आरएसएस व विहिप द्वारा अर्ध कुम्भ में बुलाई गई धर्म संसद में जमकर हंगामा हुआ। मंच से संघ, विहिप और उनके बुलाये संतों के मुख से ये सुनकर कि अयोध्या में श्री राम मंदिर बनाने में जल्दी नहीं की जाएगी। कानून और संविधान का पालन होगा। अभी पहले चुनाव हो जाने दें। आप सब भाजपा को वोट दें जिससे जीतकर आई नई सरकार फिर मंदिर बनवा सके।
इतना सुनना था कि पहले से ही आधा खाली पंडाल आक्रामक होकर मंच की तरफ दौड़ा। श्रोता, जिनमे ज्यादातर विहिप के कार्यकर्ता थे, आग बबूला हो गए और मंचासीन वक्ताओं को जोर जोर से गरियाने लगे। उनका कहना था की तीस वर्षों से उन्हें उल्लू बनाकर मंदिर की राजनीति की जा रही है। अब वो अपने गांव और शहरों में जनता को क्या मुँह दिखाएंगे ?
उल्लेखनीय है कि गत कुछ महीनों से संघ, विहिप और भाजपा लगातार मंदिर की राजनीति को गर्माने में जुटे थी। इस मामले की बार-बार तारीख बढ़ाने पर कार्यकर्ता और उनका प्रायोजित सोशल मीडिया सर्वोच्च न्यायालय पर भी हमला कर रहे थे। मुख्य न्यायाधीश को हिन्दू विरोधी बता रहे थे। मंदिर निर्माण के लिये कानून अपने हाथ मे लेने की धमकी दे रहे थे। सरकार से अध्यादेश लाने को कह रहे थे। फिर उन्होंने अचानक धर्म संसद में ये पलटी क्यों मार ली गई ?
दरअसल पिछले कई महीनों से संघ व भाजपा के अंदरूनी जानकारों का कहना था कि मंदिर निर्माण को लेकर ये संगठन और सरकार गम्भीर नहीं हैं। वे इस मुद्दे को जिंदा तो रखना चाहते हैं, पर मंदिर निर्माण के इस पचड़े में पड़ना नहीं चाहते। उधर सर्वोच्च न्यायालय के हाल के कई फैसलों का रुख देखने के बाद ये आश्चर्य भी व्यक्त किया जा रहा था कि जब लगभग हर मामले में सर्वोच्च अदालत यथासंभव सरकार के हक में ही फैसले दे रही है तो राम मंदिर का मामला क्यों टाला जा रहा है ? कहीं सरकार ही तो इसे गुपचुप टलवा नहीं रही ?
सरकार के इस टालू रवैये को देखकर ही शायद दो पीठों के शंकराचार्य स्वरूपानंद जी ने पिछले हफ्ते अर्ध कुम्भ में धर्म संसद बुलाकर मंदिर निर्माण की तारीख की घोषणा तक कर डाली। उन्होंने संतों और भक्तो का आव्हान किया कि वे 21 फरवरी को मंदिर का शिलान्यास करने अयोध्या पहुंचें।
इस तरह अपने पारम्परिक धार्मिक अधिकार के आधार पर उन्होंने मंदिर की राजनीति करने वालों को अचानक बुरी तरह से झकझोर दिया। उनके लिये एक बड़ी चुनौती खडी कर दी। अगर वे शंकराचार्य जी को राम जन्मभूमि की ओर बढ़ने से रोकते हैं तो देश विदेश में ये संदेश जाएगा कि केंद्र और राज्य में भाजपा की बहुमत सरकारों ने भी संतों को मंदिर नहीं बनाने दिया । जबकि केंद्र सरकार ने खुद पिछले 5 वर्षों में इस ओर कोई प्रयास किया ही नहीं। अगर सरकार उन्हें नहीं रोकती है तो कानून और व्यवस्था की स्थिति पैदा हो जाएगी। इस मामले में स्वामी स्वरूपानंद जी शंकराचार्य को यदि गिरफ्तार या नजरबंद करना पड़ा तो ये सरकार को और भी भारी पड़ेगा। क्योंकि अपनी सत्ता और पैसे के बल पर सरकार चाहे जितने अवसरवादी संत मंच पर जोड़ ले, वे शंकराचार्य जैसी सदियों पुरानी धार्मिक पीठ की हैसियत तो प्राप्त नहीं कर सकते ?
इसीलिये हड़बड़ाहट में संघ व विहिप नेतृत्व को भी धर्म संसद बुलाकर फिलहाल मंदिर की मांग टालने की घोषणा करनी पड़ी। पर इसकी जो तुरंत प्रतिक्रिया पंडाल में हुई या अब जो जनता में होगी, जब ये संदेश उस तक पहुंचेगा, तो भाजपा की मुश्किल और बढ़ जाएगी। क्योंकि उसकी और उसके सहोदर संगठनों की ये छवि तो मतदाता के मन मे पहले से ही बनी है कि ये सब संगठन केवल चुनाव में वोट लेने के लिए राम मंदिर का मामला हर चुनाव के पहले उठाते है, जन भावनाएं भड़काते हैं, और फिर सत्ता में आने के बाद मंदिर निर्माण को को भूल जाते हैं। ये ही सिलसिला गत तीस वर्षों से चल रहा है।
दरअसल इस सबके पीछे एक कारण और भी हैं। बाबरी मस्जिद विध्वंस को लगभग तीस वर्ष हो गए। जो पीढी उसके बाद जन्मी उसे मंदिर उन्माद का कुछ पता नहीं। उसे तो इस बात की हताशा है कि उसे आज तक रोजगार नहीं मिला। भारत सरकार के ही सांख्यकी विभाग की एक हाल में लीक हुई रिपोर्ट के अनुसार आज भारत मे गत 42 वर्षों की तुलना में सबसे ज्यादा बेरोजगारी बढ़ चुकी है। जिससे युवाओं में भारी हताशा और आक्रोश है। उन्हें धर्म नहीं रोजी रोटी चाहिए। इसलिए भी शायद संघ व भाजपा नेतृत्व को लगा हो कि कहीं इस चुनावी माहौल में मंदिर की बात करना भारी न पड़ जाय, तो क्यों न इसे फिलहाल टाल दिया जाय।
जो भी हो ये तय है कि पिछले इतने महीनों से अयोध्या में श्रीराम मंदिर निर्माण की हवा बना रहा भाजपा और संघ परिकर अब इस मुद्दे पर पतली गली से बाहर निकल चुका है। उसकी कोशिश होगी कि वो इस मुद्दे पर से मतदाताओं का ध्यान हटा कर किसी नए मुद्दे पर फंसा दे, जिससे चुनावी वैतरणी पार हो जाय। पर मतदाता इस पर क्यानिर्णय लेता है, ये तो आगामी लोकसभा चुनाव के परिणाम से ही पता चलेगा।
–विनीत नारायण