वर्तमान में दो बातों से लगभग सभी भारतीय वाकिफ़ होंगे। पहली, भारत द्वारा पाकिस्तान पर हुई एयर स्ट्राइक, दूसरी, भगवा आतंकवाद के आरोपियों का बरी हो जाना। दरअसल ये दोनों विषय एक दूसरे से बेहद गहराई से जुड़े हुए हैं, इतने के इनका जुड़ाव देखने को आपको बहुत गहरे उतरना होगा। पर इस मुद्दे पर आने से पहले कुछ प्रश्नों पर विचार करिये और उनके उत्तर समझिए। पहला, कांग्रेस क्यों एयर स्ट्राइक के बाद इमरान के साथ खड़ी नजऱ आई? इसमें कोई राजनीतिक लाभ क्या संभव था? अगर नहीं तो क्या कांग्रेस की मजबूरी थी? दूसरा आखिर ये भगवा आतंक की कहानी गढऩे की मंशा क्या थी? क्या ऐसा करने से कांग्रेस को कोई बड़ा लाभ होने वाला था? अगर बात मुस्लिम वोट की थी तो वो तो वैसे भी भाजपा को नहीं मिलते फिर क्यों?
ये कहानी बड़ी है। ये कहानी है वेटिकन के इशारे पर कश्मीर के सौदे की जिसकी भूमिका तैयार करने को रचा गया था ‘भगवा आतंक’ का शब्द, जिसके लिए हुआ था 26/11 का आतंकी हमला। उद्देश्य था गृहयुद्ध की आशंका और भय तले बहुसंख्य हिंदुओं को शांत कर पीओके, दक्षिण उत्तर कश्मीर को पाकिस्तान को सौंप कश्मीर विवाद का अंत करना। इसके पीछे थी बड़ी अमेरिकन लॉबी।
सियाचिन का सौदा
सियाचिन के बारे में इतना तो सभी जानते हैं कि ये दुनिया का सबसे ऊंचा रणक्षेत्र है और बेहद महत्वपूर्ण भी। यही कारण है कि यहां की सैन्य तैनाती पर आने वाले भारी भरकम खर्च और दुर्गम क्षेत्र के कारण होने वाली असंख्य दुर्घटनाओं के बाद भी भारत और पाकिस्तान दोनों इस इलाके को लेकर बेहद संवेदनशील हैं। अगर सियाचिन पाकिस्तान के हाथ लग जाये तो बाकी की कश्मीर घाटी पर नियंत्रण बेहद आसान काम होगा। और इस बात को समझने के लिए आपको किसी एक्सपर्ट से मिलने की जरूरत नहीं, आप अपने आसपास के किसी भी सेना के जवान, जिसकी पोस्टिंग सियाचिन में रही हो, से ये बात समझ सकते हैं। पर रोमन पतुरिया जिसका भगवान सिर्फ पैसा हो उसे इस सब से क्या लेना देना। अगर पूर्व सेनाध्यक्ष जेजे सिंह और एनएसए एम के नारायणन ने न रोका होता तो इटालियन बार बाला एन्टोनिया माइनो, उनके मुनीम मनमोहन सिंह और वेटिकन के दलाल ए के एंटोनी ने 2006 में सियाचिन को पाकिस्तान को बेचने की पूरी तैयारी कर ली थी और अगर ये सफल हो जाते तो शायद आज पूरी कश्मीर घाटी पाकिस्तान के कब्जे में होती।
कहानी यूपीए-1 में शुरू हुई। एन्टोनिया और उनका दामाद अमेरिका के एक नेता और सीनेटर लिंडसे ग्रहम से मिले। लिंडसे ग्रहम अमेरिकन सीनेट में पाकिस्तान समर्थक के तौर पर पहचान रखते हैं। इस सीनेटर ने इन्हें सियाचिन के सौदे का प्रस्ताव दिया जिसके तहत भारत और पाकिस्तान को इस क्षेत्र से अपनी सेनाएं हटानी थीं और इतना तो प्रत्येक भारतीय जानता ही है कि सियाचिन से भारतीय सेनाओं के हटते ही पाकिस्तान बिना देरी किये समझौते को ताक पर रख कारगिल की तरह वहां कब्जा जमा लेता।
इस मुद्दे पर कई दौर की बातचीत पर्दे के पीछे चलती रही। न भारत की सेना को इस विषय पर कोई जानकारी दी गयी, न खुफिया एजेंसियों को भरोसे में लिया गया। और तो और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार तक को इसकी भनक नहीं लगने दी गयी। 27 मार्च 2006 को सिओल में मनमोहन और पाकिस्तान के पीएम यूसुफ़ रजा गिलानी इस समझौते के अंतिम प्रारूप पर सहमत हो गए जिसके तहत मनमोहन सियाचिन से शांति संदेश के नाम पर पहले सेनाएं वापस बुला लेने पर भी सहमत हो गये। ये सारा खेल बेहद गुपचुप चलता रहा। 