जब से नरेंद्र मोदी सरकार आई है कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, माक्र्सवादी (सीपीएम), भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई), भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, माक्र्सवादी, लेनिनवादी (सीपीआई, एम एल) आदि जैसे जातिवादी इस्लामिक सांप्रदायिक (जाइसा) दलों के पेट में भीषण दर्द चल रहा है। इस जाइसा मोर्चे का नेतृत्व कर रहे हैं कांग्रेस और साम्यवादी-नक्सल दल जिनकी दिल्ली मीडिया में अच्छी-खासी पैठ है। कभी ये असहिष्णुता का रोना रोते हैं तो कभी जवाहरलाल नेहरू के ‘आईडिया ऑफ इंडिया’ का, जिसमें धर्मनिरपेक्षता का अर्थ है इस्लामिक सांप्रदायिक कट्टरवाद को बढ़ावा देना और उदारवाद का मतलब है देशद्रोही ताकतों को शह देना।
साम्यवाद रूझान वाले जवाहरलाल नेहरू के ‘आईडिया ऑफ इंडिया’ ने देश को मानसिक स्तर पर ही विषाक्त नहीं किया, इसने भौतिक स्तर पर भी देश तोडऩे वाली देशद्रोही ताकतों को पैदा किया और सरेआम बढ़ावा दिया। इस्लाम और चीन के प्रति नेहरू के षड्यंत्रकारी रूप से नरम रवैये ने देश को जो आघात पहुंचाया वो तो आजाद भारत के इतिहास में अंधे युग के रूप में याद किया जाएगा। उनके इस रवैये ने कालांतर में देशद्रोही नक्सलवाद को बढ़ावा दिया जिसने देखते ही देखते देश के बड़े हिस्से पर नाजायज कब्जा कर लिया जो अब भी जारी है।
नेहरू और साम्यवादियों के जहरीले गठबंधन का विष विश्वविद्यालयों में भी सोचे-समझे तरीके से फैलाया गया। नेहरू ने अबुल कलाम आजाद को देश का पहला शिक्षा मंत्री बनाकर शिक्षा नीति की हिंदू विरोधी दिशा तय कर दी। इसे अंजाम तक पहुंचाया पक्के इस्लामिक कट्टरवादी, साम्यवादी प्रोफेसर नुरूल हसन ने जिन्होंने 1971 में शिक्षा, समाज कल्याण – संस्कृति मंत्रालयों का कार्यभार संभाला। नुरूल हसन के शिक्षा मंत्री बनने के पीछे भी एक कहानी है।
वर्ष 1967 में हुए आम चुनावों के बाद जब इंदिरा गांधी की वरिष्ठ कांग्रेसी नेताओं से अनबन हुई तो उन्होंने अलग कांग्रेस बना ली। ऐसे में सत्ता में बने रहने के लिए उन्हें साम्यवादियों की जरूरत पड़ी। उन्होंने समर्थन तो दिया लेकिन बदले में शिक्षा, संस्कृति और समाज कल्याण मंत्रालय में अपने पि_ू और घोषित वामपंथी नुरूल हसन को बिठा दिया। हसन ने अपनी विकृत राजनीतिक मानसिकता के अनुसार देश की शिक्षा और इतिहास को दूषित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
हसन के शिक्षा मंत्री बनने से ठीक पहले जानेमाने अर्थशास्त्री-शिक्षाविद् वी.के.आर.वी. राव शिक्षा मंत्री थे। उन्होंने भारतीय इतिहास को भारतीय परिप्रेक्ष्य में जानने और समझने-समझाने के लिए अनेक प्रयास किए। इसी सिलसिले में उन्होंने सुप्रसिद्ध इतिहासकार रमेश चंद्र मजुमदार द्वारा संपादित और भारतीय विद्या भवन द्वारा प्रकाशित 11 वॉल्यूम वाले ग्रंथ हिस्ट्री एंड कल्चर ऑफ द इंडियन पीपल, फ्रॉम प्रीहिस्टॉरिक टाइम्स टू 1947 का सभी भारतीय भाषाओं में अनुवाद करवाने का बीड़ा भी उठाया मगर हसन ने आकर इसे ठंडे बस्ते में डाल दिया। उन्होंने ‘जातीय संघर्ष’ वाले, हिंदू विरोधी इतिहास लेखन को बढ़ावा दिया जिसमें साम्यवादी ‘वर्ग संघर्ष’ का छौंक लगाया गया। हसन ने इंडियन काउंसिल फॉर हिस्टोरिकल रिसर्च की स्थापना की जो हिंदू विरोधी साम्यवादी इतिहासकारों या कहें कहानीकारों का अड्डा बन गई। आगे चलकर कुख्यात इस्लामिक कट्टरपंथी इरफान हबीब इसके प्रमुख बने जिन्होंने रामजन्म भूमि वाद को लेकर भ्रांतियां फैलाईं जिनसे इस मसले का बातचीत से हल मुश्किल हो गया और हिंदुओं और मुसलमानों में दूरियां और मनमुटाव बढ़े। हिंदुओं के ‘जातीय संघष’, ‘दलितों पर सवर्णों के अत्याचार’ का जो सिद्धांत हसन ने दिया, उसे आज भारत से लेकर अमेरिका तक हिंदू विरोधी विश्लेषक, इतिहासकार अपनाए हुए हैं और हिंदुओं पर चाबुक चलाने का काम कर रहे हैं।
