रीमद्वाल्मीकि रामायण में अर्थ प्रबन्धनश्रीमद्वाल्मीकीय रामायण इस पृथ्वी पर प्रथम काव्य ही नहीं महाकाव्य भी है। भारत के लिए यह परम गौरव की बात है। यह पवित्र रामायण हमारी अत्यन्त मूल्यवान धरोहर है। इसका संग्रह पठन पाठन एवं श्रवण कर हम मनुष्य होने का लाभ ले सकते हैं। इस ग्रन्थ में राजा के आर्थिक (वित्तीय) अधिकार, प्रजा के प्रति कर्तव्यों और राज्य की सुव्यवस्था के लिए पूरी-पूरी स्पष्ट व्याख्या की गई है। इसी क्रम में यहाँ राज्य संचालन में आर्थिक प्रबन्धन पर महर्षि वाल्मीकिजी ने अत्यन्त ही सरल शब्दों में वर्णन किया है। यह रामायण में वर्णित आर्थिक (वित्तीय) व्यवस्था का वर्णन आज भी प्रासंगिक है। अत: रामायण सर्वाधिक लोकप्रिय, अजर-अमर (कालजयी) दिव्य तथा कल्याणकारी ग्रन्थ है।
भारतीय जनजीवन के प्रत्येक क्षेत्र में आज मूल्यों का ह्रास की चर्चा है। इसी सन्दर्भ में इस आलेख में महर्षि वाल्मीकि की रामायण में वर्णित मूल्यों के अर्थ (धन-सम्पत्ति) तथा राज्य की आर्थिक नीति पर विचार दिए गए हैं। महर्षि वाल्मीकिजी ने श्रीराम को अर्थविभागविद् भी कहा है यथा-
वैहारिकाणां शिल्पानां विज्ञातार्थविभागवित्।
वाल्मीकिरामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग १-२८
महाराज दशरथजी ने अश्वमेघ यज्ञ पूर्ण हो जाने पर ऋत्विजों को सारी पृथ्वी दान कर दी। यह कार्य करने पर महाराज दशरथजी को अपार हर्ष हुआ किन्तु ऋत्विज उन निष्पाप नरेश से बोले कि हे महाराज! अकेले आप ही इस सम्पूर्ण पृथ्वी की रक्षा करने में समर्थ हैं। हम में इसके पालन करने की शक्ति नहीं है। अत: भूमि से हमारा कोई प्रयोजन नहीं है। महाराज मणिरत्न, सुवर्ण, गौ अथवा जो भी यहाँ हो वहीं हमें आप दक्षिणा स्वरूप दे दीजिए। इस धरती से हमें कोई प्रयोजन नहीं है।
एवमुक्तो नरपतिब्राह्मणैवैदपारगै:।
गवांं शतसहस्त्री दश तेभ्यो ददौ नृप:।।
दशकोटिं सुवर्णस्य रजतस्य चतुर्गणम्।
ऋत्विजस्तु तत: सर्वे प्रदयु: सहिता वसु।।
ऋष्यशृगांय मुनये वसिष्ठाय च धीमते।
वाल्मीकिरामायण बालकाण्ड सर्ग १४-५१
वेदों के पारगामी विद्वान ब्राह्मणों के ऐसा कहने पर राजा (दशरथजी) ने उन्हें दस लाख गौएं प्रदान की। दस करोड़ स्वर्णमुद्रा तथा उससे चौगुनी रजत मुद्रा अर्पित की। उस समय समस्त ऋषियों ने एक साथ लेकर वह सारा धन मुनिवर ऋष्यशृंग तथा बुद्धिमान वसिष्ठजी को सौंप दिया।
तदनन्तर उन दोनों महर्षियों के सहयोग से उस धन का न्यायपूर्वक बँटवारा करके वे सभी श्रेष्ठ ब्राह्मण मन ही मन बड़े प्रसन्न होकर और बोले- महाराज! इस दक्षिणा से हम लोग बहुत सन्तुष्ट थे। यह उदाहरण इस बात का संकेत करता है कि ब्राह्मणों में धन का बँटवारा न्यायपूर्ण होता था। राजा भी ऐसे दानवीर होते थे कि वे दान देने में भी संकोच नहीं करते थे तथा योग्य व्यक्ति को भरपूर दान करते थे। अश्वमेघ यज्ञ में सारा धन ऋत्विजों को दे देने के बाद जब कुछ शेष नहीं बचा रहा तब एक अत्यन्त ही दरिद्र ब्राह्मण ने आकर इक्ष्वाकुनन्दन महाराज दशरथ से धन की याचना की। उस समय उन महाराज दशरथजी ने उसे अपने हाथ का उत्तम आभूषण उतार कर दे दिया।
