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राष्ट्रवाद की आंधी से हिन्दुत्व के तूफान तक

अमित त्यागी

2019 का चुनाव और उसके परिणाम एक रोचक अंत का इशारा कर रहे हैं। एक ओर माया मुलायम ने एक साथ एक मंच पर आकर अपने अपने समर्थकों को एक साथ आने का संकेत दे दिया है तो दूसरी तरफ शिवपाल यादव और प्रवीण तोगडिय़ा के दल कुछ खास करते नहीं दिख रहे हैं। कांग्रेस महागठबंधन के साथ नहीं है फिर भी वह आंतरिक रूप से गठबंधन के साथ ही है। भाजपा को हराने के लिए सभी दल अंदर ही अंदर एक दूसरे का सहयोग कर रहे हैं। इसके साथ ही यह चुनाव लगातार बड़बोले नेताओं के बयानों के आधार पर मीडिया की सुर्खियां बन रहा है। आज़म खान ने जयाप्रदा पर खाकी रंग का हमला किया तो उनके बेटे ने अनारकली कहकर खुद को बयान बहादुर साबित किया। इससे बौखलाए अमर सिंह ने आज़म खान पर ताबड़तोड़ जुबानी हमले किये। दोनों ही तरफ से गरिमा को तार तार किया गया। इसी क्रम में मायावती के द्वारा मुलायम सिंह के सामने गेस्ट हाउस कांड याद करके पहले उनको उकसाया गया फिर सपा के कार्यकर्ताओं को अनुशासन की सीख भी दी। पर जब मायावती ने मुसलमानों से एकजुट होकर वोट करने की अपील की तो चुनाव आयोग ने इसका संज्ञान लेते हुये उन पर कुछ समय के लिए प्रतिबंध लगाया। मायावती के बयान के बाद भाजपा को जैसे हिन्दुत्व का मुद्दा बैठे बैठाये ही मिल गया। भाजपा ने साध्वी प्रज्ञा को भोपाल से दिग्विजय सिंह के सामने उतार दिया है। इस तरह साध्वी प्रज्ञा भाजपा की नयी उमा भारती बन गयी हैं। जिस तरह राम मंदिर आंदोलन में उमा भारती के भाषण हिन्दुत्व को गरम करते थे वैसे ही अब साध्वी प्रज्ञा के बीते संस्मरण हिंदुओं के मन को उद्वेलित कर रहे हैं। चूंकि पाकिस्तान पर एयर स्ट्राइक के बाद पैदा हुआ राष्ट्रवाद का मुद्दा चुनावी रूप से हल्का होता जा रहा था इसलिए भाजपा ने साध्वी प्रज्ञा के बहाने प्रखर हिन्दुत्व का रास्ता चुना। इसकी वजह भी साफ है। उत्तर भारत में भाजपा की स्थिति 2014 की अपेक्षा काफी कमजोर है। राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, हरियाणा में भाजपा ने तब इतनी सीटें जीती थी कि उसके आस पास पहुंचना बड़ी चुनौती बन रहा है। बिहार में लालू के न होने के बावजूद भाजपा खतरे के निशान पर है। इन सबके बीच संघ प्रमुख मोहन भागवत का कहना कि सरकारें तो पांच साल में आती जाती रहती हैं, भी इस बात को दिखाता है कि विकास और प्रबंधन के नाम पर चुनाव जीतने का दंभ भरने वाली मोदी-शाह की जोड़ी के लिए राह आसान नहीं है। पहले विकास, फिर राष्ट्रवाद और अब हिन्दुत्व के मुद्दे पर आना इस बात का स्पष्ट संकेत है कि 2014 वाली लहर तो भाजपा के पक्ष में नहीं बन पा रही है।

