आरक्षण आस या फांस
भारत की एकता और अखंडता को बरकरार रखने के क्रम में विभाजनकारी ताकतों से देश को बचाये रखना एक बड़ी चुनौती है। विदेशी ताकतों के द्वारा लगातार भारत को कमजोर करने और विभाजित करने का षड्यंत्र होता रहा है। भारत की सीमाओं पर पाकिस्तान और चीन लगातार देश को अस्थिर करने की कोशिश करते हैं तो बांग्लादेश सीमा से घुसपैठ एक बड़ा सरदर्द बन गया है। असम में राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर के बाद लाखों की संख्या में बांग्लादेशी घुसपैठियों की सरकारी पुष्टि हो चुकी है। रोहिंग्या का विषय अभी तक सुलझा नहीं है। विपक्षी दल गठबंधन की आड़ में राष्ट्रविरोधी ताकतों को प्रश्रय देने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं। 2014 की प्रचंड जीत के बाद जिस तरह राज्यों में मोदी का जादू फैलता गया और उसके द्वारा हिन्दू वोट बैंक एकजुट होता गया, उसके बाद षड्यंत्रकारी ताकतों के द्वारा मोदी विरोध के नए नए पैंतरे खेले जाने लगे। एक ओर भाजपा सवर्ण और दलित गठजोड़ के जरिये हिन्दू वोट बैंक को एकजुट रखने का प्रयास कर रही है वहीं दूसरी तरफ विपक्ष मुस्लिम-दलित गठजोड़ के जरिये सत्ता वापसी का ख्वाब देख रहा है। सत्ता वापसी के क्रम में जिस तरह उच्चतम न्यायालय के निर्णय को आरक्षण विरोधी निर्णय बताकर विपक्ष ने प्रचारित किया उसके द्वारा उसकी घुटन साफ दिखाई देती है। इसके बाद दलित वोट बैंक को बचाने के लिए जैसे ही भाजपा विधेयक लेकर आई उसका सवर्ण वोटर उसके खिलाफ मुखर हो गया। अब भाजपा के लिए सवर्ण और दलित के बीच संतुलन बैठाना टेढ़ी खीर होता जा रहा है। अपने चारों तरफ अभिमन्यु की तरह चुनौतियों से घिरी भाजपा क्या 2019 का किला भेद पाएगी ? क्या अटल बिहारी बाजपेयी की संवेदना लहर ब्राह्मण को भाजपा के पक्ष में संतुष्ट कर पायेगी? आरक्षण और दलित कानून के मुद्दे के बाद भाजपा का अब सारा गणित दलित-सवर्ण गठजोड़ पर आकर टिक गया है। प्रस्तुत है एक विश्लेषण।
अमित त्यागी
श में विघटनकारी ताक़तें एक होती चली जा रही हैं। विदेशी चंदे एवं चर्च की शह पर हर वह खेल खेले जाने की तैयारी है जिसके दम पर राष्ट्रवादी ताक़तें कमजोर हों। हर उस मुद्दे को उठाए जाने की तैयारी है जिसके द्वारा हिन्दू वोट बैंक विभाजित हो जाये। आरक्षण, दलित राजनीति और विघटनकारी ताकतों के पहले चर्च के धर्मांतरण के खेल को समझना होगा। भारत में जिस जिस इलाके में गरीबी और अशिक्षा है वहां वहां चर्च ने अपने पैर फैला रखे हैं। दलित और आदिवासियों की गरीबी और अभाव का फायदा उठाकर उनका बड़े स्तर पर धर्मांतरण कराया जाता रहा है। दलित और आदिवासियों में सवर्णों के प्रति नफरत फैलाई जाती है ताकि वह स्वयं को सनातन मानने से इंकार कर दें। उन्हें हिन्दू और हिन्दुत्व शब्द से नफरत हो जाये। ऐसा होते ही धर्मांतरण आसान हो जाता है। इसके साथ ही शरणार्थी के नाम पर बांग्लादेशी एवं रोहिंगया घुसपैठियों को भारत में शरण देकर उनकी नागरिकता के सवाल उठवाये जाते हैं। एक बार उनको नागरिकता मिलने पर मुस्लिम और दलित गठजोड़ के द्वारा भारत पर राज करना आसान हो जाता है। जैसे ही दलित और सवर्ण के बीच खाई पटनी शुरू होती है वैसे ही कोई न कोई मुद्दा लाकर फिर से उस खाई को बढ़ा दिया जाता है। कभी आरक्षण खत्म करने के नाम पर तो कभी एससीएसटी एक्ट में उच्चतम न्यायालय के निर्णय की गलत व्याख्या करके।
सत्ता के लालच में भारत के सदियों पहले से कई टुकड़े हो चुके हैं। सत्ता के लालच में भारत के प्रदेशों के भी टुकड़े हुये हैं। जैसे पूर्वोत्तर में असम एक महत्वपूर्ण राज्य है जहां राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर के बाद बांग्लादेशी शरणार्थियों की पहचान का रास्ता साफ हुआ है। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को इसमें भी अपनी राजनीति का स्कोप दिखाई दे गया। सबसे पहले उन्होंने बयान दिया कि इस कदम के द्वारा गृहयुद्ध एवं रक्तपात जैसी स्थिति बनेगी। इसके बाद ओवैसी ने अपने भड़काऊ बयान के द्वारा माहौल गरमा दिया। धीरे धीरे यह मुद्दा विदेशी मूल का मुद्दा न रहकर मुस्लिम धर्म पर आकर टिक गया। स्वार्थी नेताओं को बांग्लादेशी एक वोट बैंक के रूप में ज़्यादा दिखाई देने लगे। अब असम क्षेत्र की विडम्बना ही कह सकते हैं कि वह पहले से इस तरह की राजनीति का शिकार होता रहा है। सबसे पहले अंग्रेजों के कार्यकाल में लॉर्ड वावेल इसे ईसाईकृत स्वतंत्र क्षेत्र बनाना चाहते थे। 1906 में ढाका के नवाब सलीमुल्लाह खां ने बंगाल के मुसलमानों को असम में बसाने की योजना बनाई। आज़ादी के पहले जिन्ना असम को पूर्वी पाकिस्तान का हिस्सा बनाकर मुस्लिम बहुल बनाना चाहते थे। जुल्फ़ीकार अली भुट्टो के अनुसार भारत और पाकिस्तान के बीच सिर्फ कश्मीर ही विवाद का विषय नहीं था बल्कि पूर्वी पाकिस्तान (वर्तमान में बांग्लादेश) के अंतर्गत असम भी विवाद का एक विषय था। इसके बाद आज़ादी के बाद नेहरू जी ने असम से एक हिस्सा अलग करके नागालैंड बनाया। इसके बाद इन्दिरा गांधी ने मेघालय, मिज़ोरम और अरुणाचल प्रदेश बनाए।
इस तरह पूर्वोत्तर में असम के टुकड़े होते गये और बंगलादेशी घुसपैठिए भारत की सीमा में प्रवेश करते रहे। एक तरफ विदेशी भारत में घुस रहे थे तो दूसरी तरफ भारतीयों का धर्मांतरण हो रहा था। इनमें ज़्यादातर दलित लोग थे। सत्ता के लालच में देश की चिंता न करके वोट बैंक की चिंता होती रही। अगर आंकड़ों की बात करें तो 1947 में पाकिस्तान में हिंदुओं की आबादी 37 प्रतिशत थी जो आज पाकिस्तान में 2 प्रतिशत और बांग्लादेश में 10 प्रतिशत रह गयी है। असम में 1971 तक हिंदुओं की आबादी 72 प्रतिशत थी जो अब घटकर 60 प्रतिशत रह गयी है। विभाजन के पूर्व 1941 में असम में 84.4 प्रतिशत हिन्दू एवं 13.38 प्रतिशत मुस्लिम थे। इसके बाद 1951 की गणना में 87.24 प्रतिशत हिन्दू एवं 10.43 प्रतिशत मुस्लिम आबादी रह गयी। विभाजन के समय मुस्लिम आबादी का पाकिस्तान में जाना इसकी वजह रही। 