सोनिया गांधी के कांग्रेस की कमान संभालने के बाद इस विचार को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर और भी जोर-शोर से प्रचारित किया गया और इसके जरिए पश्चिमी ईसाई मिशनरियों को भारत में ईसाइयत फैलाने की छूट दी गई। सोनिया के नेतृत्व में मिशनरियों को दलितों में ही नहीं, आदिवासियों में भी घुसपैठ बनाने की छूट दी गई जिससे देखते ही देखते आदिवासी इलाकों में नक्सलियों और मिशनरियों का एक मजबूत राष्ट्रविरोधी गठबंधन पैदा हो गया जो संघ को ‘आतंकवादी’ बताता था और पश्चिमी कट्टरपंथी ईसाई संगठनों से मानवाधिकार या आदिवासी अधिकार आदि गैरसरकारी संगठनों के नाम पर अनाप-शनाप धन हासिल करता था।
पहले नेहरू, फिर इंदिरा गांधी और उसके बाद सोनिया गांधी के आशीर्वाद और समर्थन से साम्यवादी-नक्सली इतिहासकारों-समाजशास्त्रियों (कहानीकारों) ने धीरे-धीरे देश के अनेक विश्वविद्यालयों में जड़ें जमा लीं। इनमें जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, जादवपुर विश्वविद्यालय, हैदराबाद विश्वविद्यालय आदि प्रमुख हैं। आपने सोचा होगा कि यहां अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय का नाम नहीं लिया। तो स्पष्ट कर दें कि अलीगढ़ विश्वविद्यालय का तो हिंदू और हिंदुस्तान विरोध का पुराना इतिहास है। आजादी से पहले ये मुस्लिम लीग का गढ़ था। यहां जिन्नाह को हीरो माना जाता था। आजादी के बाद जब पाकिस्तान के पहले प्रधानमंत्री लियाकत अली खान यहां आए तो उनका स्वागत हीरो की तरह किया गया। असल में पाकिस्तान ने तो यहां से अपने लिए नौकरशाह ढूंढने की कोशिश भी की थी। समाजवादी पार्टी के बदनाम नेता आजम खान भी यहीं की पैदाइश हैं। कहा जाता है कि 1965 की लड़ाई में जब भारतीय सैनिक रामपुर छावनी से सीमा की ओर जा रहे थे तो उन्होंने उनका रास्ता रोकने के लिए उन पर पत्थर फेंके जिसके कारण उनकी पिटाई हुई थी और उन्हें अस्पताल में भर्ती करवाया गया।
कांग्रेस या कांग्रेसनीत यूपीए सरकारों के दौरान ये विश्वविद्यालय आमतौर पर शांत रहे क्योंकि इन्हें उदारवाद के नाम पर देश विरोधी एजेंडा चलाने की खुली आजादी दी गई। लोग आशंकाएं जताते थे कि इन विश्वविद्यालयों में नक्सलियों और आतंकियों ने अड्डे और स्लीपर सेल बना लिए हैं। ढकी-छिपी खबरें आती थीं कि यहां अध्यापकों को देशविरोधी अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं से पैसा मिलता है, आतंकियों की बरसियां मनाई जाती हैं, आजादी के नारे लगाए जाते हैं और छात्रों को देश तोडऩे की रीति-नीति और तर्क समझाए जाते हैं। यही नहीं, यहां ब्राह्मणवाद के विरोध के नाम पर हिंदू देवी-देवताओं और धार्मिक गं्रथों का सरेआम अपमान किया जाता है। वर्ष 2014 में मोदी सरकार आने के बाद पता लगने लगा कि जो अपुष्ट खबरें मिलती थीं वो वास्तव में किसी हद तक सही थीं। ये विश्वविद्यालय वास्तव में देशद्रोही ताकतों की प्रयोगशालाएं बन चुके थे।