राजनीति मुद्दों की होनी चाहिए। पर राजनीति मुद्दों पर होती है। कब कौन सा मुद्दा चुनावी मुद्दा बन जाये, कहा नहीं जा सकता है। कब देश का चुनावी विमर्श बदल जाये इसका आंकलन भी आसान नहीं होता है। यदि 2019 के प्रारम्भ की ओर लौटें तो उस समय देश में चुनावी विमर्श की दिशा राम मंदिर निर्माण एवं संतों के द्वारा राम मंदिर निर्माण के लिए किया जा रहा आंदोलन था। इस दौरान उच्चतम न्यायालय में चल रही प्रक्रिया अचानक तेज़ होती दिखी। पर धीरे धीरे वह विषय गौण हो गया। फिर भाजपा खेमा विकास के मुद्दे पर चुनाव में जाता दिखा। किसानों के खाते में 6 हज़ार में से 2 हज़ार की पहली किश्त आने लगी। जनता को सरकार द्वारा दी गयी योजनाओं के लाभ यकायक तेज़ी के साथ याद दिलाये जाने लगे। उसके बाद जब फरवरी में पुलवामा में हमला हुआ और सरकार द्वारा पाकिस्तान में घुसकर एयर स्ट्राइक की गयी, तब राष्ट्रीय विमर्श पाकिस्तान को उसकी भाषा में जवाब देना बन गया। राष्ट्रवाद की बातें होने लगी। देश में अभिनंदन के नाम की धूम मच गयी। सत्ता पक्ष इसको भारत के गौरव से जोड़ के बताता रहा तो विपक्ष इसके सबूत मांगता रहा। इन सबके बीच में राहुल गांधी राफेल को लगातार मंचों पर उठाते रहे। वह चौकीदार को चोर बताते रहे। उनकी इस रणनीति के तोड़ में भाजपा खेमे द्वारा ‘मैं भी चौकीदार’ का नारा दिया गया। भाजपाई सोशल मीडिया पर अपने नाम के आगे चौकीदार लगाने लगें। राहुल गांधी पर चौकीदार को चोर कहने पर न्यायालय में मुकदमा हुआ तो उन्होंने वहां जाकर इसके लिए माफी भी मांग ली। इन सब घटनाक्रमों के बीच राष्ट्रवाद का विषय लगातार बलवती होता रहा। चूंकि दक्षिण के राज्यों में राष्ट्रवाद का मुद्दा कुछ ज़्यादा प्रभावी नहीं बन पा रहा था इसलिए भाजपा खेमे के लिए हिन्दुत्व के विषय पर लौटना आवश्यक हो गया। फिर साध्वी प्रज्ञा को भोपाल से चुनाव मैदान में उतार दिया गया। इस तरह देश का चुनावी विमर्श हिन्दुत्व से शुरू होकर विकास की पगडंडियों से गुजरकर राष्ट्रवाद के रास्ते वापस हिन्दुत्व पर आकर ठहर गया है। भाजपा के द्वारा बार बार राष्ट्रीय विमर्श का विषय बदलने से विपक्ष को उभरने का मौका मिल गया है। जो विपक्ष नेतृत्व विहीन एवं लाचार था वह अचानक से परिदृश्य में आ गया है। वह जातिगत राजनीति में भाजपा को फसाने में कामयाब दिखने लगा है।

उत्तर भारत में चुनाव जातिगत राजनीति पर कुछ ज़्यादा ही आधारित होते हैं। 2014 में हिन्दुत्व का मुद्दा बनने पर भाजपा को फायदा हुआ था। पर भाजपा अपने मूल मुद्दे से भटक कर विकास और राष्ट्रवाद के आधार पर चुनावी गणित बैठाने में लगी रही। चूंकि विकास खाने में अचार का काम करता है, खाने की जगह नहीं ले सकता है। इसलिए भाजपा का थिंक टैंक विकास का हश्र गुजरात में देख चुका है जहां भाजपा को विधानसभा चुनावों में जीत के लाले पड़ गए थे। ऐसा ही हश्र राष्ट्रवाद का हुआ। दो महीने के समय में ही भाजपा द्वारा प्रचार किए जा रहे राष्ट्रवाद की हवा निकल गयी और उसका चुनावी प्रभाव आधा रह गया। बेहतर काम, कुशल चुनावी प्रबंधन एवं धन के प्रभाव के बावजूद बार बार राष्ट्रीय विमर्श बदलने से भाजपा का मतदाता ऐसा असमंजस में पड़ा कि वह वापस अपनी जातिगत व्यवस्था में पहुंच गया। जातिगत व्यवस्था क्षेत्रीय दलों की शक्ति मानी जाती है। उन्होंने इस मौके को हाथों हाथ लिया और जातिगत आंकड़े संतुलित करने लगे। उनको इस काम करने में फायदा भाजपा की ही एक रणनीति का मिला। भाजपा द्वारा 2014 के बाद से जनाधार वाले क्षेत्रीय नेताओं को किनारे करने का प्रयास आरंभ हो गया था। भाजपा ने मोदी और कमल को जनता के बीच में स्थापित किया। चूंकि, जातिगत जनाधार वाले नेता पहले से हाशिये पर थे इसलिए भाजपा के अंदर भीतरघात की प्रवृत्ति जो अनुकूल माहौल का इंतज़ार कर रही थी, वह पल्लवित हो गयी। कई बड़े कद्दावर नेताओं के टिकट काटने से भाजपा ने उन्हें सर उठाने का मौका दे दिया। सवर्ण मतों के आधार पर और पिछड़े, दलित के सहयोग से सत्ता में वापसी का रास्ता बना रही भाजपा यादव, जाटव एवं मुस्लिम मतदाताओं के गठजोड़ के आगे लाचार दिखने लगी। उसके द्वारा किए गए कार्यों पर जातिगत समीकरण एवं अंदुरुनी गुटबाजी भारी दिखने लगी।

