श्रीराम का सूक्ष्म सीतान्वेषण, उनकी पीड़ा, लक्ष्मण द्वारा समझाईश तथा जटायु का उत्सर्ग
श्रीरामकथा के अल्पज्ञात दुर्लभ प्रसंग
श्रीराम का सूक्ष्म सीतान्वेषण, उनकी पीड़ा, लक्ष्मण द्वारा समझाईश तथा जटायु का उत्सर्ग
नास्ति गंगासमं तीर्थं नास्ति मातृसमो गुरु:।
नास्ति विष्णुसमोदेवो नास्ति रामायणात् परम्।।
नास्ति वेदसमं शास्त्रं नास्ति शांतिसमं सुखम्।
नास्ति शांतिपरं ज्योतिर्नास्ति रामायणात् परम्।।
वाल्मीकि रामायण माहात्म्य अध्याय ५-२१-२२
गंगा के समान तीर्थ माता के समान गुरु भगवान् विष्णु के सदृश देवता तथा रामायण से बढ़कर कोई उत्तम वस्तु (ग्रंथ) नहीं है। वेद के समान शास्त्र, शान्ति के समान सुख शान्ति से बढ़कर ज्योति तथा रामायण से उत्कृष्ट कोई काव्य नहीं है।
नास्ति क्षमासमं सारं नास्ति कीर्तिसमं धनम्।
नास्ति ज्ञानसमो लाभे नास्ति रामायणयात् परम्।।
वाल्मीकि रामायण माहात्म्य अध्याय ५-२३
क्षमा के सदृश बल कीर्ति के समान धन ज्ञान के सदृश लाभ तथा रामायण से बढ़कर कोई उत्तम (श्रेष्ठ) ग्रन्थ नहीं है।
रामायण हमारा एक श्रेष्ठतम धार्मिक आस्था-भक्ति का पवित्र ग्रन्थ है। रामायण हमारे सामाजिक जीवन की आचार संहिता है। वाल्मीकि रामायण में अनेक मार्मिक प्रसंग हैं, जिन्हें पढ़कर-सुनकर बरबस हमारी आँखें आँसूओं से भर जाती है, हृदय पिघल जाता है। इन प्रसंगों में रावण द्वारा सीताजी का अपहरण प्रसंग, श्रीराम द्वारा सीता अन्वेषण एवं जटायु के प्राणों के उत्सर्ग का वर्णन शायद ही अन्य श्रीरामकथाओं में सविस्तार नहीं है। सीता हरण के पश्चात् श्रीराम की पीड़ा एवं छोटे भाई लक्ष्मण द्वारा उन्हें समझाने का प्रसंग अद्वितीय है।
लक्ष्मण को दीन, सन्तोष शून्य तथा सीता को साथ लिए बिना अकेला देखकर श्रीराम ने पूछा- लक्ष्मण जो दण्डकारण्य की ओर चलकर अयोध्या से मेरे पीछे-पीछे चली आई तथा जिसे तुम अकेली छोड़कर मेरे पास यहाँ चले आए, वह विदेहनन्दिनी राजकुमारी सीता इस समय कहाँ है? लक्ष्मण! यदि आश्रम में जाने पर सीता हँसते हुए मुख से सामने आकर मुझसे बात नहीं करेगी तो मैं जीवित नहीं रहूँगा। लक्ष्मण बोलो तो सही कि सीता जीवित है या नहीं? तुम्हारे असावधान होने के कारण राक्षस उस तपस्विनी को खा तो नहीं गए?
इस कुटिल एवं दुरात्मा राक्षस (स्वर्ण मृग) ने उच्च स्वर से ‘हा लक्ष्मणÓ ऐसा मेरे स्वर में पुकार कर तुम्हारे मन में भी सर्वथा भय उत्पन्न कर दिया। ऐसा जान पड़ता है कि वैदेही ने भी मेरे स्वर से मिलता-जुलता उस राक्षस का स्वर सुन लिया और भयभीत होकर तुम्हें भेज दिया तथा तुम भी शीघ्र ही मुझे देखने के लिए चले आए। मेरे हाथों माँसभक्षी खर के मारे जाने से राक्षस बहुत दु:खी थे। उन दुष्ट राक्षसों ने अवश्य ही सीता को मार डाला। इसमें कोई संशय नहीं है। श्रीराम ने लक्ष्मण से कहा-
तमुवाच किमर्थं त्वमागतोऽयास्य मैथिलीम्।
यदा सा तव विश्वासाद् वने विरहित मया।।
वाल्मीकि रामायण अरण्यकाण्ड सर्ग ५९-२
जब मैंने तुम्हारे विश्वास पर ही वन में सीता को छोड़ा था, तब तुम उसे अकेली छोड़कर क्यों चले आए? तब लक्ष्मण ने अत्यन्त दु:खी होकर अपने शोकग्रस्त श्रीराम से कहा-
न स्वयं कामकारेण तां त्यक्त्वाह मिहागत:।
प्रचोदितस्तयैवोग्रैस्त्वत्सका शमिहागात:।।
आर्येणेव परिक्रुष्टं लक्ष्मणेति सुविस्वरम्।
परित्राहीति यद्वाक्यं मैथिल्यास्तच्छुति गतम्।।
वाल्मीकि रामायण अरण्यकाण्ड सर्ग ५९-६-७
भैया! मैं स्वयं अपनी इच्छा से उन्हें छोड़कर नहीं आया हूँ। उन्हीं के कठोर वचनों से प्रेरित होकर मुझे आपके पास आना पड़ा। आपके ही समान स्वर में किसी ने जोर से पुकारा ‘लक्ष्मण! मुझे बचाओ।Ó यह वाक्य मिथिलेशकुमारी के कानों में पड़ा। यह सुनकर मैथिली ने रोती हुई मुझसे तुरन्त बोली- जाओ-जाओ। तब मैंने कहा हे सीते! जो देवताओं की रक्षा करते हैं, वे मेरे भाई मुझे बचाओ। ऐसा निन्दित (कायरतापूर्ण) वचन कैसे कहेंगे? किसी दूसरे ने किसी बुरे उद्देश्य से मेरे भैया के स्वर की नकल करके ‘लक्ष्मण मुझे बचाओÓ यह बात जोर से कही है। तदनन्तर सीता ने मुझसे यह कहा-
भावो मयि तवात्यर्थपाप एवं निवेशित:।
विनष्टे भ्रातरि प्राप्तुं न च त्व मामवाप्स्यसे।।
वाल्मीकिरामायण अरण्यकाण्ड सर्ग ५९/१७
लक्ष्मण! तेरे मन में मेरे लिए अत्यन्त पापपूर्ण भाव भरा है। तू अपने भाई के मरने पर मुझे प्राप्त करना चाहता है, परन्तु मुझे तू पा नहीं सकेगा। तू अपने भाई का छिपा हुआ शत्रु है। मेरे लिए ही श्रीराम का अनुसरण करता है और श्रीराम के छिद्र (दोष) ढूँढ रहा है तभी तो इस संकट के समय उनके पास जाने का नाम नहीं ले रहा है। बस फिर क्या था? विदेहकुमारी के ऐसा कहने पर मुझे ही क्रोध आ गया। इस अवस्था में मैं उन्हें अकेली आश्रम में छोड़ आपको ढूँढने निकल पड़ा। लक्ष्मण की ऐसी बात सुनकर श्रीराम दु:खी मन से बोले सौम्य! तुमने बड़ा बुरा किया जो तुम सीता को छोड़कर यहाँ चले आए। धनुष खींचकर उस बाण का संधान करके मैंने लीलापूर्वक चलाए हुए बाणों से ज्यों ही उस मृग को मारा त्यों ही वह मृग के शरीर का परित्याग करके बाहों में बाजूबन्द धारण करने वाला राक्षस बन गया। बाण से आहत होने पर ही उसने आर्तवाणी में मेरे स्वर की नकल करके बहुत दूर तक सुनाई देने वाला वह अत्यन्त दारूण कहा था जिसे तुम सीता को छोड़कर चले आए हो।