इन विश्वविद्यालयों में नक्सली किस हद तक जड़ें जमा चुके हैं इसकी पहली झलक हैदराबाद विश्वविद्यालय में नक्सली और कथित रूप से दलित रोहित वेमूला की आत्महत्या के बाद मिली। रोहित को विश्वविद्यालय में हिंसा करने के आरोप में बर्खास्त किया गया था। ब्रेनवाश्ड रोहित ने अपनी गलती सुधारने और माफी मांग कर पढ़ाई-लिखाई में ध्यान लगाने की जगह 17 जनवरी, 2016 को आत्महत्या कर ली। उसकी आत्महत्या के बाद मीडिया के कांग्रेसी-साम्यवादी गैंग ने जैसा उत्पात मचाया और जैसे इस दुर्भाग्यपूर्ण घटना को दलितों और छात्रों को भड़काने के लिए किया, उससे ये साफ तौर से समझ में आने लगा कि कैसे नक्सली, दलितों को देश के विरूद्ध भड़काने के लिए बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर का इस्तेमाल कर रहे हैं और कैसे वो दलितों को सवर्णों के खिलाफ भड़काकर मुसलमानों और देशद्रोही ताकतों के साथ गठबंधन बनाना चाहते हैं और कैसे मीडिया में बैठे उनके पि_ू उनकी योजनाओं को आगे बढ़ाते हैं और झूठ को हजार-हजार बार दोहरा कर सच बनाने की कोशिश करते हैं। कहना न होगा कि कट्टरपंथी ईसाई संगठनों ने इस दुष्प्रचार में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नक्सलियों का साथ दिया और इसे खूब भुनाया। कुछ ईसाई संगठनों ने तो अमेरिका में भारत पर प्रतिबंध लगाने की मांग तक कर दी।
विश्वविद्यालयों में बढ़ रही देशद्रोही सड़ांध का दूसरा वीभत्स नजारा जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में देखने को मिला जब नौ फरवरी, 2016 को वहां आतंकियों को महिमामंडित करने वाले विघटनकारी देशद्रोही नारे लगे। देश ने आश्चर्य और भय के साथ देखा कि कैसे राहुल गांधी, अरविंद केजरीवाल, सीताराम येचूरी आदि खुल्लमखुल्ला देश तोडऩे वालों के साथ जाकर खड़े हो गए और इसे अभिव्यक्ति की आजादी बताने लगे। आश्चर्य नहीं कि जब देश के स्वनामधन्य नेता देशद्रोही नारे लगाने वाले ‘छात्रों’ को समर्थन देने लगे तो ये ‘छात्र’ भी चुनावी समर में उनका साथ देने के लिए कूद पड़े। चाहे विधानसभा चुनाव हों या पिछले लोकसभा चुनाव, ये संदिग्ध ‘छात्र नेता’ हर जगह नजर आए और इनके मीडिया ने इन्हें भरपूर कवरेज भी दी।
देशद्रोही नारे लगाने वाले ‘छात्र’ कैसे सक्रियता से दंगे भी भड़का सकते हैं इसकी पहली झांकी हमें दो जनवरी, 2018 को भीमा कोरेगांव में दिखाई दी जहां इन ‘छात्र नेताओं’ ने भरपूर जहर उगला और वहां मौजूद लोगों को दंगों के लिए भड़काया। इसके बाद जो हिंसा भड़की उसमें कुछ लोगों की जानें गईं और जानमाल का भारी नुकसान भी हुआ। भीमा-कोरेगांव घटना ने स्पष्ट कर दिया कि ये गैंग अपने राजनीति हित साधने के लिए हिंसा करने में भी नहीं हिचकेगा।
जब भीमा-कोरेगांव हिंसा की जांच पड़ताल शुरू हुई तो पता लगा कि ये कार्यक्रम नक्सलियों द्वारा आयोजित था और इसके पीछे बड़े-बड़े अर्बन नक्सल थे। इनमें से कुछ को तो पुलिस ने गिरफ्तार भी किया है। इनमें आनंद तेलतुंबडे, पीपल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीस की राष्ट्रीय सचिव सुधा भारद्वाज, एक अन्य सचिव गौतम नवलखा, अरूण फरेरा, वर्नन गोंजालविस, आनंद तेलतुंबडे, स्टेन स्वामी, वरवर राव आदि शामिल हैं। इन देशद्रोहियों की मीडिया में कितनी पकड़ है उसे इस बात से समझा जा सकता है कि देशद्रोही हरकतें करने के आरोप में गिरफ्तार किए जाने के बावजूद इनका मीडिया इन्हें मानवाधिकार कार्यकर्ता, आदिवासी अधिकार कार्यकर्ता, बुद्धिजीवी, लेखक आदि कह कर बुलाता है।
भीमा-कोरेगांव की चार्जशीट ने कांग्रेसी-साम्यवादी नेताओं, शहरों-जंगलों में बसे नक्सलियों, विश्वविद्यालयों में अध्यापकों और छात्रों के रूप में बैठे उनके एजेंटों, जगह-जगह मानवाधिकार और आदिवासी अधिकार के नाम पर एनजीओ खोल कर बैठे इनके वकीलों के बड़े रैकेट का पर्दाफाश किया। इससे ये भी स्पष्ट हो गया कि ये कैसे जंगलों में अपना शासन चलाने के लिए हथियार जुटाते हैं, कैसे इनके उल्फा से लेकर पाकिस्तानी आतंकी संगठनों और संदिग्ध चीनी संस्थाओं से संबंध हैं। आश्चर्य नहीं कि जब इन अर्बन नक्सलियों को पकड़ा गया तो इनके बचाव के लिए मुकदमा दायर किया जानीमानी वामपंथी कहानीकार, माफ कीजिएगा इतिहासकार रोमिला थापर ने और वकील के रूप में पेश हुए कांग्रेसी नेता अभिषेक मनु सिंघवी। भीमा कोरेगांव मामले की चार्जशीट पढ़ें तो आंखें खुली की खुली रह जाती हैं। इसमें वो दस्तावेज दिए गए हैं जिनमें एक नक्सली दूसरे से कह रहा है कि कैसे हिंसा भड़कने की स्थिति में कांग्रेस हर तरह की सहायता के लिए तैयार है और कैसे वो प्रधानमंत्री मोदी की हत्या की योजना बना रहे हैं।