चुनाव के प्रारम्भिक दौर में मतदान में कमी इस बात का स्पष्ट संकेत है कि जनता में 2014 जैसा जोश नहीं है। जनता का रुझान नोटा की तरफ भी काफी देखा जा रहा है। हालांकि, निम्न वर्ग एवं मध्य वर्ग का वोटर मोदी से जुड़ा दिखता है। उसे मोदी की योजनाओं से लाभ भी मिला है। किन्तु मतदान के दिन वह योजनाओं के आधार पर मत दे रहा है या जातिगत आधार पर, इस पर वह खामोश दिखता है। देश में मोदी के नाम की अंडरकरेंट तो है पर क्या वह वोट में भी तब्दील हो रही है यह यक्ष प्रश्न बन गया है।

भाजपा का गिरता ग्राफ, मोदी की विश्वसनीयता कायम  

भारत में चुनावी इतिहास इस बात का साक्षी रहा है कि बेहतर काम करने के बाद भी सरकारों की सत्ता में वापसी नहीं हुयी है या मुश्किल से हुयी है। 1996 में अच्छा काम करने के बावजूद नरसिंह राव दोबारा सत्ता में नहीं आ सके। 2004 में अटल बिहारी भी अच्छे काम के बाद भी सत्ता वापसी नहीं कर सके थे। 2019 में मोदी क्या 2009 के मनमोहन सिंह की तरह वापसी करेंगे या अल्पमत में रहकर चूक जाएंगे ये देखना रोचक होगा। 2014 में भाजपा ने 543 में से 282 सीटों पर विजय प्राप्त की थी। गुजरात और राजस्थान में सभी सीटों पर और उत्तर प्रदेश में 73 सीटों पर जीत हासिल हुयी थीं। यानि भाजपा अपने गढ़ में सर्वोच्च पायदान को छू चुकी है। अब वह उससे ऊपर नहीं जा सकती है। विभिन्न सर्वे के अनुसार प्रधानमंत्री के पद के लिए तो मोदी सबसे बड़े दावेदार बन कर उभर रहे हैं किन्तु उनकी लोकप्रियता को वोटों में तब्दील करना भाजपा के लिए टेढ़ी खीर साबित हो रहा है। भाजपा को पिछली बार से 60-70 सीटों का नुकसान साफ दिखाई दे रहा है। उत्तर प्रदेश में सपा बसपा गठबंधन के कोर वोट बैंक को मोदी की लोकप्रियता हिला नहीं पायी है। बेरोजगारी की दर भी युवाओं की भाषण शैली के बावजूद मतदाता को भाजपा से नहीं जोड़ रही है। बिहार में लोकसभा की चालीस सीटें हैं, 2014 में भाजपा ने 22 सीटें जीत ली थी। भाजपा के वर्तमान सहयोगी जेडीयू ने तब सिर्फ दो सीटें ही जीती थीं। आज दोनों गठबंधन में हैं। 22 सीटें जीतने के बावजूद भाजपा ने चालीस में से 17-17 सीटें स्वयं और जेडीयू के बीच बांट ली। 6 सीटें रामविलास पासवान को मिली हैं। अब जीती हुयी 22 में से 17 पर समझौता करके पांच सीटें तो भाजपा ने वैसे ही कम कर ली हैं। अब कितनी सीटों पर भाजपा जीतेगी यह वक्त निर्धारित करेगा। महाराष्ट्र की 48 लोकसभा सीटों में भाजपा को 25 और शिवसेना को 23 सीटें दी गयी हैं। उनके विपक्ष में कांग्रेस और राकांपा गठबंधन में राकांपा को 25 और कांग्रेस के पास 23 सीटें हैं। महाराष्ट्र में इस तरह कड़ा मुकाबला बनता दिख रहा है। राजस्थान में भाजपा ने सभी लोकसभा सीटें जीती थीं। इस बार नवंबर 2018 में विधानसभा चुनावों में हार के बाद भाजपा का ग्राफ गिरा है। उधर राजस्थान में पिछली बार से सीटें कम होने का अनुमान है। कुछ ऐसा ही हाल मध्य प्रदेश का भी बन रहा है। इन सब प्रदेशों में सबसे बड़ी और खास बात यह है कि मोदी को तो लोग पसंद कर रहे हैं किन्तु भाजपा का ग्राफ गिर रहा है। इस तरह से क्षेत्रीय दल निर्णायक भूमिका में आते दिखने लगे हैं। बंगाल में तृणमूल, बिहार में आरजेडी, उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा की काट भाजपा ढूंढने में असफल दिखाई दे रही है। क्षेत्रीय दलों के द्वारा पिछड़े वोटों में बड़ी सेंध एवं भाजपा में पिछड़ों के सीमित नेता होना भी एक मुश्किल का सबब है। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ एवं उपमुख्यमंत्री केशव मौर्या के द्वारा उपचुनाव में हार जाने के बाद भाजपा खेमा अभी भी सदमे में है। इन दोनों की साख दांव पर लगी है। इन दोनों की सीटें अभी भी गठबंधन की तरफ झुकाव दिखा रही हैं।

