एडवोकेट मुंशीराम से स्वामी श्रद्धानंद तक जीवन यात्रा विश्व के प्रत्येक व्यक्ति के लिए बेहद प्रेरणादायी है। स्वामी श्रद्धानंद उन बिरले महापुरुषों में से एक थे जिनका जन्म ऊंचे कुल में हुआ किन्तु बुरी लतों के कारण प्रारंभिक जीवन बहुत ही निकृष्ट किस्म का था। स्वामी दयानंद सरस्वती से हुई एक भेंट और पत्नी के पतिव्रत धर्म तथा निश्छल निष्कपट प्रेम व सेवा भाव ने उनके जीवन को क्या से क्या बना दिया। काशी विश्वनाथ मंदिर के कपाट सिर्फ रीवा की रानी के लिए खोलने और साधारण जनता के लिए बंद किए जाने व एक पादरी के व्यभिचार का दृश्य देख मुंशीराम का धर्म से विश्वास उठ गया और वह बुरी संगत में पड़ गए।
किन्तु, स्वामी दयानंद सरस्वती के साथ बरेली में हुए सत्संग ने ना सिर्फ उन्हें जीवन का अनमोल आनंद दिया अपितु उन्होंने उसे सम्पूर्ण संसार को खुले मन से भी वितरित भी किया। समाज सुधारक के रूप में उनके जीवन का अवलोकन करें तो पाते हैं कि प्रबल विरोध के बावजूद, उन्होंने, स्त्री शिक्षा के लिए अग्रणी भूमिका निभाई। ईसाई मिशनरी विद्यालय में पढ़ने वाली स्वयं की बेटी अमृत कला को जब उन्होंने ‘ईसा-ईसा बोल, तेरा क्या लगेगा मोल। ईसा मेरा राम रमैया, ईसा मेरा कृष्ण कन्हैया‘ गाते हुए सुना तो वे हतप्रभ रह गए। वैदिक संस्कारों की पुनर्स्थापना हेतु उन्होंने घर – घर जाकर चंदा इकट्ठा कर गुरुकुल कांगडी विश्वविद्यालय की स्थापना हरिद्वार में कर अपने बेटे हरीश्चंद्र और इंद्र को सबसे पहले भर्ती करवाया।
स्वामी जी मानते थे कि जिस समाज और देश में शिक्षक स्वयं चरित्रवान नहीं होते उसकी दशा अच्छी हो ही नहीं सकती। उनका कहना था कि हमारे यहां टीचर हैं, प्रोफ़ेसर हैं, प्रिसिंपल हैं, उस्ताद हैं, मौलवी हैं पर आचार्य नहीं हैं। आचार्य अर्थात् आचारवान व्यक्ति की महती आवश्यकता है। चरित्रवान व्यक्तियों के अभाव में महान से महान व धनवान से धनवान राष्ट्र भी समाप्त हो जाते हैं।
जात-पात व ऊंच-नीच के भेदभाव को मिटाकर समग्र समाज के कल्याण के लिए उन्होंने अनेक कार्य किए। अंग्रेजी में एक कहावत है कि चेरिटी बीगिन्स एट होम। अर्थात शुभकार्य का प्रारंभ स्वयं से करें। प्रबल सामाजिक विरोधों के बावजूद अपनी बेटी अमृत कला, बेटे हरिश्चद्र व इंद्र का विवाह जात-पात के समस्त बंधनों को तोड़ कर कराया। उनका विचार था कि छुआछूत ने इस देश में अनेक जटिलताओं ने जन्म दिया है तथा वैदिक वर्ण व्यवस्था के द्वारा ही इसका अंत कर अछूतोद्धार संभव है।
वे हिन्दी को राष्ट्र भाषा और देवनागरी को राष्ट्र-लिपि के रूप में अपनाने के पक्षधर थे। सतधर्म प्रचारक नामक पत्र उन दिनों उर्दू में छपता था। एक दिन अचानक ग्राहकों के पास जब यह पत्र हिंदी में पहुंचा तो सभी दंग रह गए क्योंकि उन दिनों उर्दू का ही चलन था। त्याग व अटूट संकल्प के धनी स्वामी श्रद्धानन्द ने 1868 में यह घोषणा की कि जब तक गुरुकुल के लिए 30 हजार रुपए इकट्ठे नहीं हो जाते तब तक वह घर में पैर नहीं रखेंगे। इसके बाद उन्होंने भिक्षा की झोली डाल कर न सिर्फ़ घर-घर घूम 40 हजार रुपये इकट्ठे किए बल्कि वहीं डेरा डाल कर अपना पूरा पुस्तकालय, प्रिंटिंग प्रेस और जालंधर स्थित कोठी भी गुरुकुल पर न्योछावर कर दी।
उनका अटूट प्रेम व सेवा भाव भी अविस्मरणीय है। गुरुकुल में एक ब्रह्मचारी के रुग्ण होने पर जब उसने उल्टी की इच्छा जताई तब स्वामी जी द्वारा स्वयं की हथेली में उल्टियों को लेते देख सभी हत्प्रभ रह गए। ऐसी सेवा और सहानुभूति और कहां मिलेगी? स्वामी श्रद्धानन्द का विचार था कि अज्ञान, स्वार्थ व प्रलोभन के कारण धर्मांतरण कर बिछुड़े स्वजनों की शुद्धि करना देश को मजबूत करने के लिए परम आवश्यक है। इसीलिए, स्वामी जी ने भारतीय हिंदू शुद्धि सभा की स्थापना कर दो लाख से अधिक मलकानों को शुद्ध किया। परावर्तन के अनेक कीर्तिमान बनाने के बावजूद एक बार शुद्धि सभा के प्रधान को उन्होंने पत्र लिख कर कहा कि ‘अब तो यही इच्छा है कि दूसरा शरीर धारण कर शुद्धि के अधूरे काम को पूरा करूं’। मुझे लगता है कि उनके शुद्धि आंदोलन के परिणाम स्वरूप ही आज दिल्ली भारत में हैं। अन्यथा, उस समय दिल्ली के आसपास बढ़ी मुस्लिम जनसंख्या के कारण विभाजन के बाद दिल्ली भी पाकिस्तान के हिस्से में चली जाती।
