भारतीय इस्लाम पर खुद अरब के इस्लाम में आए बदलाव का असर देखा जा रहा है। प्रथम विश्व युद्ध के बाद सऊद परिवार ने अरब खाड़ी के एक बड़े हिस्से पर कब्जा कर लिया था। यह परिवार इस्लाम की कट्टर विचारधारा – वहाबी का समर्थक है और इसकी वजह से सऊदी अरब में मुसलमान वहाबी धारा को सबसे ज्यादा मानते हैं। जैसे-जैसे पूरे विश्व में औद्योगीकरण बढ़ता गया, पेट्रोल-डीजल की मांग बढ़ती गई वैसे-वैसे सऊदी अरब और समृद्ध होता गया।
भारतीय उपमहाद्वीप के मुसलमानों का उच्च तबका इस समय इन अरबी शब्दों को अपनी सांस्कृतिक पहचान मानकर अपना रहा है। इसके जरिए वे आम मुसलमान नहीं बल्कि उस तरह के मुसलमान बन रहे हैं जो सऊदी अरब द्वारा प्रचारित हैं। भारत से लगभग 32 लाखमुस्लिम विदेश में प्रवास में रह रहे हैं। उनकी पहली पसंद अरब खाड़ी के देश होते हैं जहां वहाबी इस्लाम का ही बोलबाला है।
ऐतिहासिक रूप से, इस्लाम को मानने वालों ने अपने नामकरण और पहनावे में भारतीय प्रथाओं का पालन किया। लेकिन, पिछले कुछ दशकों में, मुसलमान सूफी / बरेलवी जैसे भारतीय संस्करण से इस्लाम के सऊदी / वहाबी / देवबंदी / सलाफी संस्करण की ओर बढ़ रहे हैं। अब अरबी नाम, बुर्का का प्रचलन भारत में वहाबी इस्लाम की बढ़ती लोकप्रियता कट्टरवाद की ओर संकेत करता है। खाड़ी देशों का पैसा धीरे-धीरे भारत में इस्लाम का चेहरा बदल रहा है। पूरा चेहरा ढकना भारत में बहुत असामान्य था। लेकिन यह अब कई परिवारों में दैनिक जीवन का हिस्सा है जिनके सदस्य खाड़ी देशों में रहते हैं या रह रहे हैं। यह प्रवृत्ति उत्तर भारत तक ही सीमित नहीं है, केरल और तमिलनाडु जैसे राज्यों में भी यह देखा जा रहा है।
आज के भारतीय मुस्लिम दूर से ही अपने परिधान और अपने वेश-भूषा से पहचान में आ जाते हैं। बढ़ी हुई लंबी दाढ़ी और जालीदार टोपी से कोसों दूर से ही उनकी पहचान जाहीर हो जाती है। लंबे कुर्ते-पैजामे और अरबी अल्फाजों का चलन आजकल अपने चरम पर है। नई पीढ़ी आने से पहले ही इस्लाम अधिक रूढ़िवाद की ओर जा रहा है।
जब देश का विभाजन हुआ तो भारत के कई भागों में दंगे हुए, लाखों लोग विस्थापित हुए लेकिन भारत के बार्डर इलाकों में यह अधिक हुआ। देश के अंदरूनी हिस्सों में किसी भी मुस्लिम को कोई फर्क नहीं पड़ा। हैरानी की बात तो यह है उस समय मुस्लिमों के नाम भी हिन्दू नाम ही हुआ करते थे।
उस दौर में दिल से सभी हिन्दू ही थे बस मजहब अलग था। वह अपने दिन भर के कार्यक्रम में सैकड़ों बार राम का नाम लेते थे और उन्हें इस्लाम का ‘इ’ भी नहीं पता था बस नाम के पीछे मियां लगा रहता था। उन्हें यह भी पता नहीं था कि वह मुस्लिम क्यों और कैसे हैं।
शारीरिक बनावट और परिधान से भी वह हिंदुओं से अलग नहीं थे तथा कोई फर्क नहीं निकाल सकता था। त्योहार भी तब बड़े धूम-धाम से मनाया जाता था चाहे वह ईद हो या दुर्गा पूजा। किसी को किसी से कोई परेशानी नहीं होती थी। सभी बस मिल कर एक-दूसरे के त्योहारों का आनंद उठाया करते थे।
सऊदी अरब पर वहाबी इस्लाम फैलाने के आरोप लगते हैं. 18वीं शताब्दी में एक मौलाना ने वहाबी पंथ की स्थापना की. यह सुन्नी इस्लाम का अतिरूढ़िवादी चेहरा है. यह इस्लाम के दूसरे पंथों और अन्य धर्मों को खारिज करता है.
लेकिन क्या पूरा दोष सऊदी अरब पर मढ़ना ठीक होगा? पश्चिम ने भी अपने स्वार्थों और तेल के लिए सऊदी अरब को पक्का दोस्त बनाया. न्यूयॉर्क टाइम्स ने खुद अमेरिका के रुख पर भी सवाल उठाया है.
