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सीईओ-मुलाजिम के वेतन में इतना अंतर क्यों

 

यह निश्चित रूप से एक विचारणीय मसला है कि किसी सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी के सीईओ को कितनी सैलरी मिले? इसी तरह से उसी कंपनी के मुलाजिमों को अपने सीईओ की अपेक्षा कितना कम वेतन मिले? यह ठीक है कि सीईओ किसी कंपनी की जान होता है। उसके नेतृत्व में ही कोई कंपनी आगे बढ़ती है I विकास का अपना निश्चित सफर तय करती है। सीईओ एक तरह से अपनी कंपनी का कप्तान होता है। तो क्या इसलिए उसे अपनी कंपनी के बाकी मुलाजिमों की अपेक्षा अकल्पनीय तरीके से अधिक पगार मिले ? क्या कंपनी के कर्मियों का उसे बुलंदियों में लेकर जाने में कोई रोल ही नहीं होता? क्या सिर्फ सीईओ को ही कंपनी की सफलता का श्रेय दिया जाना चाहिए ?

 आखिर एक सामान्य कर्मी भी दिन-रात एक करता है अपनी कंपनी की सफलता के लिए, ताकि उसे अपने ग्राहकों का विश्वास मिले। देखा जाए तो जमीन पर कर्मी ही मेहनत पूर्वक काम कर रहा होता है। वह ही उन फैसलों को जमीन पर लागू कर रहा होता है, जिन्हें कंपनी के सीईओ या बोर्ड ने उसके सामने रखा होता है। पर, ये भी उतना ही बड़ा सच है कि जहां किसी कंपनी का सीईओ हर साल अपने वेतन में मन चाहा इजाफा कर लेता है, उस तरह का अधिकार कर्मी को कभी नसीब नहीं होता। वह तो एकाध अतिरिक्त इंक्रीमेंट के फेर में ही पड़ा रहता है।

 सीईओ को भारी-भरकम पगार मिलती रहे, इसके पक्ष में एक तर्क भी दिया जाता है। कहा जाता है कि चूंकि वो अपनी मेहनत से शिखर पर पहुंचता है, इसलिए मोटी पगार पाना उसका हक बनता है। सवाल है कि क्या शेष कर्मी मेहनत नहीं करते? उपर्युक्त तर्क को मान भी लिया जाए तो क्या सीईओ का सालाना दस से बीस फीसद तक वेतन बढ़े और मुलाजिम का 3-4 फीसद तक, यह क्या बात हुई?  यहां पर गौर करने लायक तथ्य यह भी है कि सीईओ हर साल एक करोड़ रुपये से तीन करोड़ तक कई बार उससे भी अधिक वेतन उठा रहा होता है। यानी दस फीसद की दर से वो अपनी सैलरी में सालाना 10 लाख रुपये की बढ़ोतरी तो सीधे-सीधे कर ही लेता है।

अभी हाल ही में देश की एक प्रमुख टायर कंपनी के सीईओ की पगार पर बवाल मचा हुआ था। उसने अपनी सालाना सैलरी में दस फीसद तक की वृद्धि कर ली, हालांकि उसकी कंपनी का मुनाफा विगतकई  वर्षों की तुलना में तेजी से घट रहा था। इसी तरह से विगत वर्ष एक प्रसिद्ध आईटी कंपनी के सीईओ ने अपनी कंपनी को छोड़ा। उसकी मासिक सैलरी लगभग चार करोड़ रुपये थी। अब दो सवाल। क्या कोई कर्मी खराब प्रदर्शन करने के बाद भी अपनी वेतन में मोटी वृद्धि की उम्मीद कर सकता है? कदापि नहीं। सवाल उस टायर कंपनी के सीईओ से क्यों नहीं पूछा जाता? क्या उस आईटी कंपनी के सीईओ को भी इतना अधिक वेतन मिलन चाहिए था?