महर्षि वाल्मीकिजी ने राजा दशरथ के राज्य में अयोध्या की आर्थिक स्थिति का जो वर्णन किया है इससे स्पष्ट होता है कि अयोध्यावासियों के पास पर्याप्त धन रहता था और जिससे वे पूर्ण तथा सन्तुष्ट रहते थे तथा अन्न धन के प्रति लोभ-लालच का भाव नहीं रखते थे यथा-
तस्मिन् पुखरे दृष्टा धर्मात्मान् बहुश्रुता:।
नरास्तुष्टा धनै: स्वै: स्वैरलुब्धा: सत्यवादिन:।।
नाल्पसंनिचय: कश्चिदासीत् तस्मिन् पुरोत्तमे।
कुटुम्बी यो हृासिद्धार्थोऽगवाश्चधनधान्यवान्।।
वाल्मीकिरामायण बालकाण्ड सर्ग १६-६-७
उस उत्तम नगर (अयोध्या) में निवास करने वाले सभी मनुष्य प्रसन्न, धर्मात्मा, बहुश्रुत, निर्लोभ सत्यवादी तथा अपने-अपने धन से सन्तुष्ट रहने वाले थे।
उस श्रेष्ठपुरी में कोई भी ऐसा कुटुम्बी (परिवार) नहीं था जिसके पास उत्कृष्ट वस्तुओं का संग्रह अधिक मात्रा में न हो? जिसके धर्म, अर्थ और काममय पुरुषार्थ सिद्ध न हो गए हो तथा जिसके पास गाय, बैल, घोड़े धन-धान्य आदि का अभाव हो।
जहाँ तक मनुष्य में पाए जाने वाले दुर्गुणों का प्रश्न है, अयोध्या में कोई भी कोई कामी, कृपण, क्रूर, मूर्ख और नास्तिक मनुष्य देखने को भी नहीं मिलता था। अयोध्या के सभी स्त्री-पुरुष धर्मशील, संयमी, सदा प्रसन्न चित्त रहने वाले तथा शीलवान और सदाचार की दृष्टि से महर्षियों की भाँति निर्मल थे।
जन सामान्य आर्थिक दृष्टि से सुखी एवं सम्पन्न था। अयोध्या में कोई भी कुण्डल, मुकुट और पुष्पहार से शून्य नहीं था। कोई भी ऐसा पुरुष देखने में नहीं आता था जो बाजूबन्द नियक (स्वर्ण पदक या मोहर) तथा हाथ में आभूषण (कड़ा आदि) धारण न किए हो।
अयोध्या नाम नगरी तत्रासील्लोक विश्रुता।
मनुना मानवेन्द्रण या पुरी निर्मिता स्वयम्।।
आयता दश च द्वेच योजनानि महापुरी।
श्रीमती त्रीणि विस्तीर्णा सुविभक्तमहायथा।।
वाल्मीकिरामायण बालकाण्ड सर्ग ५-६-७
अयोध्या नाम की एक नगरी है जो समस्त लोकों में विख्यात है। उस पुरी को स्वयं महाराज मनु ने बनवाया और बसाया था। वह शोभाशालिनी महापुरी बारह योजन लम्बी और तीन योजन चौड़ी थी। वहाँ बाहर के जनपदों में जाने का विशाल राजमार्ग था। वह उभयापार्श्व में विविध वृक्षावलियों से विभूषित होने के कारण सुस्पष्टता अन्य मार्गों से विमुक्त जान पड़ता था।
इस तरह स्पष्ट है कि अयोध्या के राजमार्ग आधुनिक राजमार्ग (हाइवे) से न्यून नहीं होते थे। ये मार्ग अयोध्या के समृद्धिशाली होने के प्रतीक थे। जैसे स्वर्ग में देवराज इन्द्र ने अमरावतीपुरी बसाई थीं, उसी प्रकार धर्म और न्याय के बल से अपने महान राष्ट्र की वृद्धि करने वाले राजा दशरथ ने अयोध्यापुरी को पहले की अपेक्षा विशेष रूप से बसाया था। वह पुरी बड़े-बड़े फाटकों, किवाड़ों से सुशोभित थी। उसके भीतर अलग-अलग बाजार थे। वहाँ सब प्रकार के यन्त्र और अस्त्र-शस्त्र संचित थे। अयोध्यानगरी में सभी कलाओं के शिल्पी निवास करते थे।