कुटिया में लौटने पर श्रीराम ने कुटिया सूनी देखी तथा उनका मन अत्यन्त ही उद्विग्न हो उठा। श्रीराम ने एक-एक पर्णशाला को चारों ओर से देख डाला, किन्तु उस समय उसे सीता से सूनी पाया। फूल मुरझा गए थे, मृग और पक्षी मन मार कर बैठे थे। वन के देवता भी उस स्थान को छोड़कर चले गए थे। श्रीराम ने प्रयत्नपूर्वक अपनी प्रिय पत्नी सीता को वन में चारों तरफ ढूँढा किन्तु कहीं भी उनका पता न लगा। शोक के कारण श्रीराम की आँखें लाल हो गई। श्रीराम विलाप करते-करते वृक्षों से पूछने लगे, कदम्ब, बिल्ब, अर्जुन, कुंकुम, अशोक, ताल, जामुन, कनेर, आम, कदम्ब, विशालशक्ति, कटहल, कुरव, धव और अनार आदि के वृक्षों को देखकर उनके पास गए फिर वकुल, पुन्नाग, चन्दन तथा केवड़े आदि के वृक्षों से सीता के बारे में पूछने लगे।
तदनन्तर अपने सामने हरिण को देखकर उससे सीता के बारे में पूछा। आगे जाने पर हाथी, व्याघ्र आदि से सीता का पता पूछा। सीता को न देखकर शोक से अत्यन्त ही व्याकुल हुए। श्रीराम विलाप करने लगे। निश्चय ही पूर्व जन्म में मैंने अपनी इच्छा के अनुसार बारंबार बहुत से पापकर्म किए हैं। उन्हीं में से कुछ कर्मों का फल आज मुझे मिल रहा है, जिसके कारण मैं एक दु:ख से दूसरे दु:ख में पड़ता जा रहा हूँ। लक्ष्मण ने श्रीराम से कहा- आर्य! आप शोक त्यागकर धैर्य धारण करें। सीता की खोज के लिए मन में उत्साह रखें क्योंकि उत्साही मनुष्य जगत् में अत्यन्त दुष्कर कार्य आ पड़ने पर भी कभी दु:खी नहीं होते हैं। श्रीराम ने गोदावरी नदी से सीताजी का पता पूछा तब दुरात्मा रावण के उस रूप और कर्म को याद कर करके भय के मारे उसने ही वैदेही के विषय में श्रीराम से कुछ भी नहीं कहा। श्रीराम ने लक्ष्मण से कहा- मन्दाकिनी नदी, जनस्थान तथा प्रस्रवण पर्वत इन सभी स्थानों पर मैं बारंबार भ्रमण करूँगा। शायद यहाँ सीता का पता चल जाए।
श्रीराम ने लक्ष्मण से कहा- वीर लक्ष्मण! ये विशाल मृग मेरी ओर बारंबार देख रहे हैं, मानो यहाँ मुझसे वे कुछ कहना चाहते हैं। मैं इनकी चेष्टाओं को समझ रहा हूँ। श्रीराम ने उन मृगों की ओर देखकर पूछा कि- बताओ, सीता कहाँ है? उन मृगों की ओर देखते हुए श्रीराम ने अश्रुभरी वाणी से पूछा, तब वे मृग सहसा उठ खड़े हो गए और ऊपर की ओर देखकर आकाश मार्ग की ओर लक्ष्य कराते हुए सब के सब दक्षिण दिशा की ओर मुँह किए दौड़े। सीताजी का हरण होकर वे जिस दिशा में गईं। वे सब मृग उसी ओर के मार्ग से जाते हुए श्रीराम की ओर मुड़-मुड़ कर देखते रहते थे।
तदनन्तर बुद्धिमान लक्ष्मण उन मृगों की चेष्टाओं को समझ गए। लक्ष्मण ने अत्यन्त ही आर्तभाव से अपने बड़े भाई श्रीराम से कहा-
उवाच लक्ष्मणो धीमाञ्ज्येष्ठं भ्रातरमार्तवत्।
क्व सीतेति त्वया पृष्टा यथेमे सह सोत्थिता:।।
दर्शयन्ति क्षितिं चैव दक्षिणां च दिशं मृगा:।
साधु गच्छावहे देव दिशमेतां च नैऋतीम्।।
यदि तस्यागम: कश्चिदार्यावा वा साथ लक्ष्यते।
वाल्मीकि रामायण अरण्यकाण्ड सर्ग ६४-२१-२२-२३१/२
आर्य! जब आपने पूछा कि सीता कहाँ हैं? तब ये मृग सहसा उठकर खड़े हो गए और पृथ्वी तथा दक्षिण दिशा की ओर हमारा लक्ष्य कराने लगे। अत: देव! यही अच्छा होगा कि हम लोग इस नैऋर्त्य दिशा की ओर चलें। सम्भव है, इधर जाने से सीता का कोई समाचार मिल जाए अथवा आर्या सीता स्वयं ही दृष्टिगोचर हो जाए। श्रीराम, लक्ष्मण को साथ लेकर दक्षिण दिशा की ओर चल दिए। वे दोनों भाई आपस में इसी प्रकार की बातें करते हुए ऐसे मार्ग पर जा पहुँचे, जहाँ भूमि पर कुछ फूल गिरे हुए दिखाई दिए। श्रीराम ने लक्ष्मण से कहा- लक्ष्मण! मैं इन फूलों को पहचानता हूँ। ये वे ही फूल यहाँ गिरे हैं, जिन्हें वन में मैंने सीता को दिए थे और उन्होंने अपने केशों में लगा लिया था। पुन: श्रीराम ने लक्ष्मण से कहा- लक्ष्मण मैं समझता हूँ सूर्य, वायु और यशस्विनी पृथ्वी ने मेरा प्रिय करने के लिए ही इन फूलों को सुरक्षित रखा है। श्रीराम ने प्रस्रवण पर्वत से भी सीता का पता पूछा। इतने में ही उस पर्वत और गोदावरी नदी के समीप की भूमि पर राक्षस का विशाल पदचिह्न उभरा हुआ वहाँ दिखाई दिया।