2011 में असम की मुस्लिम आबादी 34.22 प्रतिशत तक पहुंच गयी। ऐसे ही मुस्लिम आबादी में बढ़ोत्तरी बंगाल में भी देखी जा रही है। असम और बंगाल में मुस्लिम आबादी की यह बढ़ोत्तरी सिर्फ बांग्लादेश से घुसपैठ की वजह से है। इनमें से अधिकतर के पास वोट देने का अधिकार है। आधार कार्ड है। यह भारत की राजनीति की दिशा तय करने वाले बन चुके हैं। अब इस मुस्लिम वोट बैंक के साथ अगर दलित को जोड़ दिया जाये तो 50-100 सीटों पर यह वर्ग लोकसभा सीटों का चुनाव परिणाम प्रभावित करने का माद्दा रखता है। बस यहीं से खेल शुरू होता है दलितों को सवर्णों से अलग करने का। बंगाल में ममता, उत्तर प्रदेश में मायावती दलित और मुस्लिम तुष्टीकरण की सबसे ज़्यादा राजनीति करती हैं। दोनों को प्रधानमंत्री बनने के सपने आने लगे हैं। एक तरफ मायावती 2014 में एक भी सीट नहीं जीत सकी थीं वहीं दूसरी तरफ ममता गठबंधन में राहुल गांधी का नेतृत्व स्वीकार नहीं कर रही हैं। क्षेत्रीय दलों की राजनीति के बीच राष्ट्रहित का बंटाधार होता आया है।
दलित और सवर्ण के बीच गहरी होती खाई
अनुसूचित जाति-जनजाति (अत्याचार रोकथाम) संशोधन विधेयक की आड़ में एक अजीब सी राजनीतिक खींचतान मच चुकी है। दलित वोटबैंक को लुभाने के लिए भाजपा और अन्य दलों में होड़ मची हुयी है। दलित वोटों के इस खेल की शुरुआत विपक्षी दलों की तरफ से हुयी और स्वयं को स्थापित रखने की कोशिश में भाजपा इसमें उलझती चली गयी। इसे समझने के लिए 2014 के लोकसभा चुनावों को समझना होगा। उस दौरान देश में एक नये ‘हिन्दू वोट बैंक’ का जन्म हुआ था। इसके पहले हिंदुओं में बिखराव था। यह जातियों में विभाजित वोट बैंक माना जाता था। अलग अलग जातियों के नेता जिस दल से चुनाव मैदान में उतरते थे उनका वोट बैंक उस दल के साथ हो लेता था। धर्म के आधार पर मुस्लिम वोट बैंक एकजुट होकर मतदान करने वाला माना जाता रहा है। स्थानीय प्रत्याशी के आधार पर मुस्लिम वोट बैंक कांग्रेस, सपा या बसपा की तरफ अपना रुझान दिखाता रहा है। भाजपा से इस वोट बैंक की दूरी बनी रहती है। एक ओर मुस्लिम वोट बैंक संगठित रहा है और हिंदुओं का वोट जातियों में विभाजित रहा। फलस्वरूप, भाजपा को हार का सामना करना पड़ता रहा था। 2014 लोकसभा चुनावों में नरेद्र मोदी के जादुई व्यक्तित्व ने भाजपा के लिए एक संजीवनी का काम किया था और विभाजित रहने वाले वोट बैंक का एकीकरण हो गया। देश के युवाओं ने जाति से ऊपर उठकर मोदी को वोट दिया था। हालांकि, पचास वर्ष से ऊपर के लोगों का झुकाव तब भी अपनी परंपरागत पार्टी की तरफ ही रहा था। 2017 के उत्तर प्रदेश चुनावों में भी यही समीकरण काम आया। इस समीकरण ने सपा और बसपा जैसे दलों को लगभग साफ कर दिया।
लोकसभा चुनाव जीतने के बाद मोदी सरकार ने दलितों के उत्थान के लिए काम करना शुरू कर दिया। 2015 में अनुसूचित जाति-जनजाति के खिलाफ अत्याचार में आने वाले मामलों की संख्या जो पहले 22 थी उसे बढ़ाकर 47 कर दिया गया। इस वर्ग के लिए मोदी सरकार द्वारा अन्य भी बहुत से कदम उठाए गए। उज्जवला, जनधन जैसी अनेकों सरकारी योजनाओं का सबसे ज़्यादा लाभ दलित और वंचित तबके को ही मिला। इस तरह से धीरे धीरे दलित वर्ग भाजपा का वोट बैंक बनने की तरफ बढऩे लगा था। लगातार हार और दलित वोट बैंक के खिसकते जनाधार से मायावती तिलमिला गईं। सत्ता जाने के क्रम में सपा भी भाजपा विरोधी तेवर कड़े करने लगी। इसके बाद इन दलों को संजीवनी मिली उच्चतम न्यायालय के एक निर्णय से। उच्चतम न्यायालय ने अनुसूचित जाति-जनजाति अधिनियम में एक संशोधन कर दिया। न्यायालय ने दलील दी कि इसके अंतर्गत गिरफ्तारी के पहले पुलिस अधिकारी इस बात को सुनिश्चित कर ले कि प्रथम दृष्टया मामला बनता है या नहीं। इसके साथ ही न्यायालय ने गिरफ्तारी के पहले कुछ अन्य शर्तें भी लगा दी। न्यायालय का यह फैसला एक दायर याचिका पर आया था।
इसके बाद इस फैसले पर राजनीति शुरू कर दी गयी। दलित और पिछड़े वर्ग की राजनीति करने वाले दलों को इसमें राजनीतिक फायदा दिखने लगा। सपा-बसपा गठबंधन राजनीतिक रूप से मुखर होने लगा। कुछ गैर राजनीतिक संगठनों के द्वारा दलित समाज को बरगलाया जाने लगा कि मोदी सरकार आरक्षण खत्म करने की तरफ बढ़ रही है। इस दुष्प्रचार के बाद देश भर में इस पर राजनीतिक प्रतिक्रियाएं होने लगी। मोदी सरकार का सुनियोजित विरोध शुरू हो गया। 02 अप्रैल 2018 को एक विधिवत आंदोलन की घोषणा हुयी। देश भर में जगह जगह विरोध प्रदर्शन और हिंसा हुयी। इस दौरान कुछ मौतें भी हुईं। इस आंदोलन में बड़ी संख्या में अनुसूचित जाति-जनजाति के लोगों ने भाग लिया। इन लोगों से जब पूछा गया कि वह किस बात के लिए आंदोलन कर रहे हैं तो अधिकतर को यह पता नहीं था। वह तो सिर्फ आह्वान पर आंदोलन में शामिल हुये थे। जिनको आंदोलन की थोड़ी बहुत जानकारी थी उनके अनुसार मोदी सरकार आरक्षण खत्म करने जा रही है इसलिए वह लोग आंदोलन करने आए थे। अब यह भारतीय राजनीति में लोगों की अज्ञानता का फायदा उठाकर उनसे हिंसक आंदोलन करवाने का निकृष्टम स्वरूप था। जो विषय कहीं था ही नहीं उसको मुद्दा बनाकर देशव्यापी आंदोलन करा दिया गया। अपने वोट बैंक को वापस पाने के लिए क्षेत्रीय दलों द्वारा बेगुनाह लोगों को मरवा दिया गया।
इसके बाद भाजपा को जब ऐसा लगा कि जो हिन्दू वोट बैंक 2014 में उसकी जीत का आधार बना था वह विभाजित हो रहा है तो उसने उच्चतम न्यायालय के फैसले को बदलने के लिए विधेयक लाने का ऐलान कर दिया। विपक्षी दल तो शायद इस दांव के चलने का इंतज़ार ही कर रहे थे। जैसे ही भाजपा ने न्यायालय के फैसले को बदलने का विधेयक लाया वैसे ही भाजपा का कोर वोटर सवर्ण भड़क गया। सोशल मीडिया पर मुखर रहने वाला सवर्ण वर्ग भाजपा के इस फैसले का खुल कर विरोध करने लगा। आरएसएस के द्वारा आरक्षण पर पुनर्विचार का विषय उठाया जाता रहा है। सवर्ण वर्ग आरक्षण को खत्म करने या आर्थिक आधार पर करने की मांग भी लगातार उठाता रहा है। भाजपा के सामने अब इधर कुआं उधर खाई वाली स्थिति हो चुकी है। अगर वह विधेयक नहीं लाती तो दलित वर्ग पर उसकी पकड़ कमजोर हो रही थी और अगर वह विधेयक ले आई है तो स्वर्ण मतदाता वर्ग उससे नाराज़ हो रहा है। दलित की राजनीति तो पक्ष और विपक्ष दोनों कर रहे हैं। भाजपा हिंदुओं को एकजुट रखने के लिए दलित राजनीति कर रही है तो विपक्षी दल हिन्दुओं में विभाजन के इरादे से। देश में जिस तरह से भाजपा का विजयी रथ दौड़ रहा है उसके अनुसार विपक्षियों को मोदी को रोकने का एक ही चारा दिखता है कि किसी तरह से दलितों को मोदी से अलग कर दिया जाये ताकि मुस्लिम गठजोड़ के द्वारा विपक्षी सरकार बना सकें। गठबंधन की राह पर बार बार कदम बढ़ाते विपक्ष के द्वारा प्रयास होते तो दिखते हैं किन्तु उनके प्रयास परिनीति तक पहुंचते नहीं दिखते हैं। राज्यसभा के उपसभापति चुनावों में भी उनकी एकता के प्रयासों के फींके रंग को सार्वजनिक रूप से उजागर कर दिया है।
