क्या गांधी जी का देश बताने वाले साम्प्रदायिक सद्भावना की बात करके कभी उस सौहार्द को बना पाएं या गांधी जी भी कभी उस मृग मरीचिका को खोज पायें ? अनेक महापुरुषों के कथनों से भी यही सत्य छलकता रहा कि हिन्दू- मुस्लिम एकता संभव नहीं अर्थात साम्प्रदायिक सद्भाव कहने व सुनने में अच्छा लगता है पर इसकी दूरी अनन्त है। पाकिस्तान के जनक मोहम्मद अली जिन्नाह ने भी कहा था कि हिन्दू मुस्लिम दो अलग अलग विचारधाराएं है और इनका एक साथ रहना संभव नहीं। जब मुसलमान जिहादी दर्शन का अनुसरण करेंगें और गैर मुस्लिमों पर अत्याचार या उनकी धार्मिक आस्थाओं पर निरंतर आघात करते रहेँगेँ तो कब तक कोई अपने अस्तित्व की रक्षा में उनके विरोध से बचता रहेगा ? अतः ये कैसे कहा जा सकता है कि हमारा देश सदियों से सांप्रदायिक सद्भाव की मिसाल रहा है ? इतिहास को झुठलाया नहीं जा सकता । भारत के कौने कौने में आप मुगलो की बर्बरता के निशान आज भी देख सकते है। क्या साम्प्रदायिक सद्भाव के लेखो व भाषणों से कोई इसको समझने के लिए तैयार होगा ? सन 1947 में देश के विभाजन का मूल कारण हिन्दू-मुस्लिम धर्म पर ही आधारित था।
आज समाज जागरुक हो गया है। अब असत्य व अन्याय सहकर प्रताड़ित होंते रहने का समय नहीं, हिंदुओं ने एक तरफा हुए अपने ही सगे-संबंधियों के भीषण कत्लेआमो को झेला है । उन्होंने अपनी भीरुता और कायरता से हज़ारों मंदिरो को विंध्वस होते देखा है और साथ ही अपनी व देश की अनन्त सम्पदा को लुटवाया है। अत्याचारों से चीखती -विलखती बहन बेटियों की चीत्कार को आज भी भुलाया नहीं जा सकता। कब तक इतिहास के काले पन्ने सार्वजनिक नहीं किये जायेंगें ? एक वर्ग दूसरे वर्ग को लूटता रहें , उनकी बहन बेटियों को उठाता रहें, उसकी दुकान -मकान आदि सम्पति को जलाता रहें तो वो कब तक चुप रहकर क्यों कर सद्भाव की बड़ी बड़ी बातें कर पायेगा ? जबकि “द पॉलिटिक्स ऑफ कम्युनिलिज्म 1989″ की लेखिका एवं मुस्लिम स्कॉलर जैनब बानो के अनुसार यह स्पष्ट होता है कि 75% साम्प्रदायिक दंगों की शुरुआत मुसलमान ही करते है । दशकों पूर्व जब भिवंडी ( महाराष्ट्र) में हुए दंगो पर 14 मई 1970 को जनसंघ के नेता के रुप मे श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने जो कहा उसके कुछ अंश… ” डेढ साल में हुए प्रमुख दंगो के कारणों की जांच एवं उसके विवरण भारत सरकार के द्वारा तैयार एक रिपोर्ट में उपलब्ध है। उस काल मे 23 दंगे हुए और मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार उन 23 दंगों में से 22 दंगों का प्रारंभ उन लोगों ने किया जो अल्पसंख्यक समुदाय के माने जाते है।” (बही पृष्ठ-254)। ऐसे में साम्प्रदायिक सद्भाव एक मृग मरीचिका से अधिक और कुछ नही।
क्या यह भी सत्य नही है कि स्वतंत्र भारत की वर्तमान राजनीति अल्पसंख्यकों के नाम पर मंत्रालय व आयोग गठन करके वर्षो से नित्य नई नई योजनाओं द्वारा मुसलमानों पर अरबों रुपया लुटाती आ रही है? ऐसी विचित्र परिस्थितियों में अनेक प्रकार से अपने अधिकारों से वंचित होने वाले बहुसंख्यक हिन्दू समाज से यह आशा करें कि वह साम्प्रदायिक सौहार्द के लिए उदाहरण बन कर राष्ट्र की एकता और अखंडता बनायें रखें ? यह भेदभावपूर्ण नीतियां भारतीय राजनीति में एक जोंक की तरह चिपक गई है । इससे क्या हमारे लोकतांन्त्रिक मूल्य स्वस्थ व सुरक्षित रह पायेंगे ?
