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भद्रलोक में सियासी जंग

भारतीय जनता पार्टी के लिए अब तक सबसे चुनौतीपूर्व वह पश्चिम बंगाल राज्य रहा है, जहां उसके पूर्ववर्ती संगठन भारतीय जनसंघ के संस्थापक डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी का जन्म हुआ। पहले भारतीय जनसंघ और बाद में भारतीय जनता पार्टी बनने के बावजूद पार्टी का ना तो राज्य की विधानसभा और ना ही लोकसभा में उल्लेखनीय नुमाइंदगी रही। 1967 में जब गैरकांग्रेसवाद के नारे पर पश्चिम बंगाल में भी गैरकांग्रेसी दलों का गठबंधन बना तो उसमें तत्कालीन जनसंघ महज एक सीट जीतने में ही कामयाब रहा था। बाद के दौर में अटल बिहारी वाजपेयी की अगुवाई में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन बना तो उसमें वामविरोध की धुरी बन चुकी तब बंगाल की शेरनी कही जाने वाली ममता बनर्जी की पार्टी तृणमूल कांग्रेस भी शामिल हुई। इस गठबंधन का 1998 में पश्चिम बंगाल में भारतीय जनता पार्टी को फायदा हुआ, जिसे तब दो लोकसभा सीटों पर जीत हासिल हुई। लेकिन बाद में यह गठबंधन टूट गया। इसके बाद से भारतीय जनता पार्टी लगातार पश्चिम बंगाल की माटी में अपनी ताकत बढ़ाने की जुगत ही लगाती रही। लेकिन उसका यह पुराना सपना लगता है कि अब पूरा हो जाएगा। हालिया लोकसभा चुनावों में पार्टी ने चौंकाते हुए ना भरपूर वोट हासिल किए, बल्कि राज्य की 18 लोकसभा सीटों पर जीत हासिल कर ली। भाजपा को 2014 में करीब 18 फीसद वोट मिले थे और इस बार इसमें 22 फीसद का इजाफा हुआ और उसे करीब 40.25 फीसदी वोट मिले। जाहिर है कि उसके वोट प्रतिशत में करीब करीब 22 फीसद बढ़ा है।

इससे भारतीय जनता पार्टी का उत्साहित होना स्वाभाविक है। पिछले लोकसभा चुनाव में तृणमूल कांग्रेस को 34 सीटें मिली थीं, जिसमें से इस बार 12 घट गई हैं।