उपसभापति चुनावों में बिखरी विपक्षी एकता
संसद के मानसून सत्र के दौरान दो महत्वपूर्ण घटनाएं घटित हुयी जिसके द्वारा विपक्षी एकता एवं सत्ता पक्ष के बीच का राजनीतिक अंतर स्पष्ट तौर पर सामने आता दिखा। राज्यसभा के उपसभापति चुनाव में राजग के उम्मीदवार हरिवंश नारायण सिंह का जीतना एवं अविश्वास प्रस्ताव का औंधे मुंह गिरना मोदी सरकार की रणनीतिक कुशलता का प्रतीक बना। इन दोनों में जिस तरह से राजग के दल भाजपा के साथ मतभेद भुला कर वापस साथ आए और कांग्रेस के साथी उसके साथ न रहकर अलग थलग दिखाई दिये उसके द्वारा 2019 की भूमिका तय हो गयी।
बिहार में भाजपा और जदयू एक साथ सरकार चला रहे हैं पर खटपट की खबरें आती रहती हैं। राज्यसभा के उपसभापति चुनाव में भाजपा के द्वारा जदयू के सांसद हरिवंश नारायण सिंह को उम्मीदवार बनाया गया। इसके द्वारा दोनों दलों के बीच जो खटपट की खबरें आती रहती थीं उस पर विराम लग गया है। अब लोकसभा चुनावों में भाजपा और जदयू एक साथ चुनाव लड़ेंगी इसमें कोई संदेह नहीं रह गया है। 1977 के बाद पहली बार किसी गैर कांग्रेसी का राज्यसभा के उपसभापति पर निर्वाचित होना कांग्रेस के घटते राजनीतिक कद का एक और उदाहरण है। उपसभापति चुनाव के दौरान भाजपा के एक अन्य सहयोगी दल शिवसेना ने भी मतदान में भाग लिया और राजग उम्मीदवार को वोट दिया। इसके पहले अविश्वास प्रस्ताव के दौरान शिवसेना का मतदान में भाग लेना अटकलों को ज़ोर दे रहा था कि शायद 2019 में लोकसभा चुनावों में शिवसेना और भाजपा अलग अलग चुनाव लड़ सकती हैं। अब हरिवंश प्रसाद सिंह के सभापति बनने और शिवसेना के मतदान में भाग लेने से भाजपा ने एक तीर से दो शिकार कर लिए हैं। यह दोनों दल भाजपा को छोडंकर अब नहीं जा रहे हैं। इस चुनाव के दौरान अन्नादृमुक, टीआरएस और बीजद ने भाजपा का साथ दिया इसलिए इनके साथ भाजपा का तालमेल संतुलित होता दिख रहा है। वहीं दूसरी तरफ विपक्षी कांग्रेस को उसके सहयोगियों से भी सहयोग नहीं मिला। पीडीपी और आम आदमी पार्टी ने कांग्रेस का सहयोग नहीं किया। विपक्षी एकता को एक झटका चन्द्रशेखर राव ने भी दिया है। टीआरएस प्रमुख चन्द्रशेखर राव अब महागठबंधन के स्थान पर सत्ताधारी राजग का हिस्सा बन चुके हैं। उपसभापति के चुनाव में कांग्रेस उम्मीदवार हरिप्रसाद की हार ने कांग्रेस के महागठबंधन की कोशिशों को भी करारा झटका दे दिया है।
इसे समझने के लिए कुछ माह पूर्व की कर्नाटक की राजनीति की ओर लौटना होगा। कर्नाटक में भाजपा को सरकार बनाने से रोकने के बाद गठबंधन की प्रक्रिया तेज़ हो गयी थी। पर जिस तरह से कर्नाटक के मुख्यमंत्री कुमारसामी कांग्रेस के साथ गठबंधन करके घुटन महसूस कर रहे हैं उसके बाद अन्य दल भी कांग्रेस के साथ आने से कतराने लगे हैं। उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा गठबंधन में कांग्रेस को स्थान नहीं मिलने जा रहा है। अब एक बात तो स्पष्ट हो चुकी है कि सभी विपक्षी दल कांग्रेस का नेतृत्व स्वीकार करने को तैयार नहीं है। ममता बनर्जी खुद को पीएम का दावेदार मानती हैं। मायावती भी कांग्रेस के नेतृत्व के अधीन आने को तैयार नहीं है। अखिलेश यादव भी कह चुके हैं कि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के पास कोई बड़ा नेता मौजूद नहीं है इसलिए वह गठबंधन की सबसे कमजोर कड़ी है। नवंबर में होने जा रहे तीन विधानसभा चुनावों में बसपा चुनाव लडऩे का मन बना चुकी है। इन तीनों राज्यों में कांग्रेस और बसपा के गठबंधन की कोशिश तो चल रही हैं किन्तु मायावती सिर्फ अपनी शर्तों पर गठबंधन चाहती हैं। ऐसे में कांग्रेस से तालमेल बैठता फिलहाल नहीं दिख रहा है। कांग्रेस के साथ मजबूरी है कि राजस्थान को छोड़कर किसी भी प्रदेश में उसके पास मजबूत कैडर नहीं है। वह केंद्र की राजनीति के अनुसार तो बड़ा दल दिखती हैं किन्तु राज्यों में उसका जनाधार खिसक चुका है। विपक्षी एकता की कोशिश करने पर मोदी विरोधी दल भी कांग्रेस के साथ गठबंधन करने एवं राहुल गांधी का नेतृत्व स्वीकारने से कतरा रहे हैं। इन सबके बीच मोदी मण्डल और कमंडल के संयुक्त गठबंधन के द्वारा हिन्दू वोट बैंक एक जुट रखने में लगातार प्रयासरत हैं।
2004 से सबक लेकर मण्डल-कमंडल के फेर में मोदी
राजीव गांधी 1984 में तीन चौथाई बहुमत के साथ सत्ता में आए थे तो उसके तीस साल बाद 2014 में नरेंद्र मोदी ने लगभग दो तिहाई बहुमत प्राप्त किया। राजीव गांधी ने शाहबानो प्रकरण में उच्चतम न्यायालय का फैसला कानून बनाकर पलट दिया तो नरेंद्र मोदी ने एससीएसटी एक्ट का उच्चतम न्यायालय का फैसला कानून बनाकर पलट दिया है। शाहबानो प्रकरण के बाद राजीव गांधी मुस्लिम वोटबैंक के प्रति आश्वस्त थे और हिन्दू वोट पाने के लिए उन्होंने राम मंदिर के ताले खुलवा दिये। एससीएसटी संशोधन के बाद मोदी दलित वोटों के प्रति आश्वस्त हैं और सवर्ण वर्ग को मनाने में लगे हैं। राजीव गांधी और मोदी दोनों ने उच्चतम न्यायालय के फैसले को वोट के कारण पलटा। राजीव गांधी को अपने अगले चुनावों में हार देखनी पड़ी थी। उनके बाद सत्ता में आए वीपी सिंह ने मण्डल कमीशन की सिफ़ारिश लागू करके आरक्षण का आगाज कर दिया था। राम मंदिर के लिए रथयात्रा करके आडवाणी ने अपने हाथ में कमंडल ले लिया तो वीपी सिंह मण्डल के जरिये राजनीतिक रोटियां सेंकते रहे।