इन घटनाक्रमों से स्पष्ट हो गया कि वामपंथ के गढ़ बने विश्वविद्यालयों में जो कुछ हो रहा है वो सुनियोजित और प्रायोजित है और ये लोग अपने राजनीतिक हितों के लिए हिंसा और हत्या करवाने से भी बाज नहीं आएंगे। कश्मीर की आजादी का सपना देखने वाले ये लोग अनुच्छेद 370 हटने पर दुखी तो बहुत हुए पर कुछ कर नहीं पाए क्योंकि आम कश्मीरी ने ही इनका साथ नहीं दिया। जब सुप्रीम कोर्ट ने राम मंदिर के पक्ष में फैसला सुनाया तो भी ये कुछ नहीं कर पाए क्योंकि आम मुसलमान इनके साथ नहीं था।
हिंसा भड़काने का बहाना ढूंढ रही इस देशद्रोही लॉबी को आखिरकार हिंसा फैलाने का बहाना मिला संसद में नागरिकता संशोधन विधेयक पारित होने पर। देश ने देखा कि कैसे विपक्षी नेताओं ने इसके खिलाफ संसद से सड़क तक भड़काऊ भाषण दिए और पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया जैसे आतंकी इस्लामिक संगठन की मदद से देश भर में हिंसा भड़काने की कोशिश की। इसमें भी अच्छी बात ये रही कि अधिसंख्य हिंदू शांत रहे और चंद मुसलमानों को छोड़ कर आम मुसलमानों ने भी झांसे में आने से इनकार कर दिया। हद तो तब हुई जब एक तरफ तो कांग्रेस शासित प्रदेश सीएए के खिलाफ प्रस्ताव पारित कर रहे थे तो दूसरी तरफ उनके वरिष्ठ नेता और वकील कपिल सिब्बल और अभिषेक मनु सिंघवी आदि उसके कानूनी औचित्य पर सवाल उठा रहे थे।
कहना न होगा कांग्रेस और अन्य जाइसा दलों ने सीएए के खिलाफ उन्माद भड़काने की भरपूर कोशिश की और इनके मीडिया ने इनके प्रायोजित कार्यक्रमों को स्वत: स्फूर्त बता कर खूब छापा। इसका एक उदाहरण शाहीन बाग धरना है। एक टीवी चैनल ने स्टिंग कर बताया कि कैसे इसके पीछे जेएनयू के इस्लामिक-नक्सली छात्रों का हाथ है तो दूसरी ओर एक अन्य टीवी चैनल ने बताया कि कैसे वहां धरने पर बैठने वाली महिलाओं को शिफ्ट के आधार पर पैसे दिए जा रहे थे। सबने देखा कि कैसे इस मुद्दे पर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की निंदनीय कोशिश की गई और कैसे शाहीन बाग में दिग्विजय सिंह जैसे कांग्रेसी नेताओं ने भड़काऊ भाषण दिए। यही नहीं फीस वृद्धि के नाम पर जेएनयू में हिंसक और अराजक आंदोलन करने वाली छात्र संघ की नौटंकीबाज नेता आइशी घोष वहां जाकर कश्मीर की आजादी का रोना रो रही थी।
हमने ये भी देखा कि कैसे जेएनयू में हिंसा के बाद जब प्रियंका गांधी वामपंथी छात्रसंघों के नौटंकीबाज फर्जी घायल ‘छात्र नेताओं’ को देखने एम्स पहुंचीं तो उन्होंने वहां मौजूद एबीवीपी के घायल नेताओं को जानबूझ कर नजरअंदाज किया ताकि कहीं उनकी उनके साथ सहानुभूति व्यक्त करते हुए फोटो न खिंच जाए। जब प्रियंका गांधी की बात आई तो यहां ये भी बताते चलें कि आजकल उनके राजनीतिक सलाहकार और भाषण लेखक संदीप सिंह बने हुए हैं जो जेएनयू के नक्सलवादी छात्र संगठन के सक्रिय सदस्य रह चुके हैं।