पश्चिम बंगाल के 34 साल के वाम शासन को जब साल 2011 में ममता बनर्जी ने उखाड़ फेंका तो राष्ट्रीय स्तर पर उनकी छवि ऐसे नेता की बनी, जो अपने दमखम पर कैडर आधारित दल की चुनौती को भी खत्म कर सकती हैं। लेकिन यह संयोग ही है कि इस बार उन्हें दूसरे कैडर आधारित दल ने ही जोरदार चुनौती दी है। भारतीय जनता पार्टी को भी कैडर आधारित दल ही माना जाता है। इससे ममता बनर्जी का बौखलाना स्वाभाविक है। उन्हें अब 2021 में राज्य की गद्दी जाने का खतरा नजर आने लगा है। भारतीय जनता पार्टी की बढ़ती ताकत और उससे उपजने वाली चुनौतियों को वह पहले ही भांप गई थीं। इसका अंदाजा इसी बात से लगा कि उन्होंने कोलकाता के परेड ग्राउंड में मोदी विरोधी दलों की जुटान कराई। इस जुटान में कांग्रेस ने अपना नुमाइंदा भेजा। हालांकि पश्चिम बंगाल के उनके पारंपरिक विरोधियों ने इस जुटान में शिरकत नहीं की। तब मोदी से नाराज आंध्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री एन चंद्रबाबू नायडू ने भी मोदी सरकार को उखाड़ फेंकने का जैसे प्रण कर लिया था। कोलकाता के परेड ग्राउंड के मैदान पर हुई जुटान में उनकी उपस्थिति भी रही। लेकिन पश्चिम बंगाल में आए चुनाव नतीजों ने जाहिर कर दिया है कि यह जुटान राज्य की जनता को बड़ा संदेश नहीं दे पाया। इन नतीजों से यह भी जाहिर है कि पश्चिम बंगाल की जनता भारतीय जनता पार्टी में अपनी उम्मीद देख रही है। यह उम्मीद का देखना ही है कि राज्य में तृणमूल कांग्रेस का वोट भले ही बढ़ा, उसे नुकसान उठाना पड़ा। क्योंकि राज्य में ध्रुवीकरण बढ़ा। राज्य में तमाम दलों को मिले मत प्रतिशत से साफ है कि पश्चिम बंगाल में लड़ाई सीधे भाजपा और तृणमूल के बीच थी। लेकिन तृणमूल के वोट को भाजपा जरा भी नहीं काट पाई। भाजपा वामदलों और कांग्रेस के वोट को ही काट पाने में सफल हो सकी। पिछले लोकसभा चुनाव में वामदलों को करीब 29 फीसद वोट मिले थे, जो इस बार घटकर सिर्फ आठ-नौ फीसद रह गया। इसी तरह पिछले आम चुनाव में कांग्रेस को नौ फीसद वोट मिले थे, जो इस बार घटकर सिर्फ चार फीसद रह गए। 2016 के विधानसभा चुनावों में राज्य की 294 सीटों में से ममता को 211 सीटें मिली थीं, जबकि वाम दलों को 44 और कांग्रेस को 26 सीटों पर संतोष करना पड़ा था। अगर लोकसभा चुनावों में मिले मतों के ही रूझान से भावी विधानसभा चुनावों को देखने की कोशिश करें तो यह ध्रुवीकरण और बढ़ेगा। इसे राज्य के नेता भांप भी गए हैं। हर हफ्ते विधायकों, नगर निकायों के सभासदों और जिला पंचायतों के अध्यक्षों व सभासदों का लगातार भारतीय जनता पार्टी में शामिल होना इस बढ़ते ध्रुवीकरण को ही जाहिर करता है। तृणमूल कांग्रेस को पिछले लोकसभा चुनाव में 39 फीसद ही वोट मिले थे जो इस बार साढ़े तीन फीसद बढ़कर 43.28 प्रतिशत हो गए। हालांकि उसकी सीटें 34 से घटकर 22 रह गईं। जबकि अकेले सीपीएम के14 फीसद और कांग्रेस के चार फीसदी और अन्य दलों के करीब पांच फीसद वोट घटे हैं जो अधिकांश भाजपा की झोली में गए हैं।

वैसे तो ममता ने हर चुनाव में मुस्लिम वोटरों का दिल जीतने की कोशिश की, लेकिन पिछले विधानसभा चुनाव में उनका यह दांव कुछ ज्यादा ही कामयाब रहा। गौरतलब है कि पश्चिम बंगाल उन राज्यों में है, जहां मुस्लिम वोटर काफी संख्या में हैं। यहां करीब 28 फीसद मुस्लिम वोटर हैं। इन वोटरों का दिल जीतने के लिए ममता ने तुष्टिकरण की नीति पर काम किया। कुछ माह पहले तक मालदा और दूसरे मुस्लिम बहुल जिलों में जिस तरह हिंदू समुदाय पर हमला और प्रशासन चुप रहा, उससे ध्रुवीकरण को बढ़ावा मिला। भारतीय जनता पार्टी वैसे पहले से ही राज्य में पैठ बढ़ाने की कोशिश में थी। उसके व्यापक विचार परिवार के तमाम संगठन अपने-अपने लेवल पर काम कर ही रहे थे। लेकिन भारतीय जनता पार्टी को कामयाबी मिलनी लगातार आसान होती गई, जब ममता ने भारतीय जनता पार्टी को रोकने के लिए अलोकतांत्रिक कदम भी उठाने शुरू कर दिए। उन्होंने कोलकाता के पुलिस कमिश्नर रहे राजीव कुमार को बचाने के लिए जिस तरह सीबीआई टीम को हिरासत में लेने का आदेश दिया, उससे संदेश यह गया कि ममता ना सिर्फ धार्मिक आधार पर वोटरों का तुष्टिकरण कर रही हैं, बल्कि भ्रष्ट अधिकारियों को बचा भी रही हैं। पश्चिम बंगाल की जनता को लगा कि अब वाममोर्चे में कोई दम भी नहीं है। फिर वाममोर्चे के शासन के दौर में जिस तरह विरोधियों को येन-केन प्रकारेण दबाया जाता था, ठीक उसी अंदाज में तृणमूल के भी कार्यकर्ता भी विरोधियों की आवाज दबाने लगे। इसके बाद राज्य की जनता का गुस्सा फूटना ही था। बस उसे यह भरोसा दिलाना था कि उसके वोट नाकाम नहीं होंगे। फिर तो वह ममता के खिलाफ उतर पड़ी।

