1 जनवरी 2018 की घटना पर बहस के पूर्व कुछ पूर्व की घटनाओं पर विचार करते हैं।
1989 से कांग्रेस का जनाधार गिरना शुरू हुआ।मंडल और कमंडल के दम पर नए राजनैतिक गुरुओं का प्रादुर्भाव हुआ।1991 में श्री राजीव गांधी की हत्या हो गयी और कांग्रेस की एक लूली लंगड़ी सरकार बनी।1996 आते आते कांग्रेस का तिलिस्म बिखर गया।1996 से 2004 तक सत्ताच्युत रही कांग्रेस ने भाजपा को पटखनी दी।मुसलमानों का ध्रुवीकरण हुआ कांग्रेस व क्षेत्रीय क्षत्रपों के पक्ष में,सिर्फ भाजपा को सत्ता से बाहर रखने में।मुसलमान भारत में सत्ता की कुंजी मान लिए गए।
इसी समीकरण को 2008 में दुहराया गया औऱ कांग्रेस विभिन्न दलों को भाजपा का डर दिखा कर सत्तासीन हुई।कमोवेश मुसलमान भी इसी डर से कांग्रेस,मुलायम,माया,ममता,लालू इत्यादि की गोद में दुबके हुए थे।हिन्दू पिछले 3000 वर्षों की तरह अगड़ा,पिछड़ा,दलित,आदिवासी में बंटे हुए इन कमज़र्फ,हरामजादे,गद्दार हिन्दू नेताओं के तलवे चाटने में व्यस्त थे।मुसलमानों की बल्ले बल्ले थी।
उधर 2002 में गुजरात के गोधरा में मुसलमान चोरों, लुटेरों ने ट्रेन में आग लगा कर सैकड़ों हिंदुओं को जिंदा जला दिया।उपरोक्त किसी हरामजादे के पेशानी पर शिकन नहीं आया।
परंतु,गोधरा का बदला मोदी और शाह के नेतृत्व में ऐसा प्रचंड बदला लिया हिंदुओं ने की गुजरात में अगले के पीढ़ी तक ये लुटेरी प्रजाति सुषुप्तावस्था में चली गई।सोनिया माइनो और ग़ज़वाए हिन्द का सपना संजोने वाले जाली टोपी ने भरसक प्रयास किया कि मोदी को खदेड़ दिया जाय।पर इन हरामजादों के गोले उड़ गए मोदी को नहीं उड़ा पाये।
आखिर आया 2014 का साल और हिंदुत्व की और हिन्दू एकता की ऐसी आंधी आयी कि बड़े बड़े दरख़्त भरभरा के उड़ गए।दिल्ली के सत्ता के गलियारों में 100 वर्षों के बाद केवल हिंदुओं के वोटों से चुनी हुई सरकार बनी।सिर्फ हिंदुओं की।हरामजादों के तोते सही में उड़ गए।अब ये सनक गए और जब हिन्दू पादशाही इनके बरदास्त के बाहर हो गयी तो शुरू हुई साजिशें।
1.कोई कमीना अखलाख मारा गया और सारे रो पड़े जैसे अखिलेश के अब्बा मर गए।
2.रोहित वेमुला मरा और हिन्दू समाज को तोड़ने का मौका मिला।
3.फिर शुरू हुआ असहिष्णुता और अवार्ड वापसी का खेल
4.केरल में सड़क पर गौकुशी
5.बंगाल,केरल में हिंदुओं की हत्याएं
इतना सब होने के बाद यूपी का चुनाव हुऐ और ये हरामजादे लतिया कर बाहर कर दिए गए हिंदुओं द्वारा।सिर्फ हिंदुओं द्वारा।
अब तो मानों इनके आग लग गयी थी।राहुल और हिजड़ों की फौज बनी शेर का शिकार करने को।राहुल ने सैकड़ों मंदिरों की प्रदक्षिणा की,अपना शुद्धिकरण करवाया।परन्तु फिर हिन्दू जीते,सिर्फ हिन्दू।अर्थात,अब हम सिर्फ हिन्दू हैं और रहेंगे।कोई अगड़ा,पिछड़ा,दलित,आदिवासी नहीं होगा।भाजपा नहीं हिन्दू अब 19 राज्यों में सरकार बना चुके हैं।भारत भगवामय हो चुका है और ये ही इन हरामजादों की परेशानी का सबब है।