विश्वविद्यालयों में हो रही हिंसक घटनाओं और प्रदर्शनों को कुछ विश्लेषक सिर्फ विश्वविद्यालयों की चारदीवारी तक सीमित कर देखने की गलती करते हैं। लेकिन ये समझना होगा कि कांग्रेसी-नक्सली गठबंधन के ‘छात्र’ या एजेंट जो कर रहे हैं वो एक व्यापक षड्यंत्र का हिस्सा है और उसमें इनका मीडिया पूरी तरह शामिल है। ये लोग मोदी सरकार के विरूद्ध राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक झूठा नैरेटिव गढऩे, मुसलमानों और दलितों को भड़काने तथा देश में अस्थिरता फैलाने की सोची समझी साजिश कर रहे हैं जिसका आखिरी मकसद है मोदी की कथित ‘हिंदूवादी’ सरकार को बेदखल करना। विश्वविद्यालय में होने वाली हिंसा तो इसका एक छोटा सा हिस्सा भर है। इन्हें अवैध मुस्लिम घुसपैठियों के वोट चाहिए और इसके लिए ये हर उस प्रयास का विरोध करेंगे जिससे प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से भारत के नागरिकों को चिन्हित अथवा सूचीबद्ध किया जा सके।
लेकिन इसका ये अर्थ नहीं कि विश्वविद्यालयों को उनके हाल पर छोड़ दिया जाए। सर्वविदित है कि जब जेएनयू में कानून-व्यवस्था बहाल हुई तो अधिसंख्य छात्रों ने छात्र संगठन के बहिष्कार के बावजूद पंजीकरण करवाया और बढ़ी फीस भी दी। स्पष्ट है कि वहां छात्र पढऩा चाहते हैं और अपना भविष्य संवारना चाहते हैं। वो नक्सली एजेंटों की राजनीतिक महत्वाकांक्षा के लिए अपना बहुमूल्य समय गंवाना नहीं चाहते।
जाहिर है इस समस्या से सख्ती से और समय गंवाए बिना निपटना होगा। अलीगढ़ विश्वविद्यालय और अन्य स्थानों के दंगाइयों पर त्वरित कार्रवाई कर योगी सरकार ने अनुकरणीय उदाहरण पेश किया है। वहीं इस मामले में दिल्ली पुलिस फिसड्डी साबित हुई है। पहले तो उन्हें जामिया विश्वविद्यालय और आसपास के क्षेत्रों में हिंसा की तैयारी की भनक नहीं लगी, फिर वो समय से शाहीन बाग के धरने को नहीं हटा पाए जिससे रोजाना लाखों लोगों को परेशानी हुई।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह को ये समझना होगा कि इन देशद्रोही ताकतों के साथ नरमी उनके लिए भारी पड़ सकती है। नक्सलियों और भड़काऊ बयान देने वाले इस्लामिक सांप्रदायिक नेताओं से तो तुरंत निपटा ही जाना चाहिए, वामपंथी-नक्सली छात्र संगठनों को भी ये स्पष्ट कर दिया जाना चाहिए कि वो अपनी सीमा में रहें। अभिव्यक्ति की आजादी और लोकतंत्र के नाम पर देशद्रोही और इस्लामिक सांप्रदायिक गतिविधियां बर्दाश्त नहीं की जाएगी। इन छात्र संगठनों को ही नहीं, इनका ब्रेनवाश करने वाले इनके अध्यापकों को भी ये स्पष्ट कर दिया जाना चाहिए कि विश्वविद्यालय देश का हिस्सा हैं और पुलिस वहां कानून व्यवस्था बनाए रखने में कोई कोताही नहीं बरतेगी। अगर वो विश्वविद्यालय की आड़ में गैरकानूनी गतिविधियां करेंगे तो उनसे सख्ती से निपटा जाएगा। अगर कश्मीर में पुलिस घर-घर जाकर आतंकियों की पड़ताल कर सकती है तो लंबे अर्से से हिंसाग्रस्त रहे विश्वविद्यालयों में क्यों नहीं? विश्वविद्यालयों को पवित्र गाय मानने की मानसिकता छोडऩी होगी। वहां पनाह लेने वाले हिंसक तत्वों को तुरंत पकडऩा होगा और उनके खिलाफ कार्रवाई करनी होगी।
अंत में एक महत्वपूर्ण बात – मोदी सरकार की भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम सोनिया गांधी के दरवाजे तक पहुंच चुकी है। सरकार उनके परिवार के लिए अवैध धंधे करने वाले लगभग हर एजेंट को चिन्हित अथवा गिरफ्तार कर चुकी है। ऐसे में पूरी आशंका है कि कांग्रेस सरकार पर दबाव बनाने के लिए सीएए और एनआरसी के विरोध के नाम पर और हिंसा भड़का सकती है। नाम होगा ‘विचारधारा’ की लड़ाई का और मकसद होगा मोदी सरकार को ब्लैकमेल कर रियायतें हासिल करना।
रामहित नंदन
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जेएनयू का सच