पश्चिम बंगाल में पंचायत चुनावों के दौरान से जो राजनीतिक हिंसा शुरू हुई, वह अब तक थमने का नाम नहीं ले रही है। तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ता लगातार भाजपा कार्यकर्ताओं को निशाना बना रहे हैं। हालांकि तृणमूल कांग्रेस के नेता इसे भाजपा की उकसावे की कार्रवाई बताते हैं। उसके एक नेता दुलालचंद्र का आरोप है कि भाजपा हिंसा के जरिए राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाने के मौके ढूंढ़ रही है। जून के दूसरे हफ्ते में जिस तरह राज्य के राज्यपाल केसरीनाथ त्रिपाठी ने गृहमंत्री अमित शाह से मुलाकात की, उससे ना सिर्फ तृणमूल सशंकित हो उठी, बल्कि राजनीतिक हलकों में पश्चिम बंगाल में केंद्र द्वारा कड़ी कार्रवाई करने की आशंका को बल मिला। वैसे ममता जिस तरह का बर्ताव कर रही हैं, जय श्रीराम कहने पर भाजपा कार्यकर्ताओं के खिलाफ खुद ही कार्रवाई करती नजर आती हैं, अनर्गल बयानबाजी को बढ़ावा दे रही हैं और राजनीतिक हिंसा को सामान्य हिंसा बता रही हैं, उससे लगता है कि वे केंद्र सरकार को उकसा रही हैं कि वह राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाए। वैसे भी बोम्मई फैसले के बाद राष्ट्रपति शासन को संसद की मंजूरी दिलाना जरूरी है। राज्यसभा में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन का बहुमत ना होने के चलते पश्चिम बंगाल में राष्ट्रपति शासन को मंजूरी दिला पाना आसान नहीं होगा। वैसे ममता चाहेंगी कि वे शहीद दिखें। इसके लिए उन्होंने बांग्ला स्वाभिमान का नारा भी दिया है। लेकिन केंद्र ने भी कच्ची गोलियां नहीं खेली हैं। वह ममता को शहादत का मौका शायद ही दे। हालांकि केंद्रीय गृहमंत्रालय ने हाल में पश्चिम बंगाल को एडवाइजरी जारी करके राजनीतिक हिंसा रोकने को कहा है। इसके साथ ही राजनीतिक हिंसा में हुई मौतों की जानकारी भी मांगी है।

लेकिन ममता का जो स्वभाव रहा है, उससे नहीं लगता है कि वे झुकेंगी। वे अपनी तरह से मुस्लिम तुष्टिकरण, बांग्ला स्वाभिमान और भाजपा विरोध की राजनीति करती रहेंगी। जय श्रीराम के नारे के खिलाफ उनकी बौखलाहट से जाहिर है कि वह बदलने वाली नहीं है। ऐसे में भारतीय जनता पार्टी के लिए स्थितियां लगातार अनुकूल होती रहेंगी। उसे सिर्फ एक सावधानी बरतनी होगी। पश्चिम बंगाल की रवायत बन गई है कि असमाजिक तत्व सत्ता के साथ आ जाते हैं और सत्ता के संरक्षण में विरोधियों पर हमले करते हैं। पहले जो असामाजिक तत्व वाममोर्चे के साथ थे, वे सत्ता बदलते ही तृणमूल के साथ आ गए। कहा जा रहा है कि अब उनमें से कईयों ने भाजपा की तरफ हाथ बढ़ाना शुरू किया है। उन पर भाजपा काबू पाना होगा। तभी 2021 के विधानसभा का संग्राम उसके लिए आसान होगा, तब कोलकाता के शक्ति केंद्र रायटर्स बिल्डिंग पर वह कब्जा कर सकेगी और तभी सही मायने में वह अपने संस्थापक डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी को सही मायने में श्रद्धांजलि देने में कामयाब होगी।

उमेश चतुर्वेदी

 

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