सीता और राक्षस के पैरों के निशान, टूटे धनुष, तरकस और छिन्न-भिन्न होकर अनेक टुकड़ों में बिखरे हुए रथ को देखकर श्रीराम का हृदय घबरा गया। यह सब देखकर श्रीराम लक्ष्मण से बोले- लक्ष्मण! देखो ये सीता के आभूषणों में लगे हुए सोने के घुँघरू बिखरे पड़े हैं। लक्ष्मण देखो सीता के नाना प्रकार के हार भी टूटे पड़े हैं। देखें यहाँ की भूमि सब ओर से स्वर्ण की बून्दों के समान ही विचित्र रक्त बिन्दुओं से रंगी हुई भी दिखाई दे रही है। लक्ष्मण! सीता के लिए परस्पर विवाद करने वाले दो राक्षसों में यहाँ घनघोर युद्ध भी हुआ है। यह धनुष किसका हो सकता है। सौम्य! उधर पृथ्वी पर टूटा हुआ सोने का कवच पड़ा है, न जानें वह किसका है? दिव्य मालाओं से सुशोभित यह सौ कमानियोंवाला छत्र किसका है? इसका डण्डा टूट गया है और यह भूमि पर गिरा दिया गया है। इधर देखो ये पिशाचों के समान मुखवाले भयंकर रूपधारी गधे मरे पड़े हैं। लगता है कि अवश्य युद्ध में मारे गए जान पड़ते हैं। पता नहीं ये किसके थे? देखो संग्राम में टूटा हुआ उलटा गिरा तोड़ा गया यह रथ किसका है? इसमें इस संग्राम में इसके स्वामी को सूचित करने वाली ध्वजा भी लगी है।
लक्ष्मण! उधर देखो, ये बाणों से भरे हुए दो तरकस पड़े हैं, जो नष्ट कर दिए गए हैं। यह किसका सारथि मरा पड़ा है, जिसके हाथ में चाबुक और लगाम अभी तक दिखाई दे रही है। सौम्य लक्ष्मण! जब विदेहनन्दिनी राक्षसों का ग्रास बन गई अथवा उनके द्वारा हर ली गई और कोई भी उसका सहायक न हुआ होगा। अब इस जगत् में कौन ऐसे पुरुष हैं, जो मेरा प्रिय करने में समर्थ हो। लक्ष्मण! अब न तो यक्ष, न गन्धर्व, न पिशाच, न राक्षस न किन्नर और न मनुष्य ही चैन से रहने पाएंगे। लक्ष्मण! देखो आज मेरे नाराचों से रौंदा जाकर यह सारा जगत् व्याकुल और मर्यादारहित हो जाएगा। यहाँ के मृग और पक्षी आदि नष्ट हो जाएंगे। लक्ष्मण, जैसे वृद्धावस्था, जैसे मृत्यु, जैसे काल और जैसे विधाता सदा समस्त प्राणियों पर निस्संदेह क्रोध में भर जाने पर मेरा कोई भी निराकरण नहीं कर सकता।
श्रीराम की ओर देखकर लक्ष्मण हाथ जोड़कर सूखे हुए मुख से इस प्रकार बोले-
पुरा भूत्वा मृदुर्दान्त सर्वभूतहिते रत:।
न क्रोधवशमापन्न: प्रकृतिं हातुमर्हसि।।
चन्द्रे लक्ष्मी: प्रभा सूर्ये गतिर्वायौ भुवि क्षमा।
एतश्च नियतं नित्यं त्वयि चानुत्तमं यश:।।
वाल्मीकि रामायण अरण्यकाण्ड ६५-४-५
आर्य आप पहले कोमल स्वभाव से युक्त जितेन्द्रिय और समस्त प्राणियों के हित में तत्पर रहे हैं। अब क्रोध के वशीभूत होकर अपनी प्रकृति (स्वभाव) का परित्याग न करें। चन्द्रमा में शोभा, सूर्य में प्रभाव, वायु में गति और पृथ्वी में क्षमा जैसे नित्य विराजमान रहती है, उसी प्रकार आप में सर्वोत्तम यश सद्य प्रकाशित होता है।
लक्ष्मण ने श्रीराम से कहा कि यह स्थान घोड़ों के खुर से और पहियों से खुदा हुआ है, साथ ही खून की बून्दों से सींच उठा है। इससे सिद्ध होता है कि यहाँ बड़ा भयंकर संग्राम हुआ था किन्तु यह संग्राम चिह्न किसी एक ही रथी का है, दो का नहीं। मैं यहाँ किसी विशाल सेना के पदचिह्न नहीं देख रहा हूँ। अत: किसी एक ही के अपराध के कारण, आपको समस्त लोगों का विनाश नहीं करना चाहिए। आप जातने हैं कि राजा कोमल स्वभाव के और शान्त होते हैं वे अपराध के अनुसार ही दण्ड देते हैं। जिसने सीता का अपहरण किया है, उसी का अन्वेषण करना चाहिए। आप मेरे साथ धनुष हाथ में लेकर बड़े-बड़े ऋषियों की सहायता से उनका पता ज्ञात करें। नरेन्द्र! यदि अच्छे शील, स्वभाव, सामनीति, विनय और न्याय के अनुसार प्रयत्न करने पर भी आपको सीता का पता न मिले, तब तक आप सुवर्णमय पंखवाले महेन्द्र के वज्रतुल्य बाण समूहों से समस्त लोकों का संहार कर डालें। इस संसार का स्वभाव ही है कि यहाँ सब पर दु:ख शोक आता-जाता रहता है। नहुष पुत्र ययाति इन्द्र के समान होकर देवेन्द्र पद को प्राप्त हुए थे, किन्तु वहाँ भी अन्यायमूलक दु:ख उनका स्पर्श किए बिना न रहा। लक्ष्मण ने श्रीराम से कहा कि हमारे पिता के पुरोहित जो महर्षि वसिष्ठजी हैं, उन्हें भी एक दिन में सौ पुत्र प्राप्त हुए और फिर एक ही दिन वे सबके सब विश्वामित्र के हाथ से मारे गए। पुरुष प्रवर! समस्त संसार का विनाश करने से आपको क्या लाभ होगा? उस पापी शत्रु का पता लगाकर उसी को उखाड़ फेंकने का प्रयत्न करना चाहिए।
तब लक्ष्मण ने इस प्रकार संताप से पीड़ित हुए श्रीराम से कहा ‘भैया!Ó आपको इस जनस्थान में ही सीता की खोज करनी चाहिए। थोड़ी दूर आगे जाने पर उन्हें पर्वत शिखर के समान विशाल शरीर वाले पक्षिराज जटायु दिखाई पड़े, जो रक्त से लथपथ होकर पृथ्वी पर पड़े थे। उन गृध्रराज को देखकर श्रीराम लक्ष्मण से बोले-
अनेन सीता वैदेही भक्षिता नात्र संशय:।
गृघ्ररूपमिदं व्यक्तं रक्षो भ्रमति काननम्।।
वाल्मीकि रामायण अरण्यकाण्ड सर्ग ६७-११
लक्ष्मण! यह गृघ्र के रूप में अवश्य ही कोई राक्षस जान पड़ता है, जो इस वन में घूमता रहता है। नि:सन्देह इसी ने विदेह राजकुमारी सीता को खा लिया होगा। यह सीता का भक्षण कर यहाँ सुखपूर्वक बैठा है। मैं अब प्रज्वलित अग्रभाग वाले तथा सीधे जाने वाले अपने भयंकर बाणों से इसका वध करूँगा।