कोरेगांव हिंसा इसी की अगली कड़ी है।किसी भी प्रकार से हिंदुओं की उग्र, उत्तेजक एकता को जाति, उपजाति के नाम पर खंडित करना है।पर सोशल मीडिया के युग में इन हरामजादों की चल नहीं पा रही है।
हाँ, मोदी साहेब के लिए भी सलाह है कि हिन्दू और हिन्दू एकता पर ही ध्यान दीजिए।ये जो आप 19 राज्यों तक फैले हैं वो किसी इकास विकास की बदौलत नहीं बल्कि सिर्फ हिंदुओं के ध्रुवीकरण की वजह से है।न कोई विकास हुआ है,न आपके किये होने वाला है।खातिर जमा रखिये, आप तो क्या ..के बस का भी नहीं है विकास।न घूसखोरी रुकी है न भ्रष्टाचार।इसलिए,दंडा चलवाईये जो हिन्दू एकता के खिलाफ काम करे उसपर।एक कानून बनाइये हिन्दू मुसलमानों के लिए।और ये आडवाणी जी की तरह मस्जिद मज़ारों पर जाना छोड़िये।मुसलमान आपके कभी नहीं होंगे।
हिन्दू भाइयों घबराना नहीं है कोरेगांव जैसी कोरी घटनाओं से।सब हिन्दू विरोधी ताकतों की लगी पड़ी है,बस लगाए रखिये।
सन्तोष पाण्डेय
5/1/2018
*कोरेगांव भीमा हिंसा-भाग-2*
पुणे के भीमा कोरेगांव में 31 दिसम्बर को ‘यलगार परिषद’ का कार्यक्रम रखा गया था. पेशवा बाजीराव द्वितीय की समाप्त प्राय सेना और ईस्ट इंडिया कंपनी की एक छोटी सी टुकड़ी के बीच हुए 200 वर्ष पुराने युद्ध की वर्षगांठ पर.
इस ‘यलगार परिषद’ के कार्यक्रम में मंच पर मौजूद लोगों में प्रकाश आंबेडकर, जिग्नेश मेवाणी, उमर खालिद, रोहित वेमुला की मां राधिका वेमुला, सोनी सोरी, विनय रतन सिंह, प्रशांत दौंढ़, मौलाना अब्दुल हामिद अज़हरी वग़ैरह शामिल थे.
ऐसे कोई 25-30 संगठनों के नामों की सूची मंच से पढ़ी गई जिन्होंने रैली का समर्थन किया था.
इनमें पॉपुलर फ्रंट ऑफ़ इंडिया, मूल निवासी मुस्लिम मंच, छत्रपति शिवाजी मुस्लिम ब्रिगेड, दलित ईलम आदि संगठन थे.
इसके बाद दलितों पर अत्याचार की कहानी सुनाई गई. यह कि आज भी दलितों पर अत्याचार होता है और अत्याचार करने वाले भाजपा-आरएसएस के लोग होते हैं.
यह कि उनके मुताबिक़ भाजपा और संघ के लोग आज के नए पेशवा हैं. जिग्नेश मेवाणी ने तो सीधे प्रधानमंत्री को आज का पेशवा कहा. इसी कथानक को फिर तरह-तरह से दोहराया गया.
भीमा कोरेगांव के निकट ही अहमदनगर रोड पर वढू बुदरक गांव है.
यहां छत्रपति शिवाजी महाराज के ज्येष्ठ पुत्र एवं तत्कालीन मराठा शासक संभाजी राजे भोंसले की समाधि है और उसके पास ही गोविंद गायकवाड़ की समाधि है.
इसके एक दिन पहले 30 दिसंबर, 2017 की रात को वढ़ू बुदरक गांव में गोविंद गायकवाड़ की समाधि को भी सजाया गया था.
कुछ अज्ञात लोगों ने इस सजावट को नुकसान पहुंचाने की कोशिश की और समाधि पर लगा नामपट क्षतिग्रस्त कर दिया. जिन्होंने यह किया था, वे भगवा झंडे लिए हुए थे.
इसमें दो लोगों का नाम आया- संभाजी भिड़े गुरू जी और मिलिंद एकबोटे. दोनों का संबंध आरएसएस से बताया गया.
भीमा कोरेगांव युद्ध स्मारक पर सोमवार को लाखों दलित एकत्र हुए थे, जहां कथित तौर पर भगवा झंडाधारी कुछ लोगों ने अचानक पत्थरबाज़ी शुरू कर दी. टकराव के दौरान बस, पुलिस वैन और निजी वाहन समेत 30 वाहनों को आग के हवाले कर दिया गया.
