भारत को स्वयं सेवी संस्थाओं का देश कहा जा सकता है। उच्चतम न्यायालय के एक आदेश के अनुपालन में भारत सरकार ने संपूर्ण देश में पंजीकृत स्वयंसेवी संस्थाओं की गणना कराई थी। इसके अनुसार देश भर के राज्यों में 38 लाख से कुछ अधिक एवं संघीय प्रदेशों में 72000 स्वयं सेवी संस्थाएं पंजीकृत थी। तीन राज्यों ने अपने आंकड़े नहीं भेजे थे। इस प्रकार ऐसी संस्थाओं की संख्या 35 लाख अनुमानित की जा सकती हैै। भारत में कुल 35 लाख सरकारी स्कूल काम कर रहे हैं एवं सरकारी अस्पतालों की संख्या केवल 36000 के लगभग है। पूरे देश में 89 लाख 30 हजार पुलिस कर्मी कार्यरत हैं जबकि इनकी स्वीकृत संख्या 39 लाख है। ऐसा अनुमान लगाया गया है पूरे विश्व में स्वयं सेवी संस्थाओं की संख्या एक करोड़ के लगभग है एवं दुनिया की कुल आबादी लगभग 8 अरब से कुछ ज्यादा है। इस प्रकार हमारे देश में विश्व की जनसंख्या का लगभग 16-17 प्रतिशत निवास करता है जबकि स्वयं सेवी संस्थाओं का 35 प्रतिशत भाग कार्यरत है।
इन संस्थाओं में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ जैसी विशालकाय संस्था है जिसकी 59000 शाखाएं देश भर में कार्यरत है एवं सदस्यों की संख्या 50 से कुछ अधिक है किंतु ऐसी भी संस्थाएं हैं जिन्हें दर्जन भर सदस्य चलाते हैं। एवं इनकी पूरे वर्ष की गतिविधि एक या दो बैठकों तक सीमित रहती है। इन संस्थाओं मेें मुश्किल से 90 प्रतिशत ही नियमों का या अपने संविधान का पालन करती है, समय पर चुनाव कराती हैं एवं वार्षिक लेखा जोखा सरकारी कार्यालय में जमा करती हैै।
अन्य संस्थाओं एवं संघठनों की तरह स्वयं सेवी संस्थाएं भी भ्रष्टाचार से ग्रस्त है। यह एक आम चर्चा का विषय है। विशेष रूप से वे स्वयं सेवी संस्थाएं जिन्हें सरकारी अनुदान मिलता है या विदेशों से सहायता आती है, भ्रष्टाचार में सबसे आगे हैं। सरकारी अनुदान का भ्रष्टाचार सरकारी दफ्तर से ही प्रारंभ हो जाता है। अनुदान राशि का कुछ प्रतिशत सरकारी बाबुओं को भेंट किये बिना उस राशि का चेक नहीं मिल पाता। विदेशों से आने वाले धन का दुरुपयोग भी बड़े पैमाने पर होता है। इस धन से सरकार के विरुद्ध आंदोलन चलाये जाते हैैं, धर्म परिवर्तन कराया जाता है एवं कुछ मामलों में आतंकवाद को बढ़ावा दिया जाता है। प्रति वर्ष सरकार ऐसी संस्थाओं की जांच भी कराती है। एवं उनके लाइसेंस निरस्त किये जाते हैं।
किंतु इस वर्ष कुछ स्वयं सेवी संस्थाओं के द्वारा किये गये ऐसे घृणित कार्य प्रकाश में आये हैं जिनसे भ्रष्टाचार की समस्त सीमाएं टूट गई हैं एवं स्वयं सेवी संस्थाओं के समस्त क्षेत्र की प्रतिष्ठा को अपूरणीय क्षति पहुंची है। बिहार के मुजफ्फर जिले में ब्रजेश ठाकुर नाम का एक व्यक्ति सेवा संकल्प, एवं विकास समिति नाम की एक स्वयं सेवी संस्था चलाता था। इस संस्था का कार्य निराश्रित लड़कियों को आश्रय देना था। इस संस्था को सरकार की ओर से अनुदान भी मिलता था। इस संस्था का सोशल ऑडिट टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज मुंबई द्वारा किया गया एवं यह तथ्य प्रकाश में आया कि इस शेल्टर होम की 42 में से 34 लड़कियों का यौन शोषण किया गया है। इस रिपोर्ट के आधार पर जब जांच की गई तब बिहार की समाज कल्याण मंत्री मंजू वर्मा तथा उनके पति की भी संलिप्तता पाई गई। शेल्टर होम का स्टाफ भी इस कार्य में ब्रजेश ठाकुर को सहयोग देता था। इन सबको गिरफ्तार कर लिया गया है एवं शेल्टर होम को बंद कर दिया गया है।
