15 वां प्रवासी भारतीय दिवस सम्मेलन 21 जनवरी से वाराणसी में उस समय शुरू हुआ है, जब अमेरिका में बसी दो भारतीय मूल की महिलाओं की चर्चा विशेष रूप से विश्व भर में हो रही है। पहली गीता गोपीनाथ हैं। उन्होंने अंतर राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) के अध्यक्ष का पद भार संभाल लिया है। दूसरी हैं चैन्नई में पैदा हुई इंदिरा नूई। कभी कोका कोला जैसी प्रख्यात शीतलपेय बनाने वाली कंपनी की प्रमुख रही इंदिरा नूर्इ को विश्व बैंक का प्रमुख बनाए जाने की चर्चाएं जोरों पर हैं। दरअसल ये दोनों उदाहरण मात्र हैं, यह सिद्ध करने के लिए कि सारी दुनिया में भारतीय अपने ज्ञान, मेहनत,लगन के बल पर आगे बढ़ते ही चले जा रहे हैं।हालांकि, ये दोनों प्रवासी सम्मेलन में अपरिहार्य कारणों से नहीं उपस्थित हो पा रही हैं, पर इनकी चर्चाएं होती ही रहेगी।
दरअसल कुंभ मेला और गणतंत्र दिवस समारोह में भाग लेने के लिए आ रहे सात समंदर पार बसे भारतीयों की भावनाओं के सम्मान में इस बार प्रवासी भारतीय दिवस सम्मेलन 9 जनवरी के स्थान पर 21 से 23 जनवरी को आयोजित किया जा रहा है। सम्मेलन में भाग लेने आए भारतीयों को कुंभ मेले के बाद 26 जनवरी को नई दिल्ली में गणतंत्र दिवस परेड का साक्षी होने का भी अवसर प्रदान किया जाएगा। इस दौरान ये सब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से भी भेंट करेंगे। प्रधान मंत्री मोदी ही यानि 22 जनवरी को प्रवासी भारतीय दिवस सम्मेलन का उद्घाटन भी करेंगे। आखिरकार प्रधानमंत्री भारतीयों को यह सम्मान क्यों ना दें? वही तो हैं भारत के अघोषित भ्रमणशील अवैतनिक राजदूत जो देश का एक रुपया भी न बर्बाद करते हुए भी देश का झंडा ऊँचा किये चलते हैंl
दरअसल, प्रधानमंत्री मोदी ने दुनिया के चप्पे-चप्पे में बसे भारतीयों से सीधा संवाद कायम कर लिया है। वे चाहें फीजी जाएं या दुबई में, आस्ट्रेलिया जाएं या फिर न्यूयार्क में, वे प्रवासी भारतीयों से और भारतीय मूल के लोगों से अवश्य ही मिलते हैं। उनके सुख-दुख सुनते हैं। उनकी सफलता की कहानियों को बड़े ही चाव से जानने,सुनने और तारीफ करने की जहमत करते हैं। उनकी कठिनाइयों के तुरंत हल खोजते हैं। पिछले पांच वर्षों में उनकी इस पहल के सकारात्मक नतीजे आए हैं।
प्रधानमंत्री मोदी को देश से बाहर भी अब हजारों लोग सुनने आने लगे हैं।कार्यदिवस पर तो छुट्टियाँ लेकर भी चले आते हैंl कार्यदिवस पर विदेशों में छुट्टियाँ लेने का बहुत बड़ा अर्थ है। वहां तो कार्यदिवस पर कोई अपने परिवार के सदस्यों को एअरपोर्ट छोड़ने या लेने तक नहीं जाता। पर वे ही लोग सपत्नीक सैकड़ों मील गाड़ी चलाकर कुछ मिनटों तक मोदी को देंखने सुनने चले आते हैं। हैं न मोदी का चुम्बकीय आकर्षण। पिछले वर्ष के शुरू में वे यूएई दौरे के दौरान दुबई के ओपरा हाउस पहुंचे। मोदी ने यहां विडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए अबू धाबी के पहले हिंदू मंदिर का शिलान्यास किया। उनके उस भाषण को खाड़ी के देशों में बसे लाखों भारतीय सुन या देख रहे थे। हमने इस तरह के नजारे उनकी विदेश यात्राओं के दौरान बार-बार देखे हैं। कनाडा के शहर टोरंटो में मोदी के स्वागत में रॉकशो में हर तरफ से मोदी-मोदी और भारत माता की जय के नारे गूंजते ही रहे।
आप याद कर लीजिए कि क्या प्रधानमंत्री मोदी के किसी पूर्ववर्ती ( अटल बिहारी वाजपेयी को छोड़कर) ने कभी भी भारतवंशियों से कोई सीधा संवाद स्थापित किया था? अटल बिहारी वाजपेयी तो युग पुरुष थे। उन्हीं की पहल पर 2003 में प्रवासी भारतीय सम्मेलन का आयोजन चालू किया गया था। उनकी चाहत थी कि दुनिया भर में बसे प्रवासी भारतीय अपने वतन से सीधा संबंध जोड़ सके। उनसे पहले इस दिशा में किसी ने सोचा ही नहीं था। हां, हम गुट निरपेक्ष आंदोलन के नेता बन रहे थे, पर अपने बंधुओं की हमें रत्ती भर भी फिक्र नहीं थी। जिस परम्परा की अटल जी ने नींव रखी, उसे नरेन्द्र मोदी आगे लेकर बढ़े चले
