By अमित त्यागी
राम के प्रति गांधी जी के मन में जो श्रद्धा थी उसका उदभव उनकी दाई रंभा के द्वारा हुआ था। गांधी जी ने इसका जि़क्र स्वयं अपनी आत्मकथा में किया है कि उनके मन में राम नाम का बीज़ जो बचपन में बोया गया था उसका क्रमिक विकास होता गया। जीवन साधना में जब भी गांधी जी मानसिक, शारीरिक या आध्यात्मिक कठिनाईयों से गुजरे। राम नाम ने उनको संबल प्रदान किया। राम के नाम को गांधी जी ने धर्म की सीमाओं से परे वर्णित किया। इसका उदाहरण उनके द्वारा हरिजन सेवक में 28-04-1946 को लिखे लेख में मिलता है जिसमें आप लिखते हैं।
”जब कोई ये ऐतराज उठाता है कि राम का नाम लेना या राम धुन गाना सिर्फ हिन्दुओं के लिए है, मुसलमान उसमें किस तरह शरीक हो सकते हैं, तब मुझे मन ही मन हंसी आती है। क्या मुसलमानों का भगवान हिन्दुओं, पारसियों या ईसाइयों के भगवान से जुदा है? नहीं, सर्वशक्तिमान और सर्वव्यापी ईश्वर तो एक ही है। उसके कई नाम हैं, और उसका जो नाम हमें सबसे ज़्यादा प्यारा होता है, उस नाम से हम उसको याद करते हैं। मेरा राम, हमारी प्रार्थना के समय का राम, वह ऐतिहासिक राम नहीं है जो दशरथ का पुत्र और अयोध्या का राजा था। वह तो सनातन, अजन्मा और अद्वितीय राम है। मैं उसी की पूजा करता हूं। उसी की मदद चाहता हूं। आपको भी यही करना चाहिए। वह समान रूप से सब किसी का है। इसलिए मेरी समझ में नहीं आता कि क्यों किसी मुसलमान को या दूसरे किसी को उसका नाम लेने में ऐतराज होना चाहिए? लेकिन यह कोई जरूरी नहीं कि वह राम के रूप में ही भगवान को पहचाने-उसका नाम लें। वह मन ही मन अल्लाह या खुदा का नाम भी इस तरह जप सकता है, जिससे उसमें बेसुरापन न आवे।”
गांधी जी के इस वक्तव्य पर प्रश्न चिन्ह भी लगे कि कैसे उन्होंने एक राम धुन की ऐसी व्याख्या कर दी? इस पर उनसे सवाल पूछा गया कि आप कहते हैं कि प्रार्थना में प्रयुक्त राम का आशय दशरथ के पुत्र राम से नहीं बल्कि जग नियंता से है। हमने भली भांति देखा है कि रामधुन में राजाराम, सीताराम का कीर्तन होता है और जयकार भी सीतापति रामचंद्र की जय का लगता है। फिर सीतापति राम कौन हैं? राजाराम कौन हैं? क्या ये दशरथ सुपुत्र राम नहीं हैं? इसका जवाब महात्मा गांधी हरिजन सेवक के 02 जून 1946 में छपे एक लेख के माध्यम से देते हैं।
”राम से राम नाम बड़ा है। हिन्दू धर्म महासागर है। उसमें अनेक रत्न भरे हैं। जितना गहरे पानी में जाओ, उतने ज़्यादा रत्न मिलते हैं। हिन्दू धर्म में ईश्वर के अनेक नाम हैं। सैंकड़ों लोग राम कृष्ण को ऐतिहासिक व्यक्ति मानते हैं और मानते हैं कि जो राम दशरथ के पुत्र माने जाते हैं, वही ईश्वर के रूप में पृथ्वी पर आए और उनकी पूजा से आदमी मुक्ति पाता है। ऐसा ही कुछ कृष्ण के लिये है। इतिहास, कल्पना और शुद्ध सत्य आपस में इतने ओतप्रोत हैं कि उन्हें अलग करना लगभग असंभव है। मैंने अपने लिये ईश्वर की सब संज्ञाएं रखी हैं और उन सबमें मैं निराकार, सर्वस्व राम को ही देखता हूं। मेरे लिये मेरा सीतापति दशरथ नन्दन कहलाते हुये भी वह सर्वशक्तिमान ईश्वर ही है जिसका नाम हृदय में होने से मानसिक, नैतिक और भौतिक सब दुखों का नाश हो जाता है।”