कर देने वाले सामन्त नरेशों के समुदाय अयोध्यापुरी को सदा घेरे रहते थे। विभिन्न देशों के निवासी वैश्य, उस पुरी की शोभा बढ़ाते थे। वहाँ के महलों का निर्माण नाना प्रकार के रत्नों से हुआ था। वे गगनचुम्बी प्रासाद पर्वतों के समान जान पड़ते थे। बहुसंख्यक कूटागारों गुप्त गृहों अथवा स्त्रियों के क्रीड़ा भवनों से परिपूर्ण वह नगरी इन्द्र की अमरावती के समान जान पड़ती थी। महलों पर सोने का पानी चढ़ाया गया था। उस समय के समाज की समृद्धि का एक मापदण्ड नगर निवेशन तथा भवन भी था। अयोध्या में नगर निवेशन के सिद्धान्तों पर भवन (मकान) बने थे। मकान इतने ऊँचे-ऊँचे थे कि पहाड़ों की तरह दिखते थे। सात मंजिल के महल को विमान कहा जाता था। अयोध्या विमान गृहों से सुशोभित थे। पुरी को अष्टापदाकार। कहा गया है अर्थात् बीच में राजभवन, चारों ओर राजमार्ग थे और बीच में खुली जगह छोड़ी गई थी।
कैकेयी की भरत के लिए राज्य प्राप्ति सम्बन्धी योजना में अपना हाथ न होने की पुष्टि में, माता कौशल्या के समक्ष कई बार ‘यस्यार्थाऽनुमतेगतÓ कहकर, भरत ने नाना प्रकार की सौगन्ध लेकर समझाने का प्रयत्न किया था। इन शपथों को दो, तीन का सम्बन्ध आर्थिक क्रियाओं से है। उनकी एक शपथ यह है कि जिसकी सहमति से श्रीराम को चौदह वर्ष वन जाना पड़ा, उसे वह पाप लगे जो पाप सेवक से भारी भरकम काम करवाकर उसे समुचित वेतन नहीं देने वाले स्वामी को लगता है। इससे यह सिद्ध होता है कि कार्य की गुरुता और लघुता का सम्बन्ध भृत्यों (सेवकों) को दिए जाने वाले वेतन से होता था और बड़ा काम करवाकर तदनुरूप वेतन नहीं देना पड़ा भारी पाप माना जाता था।
इसी प्रकार भरतजी एक दूसरी शपथ लेकर कहते हैं कि-
बलिषड्भागमुद्धृत्य नृपस्यारक्षितु: प्रजा:।
अधर्मो योऽस्य सोऽस्यातु यस्यार्योनुमते गत:।।
वाल्मीकिरामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग ७५-२५
जिनकी अनुमति से आर्य, श्रीराम वन में गए हो वह उसी अधर्म का भागीदार हो जो प्रजा से उसकी आय का छठा भाग लेकर भी प्रजा वर्ग की रक्षा न करने वाले राजा को प्राप्त होता है।
इस प्रकार यहाँ अयोध्यापुरी में कराधान पद्धति का संक्षिप्त संकेत दिया गया है तथा कर से प्राप्त धन के उपयोग पर कैसे व्यय करना चाहिए, बताया गया है।
चित्रकूट में श्रीराम-भरत समागम के समय श्रीराम ने प्रश्नवाचक ‘कच्चितÓ शब्द का इकसठ बार प्रयोग कर भरत से इस तरह कुल तिरसठ प्रश्न राजनीति, अर्थनीति के पूछे जिनमें केवल एक बार ‘किंÓ और एक बार ‘क्वनुÓ शब्दों का प्रयोग हुआ है। इन प्रश्नों का मात्र उद्देश्य भरत को राजनीति, अर्थनीति तथा अन्यान्य विषयों को मात्र जानकारी करानी थी। इनमें उत्तर अपेक्षित नहीं थे। इसलिए भरतजी ने भी इन प्रश्नों का कोई उत्तर श्रीराम को नहीं दिया। इन प्रश्नों में अर्थ (वित्त) सम्बन्धी कई विचार सामने आते हैं। श्रीराम ने पूछा कि-
इष्वस्रवरसम्पन्नमर्थशास्त्रविशारदम्।
सुधन्वानमुपाध्यायं कश्चित् त्वं तात मन्यसे।।
वाल्मीकिरामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग १००-१४ अयोध्या
भाई भरत! जो मन्त्ररहित श्रेष्ठ बाणों के प्रयोग तथा मन्त्रसहित उत्तम अस्त्रों के अच्छे पंडित हैं, उन आचार्य सुधन्वा का क्या तुम समादर करते हो?
