देश की वर्तमान स्थिति में प्रायः सभी राजनैतिक दलो के नेताओं में 5 विधान सभाओं में होने वाले चुनावों की सनसनाहट धीरे धीरे बढ़ती जा रही है।उत्तर प्रदेश में सबसे अधिक असमंजस का वातावरण बना हुआ है। मुख्य बिंदू यह है कि 2019 के लोकसभा चुनावों में बीजेपी की संभावित जीत पर अंकुश कैसे लगाया जायें ? इसके लिए अपने सिद्धांतों को त्याग कर गठबंधन को स्वीकारना राष्ट्र की सबसे बड़ी व पुरानी कांग्रेस पार्टी की विवशता बन गयी । समाजवादी व कांग्रेस का यह गठबंधन प्रदेश में कितना सफल होगा इससे भविष्य की राजनीति का एक रोडमेप अवश्य बन सकता है। परंतु क्या यह अपने आप में कांग्रेस की एक बड़ी हार नही कि उसने 403 सदस्यों वाली उ.प्र. की विधान सभा में अपने केवल 102 उम्मीदवार खड़े किये है। जबकि पारिवारिक कलह से ग्रस्त समाजवादी को गठबंधन में 301 स्थान दिए गये। क्या कांग्रेस को अपने स्टार प्रचारक राहुल और प्रियंका पर भरोसा नहीं रहा ? यह कैसा अत्याचार है कि अनेक परिपक्व, अनुभवी व वरिष्ठ नेताओं की भरमार होने के उपरान्त भी भाई-बहिन की जोड़ी नेहरु-गांधी वंश की “कांग्रेसी विरासत” को पिछले 10-15 वर्षों से अपने कोमल कंधों पर ढो रही है ? फिर भी बेचारे-बेचारी उत्तर प्रदेश में 2012 में 28 विधायक व 2014 में सांसद के रुप में सोनिया और राहुल (माँ-बेटे) को ही जिताने में सफल हुये ।
लेकिन राष्ट्रवादी बीजेपी को भी चुनावों में जीत की चाहत ने अपने सिद्धांतों से समझौता करने को विवश कर दिया । अपने समर्पित कार्यकर्ताओं की अवहेलना करते हुए दल-बदलुओं को उम्मीदवार बना कर बीजेपी ने अपने प्रतिद्वंदियों को चुनौती अवश्य दी है , पर क्या इससे उसका भविष्य लाभान्वित होगा। बीजेपी बिहार और दिल्ली की हार से भी कुछ सार्थक तथ्य नहीं जुटा पायी। साथ ही अपनी परंपरागत वोट बैंक के प्रति सक्रिय न रहने वाली राष्ट्रवादी पार्टी ‘राजमद’ में बंग्लादेशी घुसपैठियों, पाकिस्तानी/इस्लामिक आतंकवाद और विस्थापित कश्मीरी हिन्दुओं आदि को भी भुला बैठी है। सर्जिकल स्ट्राइक व नोटबंदी ने मोदी सरकार की कठोर निर्णय लेने की क्षमता को दर्शाया है परंतु अभी भी राष्ट्रवादी समाज के टूटे हुए मनोबल के लिये बहुत कुछ करने की आवश्यकता है।
प्रादेशिक सरकार की प्रमुख दावेदार दलित-मुस्लिम गठजोड़ की धर्म व जाति आधारित राजनीति करने वाली सुश्री मायावती ने मुसलमानों द्वारा हो रहे दलित हिन्दुओं के उत्पीड़न पर कभी विरोध प्रकट नहीं किया । बात-बात में दलितों की भलाई के सपने दिखाने वाली दौलत की बेटी को जम्मू- कश्मीर में पाकिस्तान से 1947 में आये लाखो दलित हिन्दू शरणार्थी जो 70 वर्षो से अपने ही देश में अनेक मौलिक अधिकारों से वंचित है की पीड़ा, पीड़ित नहीं करती । मायावती जी का राजनैतिक जीवन सदैव सुखमय रहा परंतु वे सामान्य दलितों का उत्थान करने से बचती रही ? वैसे भी वे चुनावों से कुछ माह पूर्व सक्रिय होकर विभिन्न विषयों पर सत्ताधारी दल के विरुद्ध बयानबाजी करती है।
शेष रालोद, जदयू, नेलोपा आदि अन्य दल तो केवल अपनी पहचान बचाने के लिये ही चुनावी मैदान में उतरते है।
यह एक अति विचारणीय विषय है कि भगवान श्रीराम और श्रीकृष्ण की भूमि में कुशल राजनीतिज्ञयो के अभाव होने से राजनीति में निरंतर गिरावट आ रही है।महान राजनीतिज्ञ आचार्य चाणक्य का सन्देश लोग भूल गये है जिसके अनुसार “अगर आप राजनीति में सक्रिय नहीं रहेंगे तो अपने से कम बुद्धिमान लोगो का राज सहेंगे”। अतः राष्ट्र की “राजनीति” में सक्रियता सबसे उत्तम कार्य है । इसके लिये समाज को राजनीति के प्रति नकारात्मक विचार त्याग कर कुछ सकारात्मक सोच कर इसको पावन करना होगा। अन्यथा राजनीति में बढ़ता हुआ वंशवाद एक दिन लोकतांन्त्रिक मूल्यों को ही निर्मूल कर देगा और हम सब ठगे जाते रहेंगे ?
भवदीय
विनोद कुमार सर्वोदय