 दरअसल शेयर बाजार में सूचीबद्ध कंपनियों में स्वतंत्र निदेशक भी रहते हैं। वे अपनी कंपनी के सीईओ, जो प्राय: प्रमोटर ही होते हैं, उनके कामकाज पर कोई सवाल ही नहीं खड़े करते। वे अपने छोटे-मोटे लाभ के चलते सीईओ को खुली छूट दे देते हैं कि वो चाहे कुछ भी करें। देखा जाए तो इसी खुली छूट का सीईओ लाभ उठाते रहते हैं। स्वतंत्र निदेशकों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे अपनी कंपनियों में हो रहे सही-गलत कामों पर नजर रखेंगे। दुर्भाग्यवश व्यवहार में होता नहीं है। यह सब हमने आईएलएंडएफएस में देखा। सन 1987 में सेंट्रल बैंक ऑफ़ इंडिया, यूनिट ट्रस्ट ऑफ़ इंडिया और हाउसिंग डेवलपमेंट फ़ाइनेंस कंपनी ने इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट्स को कर्ज़ देने के मक़सद से इसे बनाया था और इसे आईएलएंडएफ़एस नाम दिया। वहां भी सारा मामला लूट का है। इस पर धीरे-धीरे 91 हजार करोड़ रुपये का कर्ज चढ़ गया। क्या यह कर्ज एक दिन में चढ़ गया? नहीं। पर कोई देखने वाला नहीं था।  सबसे बड़ा अनर्थ तो यह  हुआ है कि बर्बाद हो चुकी इस कंपनी का चेयरमेन रवि पार्थसारथी पिछले साल अपनी सैलरी 26.3 करोड़ रुपये कर लेता है।  जरा सोचिए कि जो कंपनी कर्ज में बुरी तरह से डूबी है, उसका चेयरमेन अपनी सैलरी को बढ़ाता जा रहा है। उसे मानो कोई देखना वाला ही नहीं है। उसके डायरेक्टर भी सोते रहे। यही स्थिति आईसीआईसीआई बैंक में हुई। इसकी चेयरमेन चंदा कोचर  उस कंपनी को बेशर्मी से लोन पर लोन देती रहीं, जिससे उनके पति सीधी तौर पर जुड़े हुए थे। यहां भी बोर्ड के डायरेक्टर सोते रहे। उन्होंने कुछ छोटे-मोटे फायदों के लिए अपने जमीर को बेचा। लंबे समय से वूमन इम्पाउअर्मन्ट पर प्रवचन देती घूमते रहने वाली चंदा कोचर  को अंत तक अपने किए पर पछतावा नहीं हुआ। अपोलो टायर्स में भी यही खुल्ला खेल फर्रुखाबादी चलता रहा। अधिकतर कंपनियों में आज यही हो रहा है। कर्मियों और शेयरधारकों के हितों से किसी को क्या लेना-देना? मतलब यह कि जिसको मौका मिल रहा है, वो बेशर्म गिद्ध की तरह अपनी ही कंपनी को नोच-नोच के खा रहा है।

जरा सोचिए कि जब देश में करीब पौन अरब आबादी एक लाख रुपये सालाना रुपये से कम पर गुजर -बसर करती हो तब ऐसी बर्बर पगार-विषमता को कैसे न्यायपूर्ण ठहराया जा सकता है? सरकार किसी भी दल या गठबंधन की रहे, क्या इतनी वीभत्स पूजीवादी व्यवस्था को झेलना चाहिए ? इसके खिलाफ तो हल्ला बोल होना  ही चाहिए।

 यह कोई नहीं कह रहा और न ही यह संभव है कि किसी कंपनी में सभी छोटे-बड़े पदों पर तैनात कर्मियों की सैलरी एक समान हो। यह असंभव बात है। पर यह तो संभव है कि किसी कंपनी को होने वाले मुनाफे का सम्मानजनक अंश उसके कर्मियों को भी आनुपातिक दर से मिले। मोटा मुनाफा सीईओ और कुछ आला अफसर ही अपने घर ले जाएं यह कहां तक उचित माना जा सकता है?

वैसे तो आर्थिक उदारीकरण के पश्चात सैलरी में गुणात्मक सुधार हुआ  है, यह भी सच है। सरकारी महकमों और निजी क्षेत्र की कंपनियों में काम करने वालों की सैलरी अब सम्मानजनक तो हो चुकी है। सरकारी कर्मियों को अब मोटी पेंशन भी मिल रही है। पर यह भी उतना ही बड़ा सच है कि सैलरी में भेदभाव से लेकर अंतर काफी बढ़ा है। इस स्थिति के कारण कर्मियों में तनाव और आपस में एक-दूसरे के प्रति अविश्वास और वैमनस्थ का भाव भी बढ़ा है। तनाव के चलते कर्मी अवसाद ग्रस्त रहने लगे हैं। हिंसक होने के भी उदहारण सामने आ रहे हैं I यह स्थिति तो बदली ही जानी चाहिए। गैर-बराबरी और अन्यायपूर्ण व्यवस्था को सही नहीं माना जा सकता। इसका अंत अवश्य ही होना चाहिए। समाप्त।

आर.के.सिन्हा

(लेखक राज्यसभा सांसद एवं हिन्दुस्थान समाचार के अध्यक्ष हैं)

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