इसी समय पक्षिराज जटायु अपने मुँह से फेनयुक्त रक्त वमन करते हुए अत्यन्त ही दीनवाणी में श्रीराम से बोला-
यामोषधीमिवायुष्मन्नन्वेसि महावने।
सा देवी मम च प्राणा रावणेनोभयं हृतम्।।
वाल्मीकि रामायण अरण्यकाण्ड सर्ग ६७-१५
आयुष्मन्! इस विशाल वन में तुम जिसे औषधि के समान ढूँढ रहे हो, उस देवी सीता को तथा मेरे इन प्राणों को भी रावण ने हर लिया है। रघुनन्दन! तुम्हारे और लक्ष्मण के न रहने पर महाबली रावण आया और देवी सीता को हर कर ले जाने लगा। उस समय मेरी दृष्टि सीता पर पड़ी। हे प्रभो! ज्यों ही मेरी दृष्टि उस पर पड़ी मैं सीता की सहायता के लिए तुरन्त दौड़ पड़ा। रावण के साथ मेरा युद्ध हुआ। मैंने उस युद्ध में रावण के रथ और छत्र आदि सभी नष्ट कर दिए। वह भी घायल होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा। यह रावण का सारथि है जिसे मैंने अपने पंखों से मार डाला था। जब मैं युद्ध करते-करते थक गया तब रावण ने तलवार से मेरे दोनों पंख काट डाले और वह विदेहकुमारी सीता को लेकर आकाश में उड़ गया। मैं उस राक्षस के हाथ से पहले ही मार डाला गया हूँ, अब तुम मुझे न मारो।
सीता के बारे में यह सारा वृत्तान्त जानकर श्रीराम ने अपना धनुष फेंक दिया और गृध्रराज जटायु को गले लगाकर शोक से विवश होकर पृथ्वी पर गिर पड़े। लक्ष्मण के साथ रूदन करने लगे। श्रीराम अत्यन्त धीर-वीर होने पर भी उस समय दूने दु:ख का अनुभव करने लगे। श्रीराम ने लक्ष्मण से कहा मेरा राज्य छीन गया, मुझे वनवास मिला, पिता की मृत्यु हुई सीता का अपहरण हुआ और ये परम सहायक पक्षिराज जटायु भी स्वर्गवासी हो गए। ऐसा जो मेरा यह दुर्भाग्य है, यह तो अग्नि को भी जलाकर भस्म कर सकता है। ये महाबली गृध्रराज जटायु मेरे पिताश्री के मित्र थे, किन्तु आज मेरे दुर्भाग्यवश मारे जाकर इस समय पृथ्वी पर पड़े हैं। इस प्रकार बहुत सी बातें कहकर लक्ष्मण सहित श्रीराम जटायु के शरीर पर हाथ फेरा और पिता के प्रति जैसा स्नेह होना चाहिए, वैसा ही उनके प्रति प्रदर्शित किया। जटायु ने लड़खड़ाती जिह्वा से कहा कि हे तात! जब मैं उससे लड़ता-लड़ता थक गया। उस अवस्था में मेरे दोनों पंख काटकर वह निशाचर सीता को साथ लिए यहाँ से दक्षिण दिशा की ओर गया। जटायु ने श्रीराम से कहा रावण सीता को जिस मुहूर्त में ले गया है, उसमें खोया हुआ धन शीघ्र ही उसके स्वामी को मिल जाता है। काकत्स्थ! वह ‘विन्दÓ नामक मुहूर्त था किन्तु उस राक्षस को इसकी जानकारी नहीं थी। जिस प्रकार मछली की मौत के लिए बंसी पकड़ लेती है। उसी प्रकार रावण भी सीता को ले जाकर शीघ्र ही नष्ट हो जाएगा। अत: अब तुम सीता के लिए मन में खेद मत करो। युद्ध के मुहाने पर निशाचर का वध करके तुम शीघ्र ही पुन: सीता के साथ विहार करोगे।
जटायु श्रीराम को उनकी बात का उत्तर दे ही रहे थे कि उनके मुख से माँस युक्त रुधिर निकलने लगा-
पुत्रो विश्रवस: साक्षाद् भ्राता वैश्रवणस्य च।
इत्युक्त्वा दुर्लभान प्रोणान् मुमोच पतगेश्वर:।।
वाल्मीकि रामायण अरण्यकाण्ड सर्ग ६८-१६
जटायु बोले- ‘रावण विश्रवा का पुत्र और कुबेर का सगा भाई है। इतना कहकर उन पक्षिराज ने दुर्लभ प्राणों का परित्याग कर दिया। श्रीराम हाथ जोड़कर कह रहे थे कि कहिये-कहिये कुछ तो कहिये। किन्तु उस समय गृध्रराज के प्राण उनका शरीर छोड़कर आकाश में चले गए।
अपने पूर्वजों के द्वारा प्राप्त हुए गीधों के विशाल राज्य का त्याग करके इन पक्षिराज ने मेरे लिए अपने प्राणों की आहुति दी है। श्रीराम ने लक्ष्मण से कहा- महायशस्वी राजा दशरथजी जैसे मेरे माननीय और पूज्य थे, वैसे ही पक्षिराज जटायु भी हैं। सुमित्रानन्दन! तुम सूखे काष्ठ ले आओ, मैं उन्हें मथकर अग्नि उत्पन्न करूँगा और मेरे लिए मृत्यु को प्राप्त हुए इन गृध्रराज का दाह संस्कार करूँगा। तत्पश्चात् श्रीराम ने अत्यन्त दु:खित हो पक्षिराज जटायु के शरीर को चिता पर रखा और उसमें आग लगाकर अपने बन्धु की भाँति उनका दाह संस्कार किया। श्रीराम ने तत्पश्चात रोही के गूदे से उनका पिण्डदान किया। तदनन्तर उन दोनों भाईयों ने गोदावरी नदी के तट पर जाकर उन गृध्रराज के लिए जलाञ्जलि का दान किया। तर्पण करने के पश्चात् वे दोनों भाई पक्षिराज जटायु में पितृतुल्य सुस्थिरभाव रखकर सीता की खोज कार्य में मन लगाकर देवेश्वर विष्णु और इन्द्र की भाँति वन में आगे बढ़े।
इस तरह श्रीराम एवं लक्ष्मण द्वारा सीताजी के अन्वेषण का कार्य किया गया। श्रीराम के दु:ख का प्रकृति में चित्रण देखते ही बनता है। श्रीराम के जीवन से हमें शील-संयम-धैर्य की अनुपम शिक्षा प्राप्त होती है। संकट के समय हमें सकारात्मकता के विचार रखकर उसका सामना करना ही परम लक्ष्य होना चाहिए।
धृतिर्दृष्टिर्मतिर्दाक्ष्यं स कर्मसु न सीदति।
वाल्मीकि रामायण सु.का. १-२०१
जिस पुरुष में धैर्य, सूझ, बुद्धि और कुशलता- ये चार गुण होते हैं, उसे अपने कार्य में कभी असफलता नहीं होती।