गांधी जी के राम की व्याख्या के अगले क्रम में गांधी जी कहते हैं कि मेरे पास सवालों की झड़ी लगी रहती है और पूछा जाता है कि आप अपने आपको मुसलमान क्यों कहते हैं? आप ऐसा क्यों मानते हैं कि राम और रहीम में कोई अंतर नहीं है। आपने यहां तक कैसे कह दिया कि कलमा पढऩे में भी आपको कोई ऐतराज नहीं है। आगे गांधी जी बताते हैं कि मेरे पास लोगों के इस तरह के गुस्से से भरे सवालों से भरे पत्रों की झड़ी लगी रहती है। यहां तक कि मेरे पास एक ऐसा पत्र भी आया है जिस पर मोहम्मद गांधी लिखा था। इसके बाद गांधी जी राम के नाम को स्पष्ट करते हुये सर्वधर्म सम्भाव से जोड़ते हैं और उनका ये पत्र हरिजन में 27 अप्रैल 1947 को प्रकाशित हुआ था।
”कुछ लोगों के पापों के लिये इस्लाम को क्यों और कैसे दोष दिया जा सकता है। मैं सनातनी हिन्दू होने का दावा करता हूं। और चूंकि हिन्दू धर्म का निचोड़ और दुनिया के सारे धर्मों का निचोड़ सर्व धर्म सम्भाव है, मेरा यह दावा है कि अगर मैं अच्छा हिन्दू हूं तो मैं एक अच्छा मुसलमान और अच्छा ईसाई भी हूं। अपने को या अपने धर्म को दूसरों से ऊंचा मानने का दावा करना धर्म भावना के खिलाफ है। नम्रता अहिंसा की जरूरी शर्त है। क्या हिन्दू धर्म ग्रन्थों में यह नहीं कहा गया है कि ईश्वर के हज़ार नाम हैं? तो रहीम उनमें से एक क्यों नहीं हो सकता? कलमा सिर्फ भगवान की तारीफ करता है और मोहम्मद को उसका पैगंबर मानता है। जैसे मैं बुद्ध, जरथुस्त और ईसा को मानता हूं। वैसा ही ईश्वर की तारीफ करने में और मोहम्मद को पैगंबर मानने में मुझे कोई हिचकिचाहट नहीं है।”
इसके आगे (हरिजन- 12 अगस्त 1938) के अंक में छपे अपने लेख में वह कहते हैं कि ‘इस्लाम का अल्लाह वही है, जो इसाइयों का गॉड और हिन्दुओ का ईश्वर है। जिस तरह हिन्दू धर्म में ईश्वर के अनेक नाम हैं, उसी तरह ईश्वर के भी अनेक नाम हैं, उसी तरह इस्लाम में भी ईश्वर के कई नाम हैं। वे नाम व्यक्तित्व को नहीं गुणों को बताते हैं। और तुच्छ मनुष्य ने अपने नम्र तरीके से सर्वशक्तिमान ईश्वर का उसके गुणों द्वारा वर्णन करने का प्रयत्न किया है, यद्यपि यह गुणातीत, अवर्णणीय और असीम है।’ गांधी जी कहते हैं कि ‘जिन्हें थोड़ा भी अनुभव है वह दिल से गायी जाने वाली रामधुन की, यानि भगवान का नाम जपने की शक्ति को जानते हैं। मैं लाखों सिपाहियों के अपने बैंड की लय के साथ कदम उठाकर मार्च करने से पैदा होने वाली ताक़त को जानता हूं। फौजी ताकत ने दुनिया में जो बरबादी की है उसे रास्ता चलने वाला भी देख सकता है। हालांकि, यह कहा जाता है कि लड़ाई खत्म हो गयी है फिर भी उसके बाद के नतीजे लड़ाई से भी ज़्यादा बुरे साबित हुये हैं। यही फौजी ताकत के दिवालियेपन का सबूत है।’
”मैं बिना किसी हिचकिचाहट के यह कह सकता हूं कि लाखों आदमियों द्वारा सच्चे दिल से एक ताल और एक लय के साथ गायी जाने वाली रामधुन की ताक़त फौजी ताक़त के दिखावे से बिलकुल अलग और कई गुना बढ़ी-चढ़ी होती है। दिल से भगवान का नाम लेने से आज की बरबादी की जगह टिकाऊ शांति और आनंद पैदा होगा।” (हरिजन सेवक, 31 अगस्त 1947)
