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भ्रष्टाचार के चक्रवात में सोनिया से चमत्कार की उम्मीद?

सोनिया गांधी के पुन: अध्यक्ष बनने के बाद कांग्रेसियों में उम्मीद जगी थी कि उनके अच्छे दिन फिर आएंगे और सोनिया एक बार फिर विपक्ष का नेतृत्व करते हुए नरेंद्र मोदी को सत्ता से हटाने और सरकार बनाने में सफल होंगी। पिछले लोकसभा चुनावों में सोनिया गांधी ने भारतीय जनता पार्टी को 2004 के चुनाव याद दिलाए थे जब कांग्रेस अटलबिहारी वाजपेयी को हटा सरकार बनाने में सफल हुई थी। लेकिन क्या सोनिया गांधी अब वो कहानी दोहरा पाएंगी? क्या विपक्ष उनके नेतृत्व में एकजुट हो पाएगा? इसकी पड़ताल की जानी चाहिए।

सोनिया गांधी की राह में सबसे बड़ा रोड़ा तो उनके परिवार और पार्टी के वरिष्ठ नेताओं का भ्रष्टाचार है। आजकल यूपीए सरकार में वित्त और गृह मंत्री रहे पी चिंदबरम के भ्रष्टाचार और उनकी गिरफ्तारी की खबरें सुर्खियों में हैं। दिल्ली उच्च न्यायालय ने जब आईएनएक्स मीडिया मामले में उनकी गिरफ्तारी से रोक हटाई तो वो अचानक फरार हो गए। इस पर मीडिया में हल्ला मच गया। मुख्यधारा मीडिया से ज्यादा इस पर छींटाकशी हुई सोशल मीडिया पर। लोग अपने-अपने अंदाज में चुटकी लेने लगे। करीब 27 घंटे बाद वो बड़े नाटकीय तरीके से कांग्रेस के मुख्यालय में प्रकट हुए और वहां वरिष्ठतम नेताओं की उपस्थिति में उन्होंने अपनी बेगुनाही का रोना रोया। इसके बाद वो अपने घर गए जहां से उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया।

चिदंबरम की गिरफ्तारी सोनिया गांधी के लिए ऐसे ही थी जैसे सिर मुंडाते ही ओले पड़े। गांधी-वाड्रा परिवार चाह कर भी चिदंबरम से पल्ला नहीं झाड़ सकता। इस परिवार के लिए चिदंबरम कितने महत्वपूर्ण हैं उसे इस बात से समझा जा सकता है कि यूपीए एक और दो की सरकारों में वो वित्त मंत्री और गृह मंत्री जैसे शक्तिशाली पदों पर थे। सोनिया गांधी ने जब ‘हिंदू आतंकवाद’ या ‘भगवा आतंकवाद’ का षड्यंत्र रचा तो वो उसके मुख्य खिलाड़ी थे। जब सीबीआई और प्रवर्तन निदेशालय के अधिकारी फरार चिदंबरम को ढूंढ रहे थे तो खुद राहुल गांधी और प्रियंका गांधी ने उनके बचाव का जिम्मा संभाला। गिरफ्तारी से पहले उन्होंने पार्टी मुख्यालय में जब अपना पक्ष पढ़ा, तब अन्य बड़े नेताओं के अलावा सोनिया के सबसे विश्वस्त सहयोगी अहमद पटेल भी मौजूद थे।

आखिर सोनिया के लिए चिदंबरम इतने महत्वपूर्ण क्यों हैं? क्यों वो और उनका परिवार उन्हें लेकर इतने ‘चिंतित’ हैं? इसका जवाब भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता सुब्रमण्यम स्वामी देते हैं। वो कहते हैं, ”जहां तक चिदंबरम का सवाल है, वो संभवत: सबसे भ्रष्ट व्यक्ति हैं। वो सोनिया गांधी के निजी मनी लांडरर (हवाला दलाल) हंै। उन्होंने हर उस कानून का उल्लंघन किया है जिसके पालन की शपथ ली थी।’’ स्वामी ने चिदंबरम, पूर्व भारतीय रिजर्व बैंक गवर्नर रघुराम राजन, एनडीटीवी से लेकर देशी-विदेशी बैंकों तक चिदंबरम और कांग्रेसियों से जुड़े अनेक घोटालों का पर्दाफाश किया है। जाहिर है पी चिदंबरम की गिरफ्तारी से गांधी-वाड्रा परिवार हद से ज्यादा परेशानी में है। सोनिया-राहुल पहले ही नेशनल हैरल्ड मामले में जमानत पर चल रहे हैं, अगर चिदंबरम पूछताछ के दौरान इनके राज खोलते हंै तो इन पर आंच आए बिना नहीं रहेगी।