श्रीराम का सूक्ष्म सीतान्वेषण, उनकी पीड़ा, लक्ष्मण द्वारा समझाईश तथा जटायु का उत्सर्ग
नास्ति गंगासमं तीर्थं नास्ति मातृसमो गुरु:।
नास्ति विष्णुसमोदेवो नास्ति रामायणात् परम्।।
नास्ति वेदसमं शास्त्रं नास्ति शांतिसमं सुखम्।
नास्ति शांतिपरं ज्योतिर्नास्ति रामायणात् परम्।।
वाल्मीकि रामायण माहात्म्य अध्याय ५-२१-२२
गंगा के समान तीर्थ माता के समान गुरु भगवान् विष्णु के सदृश देवता तथा रामायण से बढ़कर कोई उत्तम वस्तु (ग्रंथ) नहीं है। वेद के समान शास्त्र, शान्ति के समान सुख शान्ति से बढ़कर ज्योति तथा रामायण से उत्कृष्ट कोई काव्य नहीं है।
नास्ति क्षमासमं सारं नास्ति कीर्तिसमं धनम्।
नास्ति ज्ञानसमो लाभे नास्ति रामायणयात् परम्।।
वाल्मीकि रामायण माहात्म्य अध्याय ५-२३
क्षमा के सदृश बल कीर्ति के समान धन ज्ञान के सदृश लाभ तथा रामायण से बढ़कर कोई उत्तम (श्रेष्ठ) ग्रन्थ नहीं है।
रामायण हमारा एक श्रेष्ठतम धार्मिक आस्था-भक्ति का पवित्र ग्रन्थ है। रामायण हमारे सामाजिक जीवन की आचार संहिता है। वाल्मीकि रामायण में अनेक मार्मिक प्रसंग हैं, जिन्हें पढ़कर-सुनकर बरबस हमारी आँखें आँसूओं से भर जाती है, हृदय पिघल जाता है। इन प्रसंगों में रावण द्वारा सीताजी का अपहरण प्रसंग, श्रीराम द्वारा सीता अन्वेषण एवं जटायु के प्राणों के उत्सर्ग का वर्णन शायद ही अन्य श्रीरामकथाओं में सविस्तार नहीं है। सीता हरण के पश्चात् श्रीराम की पीड़ा एवं छोटे भाई लक्ष्मण द्वारा उन्हें समझाने का प्रसंग अद्वितीय है।
लक्ष्मण को दीन, सन्तोष शून्य तथा सीता को साथ लिए बिना अकेला देखकर श्रीराम ने पूछा- लक्ष्मण जो दण्डकारण्य की ओर चलकर अयोध्या से मेरे पीछे-पीछे चली आई तथा जिसे तुम अकेली छोड़कर मेरे पास यहाँ चले आए, वह विदेहनन्दिनी राजकुमारी सीता इस समय कहाँ है? लक्ष्मण! यदि आश्रम में जाने पर सीता हँसते हुए मुख से सामने आकर मुझसे बात नहीं करेगी तो मैं जीवित नहीं रहूँगा। लक्ष्मण बोलो तो सही कि सीता जीवित है या नहीं? तुम्हारे असावधान होने के कारण राक्षस उस तपस्विनी को खा तो नहीं गए?
इस कुटिल एवं दुरात्मा राक्षस (स्वर्ण मृग) ने उच्च स्वर से ‘हा लक्ष्मणÓ ऐसा मेरे स्वर में पुकार कर तुम्हारे मन में भी सर्वथा भय उत्पन्न कर दिया। ऐसा जान पड़ता है कि वैदेही ने भी मेरे स्वर से मिलता-जुलता उस राक्षस का स्वर सुन लिया और भयभीत होकर तुम्हें भेज दिया तथा तुम भी शीघ्र ही मुझे देखने के लिए चले आए। मेरे हाथों माँसभक्षी खर के मारे जाने से राक्षस बहुत दु:खी थे। उन दुष्ट राक्षसों ने अवश्य ही सीता को मार डाला। इसमें कोई संशय नहीं है। श्रीराम ने लक्ष्मण से कहा-
तमुवाच किमर्थं त्वमागतोऽयास्य मैथिलीम्।
यदा सा तव विश्वासाद् वने विरहित मया।।
वाल्मीकि रामायण अरण्यकाण्ड सर्ग ५९-२
जब मैंने तुम्हारे विश्वास पर ही वन में सीता को छोड़ा था, तब तुम उसे अकेली छोड़कर क्यों चले आए? तब लक्ष्मण ने अत्यन्त दु:खी होकर अपने शोकग्रस्त श्रीराम से कहा-
न स्वयं कामकारेण तां त्यक्त्वाह मिहागत:।
प्रचोदितस्तयैवोग्रैस्त्वत्सका
आर्येणेव परिक्रुष्टं लक्ष्मणेति सुविस्वरम्।
परित्राहीति यद्वाक्यं मैथिल्यास्तच्छुति गतम्।।
वाल्मीकि रामायण अरण्यकाण्ड सर्ग ५९-६-७
भैया! मैं स्वयं अपनी इच्छा से उन्हें छोड़कर नहीं आया हूँ। उन्हीं के कठोर वचनों से प्रेरित होकर मुझे आपके पास आना पड़ा। आपके ही समान स्वर में किसी ने जोर से पुकारा ‘लक्ष्मण! मुझे बचाओ।Ó यह वाक्य मिथिलेशकुमारी के कानों में पड़ा। यह सुनकर मैथिली ने रोती हुई मुझसे तुरन्त बोली- जाओ-जाओ। तब मैंने कहा हे सीते! जो देवताओं की रक्षा करते हैं, वे मेरे भाई मुझे बचाओ। ऐसा निन्दित (कायरतापूर्ण) वचन कैसे कहेंगे? किसी दूसरे ने किसी बुरे उद्देश्य से मेरे भैया के स्वर की नकल करके ‘लक्ष्मण मुझे बचाओÓ यह बात जोर से कही है। तदनन्तर सीता ने मुझसे यह कहा-
भावो मयि तवात्यर्थपाप एवं निवेशित:।
विनष्टे भ्रातरि प्राप्तुं न च त्व मामवाप्स्यसे।।
वाल्मीकिरामायण अरण्यकाण्ड सर्ग ५९/१७
लक्ष्मण! तेरे मन में मेरे लिए अत्यन्त पापपूर्ण भाव भरा है। तू अपने भाई के मरने पर मुझे प्राप्त करना चाहता है, परन्तु मुझे तू पा नहीं सकेगा। तू अपने भाई का छिपा हुआ शत्रु है। मेरे लिए ही श्रीराम का अनुसरण करता है और श्रीराम के छिद्र (दोष) ढूँढ रहा है तभी तो इस संकट के समय उनके पास जाने का नाम नहीं ले रहा है। बस फिर क्या था? विदेहकुमारी के ऐसा कहने पर मुझे ही क्रोध आ गया। इस अवस्था में मैं उन्हें अकेली आश्रम में छोड़ आपको ढूँढने निकल पड़ा। लक्ष्मण की ऐसी बात सुनकर श्रीराम दु:खी मन से बोले सौम्य! तुमने बड़ा बुरा किया जो तुम सीता को छोड़कर यहाँ चले आए। धनुष खींचकर उस बाण का संधान करके मैंने लीलापूर्वक चलाए हुए बाणों से ज्यों ही उस मृग को मारा त्यों ही वह मृग के शरीर का परित्याग करके बाहों में बाजूबन्द धारण करने वाला राक्षस बन गया। बाण से आहत होने पर ही उसने आर्तवाणी में मेरे स्वर की नकल करके बहुत दूर तक सुनाई देने वाला वह अत्यन्त दारूण कहा था जिसे तुम सीता को छोड़कर चले आए हो।