यूपी की पिछड़े वर्ग की राजनीति को तलाश नए कल्याण सिंह की 

भारत की राजनीति में हर पांच वर्ष बाद जातिगत समीकरणों के चलते उतार चढ़ाव लगातार देखे जाते रहे। कभी मंडल कमीशन से संबंधित विषय को या यूं कहें कि मुद्दे को आगे बढ़ा विश्वनाथ प्रताप सिंह प्रधानमंत्री बनने में कामयाब हुए तो वहीं दूसरी ओर समाजवाद का नारा बुलंद करने वाले मुलायम सिंह यादव भी पिछड़ों के आंदोलन को गति देते हुए देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बनने में कामयाब हुए। विधि का विधान देखिये कि जहां मुलायम सिंह यादव पिछड़ों का नेतृत्व करते हुए मुख्यमंत्री बने, वहीं भाजपा ने उन्हीं की तर्ज पर लोधी जाति में जन्म कल्याण सिंह को भाजपा का नेतृत्व सौंपकर पिछड़े वर्ग के वोटों में जबरदस्त सेंध लगाने का काम किया। 1991 में मुलायम सिंह यादव से यूपी की सत्ता छीनकर कल्याण सिंह को मुख्यमंत्री बना यह दर्शा दिया कि भाजपा ही अति पिछड़ों दलितों और पिछड़ों की सच्ची पक्षधर है। पिछड़ों का भाजपा की राजनीति में उदय होते ही मानो भाजपा की पौ बारह हो गई लेकिन जैसे जैसे भाजपा ने पिछड़ों से दूरियां बनाई वैसे वैसे भाजपा सत्ता से दूर पहुंचती गई। 2004 के बाद एक समय ऐसा आ गया कि केंद्र में और यूपी में भाजपा फिर से संघर्ष करती नजर आने लगी। लोग भाजपा पर दलित पिछड़ा विरोधी दल होने का आरोप मढऩे लगे। जबकि इस दौरान बसपा का ग्राफ धीरे धीरे आसमान छूने लगा। उसके इर्द गिर्द ही समाजवादी पार्टी पिछड़ों की लामबंदी कर बसपा से आगे निकलने में प्रतिस्पर्धा करती नजर आने लगी। वह इसे करने में कामयाब भी हुई। उस दौरान भाजपा कल्याण सिंह सरीखे नेता से दूरी बनने के चलते यूपी की राजनीति से दूर छिटकती नजर आ रही थी। कल्याण सिंह के साथ उनके लोधी वोट के साथ साथ निषाद, कश्यप,  कहार, मझवार जोकि यादवों के समकक्ष एक बड़ा वोट बैंक था हमेशा खड़ा नजर आया।