नब्बे के दशक में भारत की राजनीति में मण्डल और कमंडल का उदय हुआ। वर्तमान में मोदी मण्डल और कमंडल दोनों को साथ लेकर चल रहे हैं। वह हिन्दू वोटबैंक को एक रखने के लिए मण्डल की राजनीति खुल कर कर रहे हैं। वह दलित और पिछड़ों को भाजपा से अलग नहीं करना चाहते हैं। सवर्णों को साधने के लिए 15 प्रतिशत आरक्षण का कार्ड वह चल चुके हैं। मोदी 2004 में अटल जी के कार्यकाल में की गयी उस गलती को नहीं दोहराना चाहते हैं जब पांच साल बेहतर कार्य करने के बावजूद ताबूत घोटाले के आरोपों के कारण अटल सरकार की किरकिरी हुयी थी और सत्ता दोबारा हाथों में आने से रह गयी थी। वर्तमान में राफेल के मुद्दे को उसी तरह बना कर दिखाये जाने की कवायद चल रही है। सरकार को भ्रष्टाचार के मुद्दे पर घेरने की पूरी कोशिश की जा रही है। सरकार और विपक्ष के द्वारा अब सब तरह के समीकरण साधे जा रहे हैं। मानसून सत्र में इसकी पूरी बानगी दिखाई दी। इस बार मानसून सत्र की खास बात रही कि पिछले बीस सालों में संसद में सबसे ज़्यादा काम हुआ। पिछले कुछ सत्रों में संसद को बाधित करने वाला विपक्ष इस बार मुखर तो रहा पर उसने संसद को चलने दिया। विपक्ष की कमी यह रही कि वह मानसून सत्र के दौरान सरकार को घेरने के लिए पूरी लामबंदी नहीं कर पाया। आरक्षण और दलित संशोधन पर सड़क पर राजनीति के द्वारा तो भाजपा कुछ घिरती नजऱ आई किन्तु संसद में अविश्वास प्रस्ताव की मूर्खतापूर्ण पहल कांग्रेस एवं अन्य विपक्षियों की भूल साबित हुयी। चारों तरफ घिर रही भाजपा को एक बड़ी संजीवनी मिल गयी। अगले कुछ माह में राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में चुनाव हैं। विपक्ष सरकार को महंगाई, हिंसा, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, दलित उत्पीडऩ जैसे मुद्दों पर घेरना चाहता था। यह सब वह विषय हैं जिनसे चुनाव प्रभावित होते हैं। पर इन विषयों पर नेतृत्वहीन विपक्ष चूक गया। वह कांग्रेस के द्वारा लाये गये अविश्वास प्रस्ताव में ऐसा उलझा कि ये मुद्दे गौण हो गये। विपक्ष के आंकलन के प्रतिकूल सरकार द्वारा अविश्वास प्रस्ताव पर दो दिन के अंदर चर्चा एवं वोटिंग करा दी गयी। इसके बाद मोदी सरकार को दलित विरोधी दिखाने के प्रयास में लगे विपक्ष को भाजपा ने दलित कानून में संशोधन करके एक और बड़ा झटका दे दिया।
भाजपा ने विपक्ष के दांव को खारिज करने के क्रम में अपने कोर वोटर सवर्ण को भी दांव पर लगा दिया। अब अटल जी की अस्थियां सभी नदियों में प्रवाहित करके भावनात्मक माहौल बनाया जा रहा है। चूंकि अभी विपक्ष लाचार है और नेतृत्व विहीन है। ऐसे में भाजपा किसी भी प्रकार का जोखिम लेना नहीं चाहती है। 2004 में अटल जी की सरकार सिर्फ रणनीतिक भूल के कारण वापस नहीं आ पायी थी। इंडिया शाइनिंग के नारे से हवा में तो माहौल बहुत बन गया था किन्तु ज़मीन पर वोट समीकरण नहीं साधे गये थे। इस बार ऐसा नहीं हो रहा है। इस बार नारे भी हैं और समीकरण भी। विपक्ष की हर चाल का जवाब भी है और सरकार के आक्रामक तेवर भी। किसान और गांव की बात भी है और भावनात्मक माहौल भी। पूरा मंच तैयार है। इवेंट की तरह भाजपा मोदी जी की किसान रैलियां पूरे भारत में करने की तैयारी कर रही है। उत्तर प्रदेश में इसका प्रयोग किया जा चुका है। बड़े बड़े नेताओं को मंच पर लाकर हताश कार्यकर्ताओं में जोश भरा जा रहा है। अटल जी का भावनात्मक पक्ष इसमें काफी मददगार साबित हो रहा है। जिस तरह की परिस्थितियां बन रही है उसके अनुसार भाजपा के द्वारा तीन राज्यों के साथ ही लोकसभा चुनाव की एक रूपरेखा बनती दिख रही है।
मोदी के सामने भावी चुनौतियां
कमजोर विपक्ष और संसद में मोदी की जीत 2019 की जीत का केवल आधार नहीं होने जा रहा है। एससीएसटी एक्ट के बाद उपजा सवर्णों का गुस्सा अटल जी के भावनात्मक पक्ष के बाद भी ठंडा नहीं हुआ है। सवर्ण अटल जी को भावपूर्ण श्रृद्धांजलि तो दे रहे हैं किन्तु इस मुद्दे को ठंडा नहीं होने दे रहे हैं। चूंकि, इस कानून के द्वारा पिछड़ा, मुस्लिम भी प्रभावित होगा इसलिए दबी ज़ुबान में वह भी इस मुद्दे पर सवर्णों के साथ है। एक आंकड़े के अनुसार हरिजन एक्ट में 70 प्रतिशत पिछड़े वर्ग के लोग इसका शिकार होते हैं। इनमें एक बड़ा तबका वह होता है जो धन के अभाव में जमानत भी नहीं करा पाता है और जेलों में सड़ता है। अगर भविष्य में ऐसा कोई भी प्रकरण सामने आता है तो भाजपा के लिए यह किरकिरी कराने वाला होने जा रहा है। जिस भी गांव में वह प्रकरण होगा वह पूरा का पूरा गांव भाजपा विरोधी मानसिकता का बन सकता है। वहां मोदी एक खलनायक के रूप में दिखाई देंगे। ऐसे में भाजपा के लिए अपने कोर वोटर को एकजुट रखना भी एक बड़ी चुनौती होगी।
भाजपा के लिए दूसरी चिंता का विषय बाहरी दलित नेताओं की मजबूत पकड़ है। भाजपा के थिंकटैंक में रामविलास पासवान और रामदास अठावले जैसे दलित नेता ज़्यादा असर रख रहे हैं। भाजपा के अंदर के दलित नेता इतने सक्षम एवं राजनीतिक ज्ञानी नहीं दिख रहे हैं जो आगे बढ़कर दलित कानून को जनता के बीच ले जाकर उसका राजनीतिक पक्ष समझा पाये। सांसद एवं मंत्री होने के बावजूद भाजपा के दलित नेता खुद की सीट बचाने और रक्षात्मक मुद्रा में ज़्यादा दिख रहे हैं। चूंकि प्रधानमंत्री के रूप में मोदी पिछड़े वर्ग से हैं और राष्ट्रपति के रूप में रामनाथ कोविन्द दलित वर्ग से, इसलिए देश पर लंबे समय तक राज करने वाले ब्राह्मण वर्ग के अंदर उपेक्षा का भाव तो है ही। सोशल मीडिया पर यह उपेक्षा का भाव और इससे उपजी मुखरता लगातार दिखाई दे रही है। भाजपा को अब अपने दांव को उल्टा पडऩे से बचाना है। महाभारत काल में सुदर्शन चक्र कृष्ण का हथियार था।
सोशल मीडिया आज तक भाजपा के लिए सुदर्शन चक्र के रूप में ही था। अब भाजपा को इस बात को सुनिश्चित करना है कि कहीं सुदर्शन चक्र का प्रहार उल्टा न पड़ जाये। क्योंकि सवर्ण सिर्फ एक वोट का मालिक नहीं होता है। वह एक बड़े वर्ग को प्रभावित करने की क्षमता भी रखता है।
आरक्षण : राष्ट्रीय दलों ने पनपाया, क्षेत्रीय दलों ने भुनाया
