जर्मन के बान शहर में जी-20 देशों के विदेश मंत्रियों की बैठक का 17 फरवरी को समापन हो गया। इस कांफ्रेंस में तमाम राष्ट्रों ने न केवल एक-दूसरे के समक्ष अपने यहां की समस्याओं को रखा बल्कि उनके समाधान के लिए परस्पर सहयोग की अपेक्षा भी की। अमेरिका में डॉनल्ड ट्रंप के राष्ट्रपति बनने के बाद यह पहली अंतरराष्ट्रीय स्तर की कॉन्फ्रेंस थी। ऐसे में सभी नेताओं की नजर अमेरिका के नए विदेश मंत्री रेक्स टिलरसन पर टिकी थी। दुनिया जानना चाहती है कि ट्रंप के शासन में अमेरिका की विदेश नीति कहा जाएंगी। हालाकि इस बैठक में सभी देशों के विदेश मंत्रियों ने एक स्वर में उक-दूसरे का सहयोग करने की बात दोहराई। असल में सहयोग की बात तो जरूर की गई लेकिन इसको अमल में लाने का माहौल कहीं से कहीं तक दिखाई नही दिया। इस कांफें्रस में सभी विदेश मंत्री सहयोग शब्द की रट लगाए हुए थे और बार-बार ये शब्द गुंजते हुए सुनाई दे रहा था बावजूद इसके वहां पर्दे के पीछे मौजूद तनाव भी पर्दे के सामने साफ झलक रहा था। एक दूसरे को सहयोग प्रदान करने की बात के बाद भी समन्वयवाद से अधिक अलगाववाद की झलक दिखाई दे रही थी। विदेश मंत्रियों के एक दूसरे के साथ खड़े होते समय भी चेहरों पर असहजता ही दिख रही थी, कभी बिल्कुल न होती बातचीत या फिर कुछ- कुछ धड़ों के बीच सिमटी बातचीत। वैश्विक मीडिय़ा माध्यमों की माने तो जर्मन शहर बॉन में जी-20 देशों के विदेश मंत्रियों की दो दिवसीय बैठक का पहला दिन कुछ इसी अंदाज में गुजरा।
इस कांफें्रस के संबंध में सबसे पहले हम अमेरिका और रूस के बारे में बात करते है। अमेरिका के विदेश मंत्री टिलरसन ने रूसी विदेश मंत्री के साथ इस मौके पर बहुत ज्यादा नजदीकी नहीं दिखाई। अमेरिका के वर्तमान राष्ट्रष्पति ट्रंप की रूस से बेरूखी जगजाहिर है। रूस से निकटता के चक्कर में हाल ही में अमेरिका के नए राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकर माइकल फ्लिन को पद से इस्तीफा देना पड़ गया था ऐसे में फिर टिलरसन रूस के विदेश मंत्री के साथ नजदीकी दिखाकर कोई खतरा क्यों मोल लेते। बहरहाल टिलरसन ने इस अवसर पर जो भी बातें कही उसमें अमेरिकी राष्ट्रपति के उस नारे का विशेष ख्याल रखा गया कि- अमेरिका फस्र्ट। रूस के विदेश मंत्री सेर्गेई लावरोव से जब अमेरिका के टिलरसन की आमने-सामने बात हुई तो उसमें भी टिलरसन ने घुमा फिराकर अपने को मजूबत दिखाने का ही प्रयास किया। इन दोनों की आमने सामने की चर्चा के बाद अमेरिकी विदेश मंत्री ने कहा कि अमेरिका रूस से सहयोग करने को तैयार है, लेकिन सहयोग अमेरिका के हित में होना चाहिए, व्यावहारिक सहयोग के मौके सामने आने पर अमेरिका रूस के साथ काम करने के बारे में सोच सकता है, सहयोग अमेरिका के लोगों के हित में होना चाहिए। इस तरह टिलरसन ने घुमा फिराकर अमेरिकी राष्ट्रपति के हिसाब से ही अपनी बात को रखा। गोलमोल अंदाज में कही जाने वाली इस बात का हर कोई अपने-अपने हिसाब से मतलब निकालने लगा था। ये सब यह अच्छे से जानते है कि ट्रंप ने अब तक दुश्मनों से ज्यादा दोस्तों को चिंता में डाला है। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद से अमेरिका का करीबी साझेदार रहा पश्चिमी यूरोप आज इसी कारण चिंता में है। ऐसी चिंताओं पर थोड़ा मरहम लगाते हुए अमेरिकी विदेश मंत्री बोले कि जहां हम एक दूसरे से आंख नहीं मिलाते, वहां अमेरिका अपने और अपने सहयोगियों के हितों की रक्षा करता है। सनद रहे कि बॉन कॉन्फें्रस के 24 घंटे पहले अमेरिकी रक्षा मंत्री जेम्स मैटिस ने कहा था कि यूरोप के नाटो सदस्यों को सैन्य संगठन में अपना वित्तीय योगदान बढ़ाना होगा। ऐसा न हुआ तो अमेरिका को अपनी वचनबद्धता में संशोधन करना पड़ेगा। अमेरिकी रक्षा मंत्री के इस बयान पर प्रतिक्रिया देते हुए जर्मनी के विदेश मंत्री जिगमार ग्राबिएल ने बैठक में कहा कि सैन्य बजट के मुद्दे पर व्यापक बातचीत होनी चाहिए। वे बोले कि जर्मनी ने शरणार्थी से निपटने के लिए अब तक 30 से 40 अरब यूरो खर्च कर दिया है। यह भी नाटो और सुरक्षा से जुड़ा हुआ मुद्दा है। इस मौके पर ग्राबिएल ने रूसी विदेश मंत्री लावरोव के सामने यूक्रेन का मसला उठाते हुए पूर्वी यूक्रेन से भारी हथियार हटाने की मांग भी की। फिलहाल वहां संघर्ष विराम है, लेकिन इसे गाब्रिएल ने बेहद क्षण भंगुर बताया। इस बैठक में विशेष तौर पर उन ज्वलंत समस्याओं पर विस्तार से बात होनी चाहिए थी जो अनेक राष्ट्रों के बीच विवाद का मुख्य कारण बनकर खड़ी है। दूर्भाग्यवश इस मौके पर सबने अपने-अपने हिसाब से अपनी बात रखी और चलते बने। असल में जी-20 राष्ट्रों के समक्ष आज भी अनेक ऐसी परेशानियां बांहे पसारे खड़ी है जिनके चलते आए दिनों विवाद सामने आते रहते है। हम इन विवादों को टाइम बम जैसे विवादों की श्रेणी में रखने जैसे माने तो भी किसी प्रकार की अतिश्योक्ति नही कही जा सकती है। दक्षिण चीन सागर , पूर्वी यूक्रेन-क्रीमिया, कोरियाई प्रायद्वीप, कश्मीर, साउथ ओसेटिया-अबखासिया, नागोर्नो-काराबाख, पश्चिमी सहारा, ट्रांस-डिनिएस्टर यही वो चंद मसले है जिन्हें हम टाईम बम जैसे विवाद कह सकते है। सबसे पहले हम दक्षिण चीन सागर के मसले पर नजरे इनायत करते है। चीन और अमेरिका इसको लेकर आए दिन आमने- सामने होते रहते है। बीते दशक में जब यह पता चला कि चीन, फिलीपींस, वियतनाम, ताइवान, बु्रनेई, इंडोनेशिया, सिंगापुर और कंबोडिया के बीच सागर में बेहद कीमती पेट्रोलियम संसाधन है, तभी से वहां झगड़े होने शुरू हो गए। चीन इस पूरे इलाके को तक से प्रबल रूप से अपना बताते रहा है, जबकि अंतरराष्ट्रीय ट्रीब्यूनल ने चीन के इस दावे को खारिज कर दिया है। इस पेट्रोलियम संसाधन को लेकर ही बीजिंग और अमेरिका के बीच जब-तब तलवारें खीचने लगती है। इस कांफें्रस में इस समस्या के हल को लेकर किसी प्रकार से रचनात्मक पहल नही हुई। पूर्वी यूक्रेन-क्रीमिया की समस्या भी गंभीर है। बता दे कि 2014 में रूस ने क्रीमिया प्रायद्वीप को यूक्रेन से अलग कर दिया था तभी से क्रीमिया यूक्रेन और रूस के बीच विवाद की जड़ बना हुआ है। यूक्रेन क्रीमिया को वापस पाना चाहता है। यह मुद्दा भी मसला भी दिनों- दिन विवाद का बड़ा