2012 के यूपी विधानसभा के चुनाव में भाजपा को इस वर्ग को साधने की जरूरत तब महसूस हुई जब कल्याण सिंह 2007 के बाद 2012 में भी भाजपा के विरुद्ध मजबूती से ताल ठोक रहे थे। भाजपा ने समुद्री क्षेत्रों के निकट में भाजपा का काम बढ़ाने के लिए बनाए गए अपने मछुआरा प्रकोष्ठ की शाखा उत्तरप्रदेश में भी जीवित करनी प्रारम्भ कर दी। भाजपा में तेज़ तर्रार नेता मनोज कश्यप को मछुआरा प्रकोष्ठ का प्रदेश संयोजक बनाया गया। वोट बैंक साधने का तीर निशाने पर लगा। इस दौरान भाजपा ने साध्वी निरंजन ज्योति सहित अन्य पिछड़े नेताओं को आगे बढ़ाया। कल्याण सिंह की पार्टी का विलय कराकर लोधी समाज को खुद से वापस जोड़ा। इस सब घटनाक्रम को नजदीक से देखने वाले संजय निषाद जो काशीराम के आंदोलन के ही एक खिलाड़ी थे, ने निषाद पार्टी का गठन किया। 2017 में मुख्यमंत्री की सीट पर हुए उपचुनाव में सपा बसपा गठबंधन के प्रत्याशी के रूप में इस दल के प्रत्याशी प्रवीण निषाद ने गोरखपुर में योगी आदित्यनाथ को उनके ही घर में घुसकर शिकस्त दे दी। 2019 में अब भाजपा ने संजय निषाद से गठबंधन कर लिया है। एक ओर भाजपा जहां टेंपरेरी सेटलमेंट के खेल से निषाद वोटों को साधना चाहती है तो सपा भी अब पिछली भूलों को सुधार कर एक बार फिर से निषाद कश्यप वोटों को अपने से दूर नहीं जाने देना चाहती। लोधी, धोबी, किसान, कुर्मी जातियां भी अभी पूरी तरह भाजपा से नहीं जुड़ी हैं। यह विभिन्न क्षेत्रों में उम्मीदवारों के अनुसार रुझान व्यक्त करती हैं। कुल मिलाकर भाजपा को अब पिछड़े वर्ग में एक नए कल्याण सिंह को तलाशना ही होगा क्योंकि पिछड़ों के वोट भाजपा की जीत की राह में सबसे ज़्यादा रोड़ा बनते हैं।

कांग्रेस का लोकलुभावन घोषणापत्र

भाजपा खेमे को कांग्रेस का लोकलुभावन घोषणपत्र भी कुछ नुकसान पहुंचाता दिख रहा है। कांग्रेस के घोषणा पत्र में कुछ ऐसी बातें हैं जिनके पूरे होने की संभावना तो काफी कम है किन्तु जनता पर क्षणिक प्रभाव तो डाल ही रही हैं। कांग्रेस की न्याय योजना जिसमें सभी परिवारों को 72 हज़ार रुपये साल दिये जाने की योजना है, को जनता में पसंद किया जा रहा हैं। 2009 में किसानों की कजऱ् माफी के द्वारा कांग्रेस सत्ता में वापसी कर चुकी है। 2018 में मध्य प्रदेश विधानसभा चुनावों में किसानों की कजऱ् माफी की घोषणा से कांग्रेस को सरकार बनाने में मदद मिली। जहां तक न्याय योजना का प्रश्न है तो एक अनुमान के अनुसार इसके द्वारा सरकारी खजाने पर 3.6 लाख करोड़ रुपये का भार पड़ेगा जो जीडीपी का 2 प्रतिशत है। अब इस योजना के क्रियान्वयन के लिए धन कैसे और कहां से आवंटित होगा इसका कोई ब्लू प्रिंट कांग्रेस के पास नहीं है। उन्होंने सिर्फ एक शिगूफ़ा छेड़ दिया है। कांग्रेस का इस पर मानना है कि पहले साल में न्याय पर आने वाले खर्च की लागत जीडीपी के 1 प्रतिशत से कम रहेगी। जैसे जैसे भारत की जीडीपी बढ़ेगी, गरीबी से लोग बाहर आते जाएंगे। इस तरह से धीरे धीरे न्याय की लागत कम होती जाएगी। इसके साथ ही कांग्रेस के घोषणापत्र में छह मुख्य विषय भी चिन्हित किए गए हैं। काम (रोजगार), दाम (आर्थिक विकास के आधार पर), शान (भारत की श्रम शक्ति पर ज़ोर), सुशासन, स्वाभिमान, और सम्मान। कांग्रेस जनता के बीच यह संदेश देने का प्रयास कर रही है कि भाजपा विभाजित करती है और हम जोडऩे का काम करते हैं।