जातिगत आरक्षण भारत देश के लिये अभिशाप है। आरक्षण यदि भारत में होना चाहिये तो वह आर्थिक आधार पर हो। इससे किसी को इन्कार भी न होगा और समाज में जातिगत घृणा का राजनीतिक खेल भी समाप्त हो जायेगा। परन्तु यह समझने की बात है कि जातिगत आरक्षण भारत के दलितों का तो आज़ादी के 72 वर्षों बाद भी कल्याण न कर पाया परन्तु इसके आरक्षण से कई नेता सत्ता प्राप्त कर विधायक, सांसद, मंत्री, प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति बन अपना कल्याण जरूर कर लिये हैं। आज एससी/एसटी एक्ट पर सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को (बिना जांच के गिरफ्तार कर किसी को जेल न भेजा जाये) सत्ता और जातिवादी वोटबैंक के खिलाडिय़ों ने संसद में मिलजुल कर बदल दिया। और तो और हिंदुत्ववादी सरकार ने भी जातिवादी गणित के खेल में सम्मिलित होते हुए दलितों के वोटबैंक के आगे घुटने टेक दिये और आनन फानन में कानून लाकर एक्ट में संशोधन कर दिया। अब बिना जांच के ही जिसपर एससी/एसटी का आरोप भर लग गया, भले ही झूठा ही क्यों न हो वो सीधे जेल जायेगा। जातियों का यह तुष्टीकरण यदि हिंदुत्व की बात करने वाली पार्टी भी करने लगे तो हम सबको थोड़ी बुद्धि का प्रयोग कर यह मान लेना चाहिये कि इस देश में सारी पार्टियों के लिए जनता मात्र वोटबैंक की भेड़ें है और जाति धर्म की भावना का उन्माद इनकी राजनीतिक छड़ी। ये इसी उन्मादी छड़ी से वोटबैंक को हांक कर अपने अपने खेमे में ले जाकर सत्ता प्राप्त करते हैं। जाति धर्म की राजनीति के खेल की आड़ में ही यह नेता, पार्टियां, ब्यूरोक्रेट्स और बड़े बड़े देशी विदेशी कॉर्पोरेट आपस में मिलकर भारत के अमूल्य संसाधनों की जमकर लूट कर बंदरबांट करते हैं। इसकी वजह से ही देश में सारी मूलभूत समस्याएं जैसे शिक्षा, चिकित्सा, कृषि, बिजली, पानी, रोजगार, गरीबी, बलात्कार, भ्रष्टाचार जस की तस कायम हैं। यह समस्याएं ढकी छुपी रहे इसीलिए जाति धर्म के नाम पर, हिन्दू मुस्लिम के नाम पर, आरक्षण, एससी/एसटी के नाम पर समाज में जमकर घृणा फैलाई जा रही है।
देश में यदि आरक्षण हो तो आर्थिक आधार पर आरक्षण का प्रावधान हो जिससे देश में जाति के नाम पर वैमनस्यता न फैले और न इसको फैलाकर कोई नेता या राजनैतिक पार्टी इसका फायदा उठाये, और यदि सही समय रहते हमने कदम न उठाया और नेताओं की चाल में फंसते रहे तो जाति और धर्म की घृणा का ऐसा ज्वार आयेगा जिससे भारत और भारत में जनमानस की भीषण हानि होगी और आने वाली पीढिय़ां हमें कभी माफ़ नहीं करेंगी। आगे प्रश्न यह भी उठता है कि भारत की राजनीति दलित और ओबीसी और मुस्लिम आधारित ही क्यों चल रही है? पिछले यदि 3 दशकों की राजनीति की बात की जाये तब से इस देश को जाति धर्म की राजनीति में बांटने का सुनियोजित षड्यंत्र चल रहा है और अब यह षड्यंत्र सत्ता प्राप्ति का बड़ा यंत्र बन गया है। बस आप जातिगत आंकड़े के घृणा के गणित में महारथ हासिल कर लीजिये जिसकी पीएचडी जयप्रकाश नारायण के समाजवाद आंदोलन से निकले लालू और मुलायम ने की। पिछड़ों या यूं कहूं जाति विशेष और धर्म विशेष की राजनीति का सत्ता प्राप्ति के लिए गणित का फार्मूला स्थापित किया। विशेष जाति और विशेष धर्म के असमाजवादी आंकड़ों के गठजोड़ कर ज़ोर ज़ोर चिल्ला पता नहीं कौन से समाजवाद का समाजवादी नारा दिया गया। इस गणित से समाजवाद आया हो या नहीं, पर इन नेताओं को सत्ता का सुख विशेष जाति और विशेष धर्म के समाजवादी गणित के सटीक फलन से खूब मिला। इतना मिला कि समाजवाद राजा के वंशवाद में कब स्थापित हो गया जनता को पता ही नहीं चला और लोहिया के चेलों का समाजवाद मात्र एक जाति विशेष और धर्म विशेष के वोटबैंक के तुष्टीकरण के द्वारा स्वयंवाद में बदल गया। अब इससे समाज और जनता को सुख मिला हो या नहीं, पर नेताजी का पूरा कुनबा सुख प्राप्त कर गया। कोई नहीं बचा जो एमएलए, एमपी न बना हो दूर दराज के रिश्तेदार भी ग्राम प्रधान तो बन ही गये।
ऐसे ही जातिगत घृणा के आरक्षण के द्वारा सत्ता प्राप्ति के एक मण्डल कमीशन के गणित के सूत्र की स्थापना हुई, उस राजनीतिक घृणा के गणित के सूत्र ने सैंकड़ों युवाओं को लील लिया। आरक्षण का लाभ किसी को मिला हों या नहीं पर हाशिए पर पड़े वीपी सिंह जैसे नेता को प्रधानमंत्री का सुख तो मिल ही गया था। इधर जातिगत राजनीति और सामाजिक विद्वेष को बढ़ावा दे सत्ता प्राप्ति का सबसे बढिय़ा गणित का सूत्र दलितों के मसीहा काशीराम जी द्वारा दिया गया और इस सूत्र का एक नारा भी दिया गया ‘तिलक तराजू और तलवार इनके मारो जूते चार’। जब इस जातिगत घृणा आधारित गणित का सूत्र फलित हुआ तो दलितों की देवी प्रकट हुई और उन्होंने अपने को देवी घोषित करते हुये सभी देवी देवताओं की पूजा बंद करा दी और सनातन धर्म व मनुवाद को दलित समाज से खारिज करा दिया और दलितों के हक की एक लड़ाई देवी जी के नेतृत्व में शुरू हो गई। इस लड़ाई में बेचारे गरीब मजदूर दलित विजय हुये हों या न हुए हों पर माया की देवी मायावी की तरह से विजय प्राप्त करने लगी। इस दलितों की मसीहा देवी के दौलत के भव्य महल में बन्धु बान्धवों और साथी नेताओं के साथ बनने लगे। जीते जी स्वयं की ही आलीशान प्रतिमायें लगने लगी। उधर दलित आज भी मेहनत मजदूरी भूख और लाचारी में जीता हुआ इस बात का जश्न मना रहा था कि मनुवादियों के महलों को ढहा के अब उनकी दलितों की देवी के सत्ता के सुख के आलीशान महल बनने लगे। इस अगड़े पिछड़ों की सिर्फ सत्ता प्राप्ति की घृणित राजनीति और घृणित राजनीतिक मानसिकता का शब्द ‘मूलनिवासी’ दलित अतिपिछड़ों जो कि अब अपने को हिन्दू नहीं मानते और हिन्दू के बीच समाज को बांटने का कार्य आजकल जोरशोर से चल रहा है। अब इससे फायदा दलित जनता को तो नहीं बल्कि केवल भ्रष्ट नेताओं को ही हो रहा है जो सत्ता सुख के लिए बसपा में रहते हुये जय भीम का नारा लगा मूलनिवासियों की हक की बात मंचों से करते थे परंतु जैसे ही सत्ता का सिंहासन बदला भाजपा के पाले में खड़े हो गये और आरएसएस और मनुवादियों के गुणगान और चरण वंदना कर गर्व से जय श्रीराम कहने लगे। न जाने कितने बसपा नेता हैं जो बसपा के गुलाम वोट बैंक, जो जीत की गारंटी थे, के चक्कर में करोड़ों के चुनावी टिकट खरीदते थे। वह अब भाजपा के टिकट के लिए मनुवादियों की गुलामी स्वीकार कर रहे हैं।