यानि की एक बात तो साफ है कि यदि किसी देश के करोड़ों लोग एक ही ध्वनि के साथ एक ही मंत्र का जाप करेंगे तो उसकी गूंज पूरे विश्व में सुनी जाएगी। रघुपति राघव राजाराम, पतित पावन सीताराम का जाप अगर नियमित तौर पर निरंतरता के साथ किया जायेगा तो यह संगठित राष्ट्रवाद को मजबूती प्रदान करेगा। इसके साथ ही गांधी जी के राष्ट्रवाद में कर्म को भी महत्व दिया गया है। इस संबंध में एक बार उनसे प्रश्न किया गया था कि क्या किसी पुरुष या स्त्री के द्वारा राष्ट्रीय सेवा में भाग लिए बिना राम नाम के उच्चारण मात्र से आत्म दर्शन प्राप्त हो सकता है? गांधी जी के द्वारा इस प्रश्न का उत्तर ऐसे दिया गया।
”इस प्रश्न ने केवल स्त्रियों को ही नहीं बल्कि बहुत से पुरुषों को भी उलझन में डाल रखा है और मुझे भी इसने धर्म संकट में डाला है। मुझे यह बात मालूम है कि कुछ लोग इस सिद्धान्त के मानने वाले हैं कि काम करने की कतई जरूरत नहीं है और परिश्रम मात्र व्यर्थ है। मैं इस ख्याल को बहुत अच्छा तो नहीं कह सकता हूं। अलबत्ता, अगर मुझे उसे स्वीकार करना ही हो, तो मैं उसके अपने ही अर्थ लगाकर उसे स्वीकार कर सकता हूं। मेरी नम्र सम्मति यह है कि मनुष्य के विकास के लिए परिश्रम करना अनिवार्य है। फल का विचार किये बिना परिश्रम करना आवश्यक है। रामनाम या ऐसा ही कोई पवित्र नाम जरूरी है-महज लेने के लिए ही नहीं, बल्कि आत्मशुद्धि के लिए, प्रयत्नों को सहारा पहुंचाने के लिये और ईश्वर से सीधे सीधे रहनुमाई पाने के लिये। मेरे लिये तो राष्ट्रसेवा का अर्थ मानव जाति की सेवा है। रामनाम से मनुष्य में अनासक्ति और समता आती है, रामनाम कभी उसे आपत्तिकाल में धर्मच्युत नहीं होने देता। गरीब से गरीब लोगों की सेवा किये बिना या उनके हित में अपना हित माने बिना मोक्ष पाना मैं असंभव मानता हूं।” (हिन्दी नवजीवन, 21 अक्तूबर 1926 )
इस तरह से महात्मा गांधी के राम सिर्फ हिंदुओं के राम नहीं हैं बल्कि वह पूरे हिंदुस्तान के ईष्ट हैं। वह मुसलमानों के लिए भी उतने ही पूजनीय हैं जितने कि हिन्दुओं के लिए। महात्मा गांधी के अनुसार राम राष्ट्रवाद के परिचायक हैं तो रामधुन की ताकत फौजी ताकत से भी ज़्यादा ताकतवर है। गांधी को आदर्श मानने वाले लोगों को गांधी के राम को भी अंगीकृत करना चाहिए।
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं )
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ईसाइयत का मुख्य रूप ही रहा है युद्ध
एक राजपुरुष के रूप में गांधी जी ने एक सधा हुआ वक्तव्य दिया कि सभी धर्म पंथ एक ही धर्म वृक्ष की शाखाओं जैसे हैं। उसके आगे वे विस्तार से बोले कि धर्म के निष्कर्ष तो सार्वभौम हैं। सत्य, अहिंसा, अस्तेय, संयम, असंग्रह आदि।
फिर उसको स्पष्ट भी किया कि हिन्दू धर्म में एक अधर्म आ गया है। जातिगत अस्पृश्यता जो स्वाभाविक नहीं है और मूल में नहीं था। फिर यह भी स्पष्ट किया कि इस्लाम का अधर्म या पाप है तलवार के जोर से दूसरों को मुसलमान बनाना। और ईसाइयों का मुख्य पाप है युद्ध जो उन्होंने अन्य धर्मों समाजों और सभ्यताओं को अपने अधीन लाने के लिए किये। बार बार यह कहा कि ईसाइयत का मुख्य रूप रहा है युद्ध। जो अन्यों के ईसाईकरण के लिए लड़े गए। परन्तु उनके कथित अनुयायियों ने (अगर वे अनुयायी हैं तो उनका शत्रु कौन है यानी वे गांधी जी के शत्रु हैं अनुयायी के भेष में) तो उस सत्य को कभी भी नहीं कहा।