कांग्रेस के घोषणापत्र का मूल्यांकन इसलिए आवश्यक है क्योंकि विपक्ष का घोषणपत्र जनता को आकर्षित करता है। सत्ता पक्ष के कार्य तो जनता ने पांच साल देखे ही होते हैं। भाजपा के साथ एक सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि 2014 में तो कांग्रेस की नीतियों का विरोध करके वह सत्ता में आसानी से आ गए थे किन्तु 2019 में वह किसका विरोध करके स्वयं को बेहतर साबित करें। इस समय उनके द्वारा किए गए कामों और जनता की अपेक्षाओं के बीच मुकाबला है। चूंकि 2014 में जनता की मोदी से अपेक्षाएं बहुत ज़्यादा थी और मोदी उसके करीब नहीं पहुंच पाये इसलिए कांग्रेस का घोषणपत्र कांग्रेस की सीटें तो ज़्यादा नहीं बढ़ा रहा है किन्तु मोदी के वोट बैंक और सीटों को नुकसान जरूर पहुंचा रहा है।

उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ खतरे में

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ  गोरखपुर से आते हैं। गोरखपुर पूर्वी उत्तर प्रदेश का प्रमुख क्षेत्र है। योगी आदित्यनाथ उपचुनाव में गोरखपुर की सीट हार चुके हैं। इससे उन की काफी किरकिरी हुयी थी। विपक्ष ने उनसे इस्तीफे की मांग भी की थी। उपचुनाव में गोरखपुर में जीतने वाली संजय निषाद की पार्टी अब भाजपा के साथ गठबंधन में आ चुकी है। भाजपा ने अपने उम्मीदवार के रूप में फिल्मी कलाकार रवि किशन को मैदान में उतारा है। ब्राह्मण समुदाय से ताल्लुक रखने वाले रवि किशन के लिए गोरखपुर जीतना आसान नहीं है। गठबंधन जाति आधारित वोट बैंक के कारण यहां बेहद मजबूत स्थिति में आ चुका है। हां, अगर योगी आदित्यनाथ का प्रभाव यहां काम कर गया तो भाजपा के लिए यह सीट जीत देकर जाएगी। इसके आस पास की सीटों की बात करें तो हाल ही में जूता कांड से चर्चा में आए संतकबीर नगर के सांसद शरद त्रिपाठी का टिकट काट कर उनके पिता रमापति राम त्रिपाठी को देवरिया से टिकट दिया है। रमापति राम त्रिपाठी को प्रत्याशी बनाने को लेकर माना जा रहा है कि भाजपा ने देवरिया के जातिगत समीकरण साधने की कोशिश की है। भाजपा के इस कदम को लेकर स्थानीय लोगों में मिलीजुली प्रतिक्रिया देखने को मिल रही है। कुछ का कहना है कि कलराज मिश्रा के बाद दोबारा बाहरी प्रत्याशी को उतारना देवरिया का दुर्भाग्य है, वहीं दूसरे पक्ष का कहना है कि बाहर से उम्मीदवार लाकर भाजपा ने स्थानीय खेमेबाजी को रोकने का काम किया है। यहां रमापति राम त्रिपाठी के लिए मतदाताओं को साधने से ज़्यादा स्थानीय नेताओं को साधना चुनौती बन रहा है।

इसी तरह की ही कुछ खेमेबंदी गोरखपुर के आसपास की सीटों पर भी दिखाई दे रही है। भाजपा को इन सीटों पर गठबंधन के साथ ही अपने अंदर की गुटबाजी परेशान कर रही है। भाजपा के अंदर इन क्षेत्रों में ठाकुर बनाम ब्राह्मणवाद ज़्यादा हावी दिख रहा है। योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने के बाद उत्तर प्रदेश में ठाकुरवाद काफी बढ़ा जिससे ब्राह्मणों के साथ उनकी खींचतान कुछ ज़्यादा ही बढ़ गयी। चूंकि केंद्र में और राज्य दोनों में भाजपा की सरकारें चल रही हैं इसलिए दोनों खेमों में अहम की भावना कम नहीं है। इन दोनों जातियों के परिदृश्य में छाए रहने के कारण पिछड़ी जातियों का भाजपा से जुड़ाव अन्य स्थानों की अपेक्षा कम हो पाया है। चूंकि इन सीटों को जिताने का दायित्व योगी जी पर है इसलिए उनके लिए जीत से कम कुछ स्वीकार नहीं है। भाजपा के अंदर का एक खेमा योगी की ईमानदार छवि के कारण उन्हें रास्ते से हटाना चाहता है। गोरखपुर एवं आस पास की सीटें अगर योगी नहीं जिता पाते हैं तो वह खेमा हावी हो जाएगा और उत्तर प्रदेश में नए विकल्प तलाशे जाएंगे।