कारण बनता जा रहा है, लेकिन इसको लेकर भी रचानत्मक चर्चा नही हो पाई। हालाकि पश्चिमी देश इस विवाद में यूक्रेन के साथ में है। कोरियाई प्रायद्वीप का मसला भी बेहद चिंताजनक है। उत्तर और दक्षिण कोरिया हमेशा युद्ध के लिए तैयार रहते है। आलम ये है कि उत्तर कोरिया युद्ध के लिए भडक़ाता है और दक्षिण को तैयारी में लगे रहना पड़ता है। दो किलोमीटर का सेनामुक्त इलाका इन दानों देशों को अलग-अलग रखे हुए हैं। एक ओर उत्तर कोरिया को बीजिंग का समर्थन हासिल है तो दूसरी तरफ दक्षिण कोरिया के साथ बाकी दुनिया की सहानुभूति है। साउथ ओसेटिया और अबखासिया का मसला भी अहम है। ये कभी सोवियत संघ का हिस्सा हुआ करते थे। जबकि आज इन इलाकों पर जॉर्जिया अपना दावा ठोके हुए है। हालाकि रूस इनकी स्वायत्ता का समर्थन करता है। इन इलाकों के बीच होने वाले विवाद के चलते सन् 2008 में रूस-जॉर्जिया के मध्य युद्ध भी हो चुका है। पूर्व में रूसी सेनाओं ने इन इलाकों से जॉर्जिया की सेना को बाहर खदेड़ दिया था और उनकी स्वतंत्रता को मान्यता प्रदान कर दी थी। लेकिन ये विवाद अभी खत्म नही हुआ है। ठीक इसी तरह नागोर्नो-काराबाख का भी विवाद सामने खड़ा है। नागोर्नो-काराबाख के चलते अजरबैजान और अर्मेनिया का युद्ध भी हो चुका है। सन् 1994 में हुई संधि के बाद भी हालात तनावपूर्ण बने हुए हैं। इस इलाके को अर्मेनिया की सेना नियंत्रित करती है। अप्रैल 2016 में वहां एक बार फिर से युद्ध जैसे हालात निर्मित हो गए थे। पश्चिमी सहारा की परेशानी भी यहां पैर पसारे खड़ी है। सन् 1975 में स्पेन के पीछे हटने के बाद मोरक्कों ने पश्चिमी सहारा को खुद में मिला लिया था। इसके बाद दोनों तरफ से हिंसा होती रही। सन् 1991 में संयुक्त राष्ट्र ने यहां संघर्ष विराम करवाया। अब जनमत संग्रह की बात होती है, लेकिन कोई भी पक्ष उसे लेकर पहल नहीं करता है। बताते चले कि रेगिस्तान के अधिकार को लेकर यहां तनाव कभी भी भडक़ सकता है। ट्रांस-डिनिएस्टर। मोल्डोवा का ट्रांस-डिनिएस्टर इलाका रूस समर्थक है। यह इलाका यूक्रेन और रूस की सीमा है। वहां रूस की सेना तैनात रहती है। विशेषज्ञों के मुताबिक पश्चिम और मोल्डोवा की बढ़ती नजदीकी मॉस्को को यहां परेशान कर सकती है। कश्मीर का मुद्दा भी भारत और पाकिस्तान के बीच आए दिनों विवाद का कारण बन कर उभरते रहता है। कश्मीर दुनिया में सबसे ज्यादा सैन्य मौजूदगी वाला इलाका है। दोनों देशों के बीच इसे लेकर तीन बार युद्ध भी हो चुका है। 1998 में करगिल युद्ध के वक्त तो परमाणु युद्ध जैसे हालात बनने लगे थे। अभी तक तीन युद्धों के अलावा शीत युद्ध में अनेक जाने जा चुकी है लेकिन समस्या यथावत है।
जी-20 राष्ट्रों के इस दो दिवसीय विदेश मंत्रियों की कॉन्फें्रंस में ये चर्चा-परिचर्चा के अहम मुद्दें हो सकते थे लेकिन इनको छुने कि बजाय यूक्रेन, सीरिया, अफगानिस्तान और अफ्रीका पर फोकस किया गया। हालाकि इस चर्चा से कितना कुछ ठोस निकलता है, यह इस बात पर निर्भर करेगा कि बदलती दुनिया में जी-20 देश एक दूसरे पर कितना भरोसा कर पाते है।
संजय रोकड़े