2 मई 2006 को जब एक मीटिंग बुला रक्षा सचिव को इस समझौते पर हस्ताक्षर करने के निर्देश दिए गए और बात एम के नारायणन की जानकारी में आई जिसका उन्होंने तीखा विरोध किया पर असली काम किया सेनाध्यक्ष जे जे सिंह ने, जिन्होंने अपने पद पर रहते सियाचिन खाली करने से साफ मना कर दिया। अब बात बाहर आ चुकी थी और सारे मीडिया मैनेजमेंट के बाद भी द हिन्दू नामक अखबार ने इस पर खबर छाप दी जिसके फलस्वरुप जे जे सिंह और एम के नारायणन को उनके पदों से हटा इस सौदे को कर पाना संभव नहीं रहा। तत्कालीन विदेश सचिव श्यामसरन ने अपनी किताब में इस घटनाक्रम पर काफी कुछ लिखा है। साथ ही संजय बारु ने भी जिन्होंने यूपीए के कई घोटालों की पोल अपनी किताब में खोली। खैर अपने अपने पदों की गोपनीयता की वजह से एम के नारायणन और जे जे सिंह उस समय इस मुद्दे पर शांत रह गए पर अपने पद से हटने के सालों बाद जब एक मीडिया चैनल ने जे जे सिंह का इंटरव्यू किया तो उन्होंने इस बात को खोल दिया। हालांकि इंटरव्यू के वे अंश संपादित करवा दिए गए पर बात बाहर तो आ ही गयी।
एक औरत जो इस देश की नहीं उसके द्वारा ये सब किया जाना कोई आश्चर्य का विषय नहीं, पर मनमोहन सिंह ने तो तलवे चाटने की सारी सीमाएं ही तोड़ दीं। अपना पद बनाये रखने और अपनी मालकिन को खुश करने के लिए देश बेचने तक में इन्हें शर्म महसूस नहीं हुई। उससे भी ज्यादा बेशर्म और बेगैरत हैं वो कांग्रेसी और उनके समर्थक जो अब तक सोनिया और इनके मंदबुद्धि पुत्र की गुलामी कर इनके तलवे चाट रहे हैं।
मई 2006 में सियाचिन की सौदेबाजी फेल होने के बाद एंटोनिया माईनो पर वेटिकन, अमेरिका का और माईनो का मनमोहन सिंह पर जबरदस्त दबाव था, किसी भी तरह बिगड़ी बात को बनाने और कश्मीर विवाद को समाप्त करने का।
भगवा आतंक व 26 नवंबर
यहां रास्ता निकाला सुशील शिंदे और गांधी परिवार के करीबी दिग्विजय सिंह ने। सितंबर 2006 में मालेगांव की एक मस्जिद में धमाका हुआ। फिर थोड़े थोड़े अंतराल पर हैदराबाद, अज़मेर, समझौता एक्सप्रेस में धमाके हुए। प्रारंभिक जांच में स्पष्ट हुआ कि ये पाकिस्तान पोषित आईएम की हरक़त थी पर फिर अचानक जांच एटीएस की एक ऐसी टीम को दी गयी जो शरद पवार और शिंदे के करीबी अधिकारियों की थी जिनपर इनकी मेहरबानियां पूर्व में रही थी। यहीं से तैयार हुआ भगवा आतंक का भूत। एटीएस टीम सीधे दिग्विजय को रिपोर्ट कर रही थी और उसे सीधा निर्देश था कुछ भी करो पर पकड़े गए लोगों से अपराध स्वीकार करवाओ। पकड़े गए लोगों में सबसे अजीब नाम थे सेना के अधिकारियों के कर्नल पुरोहित व अन्य। इन्हें इस दबाव के लिए रखा गया था कि पुन: सेना जेजे सिंह की तरह आपत्ति दर्ज न कर सके। जन सामान्य का अपनी सेना से भरोसा टूटे।
यहां इस साजिश की हवा निकाली साध्वी प्रज्ञा और कर्नल पुरोहित ने जिन्होंने भीषण अमानवीय अत्याचारों के बाद भी एटीएस के मनमुताबिक बयान नहीं दिया। कांग्रेस जानती थी कि उसके फैसले का देश में विरोध भाजपा करेगी और भाजपा का आधार है आरएसएस। अत: आरएसएस को आतंकी संगठन घोषित कर भाजपा को चुप रखना बेहद आसान काम होता। पर साध्वी प्रज्ञा और कर्नल पुरोहित खेल बिगाड़ रहे थे।