यदि विकल्प पर बात करें तो स्वतंत्र देव सिंह पिछड़ों के नेता हैं और मोदी खेमे के माने जाते हैं। एक अन्य नाम श्रीकांत शर्मा का हो सकता है जो मोदी के साथ संगठन में काम कर चुके हैं। अगर ठाकुर के स्थान पर ठाकुर को तरजीह देनी होगी तो राजनाथ सिंह उत्तर प्रदेश में भेजे जा सकते हैं। कुल मिलाकर 2019 का लोकसभा चुनाव सिर्फ मोदी की अग्निपरीक्षा नहीं है बल्कि कई बड़े कद्दावर भाजपाइयों के लिए भी परीक्षा की घड़ी है।

क्या साध्वी प्रज्ञा से सधेगा प्रखर हिन्दुत्व?

भाजपा का गिरता ग्राफ, राष्ट्रवाद की धीमी पड़ती लौ, आंतरिक असंतोष, मजबूत गठबंधन के बीच अब भाजपा की आस साध्वी प्रज्ञा के जरिये प्रखर हिन्दुत्व को साधने पर आकर टिक गयी है। भाजपा की नीतियों से मतदाता ने लाभ तो भरपूर लिया है किन्तु मतदान पर उसका प्रभाव अभी मतदाता जाहिर नहीं कर रहा है। 10-12 प्रतिशत का फ्लोटिंग वोटर अभी खामोश दिख रहा है। सोशल मीडिया पर इस वर्ग का रुझान अभी स्पष्ट नहीं है। यह वर्ग न तो राहुल के समर्थन में रुझान दिखा रहा है और न ही मोदी के विरोध में बोल रहा है। गठबंधन में जाने से यह वर्ग कतराता दिखता है। चूंकि राहुल के अंदर एक परिपक्व राजनेता के गुण अभी नहीं दिखते हैं इसलिए संभावित तौर पर यह मतदाता भाजपा की ओर रुख कर सकता है। असमंजस की स्थिति में यह नोटा में भी जा सकता है। साध्वी प्रज्ञा का प्रखर हिन्दुत्व एवं उन पर हुये अत्याचार के कारण यह कुछ कुछ भाजपा की तरफ मुड़ रहा है। इस संदर्भ में देखें तो भाजपा ने राष्ट्रवाद के मुद्दे पर जितना समय और ऊर्जा खराब की है उतना समय एवं ऊर्जा भाजपा अगर हिन्दुत्व के विषय पर खर्च कर देती तो 2019 में उसके स्पष्ट बहुमत में कोई बाधा ही नहीं थी।  साध्वी प्रज्ञा भोपाल से लड़ रही हैं और दिग्विजय सिंह के सामने हैं। मुंबई हमले में शहीद हेमंत किरकिरे पर वह बेहद तल्ख दिखती हैं। दिग्विजय सिंह की पार्टी के द्वारा सबसे पहले हिन्दू को आतंकवादी के रूप में प्रचारित करना साध्वी प्रज्ञा को फायदा देता दिख रहा है। अब चूंकि राहुल गांधी केरल के वलसाड से चुनाव लड़ रहे हैं तो मुस्लिम बाहुल्य होने के कारण उन पर मुस्लिम वोटों को रुझाने के आरोप भी लगे। प्रियंका के मंदिर जाने से हिंदुओं का जो झुकाव कांग्रेस ने प्राप्त किया था वह राहुल के वलसाड जाने से संतुलित हो गया। अब हिन्दुत्व का सारा दारोमदार भाजपा की नयी उमा भारती बन कर उभर रही साध्वी प्रज्ञा पर आकर टिक गया है।

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क्या भाजपा में समर्पण की राजनीति अब आत्मघाती है?