यहाँ श्रीरामजी का प्रश्न भरत से समाज में विशेषज्ञों का सम्मान करने तथा समाज की उन्नति और प्रगति के लिए पूछा गया था।
इसी क्रम में भरतजी ने श्रीरामजी से राज्य की आर्थिक समस्याओं का ज्ञान प्राप्त किया है यथा-
कच्चिन्निद्रावशं नैषिकश्चित् कालेऽवबुध्यसे।
कच्चिच्चापररात्रेषु चिन्तयस्यर्थनैपुणम्।।
आयस्ते विपुल: कश्चित् कच्चिदल्पतरो व्यय:।
अपात्रेषु न ते कश्चित् कोषो गच्छति राधव।।
कच्चिदर्शने वा धर्ममर्थ धर्मेण वा पुन:।
उ भौवा प्रीति लोगेन कामेन न विबाधासे।।
कच्चिदर्थं च कामं च धर्मं च जयतां वर।
विभज्य काले कालज्ञ सर्वान् वरद् से वस।।
वाल्मीकिरामायण, बालकाण्ड सर्ग १००-१७-५४-६२-६३
श्रीराम, भरत से पूछते हैं कि हे भरत तुम रात्रि के पिछले प्रहर में अर्थसिद्धि के उपाय पर विचार करते हो न? भरत! क्या तुम्हारी आय अधिक और व्यय बहुत कम है? तुम्हारे खजाने का धन अपात्रों के हाथ में तो नहीं चला जाता है। तुम अर्थ के द्वारा धर्म अथवा धर्म के द्वारा अर्थ को हानि तो नहीं पहुँचाते? अथवा आसक्ति और लोभरूप काम के द्वारा धर्म और अर्थ दोनों में बाधा तो नहीं आने देते हैं? विजयी वीरों में श्रेष्ठ समयोचित कर्तव्य के ज्ञाता तथा दूसरों को वर देने में समर्थ भरत! क्या तुम समय का विभाग (विभाजन) करके धर्म, अर्थ और काम का योग्य समय सेवन करते हो?
यहाँ श्रीराम भरतजी को राज्य की अर्थव्यवस्था में वृद्धि करने के लिए उन्हें उपदेश देते हैं कि हे भरत तुम अर्थव्यवस्था में वृद्धि करने हेतु रात्रि के पिछले प्रहर में उपाय पर विचार किया करो क्योंकि इस समय कोई विघ्न (बाधा) नहीं होती है। श्रीराम भरत को यह भी समझाते हैं कि राज्य में आय से सदा व्यय कम करना चाहिए ताकि संकटकाल में धन की कमी न हो। इस प्रकार भरत के राज्य में घाटे के बजट का उल्लेख नहीं है। श्रीराम सन्तुलित बजट का विशेष महत्व प्रदान करते हैं। अर्थ के द्वारा धर्म को अथवा धर्म के द्वारा अर्थ को बाधित नहीं किया जाना चाहिए। इस तरह अर्थ, धर्म और काम के सन्तुलन का सिद्धान्त महर्षि वाल्मीकिजी ने श्रीराम के प्रश्नों के माध्यम से प्रतिपादित कर भरत को इसकी शिक्षा चित्रकूट में दी।
युद्धकाण्ड में लक्ष्मणजी ने भी अर्थ पर प्रकाश डाला है यथा-
अर्थेभ्योऽथ प्रवृद्धेभ्य: संवृत्तेभ्यस्ततस्त:।
क्रिया: सर्वा: प्रवर्तन्ते पर्वतेभ्य इवापगा:।।
वाल्मीकिरामायण युद्धकाण्ड सर्ग ८३-३२
जैसे पर्वतों से नदियाँ निकलती है उसी तरह जहाँ-तहाँ से संग्रह करके लाये और बढ़े हुए अर्थ से सारी क्रियाएँ (चाहे वे योगप्रधान हो या भोग प्रधान) सम्पन्न होती है (निष्काम भाव होने पर सभी क्रियाएँ योग प्रधान हो जाती है सकामभाव होने पर भोग प्रधान)
अर्थेन हि विमुक्तस्य पुरुषास्याल्पमेधस:।
विच्छिद्यन्ते क्रिया: सर्वा: गीष्मे कुसरितो यथा।।
वाल्मीकिरामायण युद्धकाण्ड सर्ग ८३-३३
जैसे छोटी-छोटी नदियाँ ग्रीष्म ऋतु में सूख जाती है वैसे ही अर्थहीन व्यक्ति की सारी क्रियाएँ विच्छिन्न हो जाती है।
अर्थ का ही महत्व है कि मित्र, बान्धव, सभी उन्हीं को प्राप्त होते हैं जो अर्थवान है। अर्थहीन लोगों को उनके सगे-सम्बन्धी-मित्र-बन्धु सभी छोड़ देते हैं।
यस्यार्था धर्मकामार्थस्तस्य सर्वं प्रदक्षिणम्।
अधनेनार्थकामेन नार्थ: शक्यो विचिन्विता।।
वाल्मीकिरामायण युद्धकाण्ड सर्ग ८३-३८
जिसके पास धन है उनके धर्म और कामरूप सारे प्रयोजन सिद्ध होते हैं। उसके लिए सब कुछ अनुकूल बन जाता है। जो निर्धन है, वह अर्थ की इच्छा रखकर उसका अनुसंधान करने पर भी पुरुषार्थ के बिना उसे प्राप्त नहीं कर सकता है।
डॉ. नरेन्द्रकुमार मेहता