बसपा का तो जगजाहिर है उसकी राजनीति अगड़ों खासतौर से ब्राह्मणों के खिलाफ जहर भरकर चमकी थी परन्तु अब वो वोट के लिए ब्राह्मणों के चक्कर लगा रही है और रही बात सपा की तो यादव मुस्लिम राजनीति का जातिगत गठजोड़ बार बार सत्ता दिला देता है। यही सब जाति धर्म व घृणा की राजनीति वर्षों से कांग्रेस भी करती चली आयी है। जबकि बसपा जिस मनुवाद, मनुवादी संस्कृति और ब्राह्मणों को गाली देती चली आई है वही मनुस्मृति का श्लोक क्या कहता है वर्ण व्यवस्था और मनु महाराज का मूल भाव क्या है उसे आप निम्न श्लोकों से समझ सकते हैं।
जन्मना जायते शूद्र: संस्कारात् भवेत् द्विज:।
वेद-पाठात् भवेत् विप्र: ब्रह्म जानातीति ब्राह्मण: ।
जन्म से मनुष्य शुद्र, संस्कार से द्विज, वेद के पठन-पाठन से विप्र और जो ब्रह्म को जानता है वो ब्राह्मण कहलाता है। इस तरह यह बात प्रमाणित हो जाती है कि ‘वर्ण व्यवस्था’ यानि जाति व्यवस्था का जन्म से कोई सम्बन्ध नहीं। इसका मतलब मनुवाद का विरोध कर मायावती जी ने केवल दलित और अगड़ों में वैमनस्यता का ध्रुवीकरण करा वोट हासिल किये और सत्ता सुख प्राप्त करती रहीं। जातिगत आरक्षण को समाप्त करने के लिये राष्ट्रवादी बुद्धिजीवी समाज को अपने आपको राजनैतिक रूप से मजबूत करने के लिये आगे आना पड़ेगा। देश की विधानसभाओं और संसद में सच्चे ईमानदार क्रान्तिवीर नेतृत्व पहुंचे जो अपनी भारत मां को इन दुष्ट-भ्रष्ट गोरे अंग्रेजो की वंशवादी व्यवस्था के पोषक काले अंग्रेजो से आज़ादी दिला सके। आज के युग के महान क्रांतिकारी बलिदानी राजीव दीक्षित जी के शब्दो में सम्पूर्ण व्यवस्था परिवर्तन के लिए ‘राजनैतिक क्रांति’ करनी होगी। आरक्षण जैसे संवेदनशील विषयों से सत्ता प्राप्त करने वालों को हटाना होगा। राजनीति में आई इस अशुद्धि को दूर करने के लिए अब राजनीति की बुद्धि-शुद्धि की आवश्यकता है। क्षेत्रीय और राष्ट्रीय दलों के द्वारा जिस तरह राजनीति का घृणित स्वरूप बना दिया गया है उसके लिए अब देश को नयी राजनैतिक क्रान्ति की शुरुआत कर देनी चाहिए। (लेखक राष्ट्रवादी चिंतक एवं विचारक हैं।)
– अशित पाठक
एससी-एसटी एक्ट का विरोध विपक्षियों की सोची समझी चाल
मेरा बहुत पहले से मानना रहा कि जिस प्रकार सेक्युलरिज्म का अर्थ हिन्दू विरोध और अल्पसंख्यक परस्ती नहीं हो सकता उसी प्रकार दलितों की चिंता सवर्णों का विरोध नहीं हो सकता। भारत में ऐसे बहुत से कानून हैं जिनमें जो सहूलियतें आम तौर पर उपलब्ध हैं वे सहूलियतें तब उपलब्ध नहीं हैं जबकि अपराध दलित, स्त्री, बच्चे या राष्ट्र के विरुद्ध किया जाये और ऐसा किया जाना संविधान के विभिन्न अनुच्छेदों से समर्थित होकर विधिसम्मत भी है। इसलिए जहां तक एससी-एसटी एक्ट में संशोधन का सवाल है तो इसमें भी प्रक्रिया को पूर्ववत रखा गया है अर्थात जिस प्रकार पहले कुछ विशेष अपराध जिनमें पुलिस को हस्तक्षेप की ताकत नहीं होती उन्हें छोड़कर शेष सभी अपराधों में जिस प्रकार एफ़आईआर लिखते ही व्यक्ति की गिरफ्तारी हो जाती है वैसे ही इसमें भी हो जायेगी। जैसे सामान्य अपराधों में जमानत होती है वैसे ही इसमें भी हो जायेगी। इसके अलावा जहां तक आरक्षण की बात है तो आज जब सभी दल और व्यवस्थाएं आरक्षण के पक्ष में हैं तो फिर उसे खत्म करने की अपेक्षा सिर्फ भाजपा से क्यों?
जहां तक इस एक्ट के झूठा लगने का सवाल है तो हत्या, बलात्कार, चोरी, डकैती सभी अपराध झूठ लिख भी रहे हैं और लोग निर्दोष होते हुए भी आजीवन कारावास और मृत्यु दंड जैसी सजाएं भी पा रहे हैं लेकिन फिर भी समाज के विस्तृत हित को देखते हुए हम इन कानूनों को खत्म करने की मांग नहीं करते तो फिर आखिर सिर्फ 5 वर्ष की सजा का प्रावधान करने वाले एससी/एसटी एक्ट का दुरुपयोग होने के आधार पर विरोध क्यों? और फिर चलिये इसे खत्म भी कर देते हैं तो क्या जिस दलित को सवर्ण पर झूठा मुकदमा ही लिखाना होगा क्या वो इस एक्ट के खत्म होने पर किसी और कानून के तहत झूठा मुकदमा नहीं लिखा पायेगा? अत: बंधु जरा विचार करें कहीं आप आरक्षण अथवा एससी-एसटी एक्ट के कारण अन्याय होने के नाम पर अपने ही समाज के दलितों का विरोध तो नहीं कर रहे हैं? शेष जो इस मुद्दे पर भाजपा विरोध की राजनीति कर रहे हैं उन्हें तो ये करना ही है क्योंकि वे तो भाजपा को सत्तासीन देख ही नहीं सकते। उनके लिए तो ये बहाना न होता तो कोई और बहाना होता।
सर्वविदित तथ्य है कि बलात्कार से संबंधित कानून का जमकर दुरुपयोग भी होता है और इसके दुरुपयोग के कारण अनेकों व्यक्ति निर्दोष होते हुए न सिर्फ जेल जाते हैं बल्कि सिर्फ और सिर्फ स्वयं को बलात्कार से पीडि़त कहने वाली महिला के कहने मात्र पर सजा भी पाते हैं। इसके बाद भी समाज का प्रत्येक वर्ग बलात्कार के खिलाफ कानून को और भी ज्यादा कठोर बनाने की मांग करता रहता है, क्योंकि हमारी मान्यता ये है कि अगर कुछ लोगों को गलत सजा से बचाने के लिए कानून में ढील दी गई तो वे निर्दोष लोग सजा से भले ही बच जाएं लेकिन हजारों निर्दोष स्त्रियों का जीवन खतरे में पड़ जायेगा। ठीक यही स्थिति हत्या, डकैती, दहेज हत्या आदि के संबंध में है। इन सभी अपराधों की दशा में आरोपी को बिना किसी जांच के न सिर्फ गिरफ्तार किया जाता है बल्कि निर्दोष होते हुए भी कई बार सजा भी दी जाती है लेकिन फिर भी संवाद के सभी माध्यम इन अपराधों की दशा में कठोर कानून की हिमायत में भरे रहते हैं। फिर आखिर एससी-एसटी एक्ट में ऐसा क्या खास है कि मात्र 5 वर्ष की सजा का प्रावधान करने वाला ये अधिनियम अगर तत्काल गिरफ्तारी का प्रावधान कर दे तो लोग इस एक्ट के झूठा लिखने के आधार पर न सिर्फ आसमान सर पर उठा लें बल्कि समाज में इस प्रकार के नैरेटिव को निर्मित करने का प्रयास करें कि मानो इस एक्ट में एक भी रिपोर्ट सही लिखी ही नहीं और आज तक इस एक्ट का सिर्फ दुरुपयोग ही हुआ है। ऐसा तो नहीं कि इस एक्ट के दुरुपयोग का जो तर्क इसके विरोधियों द्वारा दिया जा रहा है वो वास्तव में सिर्फ इसलिए दिया जा रहा है कि इस एक्ट की धार खत्म हो जाने पर वे धड़ल्ले से दलित उत्पीडऩ कर सकें, क्योंकि दुरुपयोग तो सभी कानूनों का हो रहा है तो फिर सभी कानूनों को खत्म करने की मांग क्यों नही?