टाटा इंस्टिट्यूट ने मोतिहारी, भागलपुर, मुंगेर एवं गया के शेल्टर होम की भी जांच की क्योंकि उनके विरूद्ध भी शिकायतें मिली थी कि वहां भी बच्चों को तरह-तरह के यौन शोषण से गुजरना पड़ता है किंतु इन संस्थाओं के संचालकों के विरूद्ध कोई कार्यवाही की गई है ऐसी कोई जानकारी नहीं मिल पाई है।
उत्तर प्रदेश के देवरिया के विंध्यवासिनी आश्रय स्थल में भी इसी प्रकार का दुराचार होता हुआ पाया गया। वहां आश्रय लिए हुई ग्यारह साल की एक बच्ची किसी प्रकार निकल भागी एवं पुलिस स्टेशन पहुंचकर सारा हाल सुनाया। उस बच्ची ने बतलाया कि शाम के समय कई रंगीन कारें वहां पर आती हैं एवं उनमें संचालिका दीदी लड़कियों को लेकर जाती है। एवं सुबह लौटती है। सुबह वे लड़कियां रोती हुई लौटती है ंकिन्तु पूछने पर कुछ नहीं बताती। उत्तर प्रदेश पुलिस ने तुरंत कार्यवाही करते हुए संचालिका गिरिजा त्रिपाठी एवं उसके पति को गिरफ्तार कर लिया एवं आश्रय स्थल से 24 लड़कियों को मुक्त कराया। हरदोई के आश्रय स्थल में भी ऐसे ही हालात पाए गए जहां से 97 लड़कियां गायब मिलीं। वहां की संचालिका को भी गिरफ्तार कर लिया गया है।
एक रिपोर्ट के अनुसार सम्पूर्ण भारत वर्ष में कुल 8478 ऐसी संस्थाएं चल रही हैं जो कि निराश्रित बच्चों को सुरक्षा देती हैं। इनमें से 7944 निजी स्वयं सेवी संस्थाओं द्वारा संचालित हैं तथा 745 का संचालन सरकार द्वारा किया जाता है। इन संस्थाओं में 269000 बच्चे रहते हैं इनमें सेे 9585 बच्चों का यौनशोषण करने की रिपोर्ट है जिनमेें से 9278 लड़कियां एवं 273 लड़कों का यौन शोषण किया गया है। यह सरकारी रिपोर्ट है एवं वास्तविक संख्या कहीं अधिक भी हो सकती है।
पिछले कुछ वर्षों में कुछ तथाकथित संत एवं महात्मा जिनमें आसाराम बापू, बाबा रामपाल, बाबा रहीम जैसे नाम शामिल हैं, दुराचार, जमीनों पर अवैध कब्जे एवं यहां तक की विरोधियों की हत्या की साजिश में लिप्त पाए गए, जिन अपराधों में या तो उनको सजाएं हो चुकी हैं या अदालतों में मुकदमे चल रहे हैं। इन घटनाओं से समस्त संत समाज की प्रतिष्ठा गिरी है एवं छवि धूमिल हुई है।
स्वयंसेवी संस्थाओं के सामने चुनौतियां एवं परिवर्तन तथा सुधार की आवश्यकता
जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है सम्पूर्ण भारत वर्ष में 35 लाख से अधिक स्वयं सेवी संस्थायें पंजीकृत हैं। 21वीं शताब्दी का दूसरा दशाब्द समाप्त होने को है। अत: इन दशाब्दों को स्वयं सेवी संस्थाओं के दशाब्द कहा जा सकता है। स्वयं सेवी संस्थाओं के पैराकारों ने समाज को तीन वर्गों में विभाजित किया है। प्रथम वर्ग स्वयं सरकार एवं शासन है जोकि भ्रष्ट लालफीताशाही से ग्रस्त एवं अत्याचारी है। दूसरा वर्ग निजी क्षेत्र है जिसमें लालफीताशाही तो नहीं है किंतु उसका एक मात्र उद्देश्य लाभ अर्जित करना है एवं जिसके लिए वह किसी भी हद तक जा सकता है। तीसरा क्षेत्र स्वयं सेवी संस्थाओं का है जिसका उद्देश्य लाभ कमाना नहीं है, जिसमें लालफीताशाही भी नहीं हैं एवं जिसके कार्यकलाप जनहित के लिए होते हैं। इस क्षेत्र को भ्रष्टाचार मुक्त एवं गंगाजल की तरह पवित्र होना चाहिए।