जा रहे हैं।इससे देश को लाभ ही लाभ हो रहा हैं। विश्व बैंक की एक ताजा रिपोर्ट के अनुसार, भारत को विगत वर्ष यानी 2018 के दौरान विदेशों में बसे प्रवासी भारतीयों से 80 बिलियन ड़ॉलर प्राप्त हुए। ये रकम साल 2017में 69 बिलियन डॉलर थी। मतलब कि देश में प्रवासी भारतीय दिल खोलकर पैसा भेज रहे हैं। यानी सात समंदर पार गए भारतीयअपने देश की किस्मत को बदलने में मदद कर रहे हैं। इस धन का प्रयोग वित्तीय विकास और ढांचागत परियोजनाओं में किया जा रहा है। इस योगदान को कम करके नहीं आंका जा सकता है। गौर कीजिए कि चीन के विदेशों में बसे नागरिकों की संख्या हमारी तुलना में अधिक हैं, पर भारत ने विदेशों से प्राप्त रकम के मामले में उसे शिकस्त दी। चीन को 2017 में 64 बिलियन डॉलर रकम ही प्राप्त हुए थे। भारत को 69बिलियन डॉलर मिले। यह सोचा जाना चाहिए कि पहले हमें विदेशों में बसे भारतीय मोटी रकम क्यों नहीं भेजते थे? इस सवाल का सीधा सा उत्तर यह है कि हमने अपने देश से बाहर बसे बंधुओं को कभी अपना सगा माना ही नहीं। हम तो उन्हें सांकेतिक रूप से अपना मान लिया करते थे। हम उनके कष्ट के मौके पर पीठ दिखाने के मामले में सबसे आगे थे। याद कीजिए कि पूर्वी अफ्रीकी देश युगांडा में जब नरभक्षी ईदी अमीन भारतीयों को धक्के देकर निर्ममता पूर्वक निकाल रहा था, तब हमने उन भारतीयों का तत्कालीन भारत सरकार ने कितनासाथ दिया था। उन हजारों भारतीयों को ब्रिटेन से शरण मिली थी। अब जहां भी भारतीयों पर संकट आता है,भारतसरकार अपने स्तर पर उनकी तत्काल मदद करती है। पहले बात टोगो की कर लें। वहां की जेल में साल2013 से बंद पांच भारतीयों को सरकार ने सुरक्षित जेल से रिहा करवाया गया। हालांकि यह खबर बहुत प्रमुखता नहीं हासिल कर सकी थी। तब विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने ट्वीट कर कहा था, ‘केरल के पांच भारतीय को टोगो की जेल से सुरक्षित निकाला गया है। एकरा में भारत के उच्चायोग ने अच्छा काम किया।‘ और क्या देश भूल सकता है कि किस तरह से यमन में फंसे भारतीयों को गोलाबारी के बीच से सुरक्षित स्वदेश लाया गया था? भारत ने संघर्ष प्रभावित यमन में देशवासियों को सुरक्षित बाहर निकालने के अभियान के क्रम में 6 हजार से अधिक भारतीयों को मौत के मुंह से सुरक्षित निकाला था। तब भारत ने यमन में फंसे मित्र देश नेपाल और बांग्लादेश के नागरिकों को भी सुरक्षित निकाला था। सुषमा स्वराज ने विदेश राज्य मंत्री जेनरल वीके सिंह को यमन की जिम्मेदारी सौपी थी कि वे भारतीय को यमन से सुरक्षित निकालें। उस अभियान में भारतीय नौसेना की सहायता से भारतीय नागरिक सुरक्षित निकाले गए थे। खैर, अब गिले-शिकवे का वक्त नहीं है। अब आगे के बारे में सोचना है।
बहरहाल, यह एक सुखद संयोग ही है कि मारीशस के हिन्दी प्रेमी प्रधानमंत्री प्रवीण जुगनाथ प्रवासी सम्मेलन के मुख्य अतिथि होंगे। उनके पिता और मारीशस के पूर्व प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति अनिरुद्ध जगन्नाथ भी भारत के गहरे मित्र रहे हैं। प्रवीण जगन्नाथ की बड़ी बहन शालिनी जगन्नाथ मल्होत्रा का विवाह राजधानी के करोल बाग में रहने वाले डा.कृष्ण मल्होत्रा से हुआ है। जाहिर है, इसलिए भी अनिरुद्ध जगन्नाथ और प्रवीण जगन्नाथ के भारत से अलग तरह के संबंध हैं।
खैर, अब वतन से दूर बसे भारतीयों को अपने पुरखों की अपनी जन्म भूमि पराई नहीं लगेगी।
आर.के. सिन्हा
(लेखक राज्य सभा सदस्य हैं)