-आशीष त्रिपाठी (एड.) दक्षिणपंथ बनाम दक्षिणपंथ हो सकती है भविष्य की राजनीति
वर्तमान में कांग्रेस और वाम मोर्चा इतना बिखर चुका है कि हर तरफ सिर्फ दक्षिणपंथ ही नजऱ आ रहा है। सेकुलर मोर्चे का अस्तित्व नदारद है। अब दक्षिणपंथ को कहीं से कोई चुनौती मिल रही है तो वह स्वयं दक्षिणपंथ के अंदुरुनी लोगों से। 2019 में अगर मोदी की सत्ता में वापसी होती है तो आगे आने वाले चुनाव दक्षिण पंथ बनाम दक्षिण पंथ ही होंगे। देश में न कोई सेकुलर मोर्चा होगा और न ही वामपंथ। न क्षेत्रीय दलों का अस्तित्व होगा न जाति आधारित वोट बैंक का। मोर्चे पर एक तरफ दक्षिणपंथी होंगे तो दूसरी तरफ कट्टर दक्षिणपंथी। यह एक नए तरह की राजनीति होगी। एक नए युग की शुरुआत होगी। एक नए आर्यावर्त का उदय होगा।
भाजपा में जिस तरह से मोदी लगातार मजबूत होते जा रहे हैं उसमें कई परंपरागत कद्दावर भाजपा नेता साइड लाइन होते जा रहे हैं। राजनाथ सिंह, सुषमा स्वराज, अरुण जेटली जो कभी भाजपा के अंदर एक बड़ी हैसियत रखते थे आज मोदी की नीतियों पर चलने को मजबूर हैं। कट्टर हिंदूवादी नेता प्रवीण तोगडिय़ा अपनी अलग ताल ठोक रहे हैं। भाजपा संगठन से जुड़े पुराने कट्टर भाजपाई या तो अब किनारे लगा दिये गये हैं या राज्यपाल बना कर सक्रिय राजनीति से बाहर कर दिये गये हैं। अब नयी भाजपा में मोदी के करीबी और ‘येसमैन’ बढ़ते जा रहे हैं। बाहरी दलों से लगातार कार्यकर्ता, प्रत्याशी और जातीय नेता भाजपा में आकर पवित्र होते जा रहे हैं। एक और भाजपा के कुनबे में नये शिशु बढ़ते जा रहे हैं वहीं पुराने कद्दावर धीरे धीरे किनारे होते हुये घुटन महसूस कर रहे हैं। चूंकि, इस समय वर्तमान में भाजपा का सत्ता का ग्राफ काफी ऊंचा है और इस समय कोई भी आवाज़ उठाने की स्थिति में नहीं है तो 2019 में भाजपा को कोई राजनीतिक खतरा नहीं दिखाई देता है। संयुक्त विपक्ष की हवा निकलनी भी लगभग तय है। 2019 में जीत के बाद मोदी का कद बहुत ऊंचा हो सकता है। ऐसी परिस्थिति में 2024 आते आते मोदी को चुनौती अपने ही भीतर की कट्टरवादी ताकतों से मिलेगी। यह एक नयी तरह की राजनीति होगी। एक अजीब परिदृश्य होगा जिसमें दक्षिणपंथ को चुनौती देने के लिए विपक्ष में दक्षिणपंथ होगा कोई सेकुलर या वाममोर्चा नहीं। (लेखक स्तंभकार हैं।)
– अमित त्यागी
बाल्मीकी, अंबेडकर आरक्षण के द्वारा महान नहीं बने
भारत के विकास में महज कुछ लोग रोड़ा पैदा कर रहे हैं। आरक्षण के नाम पर लगातार भारत की छवि को धूमिल करने वाले नेताओं का क्या यही दायित्व बनता है? लगातार अपने बच्चों को आरक्षण का पाठ पढ़ाने वाले उनको आगे बढ़ाने का कोई ज्ञान क्यों नही दे पा रहे हैं? क्या इस प्रकार हिंदुस्तान आगे बढ़ेगा? समाज में एक से बढ़कर एक ज्ञानी मौजूद हैं परन्तु आरक्षण के कारण भारत गर्त में जा रहा है। हर जाति में बुद्धिजीवी लोग होते आए हैं। बाल्मीकि, रहीम, विवेकानंद, बाबा अम्बेडकर, रैदास आरक्षण के कारण सम्माननीय नहीं हुये। बाल्मीकि ने ऐसा ग्रन्थ लिखा जिसे सभी मानते हैं। बाबा साहब ने पूरे भारतवर्ष को एक ऐसा संविधान दिया जिससे हर वर्ग को फायदा हुआ परन्तु उनके नाम पर जिसे राजनैतिक कुर्सी जिसे मिली उन्होंने केवल वोट बैंक की राजनीति ही की। आरक्षण से पद पाये व्यक्तियों के लिए एक ही कहावत सटीक बैठती है, अगर शेर की खाल गीदड़ पहन ले तो भी वह ज्यादा समय तक शेर जैसा साहस नहीं दिखा सकता है।
आरक्षण विष से भी ज़्यादा खतरनाक है। बाबासाहेब अंबेडकर ने निर्बल गरीब असहाय लोगों को विकास की मुख्यधारा में लाने के लिए मात्र दस साल की पैरवी की थी परंतु राजनीतिक दिग्गज इसको खत्म करने का नाम नहीं ले पा रहे हैं। सबसे बड़ी विडंबना देखिए कि जिन लोगों को आरक्षण मिला है अर्थात आरक्षण का लाभ मिल रहा है वे अपने बच्चों को केवल आरक्षण तक ही सीमित रखना चाहते हैं। उन्हें खुले आसमान में उडऩे क्यों नहीं देना चाहते हैं । वे लोग अपने बच्चों से कहते हैं कि बेटा केवल एग्जाम देने चले जाओ। तुम्हारा नाम तो आ ही जाएगा। ये लोग अपने बच्चों को सौ में सौ लाने के लिए प्रेरित क्यों नहीं करते? ऐसे लोग बच्चे की सोचने की क्षमता को क्यों नहीं बढऩे दे रहे हैं। अगर मेहनत के बाद आरक्षण का लाभ मिल जाएगा तो अच्छी बात है लेकिन उसके दिमाग में एक ही बात क्यों बैठा देते हैं। बार-बार दलित कहकर अपने बच्चे की क्षमता का गला क्यों घोट रहे हैं। शर्म आती है ऐसे अभिभावकों पर। बाबासाहेब अंबेडकर को सभी भगवान मानते हैं और जब भगवान ने दस साल के लिए आरक्षण को सही समझा तब आप लोग बाबा साहब की आत्मा को शांति नहीं लेने दे रहे हैं। गर्व होता है बाल्मीकि पर, गर्व है भगवान गौतम बुद्ध पर, गर्व है बाबा साहब अंबेडकर पर, गर्व है संत रैदास पर जिन्होंने कोई भी आरक्षण का लाभ नहीं लिया परंतु आज उन्हें पूरा विश्व सलाम करता है। कोई भी दलित सामने आकर यह नहीं कहता है कि मुझे आरक्षण नहीं चाहिए जबकि सही मायने में यह भीख है। जो निकम्मे हैं वही भिखारी होते हैं और वही दूसरे के सामने हाथ फैलाते हैं। कर्मठ व्यक्ति अपने स्वाभिमान के साथ कभी समझौता नहीं करता है और अपने कार्य पर विश्वास रखता है। बाबा साहब अंबेडकर के दस साल के लिए आरक्षण पर राजनीतिक पार्टियां अमल क्यों नहीं कर रही है? राजनीतिक पार्टियों को तो अपनी रोटी सेंकनी है लेकिन जनता को तो अब खेल समझना चाहिए।
-अनुज मिश्र (लेखक शिक्षाविद एवं पत्रकार हैं)
अखिलेश का होटल
समाजवाद और राष्ट्रवाद की लखनवी नूराकुश्ती
लखनऊ के हजरतगंज जैसे अत्यधिक महंगे वीवीआइपी और उच्च-सुरक्षा-क्षेत्र में स्थित 23,000 वर्गफुट का विशाल भूखंड 1ए, विक्रमादित्य मार्ग समाजवादी अखिलेश यादव भैया और डिम्पल भौजी ने 2005 में महज़ 35 लाख रुपये में खरीदा था। यह समाजवादी कारनामा आम लोगों के लिए तो खैर असम्भव ही है। यह भूखण्ड भैया-भौजी ने उसी 4, विक्रमादित्य मार्ग स्थित बंगले के पड़ोस में लिया था, जिसे सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर मजबूरी में खाली करते समय टोंटियां तक उखाड़ ले जाने की सुर्खियां अखबारों में आई थीं। इस इलाके में भैया-भौजी के साथ-साथ समाजवादी पार्टी और पार्टी-संबंधित जनेश्वर मिश्र ट्रस्ट के नाम से भी बड़े भूखण्ड हैं।
जब इस इलाके में कई हैरिटेज इमारतों की मौजूदगी के कारण भैया-भौजी को इस मनभावन इलाके में अपने सपनों का महल बनाना मुश्किल लगा, तो उन्होंने यहां एक हैरिटेज होटल, हिबिस्कस हैरिटेज बनाने का जुगाड़ लगाया और प्रदेश की योगी-सरकार से अनापत्ति भी हासिल कर ली। अब लखनऊ के एक अधिवक्ता शिशिर चतुर्वेदी की जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ ने 18 अगस्त को इस होटल के निर्माण पर स्थगनादेश पारित करते हुए दर्ज किया कि राजनैतिक दलों द्वारा निहित उद्देश्यों से भू-उपयोग में मनमाने बदलाव किये गए और मौजूदा सरकार की मूक-सहमति से क्षेत्र में इमारतों की ऊंचाई-सीमा संबन्धी मानकों में मनमाने परिवर्तन किए गए।
परदे के पीछे होनेवाला यह खेल सैफइयन-समाजवादी भैयाजी पर भले जंचता हो, पर यह सूबेदार बने बैठे गोरक्षपीठ के सन्यासी महंत योगी आदित्यनाथ को जरूर कटघरे में खड़ा करता दिखता है। जनता को बेवकूफ समझते हो महाराज जी?