मंच से भड़काऊ बातें करने पर मामला दर्ज हुआ है.मंगलवार को कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने इस हिंसा के लिए भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर निशाना साधा.
राहुल ने ट्वीट किया कि भाजपा और आरएसएस का भारत के प्रति ‘फ़ासिस्ट’ दृष्टिकोण यह है कि दलित भारतीय समाज के सबसे निचले पायदान पर रहें.
अब थोड़ा सा पीछे लौटने के पहले कुछ शब्दों और कुछ नामों पर गौर करें.
‘यलगार’ उर्दू का शब्द है जिसका अर्थ होता है – अचानक हमला करके मार देना. यहां बात ‘जंग’ की हो रही थी.
दूसरा शब्द है ‘ईलम’. मंच से नाम पढ़ा गया ‘दलित ईलम’. ‘ईलम’ माने होता है – देश.
अब नामों पर आएं. एक नाम है जिग्नेश मेवाणी उर्फ दलित नेता.जिग्नेश मेवाणी अभी कांग्रेस की मदद से गुजरात में विधानसभा का चुनाव जीते हैं.
कांग्रेस ने यह सीट उनके लिए छोड़ी थी. अच्छी ख़ासी मुस्लिम जनसंख्या वाली यह सीट पिछली बार कांग्रेस करीब 23 हज़ार वोटों से जीती थी, इस बार जब हालात भाजपा के ख़िलाफ़ बताए जा रहे थे, तब जिग्नेश मेवाणी करीब 19 हजार से जीते हैं.
तीसरा नाम है रोहित वेमुला की मां राधिका वेमुला का. रोहित वेमुला के दलित होने को लेकर भी सवाल उठते रहे हैं.फिर नाम आता है उमर ख़ालिद. फिर सोनी सोरी, विनय रतन सिंह, प्रशांत दौंढ़ और अब्दुल हामिद अज़हरी.
माने पेशवा और ब्राह्मण तो बहाना हैं, यह एक ऐसे झुंड का जमावड़ा था, जिन्हें सिरे से हिन्दू विरोधी और भारत विरोधी तक कहा जाता है.
आख़िर वे ‘भारत की बर्बादी तक, जंग चलेगी, जंग चलेगी’ जैसे नारों के रचयिता हैं तो ये खुलकर अपने एजेंडे पर बात क्यों नहीं करते? ऐसा क्यों न कहा जाए कि ये झूठ का पुलिंदा बनाकर दलितों को मोहरा बनाते हैं?
झूठ के पुलिंदे का दूसरा स्रोत है- इतिहास के साथ बार-बार की और भारी-भरकम तोड़ मरोड़. पेशवा-अंग्रेज़ युद्ध को सीधे ब्राह्मण-महार युद्ध में बदल दिया गया.
विस्तार में जाने का लाभ नहीं है लेकिन सपाट सा सच यह है कि न यह ब्राह्मण-महार युद्ध था और न अंग्रेज़ इसमें जीते थे.
एक तरफ तो दलितों की व्याख्या (खुद दलित शब्द का भारत के किसी इतिहास में कोई उल्लेख नहीं है, यह मैकाले-मार्क्स की उपज है) यह की जाती है कि उन्हें हथियार रखने की आज़ादी नहीं थी, दूसरी तरफ बताया जाता है कि महारों ने पेशवाशाही को हरा दिया था.
इतिहास के साथ दूसरी तोड़-मरोड़. गोविंद गायकवाड़ की समाधि को क्षतिग्रस्त करने का मामला.
बताया जाता है कि संभाजी राजे भोंसले को मुगलों ने रोज़ाना एक अंग काट कर कई दिनों में मारा था- पाकिस्तान की ‘डेथ बाइ थाऊज़ेंड कट्स’ वाली थ्योरी के अंदाज़ में और उनके अंतिम संस्कार पर भी रोक लगा दी थी.
इतिहास के अनुसार गोविंद गायकवाड़ ने संभाजी राजे का अंतिम संस्कार किया था. गोविंद गायकवाड़ की समाधि का ज़िक्र करने वालों को एक बार गोविंद गायकवाड़ का जीवन चरित भी बताना चाहिए.
झूठ की तीसरी परत. हमला करने वाले भगवा झंडे हाथ में लिए हुए थे. मुंबई पर हमला करने वाला अजमल कसाब भी रक्षा सूत्र पहना हुआ था और एक शख़्स ने किताब भी लिख दी कि मुंबई पर हमला आरएसएस ने किया था, जिसके विमोचन में दिग्विजय सिंह भी मौजूद थे.