19वीं शताब्दी एवं 20वीं शताब्दी के प्रारंभिक सात दशकों में स्वयं सेवी संस्थाओं की संख्या कम थी। किंतु उनके संस्थापक एवं मार्गदर्शक स्वामी दयानंद, स्वामी विवेकानंद, राजा राममोहन राय जैसे महान व्यक्तित्व थे। एवं उस समय के स्वयंसेवी कार्यकर्ता भी नि:स्वार्थ भाव से सेवाकार्य करने के लिए प्रेरित थे। 20वीं शताब्दी के अंतिम तीन दशाब्दों में जैसे-जैसे आर्थिक गतिविधि बढ़ी एवं देश में अधिक धन उपलब्ध होने लगा, इन संस्थाओं को भी अधिक धन की प्राप्ति होने लगी। सरकारी अनुदान दिया जाने लगा एवं विदेशी धन भी प्रचुर मात्रा में आने लगा। इस धन के लालच में अनेक भ्रष्टाचारी ही नहीं अपितु कदाचारी व्यक्ति भी इन संस्थाओं में घुस गए। कहीं-कहीं इन स्वार्थी व्यक्तियों को राजनीतिज्ञों एवं नौकरशाहों का संरक्षण भी प्राप्त हुआ। एवं ये स्वार्थी तत्व भ्रष्टाचारी से भी आगे बढ़कर कदाचारी बन गए। स्वयंसेवी संस्थाओं की यह निर्मल एवं पवित्र गंगा मैली हो गई।
इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि समस्त स्वयं सेवी संस्थाएं भ्रष्ट एवं कदाचारी हो गयी है एवं उनके कार्यकर्ता धन लूटने में लगे हुए हैं। आज भी ऐसी हज़ारों संस्थाएं हैं जो अपने साधनों से धन जमा करती है एवं उनके कार्यकर्ता पूर्ण ईमानदारी से समाज के कमजोर वर्ग की सहायता करते हैं। वास्तव में संस्थाओं को सबसे अधिक आवश्यकता कर्मठ, सेवाभावी एवं संस्था के उद्देश्यों को समर्पित कार्यकर्ताओं की है। साथ ही संस्था का नेतृत्व भी दूर दृष्टि वाला, अपने उद्देश्य के लिए समर्पित एवं कार्यकर्ताओं मेें जो विश्वास उत्पन्न कर सके ऐसे आचरण वाला होना चाहिए। उसे बॉस की भांति नहीं अपितु मित्रवत एवं मृदु व्यवहार करने वाले वरिष्ठ साथी की भांति आचरण करना चाहिए। ताकि वह संस्था के सदस्यों में लोकप्रियता प्राप्त कर सके एवं उनका विश्वास अर्जित कर सके।
जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है समस्त स्वयं सेवी संस्थाएं या उनके सदस्य भ्रष्ट या दुराचारी नहीं है। बहुत बड़ी संख्या में संस्थाएं एवं कार्यकर्ता जनसेवा में लगे हुए हैं। किंतु कुछ और भी कमियां हैं जिनके कारण इन संस्थाओं की विश्वसनीयता कम हुई है एवं छवि भी धूमिल हुई है। परिवारवाद का रोग जिससे समाज के अनेक क्षेत्र, विशेष रूप से राजनीति ग्रस्त है, स्वयं सेवी संस्थाओं को भी लग गया है। विशेष रूप से छोटी संस्थाएं इस प्रवृत्ति का शिकार हुई हैं। यह स्वाभाविक है कि इन संस्थाओं के संस्थापक अपनी पत्नी, पुत्रवधु या भाई भतीजों पर अधिक विश्वास रखते हैं एवं जिम्मेदारी के पदों पर उनको ही बैठाते हैं। यह आवश्यक नहीं है कि ये ही लोग संस्था में सबसे कुशल एवं योग्य हों। इससे संस्था के अन्य सदस्यों में रोष उत्पन्न होता है एवं जनसाधारण का विश्वास उन पर से उठ जाता है।
स्वयं सेवी संस्थाएं शिक्षा, स्वास्थ्य, हस्तशिल्प, रोजगार इत्यादि के क्षेत्र में क्या और कितना कार्य कर रही है इसका मूल्यांकन सरकारी स्तर पर शायद ही कभी किया गया हो। दक्षिण एवं वामपंथी राजनीति तथा हिंदू, ईसाई एवं इस्लाम धर्म के फेर में इस क्षेत्र का सम्पूर्ण भारत के लिए क्या योगदान है इसके आंकड़े शायद ही पूर्ण रूप से इक_ा करके सरकारी स्तर पर प्रकाशित किये गये हों। उदाहरण के लिए राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की