यहां पिछले वर्षों में हुई कुछ घटनाओं का उल्लेख करना भी अनुचित नही । ग्रेटर नोएडा के एक गांव बिसाहडा (दादरी) जिसमे 28 सितम्बर 2015 की रात को धार्मिक आघातों पर हुई घृणा से एक धर्म विशेष (मुसलमान) व्यक्ति की मृत्यु होने से मीडिया व राजनीति को एक धारदार हथियार हाथ लग गया था। समाज की ढोंगी धर्मनिरपेक्षता इस धार को अपने अपने अनुसार उचित अनुचित की फ़िक्र न करते हुए प्रयोग कर रही थी । विभिन्न साहियकारों ने इसके बहाने सरकार को घेरने व उसको बदनाम करने के लिए धीरे धीरे अपने पुरस्कार लौटाने आरंभ कर दिये थे। परंतु उसमें प्रमाण पत्र के साथ साथ मिलने वाली धनराशि भी सम्मलित थी या नही, अभी किसी ने स्पष्ट नहीं किया है। इस प्रकरण को सांप्रदायिकता के परिणाम से हुई हिंसा के लिए उस पर आक्रोश दिखाने का एक नाटक समझा जाये तो अनुचित नही होगा ? क्योंकि इस घटना के सहारे अनेक षड्यंत्रकारी तत्व भारत की छवि को देश-परदेश में धूमिल करके उत्तर प्रदेश की अखिलेश सरकार को कटघरे में खड़े करने के स्थान पर केंद्र में मोदी जी की सरकार पर आरोप-प्रत्यारोप लगाने लगे। इसमें सबसे अधिक सक्रियता उन स्वयं सेवी संस्थाओं ने दिखाई जो नियम विरुद्ध बाहरी देशों के धन पर फल-फूल रही थी और जिनको केंद्रीय सरकार जांच के घेरे में ला रही थी। इन संस्थाओं के कर्ताधर्ताओं ने देश और विदेश में भारत की धर्मनिरपेक्षता और साम्प्रदायिक सद्भावना पर भयंकर संकट का झूठा प्रचार किया। साथ ही अनेक मानवाधिकारवादियों को भी भ्रमित करने में सफल हुए। इन षड्यंत्रकारियों को कुछ माह बाद बिहार के चुनावों में बीजेपी की हार से बड़ा संतोष मिला था। इस प्रकार साम्प्रदायिकता के नाम पर राष्ट्रवाद को झुठलाना एक सामाजिक चुनौती बनती जा रही है।
यह भी नही भुलाया जा सकता कि कश्मीर, मालदा, कैराना व शामली के समान देश के विभिन्न क्षेत्रों में मुसलमान अपनी संख्या बढ़ा कर वहां रहने वाले हिन्दुओं पर अनेक दुर्व्यवहार व अत्याचार करते है। जिससे पीड़ित हिन्दू वहां से पलायन करने को विवश हो जाते है। इस प्रकार देश के हज़ारो क्षेत्रो में मुस्लिम बहुल बस्तियां विकसित होती जा रही है। जिनको कोई “मिनी पाकिस्तान” कह देता है कोई “मौहल्ला पाकिस्तान” बना देता है। जबकि विभिन्न हिन्दू बहुल बस्तियों में कम संख्या में रहने वाले मुसलमान भी कभी पीड़ित नही होते बल्कि सहिष्णु हिन्दुओं से प्रेम व सम्मान ही पाते है।
राष्ट्रवाद को झुठलाने की एक और घटना जब सितम्बर 2008 में बटला हाउस (दिल्ली) में आजमगढ़ के आतंकियों को मारा गया तो उसमे दिल्ली पुलिस के शूरवीर इंस्पेक्टर के बलिदान को ही संदेहात्मक बना दिया और (छदम्) धर्मनिरपेक्षता के नाम पर मुस्लिम आतंकियो के घर आजमगढ़ जाने की नेताओं में होड़ ही लग गयी थी। यहा तक समाचार आये थे कि उस समय सत्ता के शीर्ष को नियंत्रित करने वाली सोनिया गांधी ने भी आजमगढ़ के आतंकवादियों पर आंसू बहायें थे । सितंबर 2008 की इस घटना के बाद से आज तक आजमगढ़ के कट्टरपंथी मुसलमान और उलेमाओं की टोली जंतर-मंतर (नई दिल्ली) में प्रतिवर्ष सितंबर माह में विरोध प्रदर्शन करके आतंकियों को निर्दोष और हुतात्मा महेश चंद्र शर्मा के बलिदान को व्यर्थ प्रमाणित करना चाहती है। क्या यह कट्टरता साम्प्रदायिक सद्भाव बनने देगी ?