जेएनयू की समस्या की जड़ में जो कारण हैं वो महत्वपूर्ण हैं। वंहा का कचरा साफ करने का जो प्रयास शुरू हुआ है इसलिए भी वहां आजकल अक्सर हंगामा है। कारण स्पष्ट है कि जो जेएनयू के नए कुलपति हैं, यह पहले गैर-वामपंथी कुलपति हैं। कारण स्पष्ट है कि वहां 100 से ज्यादा नए प्रोफेसर भर्ती किये जाने हैं और इस बार पहले की तरह प्रमुख क्वालिटी वामपंथी होना नहीं हो पायेगा। कारण स्पष्ट है कि नए कुलपति ने वहां कुछ बदलाव किए हैं जैसे एक प्रोफेसर के नीचे बस 8 पीएचडी हो सकती है। पहले यह आंकड़ा 20 से 30 होता था। इससे होगा क्या कि ये जो 35-35 साल तक पीएचडी के नाम पर बैठे नक्सली होते थे इनकी संख्या में कमी आएगी।
दूसरा इतने ज्यादा शोधार्थी होने के कारण यह बुड्ढे ही हॉस्टल आदि पर कब्जा करते थे और जब नया बच्चा कोई आता था तो उसे यह अपने साथ ही कमरे में रहने को कहते थे। बताया जाता है कि एक कमरे में 8-8 लोग सर्वहारा के नाम पर रह रहे हैं। बदले में उस बच्चे का दिन रात ब्रेनवाश से लेकर उसे होस्टल में सुलाने के नाम पर क्रांति में सहयोगी बनने को कहा जाता था और उसे करना पड़ता था। कारण स्पष्ट है कि छात्र राजनीति में भी देश की मुख्यधारा की छात्र राजनीति करने वाली एबीवीपी धीरे धीरे इनको हराने की तरफ बढ़ रही है। अब जब इनकी संख्या घटेगी तो बच्चे स्वतंत्र रूप से अपनी पढ़ाई भी करेंगे और बिना दबाव अपना निर्णय भी ले सकेंगे।
इसके दूसरे पहलू में यह है कि दूसरी तरफ प्रोफेसर के रूप में बैठे नक्सली भी बच्चे के दिमाग मे जहर भरते रहते हैं और जब वामपंथ रहित शिक्षक होंगे तो नए विषय भी शोध के होंगे। एक गांव या छोटे शहर से आया कोई बच्चा जब ऐसे प्रोफेसर के चंगुल में फंसता है तो धीरे धीरे देश के ही टुकड़े करने की सोचने लगता है। इस वजह से भी न सिर्फ जेएनयू बल्कि देश भर में बैठे अर्बन नक्सली वहां के कुलपति को हटाने की मांग कर रहे हैं। उन्हें स्पष्ट दिख गया है कि आने वाले समय मे इनका जो ये आखरी गढ़ है यह भी ढहने वाला है और दूसरी तरफ़ जिस तरह एबीवीपी वहां मजबूत हो रही है उससे तो यह पहले ही इतना भयभीत है कि कभी एक दूसरे के खिलाफ लडऩे वाले कांग्रेसी व विभिन्न तरह के नक्सली गठबंधन करकर एबीवीपी के खिलाफ चुनाव लड़ते हैं। देश की राजधानी की छाती पर बैठकर जो ये अराजकता फैलाने की कोशिश करते रहते हैं, यह आने वाले समय में इतिहास बनकर रह जायेगा।
सरकार जेएनयू पर कितना खर्च करती है ये 2018 के लिए जेएनयू के लाभ और हानि खाते को 600 पृष्ठ की वार्षिक रिपोर्ट में लिखा हुआ है। जेएनयू में कुल 8000 छात्र हैं। इसमें से 57 प्रतिशत छात्रों का शेयर सामाजिक विज्ञान, भाषा, साहित्य और कला (4578 छात्र) और अंतर्राष्ट्रीय अध्ययन 15 प्रतिशत (1210 छात्र) का है। कुल 55 प्रतिशत यानी 4359 छात्र एमफिल कर रहे हैं या पीएचडी। जेएनयू अपने कामकाज पर प्रति वर्ष लगभग 556 करोड़ रुपये खर्च करता है। जेएनयू में प्रति छात्र 556 करोड़ / 8000 छात्र की गणना से, प्रति छात्र 6.95 लाख रुपये सालाना देते हैं।
जेएनयू में अनुसंधान, प्रकाशन और पेटेंट के अंतर्गत मान्यता यह है कि ‘अच्छी प्रतिभा’ पर इतनी अधिक सब्सिडी महान शोध परिणामों का उत्पादन करेगी। वार्षिक रिपोर्ट में अनुसंधान और प्रकाशनों पर कोई ठोस दावा नहीं है, पत्रिकाओं या प्रकाशनों के नाम का उल्लेख नहीं है। प्लेसमेंट ब्रोशर में शोध का कुछ उल्लेख मिलेगा (हालांकि ब्रोशर है बहुत ही सतही और पिछले प्लेसमेंट के बारे में कोई भी आंकड़े नहीं बताता है)।
जेएनयू में शोध के नाम पर जो है उसमें एम फिल में 4360 छात्रों के साथ और पीएचडी. पाठ्यक्रम, पत्रिकाओं में प्रकाशित होने वाले मुश्किल से 1000 शोध ‘लेख’ हैं। विश्वविद्यालय इस तरह के दावे करते हुए किसी भी उल्लेखनीय पत्रिका का नाम नहीं देता है। इसका तात्पर्य यह है कि प्रत्येक 4.5 छात्रों के लिए हर साल सिर्फ 1 ‘लेख’ प्रकाशित होता है।
अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों में भारी भागीदारी होती है। इसलिए हर साल लगभग 2000 अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित किए जाते हैं। सम्मेलनों में क्या होता है मायने रखता है पर निश्चित रूप से शोध पत्र या पेटेंट पर तो कुछ नहीं हो रहा है, नहीं तो रिपोर्ट में जिक्र जरूर होता।
कुछ न हो तो कम से कम कुछ पेटेंट तो होना चाहिए। पेटेंट के नाम पर जो कुछ भी मिलता है वह है श्री भटनागर, सुश्री दीक्षित, श्री कर और श्री मुखर्जी के 4 नाम। किसी अन्य संकाय द्वारा कोई पेटेंट नहीं। छात्रों द्वारा पेटेंट की संख्या रिपोर्ट में शून्य ही है। फिर भी क्या फीस बढ़ोत्तरी जायज है? मेधावी छात्रों को सजा क्यों दी जा रही है? इस सवाल के जवाब में उपरोक्त आंकड़ों के मद्देनजर ऐसा प्रतीत नहीं होता है कि जेएनयू में राष्ट्र के लिए आउटपुट प्राप्त करने पर अधिक ध्यान केंद्रित किया गया है। अब छात्रों के विश्वविद्यालय में अध्ययन करने के लिए ‘शुल्क’ पर नजर डालते हैं।
240 रुपये जेएनयू छात्र द्वारा भुगतान की गई पूरी ट्यूशन फीस है। इसके अलावा, वे लाइब्रेरी के लिए उदार रूप से 6 रुपये और रिफंडेबल सिक्योरिटी डिपॉजिट के रूप में 40 रुपये का भुगतान करते हैं। शुल्क इतना कम क्यों है, इस पर ही कोई न कोई शोध पत्र आना चाहिए।
आईआईटी दिल्ली, सालाना लाखों रुपये प्रति वर्ष के हिसाब से शुल्क लेता है। हम उन स्थानों पर कोई भी हड़ताल नहीं देखेंगे। छात्रों को पता है कि उन्हें नौकरी के बाजार में कूदने, अपनी कमाई की जिंदगी शुरू करने और अपने छात्र ऋण को चुकाने की भी आवश्यकता है। जेएनयू ऐसे किसी भी विचार या परेशानी से मुक्त है। शायद यही वजह है कि छात्रों के पास अपनी खुद की नई मुसीबतें खड़ी करने के लिए बहुत समय है। विचारधारा या निष्क्रिय दिमाग आप तय करते हैं। यहां किसी भी राजनीतिक विचार को समाप्त करना उचित नहीं लेकिन विश्वविद्यालय के आधिकारिक स्रोतों के डेटा से जो परिणाम दिख रहे हैं वो भ्रमित ही कर रहे हैं।
जेएनयू खराब समाजवाद और विकृत वामपंथ का एक आदर्श उदाहरण है। यदि मुफ्त में कुछ मिलता है तो लोगों के पास काम करने और कमाने के लिए कोई प्रोत्साहन नहीं है। जेएनयू में कोई भी नौकरी पाने या अनुसंधान प्रकाशित करने की जल्दी में क्यों होगा? एक ऐसे राष्ट्र में जहां हम शायद ही अपने बच्चों को प्राथमिक स्कूलों में शिक्षित कर पाते हैं, जेएनयू समाजवादी अभिजात्यवाद व वामपंथी विकृति के एक उदाहरण के रूप में है।
सच में देखा जाये तो जेएनयू सिर्फ राजनैतिक प्रहसनों का अड्डा बन गया है, लोग मर मर के टैक्स देते है और सरकार ऐसे संस्थांनों पर पैसा खर्च कर राष्ट्र की छाती पर मूंग ही दलती है। आश्चर्य है कि यह सामाजिक सुधार का विचार जेएनयू से कभी नहीं निकला जो सामाजिक विज्ञान पर अध्ययन केंद्र होने का दावा करता है।
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मौलिक भारत ने केंद्रीय विश्वविद्यालयों में शिक्षकों की भर्ती व स्थानांतरण की एक समान नीति बनाने की मांग की
देश के केंद्रीय विश्वविद्यालयों में फैल रही अराजकता, हिंसा व राष्ट्र विरोधी नारेबाज़ी को रोकने व पढ़ाई के लिए अनुकूल वातावरण बनाने व विश्वविद्यालय परिसरों में राष्ट्रप्रेम के साथ ही सभी स्तरों पर गरिमापूर्ण, सद्भावपूर्ण और न्यायोचित व्यवस्था व सुशासन के साथ स्वायत्तता बनाए रखने के लिए मौलिक भारत ने अपने अध्यक्ष गजेंद्र सोलंकी व महासचिव अनुज अग्रवाल के माध्यम से देश के मानव संसाधन मंत्री जी के साथ ही माननीय प्रधानमंत्री जी को अनेक महत्वपूर्ण सुझाव भेजे हैं, जिनमें सभी केंद्रीय विश्वविद्यालयों में अध्यापकों व विद्यार्थियों के चयन, स्थानांतरण व विभिन प्रकार के शुल्क आदि की एक समान व्यवस्था बनाने की मांग की है। मूल पत्र की कॉपी नीचे दो हुई है।