कुटिया में लौटने पर श्रीराम ने कुटिया सूनी देखी तथा उनका मन अत्यन्त ही उद्विग्न हो उठा। श्रीराम ने एक-एक पर्णशाला को चारों ओर से देख डाला, किन्तु उस समय उसे सीता से सूनी पाया। फूल मुरझा गए थे, मृग और पक्षी मन मार कर बैठे थे। वन के देवता भी उस स्थान को छोड़कर चले गए थे। श्रीराम ने प्रयत्नपूर्वक अपनी प्रिय पत्नी सीता को वन में चारों तरफ ढूँढा किन्तु कहीं भी उनका पता न लगा। शोक के कारण श्रीराम की आँखें लाल हो गई। श्रीराम विलाप करते-करते वृक्षों से पूछने लगे, कदम्ब, बिल्ब, अर्जुन, कुंकुम, अशोक, ताल, जामुन, कनेर, आम, कदम्ब, विशालशक्ति, कटहल, कुरव, धव और अनार आदि के वृक्षों को देखकर उनके पास गए फिर वकुल, पुन्नाग, चन्दन तथा केवड़े आदि के वृक्षों से सीता के बारे में पूछने लगे।
तदनन्तर अपने सामने हरिण को देखकर उससे सीता के बारे में पूछा। आगे जाने पर हाथी, व्याघ्र आदि से सीता का पता पूछा। सीता को न देखकर शोक से अत्यन्त ही व्याकुल हुए। श्रीराम विलाप करने लगे। निश्चय ही पूर्व जन्म में मैंने अपनी इच्छा के अनुसार बारंबार बहुत से पापकर्म किए हैं। उन्हीं में से कुछ कर्मों का फल आज मुझे मिल रहा है, जिसके कारण मैं एक दु:ख से दूसरे दु:ख में पड़ता जा रहा हूँ। लक्ष्मण ने श्रीराम से कहा- आर्य! आप शोक त्यागकर धैर्य धारण करें। सीता की खोज के लिए मन में उत्साह रखें क्योंकि उत्साही मनुष्य जगत् में अत्यन्त दुष्कर कार्य आ पड़ने पर भी कभी दु:खी नहीं होते हैं। श्रीराम ने गोदावरी नदी से सीताजी का पता पूछा तब दुरात्मा रावण के उस रूप और कर्म को याद कर करके भय के मारे उसने ही वैदेही के विषय में श्रीराम से कुछ भी नहीं कहा। श्रीराम ने लक्ष्मण से कहा- मन्दाकिनी नदी, जनस्थान तथा प्रस्रवण पर्वत इन सभी स्थानों पर मैं बारंबार भ्रमण करूँगा। शायद यहाँ सीता का पता चल जाए।
श्रीराम ने लक्ष्मण से कहा- वीर लक्ष्मण! ये विशाल मृग मेरी ओर बारंबार देख रहे हैं, मानो यहाँ मुझसे वे कुछ कहना चाहते हैं। मैं इनकी चेष्टाओं को समझ रहा हूँ। श्रीराम ने उन मृगों की ओर देखकर पूछा कि- बताओ, सीता कहाँ है? उन मृगों की ओर देखते हुए श्रीराम ने अश्रुभरी वाणी से पूछा, तब वे मृग सहसा उठ खड़े हो गए और ऊपर की ओर देखकर आकाश मार्ग की ओर लक्ष्य कराते हुए सब के सब दक्षिण दिशा की ओर मुँह किए दौड़े। सीताजी का हरण होकर वे जिस दिशा में गईं। वे सब मृग उसी ओर के मार्ग से जाते हुए श्रीराम की ओर मुड़-मुड़ कर देखते रहते थे।
तदनन्तर बुद्धिमान लक्ष्मण उन मृगों की चेष्टाओं को समझ गए। लक्ष्मण ने अत्यन्त ही आर्तभाव से अपने बड़े भाई श्रीराम से कहा-
उवाच लक्ष्मणो धीमाञ्ज्येष्ठं भ्रातरमार्तवत्।
क्व सीतेति त्वया पृष्टा यथेमे सह सोत्थिता:।।
दर्शयन्ति क्षितिं चैव दक्षिणां च दिशं मृगा:।
साधु गच्छावहे देव दिशमेतां च नैऋतीम्।।
यदि तस्यागम: कश्चिदार्यावा वा साथ लक्ष्यते।
वाल्मीकि रामायण अरण्यकाण्ड सर्ग ६४-२१-२२-२३१/२
आर्य! जब आपने पूछा कि सीता कहाँ हैं? तब ये मृग सहसा उठकर खड़े हो गए और पृथ्वी तथा दक्षिण दिशा की ओर हमारा लक्ष्य कराने लगे। अत: देव! यही अच्छा होगा कि हम लोग इस नैऋर्त्य दिशा की ओर चलें। सम्भव है, इधर जाने से सीता का कोई समाचार मिल जाए अथवा आर्या सीता स्वयं ही दृष्टिगोचर हो जाए। श्रीराम, लक्ष्मण को साथ लेकर दक्षिण दिशा की ओर चल दिए। वे दोनों भाई आपस में इसी प्रकार की बातें करते हुए ऐसे मार्ग पर जा पहुँचे, जहाँ भूमि पर कुछ फूल गिरे हुए दिखाई दिए। श्रीराम ने लक्ष्मण से कहा- लक्ष्मण! मैं इन फूलों को पहचानता हूँ। ये वे ही फूल यहाँ गिरे हैं, जिन्हें वन में मैंने सीता को दिए थे और उन्होंने अपने केशों में लगा लिया था। पुन: श्रीराम ने लक्ष्मण से कहा- लक्ष्मण मैं समझता हूँ सूर्य, वायु और यशस्विनी पृथ्वी ने मेरा प्रिय करने के लिए ही इन फूलों को सुरक्षित रखा है। श्रीराम ने प्रस्रवण पर्वत से भी सीता का पता पूछा। इतने में ही उस पर्वत और गोदावरी नदी के समीप की भूमि पर राक्षस का विशाल पदचिह्न उभरा हुआ वहाँ दिखाई दिया।