कट्टरपंथ के बढ़ते प्रभाव के बीच ब्रुकिंग्स इंस्टीट्यूशन के स्कॉलर विलियम मैकैंट्स सऊदी अरब को “आग लगाने वाला और आग बुझाने वाला” कहते हैं. मैकेंट्स के मुताबिक, “वे इस्लाम के बेहद विषैले रूप को बढ़ावा देते हैं जो बहुत ही कम सच्चे धार्मिक और बाकी लोगों के बीच साफ लकीर खींचता है, मुसलमान और गैर मुसलमान.” मैकेंट्स इस कट्टरपंथी विचारधारा को हिंसक जिहाद के लिए जिम्मेदार मानते हैं.
बीते दशकों में सऊदी अरब वाले इस्लाम का प्रभाव दुनिया में तेजी से फैला है. पाकिस्तान में दरगाहों को, शिया व अहमदी समुदाय के मुसलमानों को निशाना बनाना आम हो चला है. प्रेम और रहस्यवाद का संदेश देने वाली इस्लाम की सूफी परंपरा पर भी हमले हुए. पूर्वी एशिया और अफ्रीकी महाद्वीप में भी रुढ़िवादी तरीके फैले. उदाहरण के तौर पर अब दूर के देशों में भी पहले से ज्यादा महिलाएं अपना सिर ढंकने लगी हैं, पुरुष दाढ़ी रखने लगे हैं. पाकिस्तान और नाइजीरिया जैसे देशों को सऊदी अरब ने अथाह वित्तीय मदद दी, लेकिन उसके साथ ही वहाबी इस्लाम का प्रचार भी किया, पैसे के साथ आई विचारधारा ने एक ही धर्म और स्थानीय समाज को घातक रूप से बांट दिया.
सऊदी अरब में सलफी मसलक (संप्रदाय) के मानने वाले लोग ज्यादा हैं. वहां की मस्जिदों के इमाम भी ज्यादातर सलफी मसलक के हैं. वहीं, तबलीगी जमात के लोग हनफी मसलक के हैं. ऐसे में इस्लाम के अंदर धार्मिक और वैचारिक मतभेद होने के चलते एक तरह से सऊदी अरब में तबलीगी जमात पर बैन है, क्योंकि सलफी मसलक में इस्लाम के प्रचार-प्रसार की इस तरह से कोई पद्यति नहीं है. लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से इस जमात को अरब देशों से आर्थिक मदद मिलने से इंकार नहीं किया जा सकता।
1970 के दशक में पेट्रोलियम का मूल्य बढ़ने के बाद से सऊदी अरब की सरकार वहाबी कट्टरपंथ और उसपर आधारित आतंकवादी जेहादी संगठनों को पूरी दुनिया में फैलाने के लिए लाखों करोड़ रूपये खर्च कर चुकी है | ISIS के इस्लामी राष्ट्र का घोषित पन्थ भी वहाबी ही है और उसे दोनों वहाबी देशों से भरपूर सहायता मिलती है – सऊदी अरब तथा क़तर |
भारत में भी आतंकवाद का सम्बन्ध वहाबी और उनके पेट्रो-डॉलर से जुड़ा रहा है | कश्मीर से लेकर रोहिंग्या तक सब जगह वहाबियों का पेट्रो-डॉलर ही अपनी करामात दिखा रहा है
भारत को नष्ट करके इस्लामी राष्ट्र स्थापित करने का षड्यन्त्र चल रहा है जिसमें सारी सेक्युलर पार्टियां भी वहाबी पेट्रो-डॉलर कमाने के चक्कर में देशविरोधी बयानबाजी करती रहती हैं |
भारत सरकार को भी यह घोषणा कर देनी चाहिए कि देश बहांबी पंथ पर प्रतिबंध हे।– लेकिन समस्या यह है कि अभी भारत को पेट्रोलियम की सख्त जरूरत है |
सभी सुन्नियों का प्रमुख लक्ष्य है “खलीफा” की पुनर्स्थापना और उसके तहत विश्वविजय का बिगुल फूँकना | सुन्नी विचारधारा का मुख्य स्तम्भ ही खिलाफ़त (खलीफा) है, जिसके अंतर्गत संसार के सभी मुसलमानों का इस्लामी राष्ट्र रहेगा और संसार से काफिरों का उच्छेद कर दिया जाएगा – यह कुरान का घोषित लक्ष्य है I अल्लाह ने मुहम्मद को केवल सऊदी अरब पर इस्लाम थोपने को नहीं कहा था, पूरी दुनिया पर थोपने का आदेश दिया था — कान में गुप्त रूप से (क्योंकि मुहम्मद के सिवा और कोई अल्लाह की आवाज नहीं सुन सकता ; मुहम्मद भी विशेष तान्त्रिक मुद्रा में ही सुन पाते थे जिसमें बीबी सहायता करती थी) |
आतंकी अलक़ायदा हो या ISIS का भी यही लक्ष्य है और यही लक्ष्य तबलीगी जमात का भी हे| हिन्दुओं का पूरी तरह से सफाया वहाबियों का प्रमुख उद्देश्य है, यद्यपि खुलकर अभी ऐसा नहीं बोलते।