सत्ता के नशे में सराबोर भाजपा की राजनीति में जिस तरह से बाहर से लोग आ रहे हैं और पुराने समर्पित लोगों पर उन्हें लगातार तरजीह मिलती जा रही है उससे भाजपा में विचारधारा, समर्पण एवं बलिदान की राजनीति करने वाले कार्यकर्ताओं का मनोबल गिरता दिखता है। जिन लोगों ने वर्षों से पार्टी को अपनी मेहनत और संसाधनों से सींचा, वह आज हाशिये पर दिखते हैं। जिन लोगों ने अभाव के दिनों में दशकों से बैनर, पोस्टर लगाकर इस बात का इंतज़ार किया था कि जब उनकी सरकार आएगी तब उनको अहमियत मिलेगी, वह ठगा सा महसूस कर रहे हैं। 2014 में भाजपा की केंद्र में और 2017 में जब प्रदेश में सरकार आई तब जमीनी कार्यकर्ताओं में आस जगी थी। फिर दोनों सरकारों में उत्तर प्रदेश के प्रत्येक जि़ले को एक न एक मंत्री भी मिला तो स्थानीय कार्यकर्ताओं का उत्साह दोगुना होने लगा। पर कितने जमीनी कार्यकर्ताओं को सरकार बनने पर प्रोत्साहन मिला? इसका जवाब सब जानते हैं। 2019 के चुनावों से पूर्व कुछ बड़े कार्यकर्ताओं को दर्जा प्राप्त राज्यमंत्री तो बनाया गया किन्तु उसमें भी अपने लोगों को रेवडिय़ां ज़्यादा बांटी गईं। 2017 में भाजपा के जो विधायक दूसरे दलों से आये थे, उन्होंने भाजपा कार्यकर्ताओं से ज़्यादा अपने लोगों पर भरोसा किया। अपने लोगों को ज़्यादा काम में भागीदार रखा। भाजपा के उठते ग्राफ और जातिगत समीकरण के कारण सपा-बसपा से बहुत से बड़े नेता भाजपा में सिर्फ सत्ता की मलाई खाने आए थे। ये लोग जिन दलों से आये थे वहां अपने लोगों को प्रोत्साहित करने की परंपरा रही है। और यही परंपरा उनके कार्यकर्ताओं को उनके लिए समर्पित भी रखती है।

इसके साथ ही उत्तर प्रदेश में जब जब  सपा-बसपा की सरकार आयीं, तब तब इन दलों के आलाकमान ने अपने कार्यकर्ताओं का बहुत ध्यान रखा। इन दलों के लिए काम करने वाले छोटे से कार्यकर्ताओं ने भी अपनी सरकार होने पर अपने लिए इतने एवं पर्याप्त संसाधन जुटा लिए कि उनका बाकी जीवन यापन आसानी से हो सके। कुछ ने तो इतने ज़्यादा इकठ्ठा कर लिए कि उनकी सात पीढ़ी बिना कुछ करे आराम से खाती रहेंगी।  भाजपा कार्यकर्ता में एक खूबी होती है। भाजपा के विपक्ष में होने की स्थिति में वह अपने संसाधन लगाकर इस उम्मीद के साथ काम करता है कि एक दिन बदलाव होगा। उसकी सरकार आने पर उसका आलाकमान उसकी मेहनत और तपस्या का फल देगा। पर जब वर्षों बाद उसकी सरकार आती है तो ऐसा नहीं होता है। उस समय भाजपा के अंदर की नैतिकता जाग जाती है। वह घर फूककर उजाला करने वाले अपने कार्यकर्ताओं को भूल जाती है। नए लोगों की भर्ती आरंभ आ जाती है। सत्ता प्रेमी लोग जंगली घास की तरह स्वत: प्रस्फुटित होने लगते हैं एवं घर की तुलसी उसके बीच मुरझाने लगती है। चूंकि, भाजपा और संघ का कार्यकर्ता विकल्पहीन होता है इसलिए वह शांत रहकर चुपचाप अपने घर बैठ जाता है। चुनावों में रुचि कम कर देता है। समाज में जागरूकता अभियान में उत्साह नहीं दिखाता है। 2019 में इस बार कुछ ऐसी ही स्थिति दिखाई दे रही है। भाजपा में नेताओं का जमघट तो दिख रहा है किन्तु कार्यकर्ताओं का उत्साह नदारद दिखता है। मोदी के प्रति आशा का भाव तो अभी जि़ंदा है किन्तु स्थानीय स्तर पर नयी भर्ती एवं पुराने कार्यकर्ताओं में सामंजस्य की कमी साफ दिखती है। मोहन भागवत का बयान कि सरकारें पांच साल में आती जाती रहती हैं, भी कुछ मायने रखता है। अब जहां मतदान के दिन कार्यकर्ताओं में जोश दिख रहा है वहां तो भाजपा सुदृढ़ हैं। वहां परिणाम 2014 वाले होंगे अन्यथा कम वोटिंग के कारण 2004 बनने में भी देर नहीं लगेगी।

-अमित त्यागी

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)

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