सीता और राक्षस के पैरों के निशान, टूटे धनुष, तरकस और छिन्न-भिन्न होकर अनेक टुकड़ों में बिखरे हुए रथ को देखकर श्रीराम का हृदय घबरा गया। यह सब देखकर श्रीराम लक्ष्मण से बोले- लक्ष्मण! देखो ये सीता के आभूषणों में लगे हुए सोने के घुँघरू बिखरे पड़े हैं। लक्ष्मण देखो सीता के नाना प्रकार के हार भी टूटे पड़े हैं। देखें यहाँ की भूमि सब ओर से स्वर्ण की बून्दों के समान ही विचित्र रक्त बिन्दुओं से रंगी हुई भी दिखाई दे रही है। लक्ष्मण! सीता के लिए परस्पर विवाद करने वाले दो राक्षसों में यहाँ घनघोर युद्ध भी हुआ है। यह धनुष किसका हो सकता है। सौम्य! उधर पृथ्वी पर टूटा हुआ सोने का कवच पड़ा है, न जानें वह किसका है? दिव्य मालाओं से सुशोभित यह सौ कमानियोंवाला छत्र किसका है? इसका डण्डा टूट गया है और यह भूमि पर गिरा दिया गया है। इधर देखो ये पिशाचों के समान मुखवाले भयंकर रूपधारी गधे मरे पड़े हैं। लगता है कि अवश्य युद्ध में मारे गए जान पड़ते हैं। पता नहीं ये किसके थे? देखो संग्राम में टूटा हुआ उलटा गिरा तोड़ा गया यह रथ किसका है? इसमें इस संग्राम में इसके स्वामी को सूचित करने वाली ध्वजा भी लगी है।
लक्ष्मण! उधर देखो, ये बाणों से भरे हुए दो तरकस पड़े हैं, जो नष्ट कर दिए गए हैं। यह किसका सारथि मरा पड़ा है, जिसके हाथ में चाबुक और लगाम अभी तक दिखाई दे रही है। सौम्य लक्ष्मण! जब विदेहनन्दिनी राक्षसों का ग्रास बन गई अथवा उनके द्वारा हर ली गई और कोई भी उसका सहायक न हुआ होगा। अब इस जगत् में कौन ऐसे पुरुष हैं, जो मेरा प्रिय करने में समर्थ हो। लक्ष्मण! अब न तो यक्ष, न गन्धर्व, न पिशाच, न राक्षस न किन्नर और न मनुष्य ही चैन से रहने पाएंगे। लक्ष्मण! देखो आज मेरे नाराचों से रौंदा जाकर यह सारा जगत् व्याकुल और मर्यादारहित हो जाएगा। यहाँ के मृग और पक्षी आदि नष्ट हो जाएंगे। लक्ष्मण, जैसे वृद्धावस्था, जैसे मृत्यु, जैसे काल और जैसे विधाता सदा समस्त प्राणियों पर निस्संदेह क्रोध में भर जाने पर मेरा कोई भी निराकरण नहीं कर सकता।
श्रीराम की ओर देखकर लक्ष्मण हाथ जोड़कर सूखे हुए मुख से इस प्रकार बोले-
पुरा भूत्वा मृदुर्दान्त सर्वभूतहिते रत:।
न क्रोधवशमापन्न: प्रकृतिं हातुमर्हसि।।
चन्द्रे लक्ष्मी: प्रभा सूर्ये गतिर्वायौ भुवि क्षमा।
एतश्च नियतं नित्यं त्वयि चानुत्तमं यश:।।
वाल्मीकि रामायण अरण्यकाण्ड ६५-४-५
आर्य आप पहले कोमल स्वभाव से युक्त जितेन्द्रिय और समस्त प्राणियों के हित में तत्पर रहे हैं। अब क्रोध के वशीभूत होकर अपनी प्रकृति (स्वभाव) का परित्याग न करें। चन्द्रमा में शोभा, सूर्य में प्रभाव, वायु में गति और पृथ्वी में क्षमा जैसे नित्य विराजमान रहती है, उसी प्रकार आप में सर्वोत्तम यश सद्य प्रकाशित होता है।
लक्ष्मण ने श्रीराम से कहा कि यह स्थान घोड़ों के खुर से और पहियों से खुदा हुआ है, साथ ही खून की बून्दों से सींच उठा है। इससे सिद्ध होता है कि यहाँ बड़ा भयंकर संग्राम हुआ था किन्तु यह संग्राम चिह्न किसी एक ही रथी का है, दो का नहीं। मैं यहाँ किसी विशाल सेना के पदचिह्न नहीं देख रहा हूँ। अत: किसी एक ही के अपराध के कारण, आपको समस्त लोगों का विनाश नहीं करना चाहिए। आप जातने हैं कि राजा कोमल स्वभाव के और शान्त होते हैं वे अपराध के अनुसार ही दण्ड देते हैं। जिसने सीता का अपहरण किया है, उसी का अन्वेषण करना चाहिए। आप मेरे साथ धनुष हाथ में लेकर बड़े-बड़े ऋषियों की सहायता से उनका पता ज्ञात करें। नरेन्द्र! यदि अच्छे शील, स्वभाव, सामनीति, विनय और न्याय के अनुसार प्रयत्न करने पर भी आपको सीता का पता न मिले, तब तक आप सुवर्णमय पंखवाले महेन्द्र के वज्रतुल्य बाण समूहों से समस्त लोकों का संहार कर डालें। इस संसार का स्वभाव ही है कि यहाँ सब पर दु:ख शोक आता-जाता रहता है। नहुष पुत्र ययाति इन्द्र के समान होकर देवेन्द्र पद को प्राप्त हुए थे, किन्तु वहाँ भी अन्यायमूलक दु:ख उनका स्पर्श किए बिना न रहा। लक्ष्मण ने श्रीराम से कहा कि हमारे पिता के पुरोहित जो महर्षि वसिष्ठजी हैं, उन्हें भी एक दिन में सौ पुत्र प्राप्त हुए और फिर एक ही दिन वे सबके सब विश्वामित्र के हाथ से मारे गए। पुरुष प्रवर! समस्त संसार का विनाश करने से आपको क्या लाभ होगा? उस पापी शत्रु का पता लगाकर उसी को उखाड़ फेंकने का प्रयत्न करना चाहिए।
तब लक्ष्मण ने इस प्रकार संताप से पीड़ित हुए श्रीराम से कहा ‘भैया!Ó आपको इस जनस्थान में ही सीता की खोज करनी चाहिए। थोड़ी दूर आगे जाने पर उन्हें पर्वत शिखर के समान विशाल शरीर वाले पक्षिराज जटायु दिखाई पड़े, जो रक्त से लथपथ होकर पृथ्वी पर पड़े थे। उन गृध्रराज को देखकर श्रीराम लक्ष्मण से बोले-
अनेन सीता वैदेही भक्षिता नात्र संशय:।
गृघ्ररूपमिदं व्यक्तं रक्षो भ्रमति काननम्।।
वाल्मीकि रामायण अरण्यकाण्ड सर्ग ६७-११
लक्ष्मण! यह गृघ्र के रूप में अवश्य ही कोई राक्षस जान पड़ता है, जो इस वन में घूमता रहता है। नि:सन्देह इसी ने विदेह राजकुमारी सीता को खा लिया होगा। यह सीता का भक्षण कर यहाँ सुखपूर्वक बैठा है। मैं अब प्रज्वलित अग्रभाग वाले तथा सीधे जाने वाले अपने भयंकर बाणों से इसका वध करूँगा।
इसी समय पक्षिराज जटायु अपने मुँह से फेनयुक्त रक्त वमन करते हुए अत्यन्त ही दीनवाणी में श्रीराम से बोला-
यामोषधीमिवायुष्मन्नन्वेसि महावने।