इससे अधिक भयावह व दर्दनाक घटनायें भी देश में होती रही है पर एक तरफ़ा देखने की प्रवृति का चलन बने रहने से स्वस्थ व निष्पक्ष विचार की सोच लुप्त होती रही है । साम्प्रदायिक सौहार्द की बात कहने वाले केवल कट्टरपंथियों के पक्ष में खड़ें रहकर ढोंगी धर्मनिरपेक्षता की आड़ में उदार हिन्दू समाज व राष्ट्रवाद को कोसने से बाज़ नही आते। अनेक देशद्रोही व मुस्लिम साम्प्रदायिकता के घृणित दुष्प्रभावों के समाचार आते रहते है पर देश के गणमान्य लोगो ने उस पर कभी प्रतिक्रिया नहीं करी । ऐसी अनेक चुभने वाली सूचनायें व समाचार दिलों से निकले नहीं है। हमारा मीडिया उत्तर प्रदेश के मुज़फ्फरनगर , बिजनौर, बरेली, लखनऊ, कानपुर, सहारनपुर,आगरा आदि में हुए पिछले पांच वर्षों के सांप्रदायिक दंगों की स्वस्थ पत्रकारिता से बचता आ रहा है। इसी प्रकार पश्चिम बंगाल के बर्द्धमान , मालदा व धूलागढ़ आदि में पिछले वर्षों की मुस्लिम साम्प्रदायिकता के नंगे नाच की अनेक घटनाओं पर न जाने किस बोझ तले स्वस्थ पत्रकारिता का परिचय नही मिलता ? जबकि मुस्लिम आतंकियों व धार्मिक भावनाओं पर आघात पहुँचाने के वशीभूत हुई किसी मस्लिम की मौत पर मीडिया जगत ऐसे व्यवहार करता है मानो कि हिंदू समाज ने मुस्लिम आतंकवादियों से भी बड़ा अपराध कर दिया हो ? यह सत्य है कि इस्लाम का जिहादी दर्शन आक्रान्ताओं को ही बढ़ावा देता है जबकि भारतीय दर्शन सद्भाव की बात करके वसुधैव कुटुंबकुम्ब की धारणा को बल देता है । परंतु आत्मस्वाभिमान मिटा कर आत्मघात सहकर अपने अस्तित्व को समाप्त करके जिहादियों के दारुल-इस्लाम के सपने को साकार करना या स्वीकार करने का सद्भाव ही भारतीयों को क्यों सिखाया जाता है ? क्या अफगानिस्तान, पाकिस्तान , बंग्ला देश व कश्मीर में हिन्दुओ को सम्पूर्ण विनाश की ओर ले जा रहें जिहादियों के अंदर बैठे शैतान को कभी कोई नष्ट करने की सोचेगा ? आज पूरी दुनिया इसी जिहादी मानसिकता से जूझ रही है।
आज महात्मा कहे जाने वाले “गांधी” अप्रसांगिक हो चुके है ,एक विभाजन झेल लिया है, अतः अब भारत माता को खंड खंड करने के षड्यंत्रों को रोकने के प्रयास करने होंगे ? मुजफ्फरनगर, बिसाहड़ा, मालदा व धूलागढ़ जैसे काण्ड पुनः न हो इसके लिए किसी की भी धार्मिक भावनाओं पर आघात नहीं हो ऐसा कौन सुनिश्चित करेगा ? अतः जब तक जिहादी दर्शन व इस्लामिक शिक्षाओं में आवश्यक परिवर्तन नहीं होगा तब तक साम्प्रदायिक सद्भाव की बात करना व लिखना मृग मरीचिका ही बनी रहेगी ?
विनोद कुमार सर्वोदय
गाज़ियाबाद