाब और मध्यप्रदेश शामिल हैं। हर राज्य में भाजपा को एक सीट का नुकसान हुआ है। वहीं बिहार और पंजाब में उसके सहयोगी दलों को नुकसान उठाना पड़ा है। पंजाब में भाजपा-शिरोमणि अकाली दल के गठबंधन ने एक-एक सीट गंवाई है। शिरोमणि अकाली दल ने एक अन्य सीट पर आम आदमी पार्टी के प्रत्याशी को हराकर जीत दर्ज की है। कांग्रेस ने पंजाब में तीन सीटों पर परचम लहराया है, जबकि पहले उसके पास यहां सिर्फ एक ही सीट थी। वहीं बिहार में पांच सीटों पर हुए ताजा उपचुनाव में भाजपा के पास कोई भी सीट नहीं थी, लेकिन उसके सहयोगी दल जद (यू) के पास पांच में से चार सीटें थीं। लेकिन जद (यू) को एक सीट ही मिली है। इस तरह से तीन सीट का उसको नुकसान हुआ है।
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इच्छाशक्ति हो तो समय से पहले पूरी होती हैं योजनाएं
सरकारी व्यवस्था से जुड़े लोग सरकार की नीतियों को जनता तक पहुंचाने का अहम माध्यम होते हैं। वह समय से जनता तक नीतियां पहुंचा भी सकते हैं और नहीं भी। ये लोग अगर ठान लें तो किसी भी योजना को समय से पहले भी पूरा कर सकते हैं। सबसे पहले बात करते हैं न्याय से जुड़े कुछ निर्णयों की। उत्तर प्रदेश के रायबरेली में एक विशेष न्यायालय ने एक बच्ची से हुये दुष्कर्म मामले की सुनवाई मात्र दस कार्य दिवस में पूरी कर दी और अपराधी को आजीवन कारावास की सज़ा सुना दी। इसी तरह उत्तर प्रदेश के ही औरैया जि़ले में भी दुष्कर्म पीडि़ता को 36 दिन में फैसला सुना दिया गया। इसमें भी अपराधी को आजीवन कारावास की सज़ा सुना दी गयी। इसके साथ जब हम केंद्र सरकार की उज्जवला योजना का अध्ययन करते हैं तब पाते हैं कि मार्च 2020 तक सरकार ने आठ करोड़ गैस कनैक्शन देने का लक्ष्य रखा था। इस लक्ष्य को भी सात महीने पहले प्राप्त कर लिया गया। यानि कि आज भी कुछ सरकारी कर्मचारी या सरकार से जुड़े लोग ऐसे हैं जो सुस्त नौकरशाही/न्यायपालिका की छवि को बदलने का दम रखते हैं।
भारत में न्यायपालिका की सुस्ती किसी से छुपी हुयी नहीं है, साढ़े तीन करोड़ केस का पेंडिंग होना इस बात को दर्शाता है कि न्यायपालिका में सब कुछ ठीक नहीं है। क़ानूनों में कई बड़े बदलावों के बावजूद महिला अपराधों में कमी नहीं आ रही है। ऐसे में लोगों की दलील होती है कि न्याय का देर से मिलना अपराधियों के हौसले बढ़ा देता है। इस दृष्टिकोण से देखने पर इन दोनों निर्णयों की अहमियत समझ आती है। ये निर्णय त्वरित न्याय के सिद्धान्त, न्याय व्यवस्था पर विश्वास जगाने वाले निर्णय दिखते हैं। इन वादों में त्वरित निर्णय से एक बात तो साफ है कि विवेचना, अभियोजन पक्ष सभी ने इसके लिए सहयोग किया होगा। रायबरेली वाले मामले में पुलिस ने सिर्फ पांच दिन के अंदर ही विवेचना पूरी करके आरोप पत्र दाखिल कर दिया था। यानि कि संबन्धित सभी की नीयत थी कि पीडि़ता को त्वरित न्याय मिले। इस संदर्भ में आर्थिक सर्वे 2019 की रिपोर्ट को समझना भी आवश्यक है। इसके अनुसार उत्तर प्रदेश में मुकदमों के कम निस्तारण पर ध्यान देने की आवश्यकता है। उत्तर प्रदेश में न्यायालय के पास साल में सिर्फ 244 कार्यदिवस होते हैं। इस रिपोर्ट के अनुसार न्यायाधीशों के 1300 से अधिक पद अभी भी रिक्त हैं। ऐसे में सिर्फ तारीख मिल सकती है न्याय नहीं।
अब दूसरे विषय उज्जवला योजना को देखते हैं तो सात महीने पहले लक्ष्य प्राप्त करना गर्व का विषय लगता है। देश में परंपरागत चूल्हों और उससे होने वाले धुएं के कारण प्रतिवर्ष पांच लाख महिलाओं की मौत का आंकड़ा बताया जाता है। विशेषज्ञों का कहना है कि रसोई में खुली आग के धुएं के समक्ष एक घंटे बैठने का अर्थ है 400 सिगरेट का धुआं सूंघना। 2014 में वल्र्ड वॉच इंस्टीट्यूट ने अपनी रिपोर्ट में बताया था कि दुनिया में सबसे अधिक जैव ईंधन पर निर्भर लोग विकासशील एशियाई देशों में हैं। भारत में 70 करोड़ लोग परंपरागत ईंधन(लकड़ी और गोबर) से खाना बनाते हैं। इस रिपोर्ट के अनुसार हर साल 20 लाख लोगों की मौत इस कारण होती है जिसमें से 44 प्रतिशत आबादी बच्चों की होती है। यदि मलेरिया से होने वाली मौतों से इसकी तुलना की जाये तो यह समस्या मलेरिया से भी घातक दिखती है। मलेरिया से निपटने के प्रयास तो काफी पहले शुरू हो चुके थे किन्तु इस विषय पर काम काफी बाद 2014 से शुरू हुआ। 