सा देवी मम च प्राणा रावणेनोभयं हृतम्।।
वाल्मीकि रामायण अरण्यकाण्ड सर्ग ६७-१५
आयुष्मन्! इस विशाल वन में तुम जिसे औषधि के समान ढूँढ रहे हो, उस देवी सीता को तथा मेरे इन प्राणों को भी रावण ने हर लिया है। रघुनन्दन! तुम्हारे और लक्ष्मण के न रहने पर महाबली रावण आया और देवी सीता को हर कर ले जाने लगा। उस समय मेरी दृष्टि सीता पर पड़ी। हे प्रभो! ज्यों ही मेरी दृष्टि उस पर पड़ी मैं सीता की सहायता के लिए तुरन्त दौड़ पड़ा। रावण के साथ मेरा युद्ध हुआ। मैंने उस युद्ध में रावण के रथ और छत्र आदि सभी नष्ट कर दिए। वह भी घायल होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा। यह रावण का सारथि है जिसे मैंने अपने पंखों से मार डाला था। जब मैं युद्ध करते-करते थक गया तब रावण ने तलवार से मेरे दोनों पंख काट डाले और वह विदेहकुमारी सीता को लेकर आकाश में उड़ गया। मैं उस राक्षस के हाथ से पहले ही मार डाला गया हूँ, अब तुम मुझे न मारो।
सीता के बारे में यह सारा वृत्तान्त जानकर श्रीराम ने अपना धनुष फेंक दिया और गृध्रराज जटायु को गले लगाकर शोक से विवश होकर पृथ्वी पर गिर पड़े। लक्ष्मण के साथ रूदन करने लगे। श्रीराम अत्यन्त धीर-वीर होने पर भी उस समय दूने दु:ख का अनुभव करने लगे। श्रीराम ने लक्ष्मण से कहा मेरा राज्य छीन गया, मुझे वनवास मिला, पिता की मृत्यु हुई सीता का अपहरण हुआ और ये परम सहायक पक्षिराज जटायु भी स्वर्गवासी हो गए। ऐसा जो मेरा यह दुर्भाग्य है, यह तो अग्नि को भी जलाकर भस्म कर सकता है। ये महाबली गृध्रराज जटायु मेरे पिताश्री के मित्र थे, किन्तु आज मेरे दुर्भाग्यवश मारे जाकर इस समय पृथ्वी पर पड़े हैं। इस प्रकार बहुत सी बातें कहकर लक्ष्मण सहित श्रीराम जटायु के शरीर पर हाथ फेरा और पिता के प्रति जैसा स्नेह होना चाहिए, वैसा ही उनके प्रति प्रदर्शित किया। जटायु ने लड़खड़ाती जिह्वा से कहा कि हे तात! जब मैं उससे लड़ता-लड़ता थक गया। उस अवस्था में मेरे दोनों पंख काटकर वह निशाचर सीता को साथ लिए यहाँ से दक्षिण दिशा की ओर गया। जटायु ने श्रीराम से कहा रावण सीता को जिस मुहूर्त में ले गया है, उसमें खोया हुआ धन शीघ्र ही उसके स्वामी को मिल जाता है। काकत्स्थ! वह ‘विन्दÓ नामक मुहूर्त था किन्तु उस राक्षस को इसकी जानकारी नहीं थी। जिस प्रकार मछली की मौत के लिए बंसी पकड़ लेती है। उसी प्रकार रावण भी सीता को ले जाकर शीघ्र ही नष्ट हो जाएगा। अत: अब तुम सीता के लिए मन में खेद मत करो। युद्ध के मुहाने पर निशाचर का वध करके तुम शीघ्र ही पुन: सीता के साथ विहार करोगे।
जटायु श्रीराम को उनकी बात का उत्तर दे ही रहे थे कि उनके मुख से माँस युक्त रुधिर निकलने लगा-
पुत्रो विश्रवस: साक्षाद् भ्राता वैश्रवणस्य च।
इत्युक्त्वा दुर्लभान प्रोणान् मुमोच पतगेश्वर:।।
वाल्मीकि रामायण अरण्यकाण्ड सर्ग ६८-१६
जटायु बोले- ‘रावण विश्रवा का पुत्र और कुबेर का सगा भाई है। इतना कहकर उन पक्षिराज ने दुर्लभ प्राणों का परित्याग कर दिया। श्रीराम हाथ जोड़कर कह रहे थे कि कहिये-कहिये कुछ तो कहिये। किन्तु उस समय गृध्रराज के प्राण उनका शरीर छोड़कर आकाश में चले गए।
अपने पूर्वजों के द्वारा प्राप्त हुए गीधों के विशाल राज्य का त्याग करके इन पक्षिराज ने मेरे लिए अपने प्राणों की आहुति दी है। श्रीराम ने लक्ष्मण से कहा- महायशस्वी राजा दशरथजी जैसे मेरे माननीय और पूज्य थे, वैसे ही पक्षिराज जटायु भी हैं। सुमित्रानन्दन! तुम सूखे काष्ठ ले आओ, मैं उन्हें मथकर अग्नि उत्पन्न करूँगा और मेरे लिए मृत्यु को प्राप्त हुए इन गृध्रराज का दाह संस्कार करूँगा। तत्पश्चात् श्रीराम ने अत्यन्त दु:खित हो पक्षिराज जटायु के शरीर को चिता पर रखा और उसमें आग लगाकर अपने बन्धु की भाँति उनका दाह संस्कार किया। श्रीराम ने तत्पश्चात रोही के गूदे से उनका पिण्डदान किया। तदनन्तर उन दोनों भाईयों ने गोदावरी नदी के तट पर जाकर उन गृध्रराज के लिए जलाञ्जलि का दान किया। तर्पण करने के पश्चात् वे दोनों भाई पक्षिराज जटायु में पितृतुल्य सुस्थिरभाव रखकर सीता की खोज कार्य में मन लगाकर देवेश्वर विष्णु और इन्द्र की भाँति वन में आगे बढ़े।
इस तरह श्रीराम एवं लक्ष्मण द्वारा सीताजी के अन्वेषण का कार्य किया गया। श्रीराम के दु:ख का प्रकृति में चित्रण देखते ही बनता है। श्रीराम के जीवन से हमें शील-संयम-धैर्य की अनुपम शिक्षा प्राप्त होती है। संकट के समय हमें सकारात्मकता के विचार रखकर उसका सामना करना ही परम लक्ष्य होना चाहिए।
धृतिर्दृष्टिर्मतिर्दाक्ष्यं स कर्मसु न सीदति।
वाल्मीकि रामायण सु.का. १-२०१
जिस पुरुष में धैर्य, सूझ, बुद्धि और कुशलता- ये चार गुण होते हैं, उसे अपने कार्य में कभी असफलता नहीं होती।
प्रेषक
डॉ. नरेन्द्रकुमार मेहता
‘मानसश्रीÓ, मानस शिरोमणि, विद्यावाचस्पति एवं विद्यासागर