कश्मीर की घाटी से 20 बरस पहले भयावह परिस्थतियों में पलायन करने वाले कश्मीरी पण्डितों को उम्मीद थी कि विधु विनोद चोपड़ा की नई फिल्म ‘शिकारा’ उनके दुर्दिनों पर प्रकाश डालेगी।
वो देखना चाहते थे कि किस तरह हत्या, लूट, बलात्कार, आतंक और धमकियों के सामने 24 घंटे के भीतर लाखों कश्मीरी पण्डितों को अपने घर,जमीन-जायदाद, अपना इतिहास, अपनी यादें और अपना परिवेश छोड़क भागना पड़ा। वे अपने ही देश में शरणार्थी हो गये जम्मू और अन्य शहरों के शिविरों में उन्हें बदहाली की जिंदगी जीनी पड़ी। 25 डिग्री तापमान से ज्यादा जिन्होंने जिंदगी में गर्मी देखी नहीं थी, वो 40 डिग्री तापमान में ‘हीट स्ट्रोक’ से मर गऐ। जम्मू के शिविरों में जहरीले सर्पदंश से मर गए। कोठियों में रहने वाले टैंटों में रहने को मजबूर हो गऐ। 1947 के भारत-पाक विभाजन के बाद ये सबसे बड़ी त्रासदी थी, जिस पर आज तक कोई बाॅलीबुड फिल्म नहीं बनी। उन्हें उम्मीद थी कि कश्मीर के ही निवासी विधु विनोद चोपड़ा इन सब हालातों को दिखाऐंगे, जिनके कारण उन्हें कश्मीर छोड़ना पड़ा। वो दिखाऐंगे कि किस तरह तत्कालीन सरकारों ने कश्मीरी पण्डितों की लगातार उपेक्षा की। वो चाहती तो इन 5 लाख कश्मीरीयों को देश के पर्वतीय क्षेत्रों में बसा देती। पर ऐसा कुछ भी नहीं किया गया। कश्मीरी पण्डित आज भी बाला साहब ठाकरे को याद करते हैं। जिन्होने महाराष्ट्र के काॅलेजों में एक-एक सीट कश्मीरी शरणार्थियों के लिए आरक्षित कर दी। जिससे उनके बच्चे अच्छा पढ़ सके। वो जगमोहन जी को भी याद करते हैं, जिन्होंने उनके लिए बुरे वक्त में राहत पहंुचवाई। वो जानते हैं कि अब वो कभी घाटी नहीं लौट पाऐंगे। लेकिन धारा 370 हटाकर मोदी सरकार ने उनके जख्मों पर कुछ मरहम जरूर लगाया। इसलिए उन्हें इस फिल्म बहुत उम्मीद थी कि ये उनके ऊपर हुए अत्याचारों को विस्तार से दिखाऐगी।
हर फिल्मकार का कहानी कहने का एक अपना अंदाज होता है, कोई मकस होता है। विधु विनोद चोपड़ा ने ‘शिकारा’ फिल्म बनाकर इस दुर्घटना पर कोई ऐतिहासिक फिल्म बनाने का दावा नहीं किया है। जिसमें वो ये सब दिखाने पर मजबूर होते। उन्होंने इस ऐतिहासिक दुर्घटना के परिपेक्ष में एक प्रेम कहानी को दिखाया है। जिसके दो किरदार उन हालातों में कैसे जीए और कैसे उनका प्रेम परवान चढ़ा। उस दृष्टि से से अगर देखा जाऐ, तो ‘शिकारा’ कम शब्दों में बहुत कुछ कह देती है। माना कि उस आतंकभरी रात की विभिषिका के हृदय विदारक दृश्यों को विनोद ने अपनी फिल्म में नहीं समेटा, पर उस रात की त्रासदी को एक परिवार पर बीती घटना के माध्यम से आम दर्शक तक पहुंचाने में वे सफल रहे हैं।
इन विपरीत परिस्थितियों में भी कोई कैसे जीता है और चुनौतियों का सामना करता है, इसका उदाहरण है ‘शिकारा’ के मुख्य पात्र जो हिम्मत नहीं हारते, उम्मीद नहीं छोड़ते और एक जिम्मेदार नागरिक भूमिका को निभाते हुए, उस कड़वेपन को भी भूल जाते हैं जिसने उन्हें आकाश से जमीन पर पटक दिया।
फिल्म के नायक का अपनी पत्नी के स्वर्गवास के बाद पुनः अपने गाॅव कश्मीर लौट जाना और अकेले उस घर में रहकर गाॅव के मुसलमान बच्चों को पढ़ाने का संकल्प लेना हमें अब जरूर काल्पनिक लगता है, क्योंकि आज भी कश्मीर में ऐसे हालात नहीं हैं। पर विधु विनोद चोपड़ा ने इस आखिरी सीन के माध्यम से एक उम्मीद जताई है कि शायद भविष्य में कभी कश्मीरी पण्डित अपने वतन लौट सके।
पिछले दिनों नागरिकता कानून को लेकर देशव्यापी जो धरने, प्रदर्शन और आन्दोलन हुए हैं, उनमें एक बात साफ हो गई कि देश का बहुसंख्यक हिंदू समाज को या अल्पसंख्यक सिक्ख समाज सभी वर्गों से खासी तादाद में लोगों ने मुसलमानों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर समर्थन किया। ये अपने आप में काफी है कश्मीर घाटी के मुसलमानों को बताने के लिए कि जिन हिंदुओं को तुमने पाकिस्तान के इशारे पर अपनी नफरत का शिकार बनाया, जिनकी बहु-बेटियों को बेइज्जत किया, जिनके घर लूटे और जलाए, जिनके हजारों मंदिर ज़मीदोज़ कर दिये, वो हिंदू तुम्हारे बुरे वक्त में सारे देश में खुलकर तुम्हारे समर्थन में आ गऐ। कश्मीर के पण्डित कश्मीर की घाटी में फिर लौट सके, इसके लिए माहौल कोई फौज या सरकार नहीं बनाऐगी। ये काम तो कश्मीर के मुसलमानों को करना होगा। उन्हें समझना होगा कि आवाम की तरक्की, फिरका परस्ती और जिहादों से नहीं हुआ करती। वो आपसी भाईचारे और सहयोग से होती है। मिसाल दुनियां के सामने है। जिनके मुल्कों में भी मजहबी हिंसा फैलती है। वे गर्त में चले जाते हैं और लाखों घर तबाह हो जाते हैं। इसलिए ‘शिकारा’ फिल्म एक ऐेतिहासिक ‘डाॅक्यूमेंट्री’ न होकर एक प्रेम कहानी है, जो एहसास कराती है, कि नफरत की आग कैसे समाज और परिवारों को तबाह कर देती है।
रही बात पण्डित के दुखद पलायन की, तो ‘शिकारा’ के बाद अब कोई और फिल्म निर्माता उन मुद्दों पर भी फिल्म बनाने को जरूर प्रेरित होगा।
-विनीत नारायण