1955 में भारत में एलपीजी की शुरुआत हुयी और 2014 तक भारत में 13 करोड़ एलपीजी कनेक्शन थे। 2016 में जब प्रधानमंत्री उज्जवला योजना के तहत गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले पांच करोड़ लोगों को 2019 तक गैस कनेक्शन का लक्ष्य रखा गया था तब वह भी बड़ा लग रहा था। बाद में इसे बढ़ाकर 2020 तक 8 करोड़ कर दिया गया। प्रारम्भ में इस योजना का लाभ सिर्फ उन लोगों को मिलना था जो 2011 की जनगणना के अनुसार गरीबी रेखा से नीचे थे। बाद में इस योजना का दायरा बढ़ाया गया और अनुसूचित जाति, जनजाति, वनवासी, अत्यंत पिछड़ा वर्ग, द्वीपों, चाय बागानों में रहने वालो, प्रधानमंत्री आवास योजना एवं अंत्योदय योजना के लाभार्थियों को भी इसमें शामिल कर लिया गया। राजनीतिक इच्छाशक्ति होने एवं हर स्तर पर जवाबदेही तय होने के कारण यह योजना समय से पहले पूर्ण हुयी और भारत की व्यवस्था पर लोगों का भरोसा मजबूत करने वाली योजना बनी।
अमित त्यागी
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)
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हिंदुवादी कमलेश तिवारी की हत्या से जुड़े अनछुए हैं कई आयाम
हिंदुवादी नेता कमलेश तिवारी की हत्या के सिर्फ उतने आयाम नहीं हैं जितने की दिखाई दे रहे हैं। उसके पीछे भी कई कहानियां हैं जो इस केस के साथ समानान्तर चल रही हैं। एक विचारणीय तथ्य यह है कि क्यों एक एक करके हिन्दुत्व पर काम करने वाले नेता, संत या तो जेल जा रहे हैं या उनकी हत्या हो रही है। पहले आसाराम जेल गए। उसके बाद राम रहीम, रामपाल, दाती महाराज और भी न जाने कितने हिंदुत्ववादी लोग जेल में हैं। अभी कुछ समय पूर्व राम मंदिर आंदोलन समिति के संयोजक और पूर्व गृह राज्यमंत्री स्वामी चिन्मयानंद भी बलात्कार के आरोप में घिरे और अब जेल में हैं। अब कमलेश तिवारी की हत्या हो गयी है। ऐसा लगता है जैसे हिन्दुत्व का विषय राजनीतिक रूप से उफान मारने के कारण एक विशेष धर्म के लोगों में कुंठा का भाव घर कर गया है। उस कुंठा का निशाना बन रहे हैं हिन्दुत्व वादी नेता। अब ऐसा भी नहीं है कि जेल जाने वाले दूध के धुले हैं किन्तु सिर्फ इन लोगों पर ही आरोप क्यों प्रचारित होते हैं? यह विषय विचारणीय भी है और चिंतनीय भी।
यदि कमलेश तिवारी प्रकरण पर वापस आयें तो हत्यारे कमलेश तिवारी को मारने की तैयारी काफी समय से कर रहे थे और उनके साथ एक पूरा संगठित गिरोह काम कर रहा था। कमलेश तिवारी 18 अक्तूबर को लखनऊ में एक बड़ा सम्मेलन करने की तैयारी कर रहे थे। इसका खूब प्रचार किया गया था एवं दूर-दराज के लोगों का इसका निमंत्रण भी दे दिया गया था। हत्यारों को जब इस आयोजन का पता चला तो इस सम्मेलन में सबके सामने ही कमलेश तिवारी की हत्या करने पर सहमति बनी थी। यही वजह थी कि 16 को सूरत से चलकर 17 अक्तूबर की रात दोनों हत्यारे लखनऊ पहुंचे थे। हत्यारे लखनऊ आए और रात 11 बजे ‘चेक इन’ कर लिया। खाना खाने के बाद अशफाक और मोइनुद्दीन रात में कुछ देर बाहर घूमने निकले। इस दौरान ही इन्हें पता चला कि कमलेश का 18 अक्तूबर को होने वाला सम्मेलन टल गया है। अब यह सम्मेलन 20 अक्तूबर को होगा। इस पर इन्होंने सूरत और नागपुर में फिर मददगारों से बात की। इस पर इन्हें कहा गया कि जब लखनऊ पहुंच गए तो काम करके ही लौटना। इसके पहले इन लोगों का प्लान कमलेश तिवारी की बरेली में हत्या का था। कमलेश तिवारी छह और सात अक्टूबर में बरेली थे। रात भर रुकने के बाद वह मुरादाबाद चले गये। हालांकि शूटर उस वक्त अपने मंसूबों में कामयाब नहीं हो पाये तो उन्होंने दस दिन बाद लखनऊ में घर जाकर कमलेश तिवारी की हत्या कर दी। आईएसआईएस समेत कट्टरपंथियों के निशाने पर रहे कमलेश के पास कोई खास सुरक्षा नहीं थी। जैसे जैसे राम मंदिर पर फैसले की घड़ी पास आ रही है वैसे वैसे कई हिंदुत्ववादी नेताओं की सुरक्षा पर सरकार को ध्यान देना होगा। यह विषय सिर्फ कानून व्यवस्था से जुड़ा हुआ नहीं है बल्कि भारत की अखंडता को चुनौती देने वाली ताकतों से भी जुड़ा है।