सोशल मीडिया से 4-6 प्रतिशत वोटों का होता है स्विंग
पिछले कुछ वर्षों में सोशल मीडिया का प्रभाव काफी बढ़ गया है। चुनावों की हार जीत में सोशल मीडिया का एक बड़ा योगदान रहा है। सोशल मीडिया को इस्तेमाल करने वाला एक बड़ा वर्ग सवर्ण है। पिछले पांच सालों में यह वर्ग भाजपा का समर्थित वर्ग रहा है। यही वजह है कि सोशल मीडिया पर मोदी विरोध कभी परवान नहीं चढ़ पाया। भाजपा की आईटी टीम भी सोशल मीडिया पर काफी प्रभावी रही है किन्तु उसके बिना भी जनता का एक बड़ा वर्ग मोदी प्रेम में सोशल मीडिया पर मोदी को ट्रोल करवाता रहा है। अब जबसे एससीएसटी विधेयक आया है तबसे सवर्णों का एक बड़ा तबका मोदी खेमे से नाराज़ है। वह सोशल मीडिया पर मुखर होकर अपनी बातें रख रहा है। अचानक से मोदी के प्रति घृणा भाव रखने वाली पोस्ट तैरने लगी हैं। यह एक नए प्रकार का सोशल मीडिया है जिसकी कल्पना शायद कभी मोदी कैंप ने भी नहीं की होगी।
अब सोशल मीडिया पर मनोरंजन, चुटकुले या किसी और घटनाचक्र से कहीं ज्यादा बात हो रही है दलित राजनीति की। इसमें भी सबसे ज्यादा तीन राज्यों के विधानसभा और अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव की। सोशल मीडिया यूजर्स का सबसे बड़ा हिस्सा युवा हैं। जो अपने दोस्तों की एक्टिविटी के अलावा राजनीतिक परिदृश्य पर नजऱ लगाए रहते हैं। वर्तमान में शहरों में 85 प्रतिशत युवा सोशल मीडिया से जुड़े हैं, जो दलित राजनीति पर खुलकर प्रतिक्रिया दे रहे हैं। फेसबुक और ट्विटर पर कोई कार्टून बनाकर पोस्ट कर रहा है, तो कोई व्यवस्था से गुस्सा जाता रहा है। एक दिलचस्प आंकड़ा यह है कि दो से ढाई प्रतिशत का स्विंग किसी भी चुनाव परिणाम को प्रभावित कर देता है। इसके साथ ही एक अन्य आंकड़ा यह है कि सोशल मीडिया 4-6 प्रतिशत वोटों के स्विंग का माद्दा रखता है। अब ऐसे में सोशल मीडिया के खिलाड़ी दिखने वाले भाजपाइयों के लिए इस हथियार का दांव उल्टा पड़ता दिख रहा है। समय रहते यदि भाजपा ने सोशल मीडिया पर जनता का गुस्सा नहीं भांपा तो 2019 में एक बड़ा खतरा सामने आ सकता है।
-कौशलेन्द्र मिश्र
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं विश्लेषक हैं)
मुख्य सचिव का बेटा क्यों हो आरक्षण का हकदार -उच्चतम न्यायालय
उच्चतम न्यायालय ने उच्च आधिकारिक पदों पर बैठे अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति समुदायों के संपन्न लोगों के परिजनों को सरकारी नौकरियों में पदोन्नति में आरक्षण देने के तर्क पर सवाल उठा दिया है। प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ (कुरियन जोसेफ, आर एफ नरीमन, एस के कौल और इंदू मल्होत्रा) ने सवाल किया है कि एससीएसटी के संपन्न लोगों को पदोन्नति में आरक्षण के लाभ से वंचित करने के लिए उन पर ‘क्रीमीलेयर’ सिद्धांत लागू क्यों नहीं किया जा सकता है? वर्तमान में यह सिद्धांत अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के समृद्ध वर्ग को आरक्षण के लाभ के दायरे से बाहर करने के लिए लागू किया जाता है।
पीठ का कहना है कि प्रवेश स्तर पर आरक्षण कोई समस्या नहीं है किन्तु मान लीजिए, कोई ‘एक्स’ व्यक्ति आरक्षण की मदद से किसी राज्य का मुख्य सचिव बन जाता है। अब, क्या उसके परिवार के सदस्यों को पदोन्नति में आरक्षण के लिए पिछड़ा मानना तर्कपूर्ण होगा क्योंकि इसके जरिये उसका वरिष्ठताक्रम तेजी से बढ़ेगा।
इसके पहले केंद्र सरकार की तरफ से अटॉर्नी जनरल के के वेणुगोपाल ने सुप्रीम कोर्ट में कहा था कि प्रमोशन में आरक्षण देना सही है या गलत इस पर टिप्पणी नहीं करना चाहते। लेकिन यह तबका 1000 से अधिक सालों से झेल रहा है। गौरतलब है कि केएम नागराज मामले में वर्ष 2006 के फैसले में कहा गया था कि एससीएसटी समुदायों को पदोन्नति में आरक्षण देने से पहले राज्यों पर इन समुदायों के पिछड़ेपन पर गणना योग्य आंकड़े और सरकारी नौकरियों तथा कुल प्रशासनिक क्षमता में उनके अपर्याप्त प्रतिनिधित्व के बारे में तथ्य उपलब्ध कराने की जिम्मेदारी है। सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने यह सवाल भी किया कि मान लिया जाए कि एक जाति 50 सालों से पिछड़ी है और उसमें एक वर्ग क्रीमीलेयर में आ चुका है, तो ऐसी स्थितियों में क्या किया जाना चाहिए? कोर्ट ने अपनी टिप्पणी में कहा है कि आरक्षण का पूरा सिद्धांत उन लोगों की मदद देने के लिए है, जो कि सामाजिक रूप से पिछड़े हैं और सक्षम नहीं हैं। ऐसे में इस पहलू पर विचार करना बेहद जरूरी है।