करोङों हिंदुस्तानियों की तरह नाना ने भी सूखे का संत्रास देखा; आत्महत्या कर चुके किसानों के परिवार वालों के दर्द भरे साक्षात्कार सुने। मैने भी सुने। मेरी हमदर्दी कलम तक सीमित रही, किंतु नाना ने कहा कि टेलीविजन पर देखे दृश्यों से उनका दम घुटने लगा; उनकी नींद उङ गई। उन्होने सोचा – ”जो किसान कभी राजा थे, उनके पास आज न अपने मवेशी के लिए चारा-पानी है और न अपने लिए। मैं जो कर सकता हूं; वह करूं।” जो मुट्ठी भर धन नाना के पास था, उसे लिया और मकरन्द के कहने पर 15-15 हजार रुपये करके 250 विधवाओं में बांट आये।
लेकिन नाना इससे संतुष्ट नहीं हुए; सोचा कि यह उपाय नहीं है। असली उपाय है कि पानी के खो गये स्त्रोत को ढूंढ निकालो और उसे जिंदा कर दो। लोगों को साथ जोङकर खुद श्रम करो; पसीना बहाओ। महसूस करो कि कैसे कोई किसान तपती धूप और सख्त मिट्टी से जूझकर हमारे लिए अन्न पैदा करता है। नाना ने इसके लिए ‘नाम फाउण्डेशन’ बनाया।
‘नाम’ यानी भारतीय सिनेमा के अभिनेता नाना पाटेकर और मकरन्द अनस्पर द्वारा महाराष्ट्र की सूखा मुक्ति के लिए लिया एक संकल्प। परदे पर अक्सर अन्याय के खिलाफ भूमिकाओं में दिखने वाले नाना पाटेकर ने एक टी वी चैनल को दिए एक साक्षात्कार में कहा – ”मुझे मरते दम तक जीने का एक रास्ता मिल गया है। यह मैं अपने लिए कर रहा हूं; अपने भीतर के इंसान को जिंदा रखने के लिए।”
फिल्म अभिनेता अक्षय कुमार भी नाना के इस संकल्प से जुङकर खुश हुए। अभिनेता आमिर खान भी ‘पानी फाउण्डेशन’ बनाकर लोगों को सूखे के संकट से उबारने में लगे।
महाराष्ट्र, भारत में उद्योग, कृषि, सिंचाई, जल प्रबंधन और जल-अनुशासन के बीच संतुलन के अभाव और उसके दुष्प्रभाव का सबसे अनुभवी उदाहरण है। महाराष्ट्र, इस बात का भी उदाहरण है कि उचित नियोजन, क्रियान्वयन की लोक-धुन और जलोपयोग का अनुशासन न हो, तो बड़े से बड़ा बजट भी जल-स्वावलम्बन सुनिश्चित नहीं कर सकता।
इसी अनुभव का कसौटी को सामने रखते हुए नाना पाटेकर और आमिर खान ने तीन वर्ष पूर्व कुछ प्रेरक पहल कीं। महाराष्ट्र सरकार ने भी जल साक्षरता बढ़ाने की दृष्टि से ‘जल शिवार योजना’ पर काम किया। महाराष्ट्र सरकार ने 200 फीट से अधिक गहरे बोरवैलों पर पाबंदी भी लगाई। किंतु जलोपयोग का अनुशासन आज भी महाराष्ट्र के खेत और उद्योगों से कोसों दूर है। नतीजा ? इस वर्ष फरवरी से ही पानी के टैंकर दौड़ लगा रहे हैं। जाहिर है कि ज़रूरत कहीं ज्यादा संजीदगी और संकल्प की है। अतः जलोपयोग के नज़रिए से हम हर दिन को जल दिवस मानें।
इस वर्ष कर्नाटक ने पहले बाढ़ का कुफल भुगता; अब सूखे का भुगत रहा है। कर्नाटक के 176 में से 156 तालुके अभी ही सूखाग्रस्त घोषित किए जा चुके हैं। अकेले रबी के इस मौसम में 11,384.70 करोड़ रुपये की फसली नुकसान का अनुमान पेश किया गया है। कर्नाटक की राज्य सरकार, केन्द्र सरकार से राहत राशि मांग रही है। गांव की सरकारें (ग्रामसभा), ग्राम पंचायत विकास योजना की राशि का उपयोग, गांव की जल योजना बनाने और उसे क्रियान्वयन करने में करें।
बिहार, बाढ़-सुखाड़ का सबसे अनुभवी राज्य है। अपने अनुभव की सीख भूला यह राज्य आज भूजल-गिरावट के स्तर को लेकर परेशान है। लघु सिंचाई विभाग परेशान है कि भू-जल स्तर कैसे उठे ? उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश, हरियाणा, पंजाब…. आप किसी भी प्रदेश में चले जाइए; भूजल के मामले में भारत तेजी से कंगाल होते राष्ट्र में बदलता जा रहा है। पानी में प्रदूषण का प्रतिशत साल-दर-साल बढ़ ही रहा है। कारण ? समाज ने यह मान लिया है कि पानी का इंतज़ाम करना, सरकार का काम है; वही करे। इस चित्र को उलटना होगा।