यहां लाखों की भीड़ पर चंद लोगों ने हाथ में भगवा झंडा लेकर हमला किया? भारत में यह सब कर लेना कितना आसान है?
अब आइए थोड़ा सा और पीछे, राहुल गांधीजी के ट्वीट पर.’फ़ासिस्ट’, ‘दलित’ और ‘आरएसएस’ के तीन रटे रटाए शब्द. एक मजेदार शब्द था- ‘बॉटम ऑफ इंडियन सोसायटी’. राहुलजी, देश का राष्ट्रपति एक दलित है, भाजपा के उम्मीदवार की हैसियत से जीता है और हर संवैधानिक पद पर बैठा हर व्यक्ति उतना रोबोट नहीं होता है कि उसे ‘बॉटम ऑफ इंडियन सोसायटी’ कहा जा सके लेकिन कहने में क्या जाता है?
लेकिन बात यहां खत्म नहीं होती, यहां से शुरु होती है. ‘यलगार परिषद’ के मंच पर तमाम भारत विरोधी, वामपंथी, नक्सलपंथी, नव-उदारवादी, भारत के टुकड़े करने के समर्थक, लव-जिहाद के समर्थक, इस्लामिस्ट- आदि सारे भारत विरोधी और हिन्दू विरोधी मौजूद थे. सारे भाजपा और आरएसएस को कोस रहे थे और नाम दलितों का लगा रहे थे. यह सारे एक साथ क्यों हो गए?
वास्तव में यह सारे हमेशा से ही एक साथ थे. इसमें और भी हिस्से होते हैं, जो मंच पर नहीं थे. जैसे मीडिया के वे लोग, जिन्होंने हिंसा शुरु होते ही उसे ‘दलित बनाम हिन्दू’ कहना शुरु कर दिया था या जिन्होंने लालू प्रसाद को अपराधी ठहराए जाते ही, जाति का राग अलापना शुरू कर दिया था. एक लंबा चौड़ा तंत्र है, जिसमें कई तरह के लोग हैं.
बहुत सीधी सी बात है कि ये पूरा तंत्र उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव को लक्ष्य में रखकर सक्रिय हुआ था और अब गुजरात के विधानसभा चुनाव में हारने के बाद से परेशान है.
इस तंत्र के पास इतिहास को तोड़ने से लेकर क़ानून को मरोड़ने तक, जाति से लेकर प्रांत और भाषा के नाम पर बांटने तक, हर तरह की कहानी मौजूद है.
पैसा इनके लिए कोई विषय नहीं है. यह भारत की विविधता के हर आयाम को भारत के विभाजन की एक और गुंजाइश के रूप में देखता है. भारत की एकता का भाव इन्हें ज़रा भी पसंद नहीं है.
2014 के लोकसभा चुनाव, उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव और गुजरात के विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी की जीत चूंकि जनता की और मूलतः हिन्दुओं की एकजुटता के कारण हुई है लिहाज़ा हिन्दू एकजुटता तोड़ना उसे सबसे महत्वपूर्ण लगता है.
और इस हिन्दू एकजुटता का अर्थ हिन्दू ध्रुवीकरण नहीं है. एक ही ध्रुव वाला ध्रुवीकरण तो हमेशा से चला आ रहा है. उनमें हिन्दुओं की कोई भूमिका नहीं थी. हिन्दुओं की एकजुटता सामने आने पर उसे ध्रुवीकरण कहा जाने लगा है.
गुजरात से कांग्रेस को उम्मीद हो गई है कि उसका ‘पारिस्थितिकी तंत्र’ उसे चुनावी फ़ायदा करा सकता है. महाराष्ट्र का प्रयोग इसीलिए था लेकिन यह भी कांग्रेस की गलतफ़हमी है.
वास्तव में कांग्रेस का पारिस्थितिकी तंत्र अब कांग्रेस से कहीं बड़ा हो चुका है. वह अपनी मर्ज़ी से किसी क्षेत्रीय क्षत्रप को पैदा करता है और मौका पड़ते ही डुबो भी देता है.
दिल्ली और उत्तर प्रदेश इसके दो बड़े उदाहरण हैं लेकिन कांग्रेस के इस ‘पारिस्थितिकी तंत्र’ का हिंसा का सहारा लेना दुखद है.