महर्षि दयानंद ने राष्ट्र सेवा का मूलमंत्र लेकर आर्य समाज की स्थापना की। कहा कि ‘हमें और आपको उचित है कि जिस देश के पदार्थों से अपना शरीर बना, अब भी पालन होता है, आगे होगा, उसकी उन्नति तन मन धन से सब जने मिलकर प्रीति से करें’। स्वामी श्रद्धानन्द ने इसी को अपने जीवन का मूलाधार बनाया।
वे एक निराले वीर थे। इसी कारण लौह पुरुष सरदार बल्लभ भाई पटेल ने कहा था ‘ स्वामी श्रद्धानन्द की याद आते ही 1919 का दृश्य आंखों के आगे आ जाता है। सिपाही फ़ायर करने की तैयारी में हैं। स्वामी जी छाती खोल कर आगे आते हैं और कहते हैं- ‘लो, चलाओ गोलियां’। इस वीरता पर कौन मुग्ध नहीं होगा? ‘ महात्मा गांधी के अनुसार ‘ वह वीर सैनिक थे। वीर सैनिक रोग शैय्या पर नहीं, परंतु रणांगण में मरना पसंद करते हैं। वह वीर के समान जीये तथा वीर के समान मरे’।
अफ्रीका में भारतीयों के अधिकारों के लिए रंग भेद के विरुद्ध सत्याग्रह कर रहे गांधी जी को आर्थिक सहयोग करने की अपनी इच्छा जब स्वामी जी ने अपने गुरुकुल के शिष्यों के समक्ष रखी तो उनमें से कुछ वरिष्ठ शिष्यों ने हरिद्वार के पास ही बन रहे दूधिया बांध में कुछ दिन मजदूर कर कमाए लगभग 2000 रुपए एकत्र कर गांधी जी को भेजे। इस सहयोग से अभिभूत गांधी जी ने भारत लौटने पर गुरुकुल काँगड़ी में स्वामी जी से भेंट की। गुरुकुल की शिक्षा पद्धति से प्रसन्न गांधी जी ने अपने बेटों को कुछ दिन गुरुकुल में ही रखा। स्वामी श्रद्धानंद ने ही एक मान पत्र के माध्यम से गांधी जी को ‘महात्मा’ की उपाधि से पहली बार संबोधित किया था।
वे चाहते थे कि राष्ट्र धर्म को बढ़ाने के लिए, प्रत्येक नगर में एक ‘ हिंदू-राष्ट्र मंदिर ‘ होना चाहिए जिसमें 25 हजार व्यक्ति एक साथ बैठ सकें। वहां वेद, उपनिषद, गीता, रामायण, महाभारत आदि का पाठ हुआ करे। मंदिरों में अखाड़े भी हों जहां, व्यायाम के द्वारा शारीरिक शक्ति भी बढ़ाई जाए। प्रत्येक हिन्दू राष्ट्र मंदिर पर गायत्री मंत्र भी अंकित हो। देश की अनेक समस्याओं तथा हिंदोद्धार हेतु उनकी एक पुस्तक ‘ हिंदू सॉलिडेरिटी-सेवियर ओफ़ डाइंग रेस’ अर्थात् ‘हिंदू संगठन – मरणोन्मुख जाति का रक्षक’ तथा उनकी आत्मकथा ‘कल्याण मार्ग के पथिक’ आज भी हमारा मार्गदर्शन कर रही हैं । संस्कारी शिक्षा, नारी स्वाभिमान, शुद्धि आंदोलन, राजनीतिक व समाजिक सुधार, स्वराज्य आंदोलन, अछूतोद्धार, वेद उपनिषद व याज्ञिक कार्यों का विस्तार इत्यादि के क्षेत्र में उनका योगदान सदियों तक विश्व कल्याण का मार्ग प्रसस्त करेगा।
राजनीतिज्ञों के बारे में स्वामी जी का मत था कि भारत को सेवकों की आवश्यकता है लीडरों की नहीं। शुद्धि आंदोलन से विचलित एक धर्मांध अब्दुल रशीद नामक इस्लामिक जिहादी ने 23 दिसंबर 1926 को चाँदनी चौक दिल्ली के दीवान हॉल स्थित कार्यालय में रुग्ण शैया पर लेटे स्वामी जी को धोखे से गोलियों से लहू-लुहान कर चिरनिद्रा में सुला दिया। वे आज स-शरीर भले हमारे बीच ना हों किन्तु, उनका व्यक्तित्व, कृतित्व व शिक्षाएं मानव-जाति का सदैव कल्याण करती रहेंगीं। भगवान श्री राम का कार्य इसीलिए सफ़ल हुआ क्योंकि उन्हें हनुमान जैसा सेवक मिला। स्वामी श्रद्धानंद भी सच्चे अर्थों में स्वामी दयानन्द के हनुमान थे जो निस्वार्थ भाव से राष्ट्र-धर्म की सेवा के लिए तिल-तिल कर जले।
-विनोद बंसल