याद कीजिए वर्ष – 2016 जब चंपारण की बुनियादी पाठशालाओं ने जल सत्याग्रह का आगाज किया। लातूर के लोगों ने हौंसला खोने की बजाय खुद 12 करोङ रुपये जमा किए और खुद ही माजरा नदी के पुनर्जीवन का काम शुरु कर दिया। ‘आगा खां ट्रस्ट फाॅर कल्चर’ ने हैदराबाद के कुतुबशाही मकबरे का पुनरोद्धार किया। इस पुनरोद्धार का नतीजा यह हुआ कि चार मई को हुई एक बारिश में यहां की बङी बावङी में एक लाख लीटर और हमाम में 80 हजार लीटर पानी एकत्र हो गया। घुवारा ब्लाॅक के बमनौराकलां गांव के पहाङ पर एक फीट गहरी, डेढ़ किलोमीटर लंबी दस नालियां बना दी थी। बारिश हुई, तो बारिश का सब पानी चांदिया तालाब में समा गया। परिणाम यह है कि कहीं और सूखा हो तो हो, घुवारा के हर नल… हर बोरवैल में पानी है।
इस सीख से सीखे भगवानसिंह परमार की पहल पर बुंदेलखण्ड के जिला छतरपुर में सौ हेक्टेयर के खौंप तालाब पर श्रमदान का जमावङा देख नगरपालिका शरमाई और साझा हुई। उत्तर प्रदेश पुलिस के अपर महानिदेशक महेन्द्र मोदी ने बुंदेलखण्ड के नौ गावों को गोद ले जल संरक्षण को एक अभियान का रूप दे डाला। इधर ब्लाॅक पलेरा, जिला-टीकमगढ़ (मध्य प्रदेश) के गांव-छरी और टौरी का संकल्प जागा। करीब 200 ग्रामीणों ने कमर कसी, कुदालें थामी और अपनी मेहनत के दम पर सांधनी नदी पर 150 फीट लंबा, 15 फीट चैङा और पांच फीट गहरा स्टाॅप डैम बांध दिया। सरकारी इंजीनियर ने देखा तो कहा कि आपने 30 लाख रुपये का काम कर दिखाया है।
जिला मेरठ के गांव करनावल के किसान सतीश ने अपनी 25 बीघा जमीन पर तालाब बना डाला। मुजफ्फरनगर की तहसील शामली में नदी पर काम शुरु हुआ। जिला-प्रतापगढ़ (उत्तर प्रदेश) में समाजशेखर प्रेरक सिद्ध हुए। ग्राम पंचायत को आगे कर नदी बकुलाही के पुनरोद्धार के काम को रफ्तार देनी शुरु कर दी। आर्यशेखर प्रेरित हुए, तो उन्होने पानी के व्यावसायीकरण के खिलाफ प्याऊ को औजार बनाना तय किया। गंगा प्याऊ की श्रृंखला ही शुरु कर दी। बिहार शासन ने सरकारी बैठकों में बोतलबंद पानी पर रोक का आदेश जारी कर दिया। उत्तर प्रदेश शासन ने बुंदेलखण्ड मंे निजी भूमि पर 2000 खेत-तालाबो को मंजूरी व मदद दोनो की घोषणा कर डाली। कई पहल हुईं।
जलपुरुष राजेन्द्र सिंह, सच्चिदानन्द भारती, संत बलवीर सिंह सीचेवाल समेत अनेक शख्सियतों के नेतृत्व से हुईं ज़मीनी पहलों से हम परिचित हैं हीं। कहना न होगा कि पानी, हम सभी पीते हैं। अतः संजोने की ज़िम्मेदारी भी हम में से प्रत्येक की है। हम सभी जुटें। अपनी भूमिका तय करें और उसे निभायें।
कवि स्व. हरिवंश राय बच्चन के शब्दों में सभी की सीख एक ही है – ”है अंधेरी रात, पर दीवा जलाना कब मना है…” भूलें नहीं कि दुष्प्रभाव की इस अधिकता का असल कारक मानव खुद है। अतः प्रकृति को दोष देना बेकार है। समाधान स्वयं हम मानवों को ही खोजने होंगे। संकट साझा है, तो समाधान भी साझे से ही निकलेगा। जिनके बीच सहज साझा संभव नहीं होता, संकट में उनके बीच भी साझे की संभावना बन जाती है। आइये, यह संभावना बनाये। जो खुद कर सकते हों, हम करें।
चुनाव का मौसम है। पार्टिंयां चुनावों की तैयारी करती हैं। पार्टियां ही उम्मीदवार तय करती हैं। पांच साल वे क्या करेंगी; इसका घोषणापत्र भी पार्टियां ही बनाती हैं। इस बार हम पार्टी नहीं, प्रतिनिधि चुनें। पार्टी-घोषणापत्र की जगह, पब्लिक-घोषणापत्र बनायें। मसलन, वोटर, अपने-अपने इलाके का का जन-घोषणापत्र (पब्लिक मेनिफेस्टो) बनायें और लोकसभा उम्मीदवारों से उसे लागू कराने का शपथपत्र लें। किंतु यह न भूलें कि बारिश आती है, तो वह किसी की प्रतीक्षा नहीं करती। हम भी न करें।
इस वर्ष भारत में मानसून आगमन के प्रथम चरण यानी जून में अच्छी बारिश की संभावना व्यक्त की जा रही है। मानसून आने से पूर्व हम अपने-अपने इलाके की जल संरचनाओं, मेङबंदियों को दुरुस्त कर लें; शहरी अपने परिसरों का पानी संजोने का इंतजाम शुरु कर दें; ताकि बारिश आये, तो धरती का पेट खाली न रह जाये। देश के अनेक संगठन और पानी कार्यकर्ताओं पहले भी यह अपील करते रहें हैं। इस वर्ष की अपील भी यही है और सीख भी यही। आइए, यह करें।
अरुण तिवारी