एक अनुषांगिक संस्था विद्या भारती देश भर में बीस हजार विद्यालय चलाती है। जिनमें पच्चीस लाख विद्यार्थी शिक्षा प्राप्त करते हैं तथा एक लाख शिक्षक कार्यरत हैं। इसके अतिरिक्त यह संस्था बारह डिग्री कॉलेज एवं सात औद्योगिक प्रशिक्षण केंद्र भी चला रही है। माँ अमृत आनंदमयी, गायत्री परिवार इत्यादि कई अन्य संस्थाएं विश्व विद्यालय चला रहे है। छोटे बड़े अस्पताल, स्वास्थ्य केंद्र, वृद्ध आश्रम, अनाथाश्रय इत्यादि भी हजारों की संख्या में अनेक संस्थाओं द्वारा सफलता पूर्वक चलाये जा रहे हैं। इन समस्त संस्थाओं का देश की जी.डी.पी. में क्या योगदान है इसको जानने का शायद ही कभी प्रयत्न किया गया हो। इस दिशा में सरकार को निष्पक्ष होकर कदम उठाना चाहिए। तथा स्वयं सेवी संस्थाओं के कार्य को राष्ट्र के समक्ष प्रस्तुत करना चाहिए।
उपरोक्त में अतिरिक्त स्वयं सेवी संस्थाओं की कार्य प्रणाली एवं छवि सुधारने के लिए निम्न उपाय और किये जाने चाहिए।
– किसी भी स्वयं सेवी संस्था को पंजीयन देने के पूर्व उसकी कार्यकारणी समिति के सदस्यों के आचरण एवं ख्याति का सत्यापन होना चाहिए। यह कार्य समाचार पत्रों में नोटिस देकर किया जा सकता है। जिसमें संस्थापक सदस्यों के नाम, संस्था के उद्देश्य इत्यादि का विवरण देकर जनता से आपत्तियां आमंत्रित की जा सकती है।
– पांच लाख से अधिक बजट वाली सरकारी अनुदान प्राप्त करने वाली अथवा विदेशी धन प्राप्त करने वाली संस्थाओं का अनिवार्य रूप से महालेखाकार द्वारा ऑडिट किया जाना चाहिए।
– यदि किसी संस्था में कोई गड़बड़ी अथवा अनियमितता पाई जाये तो न केवल उसका पंजीयन निरस्त किया जाये, अपितु उसके सदस्यों को दूसरी संस्था बनाने की अनुमति भी न दी जाये।
– जो संस्थाएं महिला आश्रम, अनाथाश्रम अथवा वृद्ध आश्रम चला रहे हों, उनका नियमित निरीक्षण जिले के समाज कल्याण अधिकारी अथवा अन्य अधिकारी द्वारा नियमित रूप से कराया जाये।
– पांच लाख से अधिक बजट वाली संस्थाओं को सूचना के अधिकार कानून के अंतर्गत लाया जाए।
– काफी समय पहले केलकर समिति ने यह सिफारिश की थी कि इंग्लैण्ड की भांति भारत में भी एक राष्ट्रीय स्वयं सेवी संस्था आयोग की स्थापना की जाए जो इस क्षेत्र की देखभाल करे।
– कुछ स्वयं सेवी संस्थाओं में ऐसे राक्षसी कृत्य होने के पश्चात् सरकार ने काफी सख्ती दिखाई है, गिरफ्तारियां हुई हैं, मंत्रियों ने इस्तीफे दिए हैं एवं कुछ मामले सी.बी.आई. को सौंपे गए हैं। आरोपी संस्थाओं को बंद कर दिया गया है। आशा है कि इन सरकारी कदमों से स्थिति में सुधार होगा एवं ऐसी घटनायें पुन: नहीं होगी। किंतु अपनी छवि सुधारने के लिए संस्थाओं को स्वयं भी कुछ कदम उठाने होंगे। संचालकों को यह ध्यान रखना होगा कि व्यर्थ के उत्सवों एवं समारोहों पर अधिक धन तो नहीं खर्च किया जा रहा है और कर्मचारियों को अत्यधिक वेतन तो नहीं दिया जा रहा है। सेवाकार्य पर अधिक खर्च होना चाहिए एवं टीमटाम पर कम से कम व्यय किया जाना चाहिए। सेवाकार्य के प्रोजेक्ट लोगों के आवश्यकता के अनुसार बनने चाहिए ना कि संचालकों कि सुविधा एवं पसंद के अनुसार।
आशा है सरकार कि सख्ती, कानूनों में बदलाव एवं स्वयंसेवी संस्थाओं के स्वयं के प्रयत्नों से इस क्षेत्र की धूमिल छवि फिर से उज्जवल हो सकेगी।
सुरेश चंद्र