तब भी गांधीजी की जो बात प्रचारित हुई वह वो थी जो वे कभी कहीं बोले ही नहीं। पर राज्य बल से जिस झूठ को नेहरूजी ने फैलाया कि सब धर्म एक हैं और इसकी व्याख्या यों की कि कोई पंथ या मज़हब यदि मार काट, झूठ छल को भी मज़हब बताए तो भी वह उनके बराबर हैं जो धर्म अहिंसा सत्य आदि को सर्वोपरि बताए। इस से प्रमाणित है कि बात वह फैलती है जो या तो शक्तिशाली समाज फैलाता है या राज्य। मूल में क्या कहा गया था उसकी ओर ध्यान नहीं दिया जाता है।
गांधीजी ने बारंबार कहा कि मेरी मान्यता है कि मोहम्मद साहब महान शिक्षक हैं पर वे आखरी पैगम्बर नहीं हैं। इसी प्रकार यह कहा कि ईसा मसीह महान शिक्षक हैं पर वे गॉड के इकलौते बेटे नहीं हैं। यह भी बारंबार कहा कि इस्लाम में इन्सानी भाईचारे की बात बिल्कुल नहीं है। केवल मुस्लिम भाईचारे की बात है। परन्तु मोदी जी सहित गांधीजी का कोई भी प्रशंसक यह कहने की हिम्मत नहीं रखता। उससे पुन: स्पष्ट है कि लोग महापुरुषों का नाम भर लेते हैं। करते तो अपने मन की है। अल्लाह के दो अर्थ है। पहला महादेव, यह उनका प्राचीन अर्थ है अरब में। जो कण कण में व्याप्त हैं। दूसरा, इस्लाम के पैगम्बर मोहम्मद साहब को अन्तिम रसूल और नबी बनाकर भेजने वाली सत्ता जो सातवें आसमां पर है। जिसका नूर सब जगह फैल रहा है। यह इस्लामी अर्थ है जो आठवीं शती ईस्वी से फैला। अल श्रद्धेय के लिए विशेषण है। लाह मूल नाम है। गान्धीजी ने जब ‘ईश्वर अल्लाह तेरे नाम’ गाया और गवाया तो सोचा, मूल अर्थ फैल जाएगा (मुसलमानों में भी)। वे दिन रात सक्रिय मज़हबी संगठन की शक्ति को हल्के से ले बैठे। हुआ यह कि उनका भजन आज तक करोड़ों हिन्दुओं ने झूम झूम गाया है पर कुल एक सौ मुसलमानों ने भी आज तक नहीं गाया। इस दृष्टि से वे विफल राजपुरुष रहे पर लक्ष्य सदा बड़ा रहा। किन्तु राजनीति के भीतर वे बड़े कठोर रहे। केवल अपनी चलाई। नेताजी सुभाष के मामले में, भगतसिंह के प्रकरण में, सब जगह। केवल नेहरू जी से वे दबते रहे किसी काऱण। नेहरू ने उन्हें छल से पछाड़ा और खुद अंग्रेजों के अधिक विश्वासपात्र बन गए।
अब जिन्हें यह नहीं पता कि वर्तमान विश्व व्यवस्था यूरो अमेरिकी चिन्तन और संस्थाओं तथा सेनाओं से नियंत्रित निर्देशित और प्रभावित है, वे देश के नाम पर राजनीतिक चर्चा कृपा करके बंद कर भगवद्भजन करें। क्यों शक्ति समय और जीवन नष्ट करना। इसके साथ ही राजनीतिक रूप में सजग हिन्दुओं को देश भर में बड़ी संख्या में सभाएं कर अपनी असुरक्षा का और शासन द्वारा सुरक्षा न दिए जाने का मुद्दा उठाकर ‘शस्त्र लाइसेंस और शस्त्र प्रशिक्षण’ दिया जाए। स्वयं नहीं सूझता तो शिया मुसलमानों से सीख लें। जो यही कर रहे हैं। इसका विरोध करने वाले को उत्तर देने में न पड़ें। यह मूर्खतापूर्ण बहसबाजी घातक है। दुष्टों की उपेक्षा का प्रावधान है।
-रामेश्वर मिश्र ‘पंकज’ (लेखक वरिष्ठ विचारक हैं )