विकीलीक्स के एक केबल ने इस बीच एक नई सूचना दी कि कांग्रेस के शिंदे ने अमेरिका के राजदूत से अपनी वार्ता में आरएसएस द्वारा एटीएस अधिकारियों की हत्या की योजना की बात कही (26/11 से पहले)। हालांकि तब ये बात राजदूत साहब के गले भी नहीं उतरी। न कोई और समझ सका। ये 2007 का अंत था। उधर अमेरिका में चुनाव आ गया और वहां के मुस्लिम वोटर को खुश करने को ओबामा ने कश्मीर के हल का वादा कर दिया। सन् 2008 में राष्ट्रपति पद के चुनाव अभियान के दौरान बराक ओबामा ने टिप्पणी की थी कि यदि वे राष्ट्रपति चुन लिए जाते हैं तो कश्मीर संकट के समाधान के लिए पाकिस्तान और भारत के साथ मिलकर गंभीरता से कार्य करना उनके प्रशासन के महत्वपूर्ण कार्यों में से होगा। ‘टाइम’ पत्रिका के जे केलिन से बातचीत में, ओबामा ने विस्तार से इसे यूं कहा ”कश्मीर में इन दिनों जैसी दिलचस्प स्थिति है उसमें इस मसले को कब्र से निकालकर हल करने की एक बड़ी कूटनीतिक चुनौती है। इसके लिए एक विशेष दूत नियुक्त करना, आंकड़ेबाजी के बजाय सही मायने में प्रयास और खास तौर पर भारतीयों को यह समझाना और इसके लिए तैयार करना होगा कि आज जब आप एक आर्थिक महाशक्ति बनने की ओर अग्रसर हैं तब इस मसले को हल कर इससे क्यों नहीं मुक्त हो जाते। इसी तरह पाकिस्तानियों को यह समझाना होगा कि भारत आज कहां है और आप कहां हैं। आपके लिए कश्मीर मसले पर फंसे रहने से ज्यादा जरूरी है अफगान सीमा की बड़ी चुनौतियों से जूझना। मैं जानता हूं कि यह सब करना और इसमें कामयाब होना इतना आसान नहीं होगा, मगर मुझे उम्मीद है कि यह हो जाएगा।’’
नवंबर में भारत पर हुआ सबसे भयावह आतंकी हमला 26/11 जिसमें भगवा आतंक पर काम कर रही पूरी टीम मारी गयी, पर कि़स्मत से कसाब जिंदा पकड़ा गया और मीडिया ने ये खबर तुरंत दिखा भी दी। विकीलीक्स के केबल और आतंकियों की हिन्दू वेशभूषा को अगर समझें और उसके तुरंत बाद के घटनाक्रम को देखें जिसमें मुम्बई हमले को आरएसएस से जोडऩे का असफल प्रयास हुआ तो एक बात समझ आएगी कि अगर कसाब जिंदा न पकड़ा जाता और लश्कर थोड़ी गलतियां न करता तो मुम्बई हमले को भी भगवा आतंक के खाते में डाला जाता। आरएसएस को प्रतिबंधित कर भाजपा को बैक फुट पर धकेला जाता। और फिर एलओसी से सेना हटा कर कश्मीर के कई जिले और पूरा पीओके पाकिस्तान का हिस्सा मान कर आराम से समझौता होता। न देश में कोई विरोध कर पाता न कांग्रेस सरकार को नुकसान होता। इस बात की ताकीद इस हमले के बाद हुई भी। सेना पूरी तरह कार्यवाही को तैयार थी पर सरकार ने साफ मना कर दिया। हमले के 10 दिन बाद ही यूसुफ रज़ा गिलानी जो तब पाकिस्तान के पीएम थे, ने पीओके में अपने भाषण में कहा था ”भारत सरकार हमसे वार्ता के अलावा कुछ नहीं कर सकती।’’ और हुआ भी यही। सिर्फ महीने भर बाद भारत ने अपनी तरफ से सचिव स्तर की वार्ता शुरू की। सवाल ये है कि पाक पीएम के इस जबरदस्त भरोसे के पीछे क्या कारण था? वो जानता था कि कश्मीर के सौदे ने भारत सरकार और कांग्रेस को मजबूर कर रखा है कि वो झुके।
कुछ सवालों के उत्तर मेरे पास भी नहीं, पर सवाल तो हैं। मुम्बई हमले की पूर्व जानकारी क्या भगवा आतंक की थ्योरी रचने वालों को थी? क्या एटीएस टीम इतनी मूर्ख थी कि एक ही गाड़ी में सारे अधिकारी भर कर आतंकियों से आमने सामने जा भिड़े? या उन्हें कुछ और निर्देश थे?
खैर मुम्बई हमले ने कहानी में कई तथ्य बिगाड़ दिए। सबसे बड़ी गड़बड़ थी अमेरिकन नागरिकों की मौत और सीआईए एजेंट डेविड हेडली का नाम खुलना जिसके बाद ओबामा प्रशासन ने इस पूरे मामले से हाथ खींच लिए और कश्मीर में असैन्यकरण करके और कुछ और भाग पाकिस्तान को देकर विवाद खत्म करने का इरादा छोड़ दिया। अमेरिका का इसमें सीधा फायदा कश्मीर के बदले अफगान युद्ध में पाकिस्तान की भूमिका थी। पर कांग्रेस का क्या फायदा था? अंतिम सवाल सिर्फ एक बचता है कि आखिर एंटोनिया माईनो को इसके बदले क्या मिलता?
(लेख टाइम मैगज़ीन को दिए ओबामा के इंटरव्यू, द हिन्दू में छपे लेख और 2010 में आडवाणी जी द्वारा लिखे गए एक लेख पर आधारित)