प्रतिष्ठा में,
आदरणीय श्री रमेश पोखरियाल निशंक जी
केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री
भारत सरकार
शास्त्री भवन, नई दिल्ली
विषय- केंद्रीय विश्वविद्यालयों में अध्यापकों के लिए चयन व स्थानांतरण नीति बनाने के लिए अनुरोध
माननीय महोदय,
देश में इस समय 50 केंद्रीय विश्वविद्यालय हैं व इनमें हजारों अध्यापक नियुक्त किए गए हैं, किंतु आज तक इनकी चयन प्रक्रिया पारदर्शी नहीं है और स्थायी, एडहॉक व गेस्ट टीचरों की मनमानी भर्ती की जाती है। यह भारत सरकार की स्थापित नीति है कि सभी प्रकार की केंद्रीय सेवाओं की नियुक्ति में नियमित अंतराल के उपरांत सभी प्रकार के कर्मचारियों का स्थानांतरण किया जाता है। किंतु आश्चर्यजनक रूप से केंद्रीय विश्वविद्यालयों में यह नीति लागू नहीं की गई है। यही स्थिति विभिन्न पाठ्यक्रम में विद्यार्थियों के प्रवेश को लेकर भी है जिसमें कोई स्पष्ट सर्वमान्य व पारदर्शी नीति विकसित नहीं की गयी है। पिछले कुछ वर्षों में अनेक केंद्रीय विश्वविद्यालय देशविरोधी नारे, प्रदर्शन, हिंसा व राष्ट्र के प्रति दुराग्रह जैसी चिंताजनक स्थितियों से दोचार हुए हैं जो अत्यंत ही चिंताजनक है। विद्यार्थियों में राष्ट्रप्रेम व सकारात्मक सोच के बीज डालने की जिम्मेदारी विश्वविद्यालय के शिक्षकों की होती है और अधिकांश मामलों में वे इस कार्य में असफ़ल रहे।
ऐसा लगता है कि एक ही स्थान पर कार्य करते रहने व विचारधारा विशेष से जुड़े रहने के कारण उनकी सोच व विचारों में जड़ता आ गयी है व वे संविधान की मूल भावना व अपने उत्तरदायित्वों का सही से निर्वाह नहीं कर पा रहे हैं। तालाब के ठहरे हुए पानी जैसे ही उनके विचारों व सोच में भी ठहराव आ गया है और इससे उनके शिक्षण की गुणवत्ता प्रभावित हो रही है। परस्पर स्थानांतरण से यह जड़ता टूटेगी व वैचारिक प्रवाह बढ़ेगा जिसका लाभ देश, समाज व विद्यार्थियों सबको मिलेगा। इसको निम्न प्रकार रेखांकित कर सकते हैं।
1) बौद्धिक अध्ययन- अध्यापन में विविधता
2) सांस्कृतिक व वैचारिक आदान प्रदान
3) विचार विनमय के अधिक अवसर व विविधता
4) प्रशासनिक गतिविधियों, कार्यों व निर्णयों को लागू करने में सुगमता
5) कट्टरवादी विचारों का विकेंद्रीकरण व सर्वसमावेशी विचारों की ओर रुझान
संक्षिप्त रूप से कहा जाए तो हमारी मांग है कि
1) केंद्रीय विश्वविद्यालयों में शिक्षकों की नियुक्तियों व स्थानांतरण दोनों के लिए एक स्वायत्त बोर्ड का गठन तुरंत किया जाए।
2) विभिन्न प्रकार के कोर्सेस में विद्यार्थियों के चयन के लिए संयुक्त प्रवेश परीक्षा ली जाए।
3) देश के सभी स्वायत्त शैक्षणिक संस्थानों, डीम्ड, राज्य व निजी विश्वविद्यालयों में भी इसी तरह की प्रक्रिया प्रारंभ करने के दिशा निर्देश जारी किए जाएं।
4) सभी केन्दीय विश्वविद्यालयों में लिये जाने वाले विभिन्न प्रकार के शुल्क एवं सुविधाओं की भी एकसमान नीति लागू की जाए।
हमें आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास है कि आप यथाशीघ्र उपरोक्त सुझावों व मांगो को पूरा करने की दिशा में आवश्यक दिशानिर्देश जारी करेंगे।
धन्यवाद
भवदीय
गजेंद्र सोलंकी अनुज अग्रवाल
अध्यक्ष महासचिव
(मौलिक भारत)
प्रति प्रेषित
आदरणीय नरेंद्र मोदी जी
प्रधानमंत्री, भारत सरकार, नई दिल्ली