शायद यही वजह है कि दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा चिदंबरम को आईएनएक्स मीडिया केस में भ्रष्टाचार का ‘किंगपिन’ और ‘मास्टर माइंड’ बताए जाने के बावजूद पूरा कांग्रेसी अमला उन्हें ‘निर्दोष’ घोषित करने में लगा है और सरकार पर ‘बदले की राजनीति’ के आरोप लगा रहा है। कुल मिलाकर सरकार पर दबाव बनाने की कोशिश की जा रही है कि चिदंबरम तक तो ठीक है, आगे अगर गांधी-वाड्रा परिवार को छूआ तो ठीक नहीं होगा। लेकिन यहां यह बताना जरूरी है कि चिदंबरम की गिरफ्तारी कानूनी प्रक्रिया के तहत हुई है जिसमें सरकार का कोई लेना-देना नहीं है। असल में जब दिल्ली उच्च न्यायालय के न्यायाधीश ने आईएनएक्स मीडिया मामले में उनकी गिरफ्तारी से रोक हटाई तो अपने फैसले में कहा, ”चिदंबरम का आईएनएक्स मीडिया केस हवाला का क्लासिक केस है। चिदंबरम जांच एजेंसियों से सहयोग नहीं कर रहे थे इसलिए उनसे हिरासत में पूछताछ जरूरी है। इसका राजनीतिक बदले से कोई लेना-देना नहीं है।’’

इसी प्रकार जब विशेष सीबीआई जज ने जब उन्हें पुलिस रिमांड पर भेजा तो कहा, ”चिदंबरम के खिलाफ आरोप गंभीर प्रकृति के हैं और उनकी गहराई से जांच की जरूरत है। जांच को तार्किक अंत तक पहुंचाना जरूरी होता है और इसके लिए कई बार हिरासत में लेकर पूछताछ करना उपयोगी और फायदेमंद साबित होता है। यह केस पूरी तरह दस्तावेजी सबूतों पर आधारित है और उनकी प्रामाणिकता के लिए पूरी पड़ताल होनी चाहिए। चिदंबरम को 2007-2008 और 2008-2009 में भुगतान किए जाने की बात एकदम स्पष्ट और वर्गीकृत है।’’

आईएनएक्स मीडिया तो सिर्फ एक मामला है, चिदंबरम के खिलाफ एयरसेल मेक्सिस, एयरइंडिया, एयर एशिया, जेट आदि जैसे अनेक मामले हैं। अगर अदालतें निष्पक्षता से काम करें तो चिदंबरम की बाकी उम्र तो जेल में ही कटेगी। जाहिर है सोनिया के मुख्य सलाहकार के धराशायी होने के बाद अब पार्टी में खौफ का माहौल है। कांग्रेसी ऊपर-ऊपर से भले ही कितने खुश दिखाई दें, लेकिन उन्हें अहसास है कि आने वाला वक्त उनके लिए और भी कठिन होने वाला है। अगर कानूनी प्रक्रिया के तहत चिदंबरम जेल जा सकते हैं तो सोनिया और उनके परिवार का भी नंबर लग सकता है।

स्वयं सोनिया और राहुल नेशनल हेराल्ड केस में फंसे हैं। इस मामले में उनके साथ मोतीलाल वोरा और ऑस्कर फर्नांडिस भी शामिल हैं। प्रियंका वाड्रा और उनके पति रॉबर्ट वाड्रा तो खुद कई मामलों में फंसे हैं। रॉबर्ट वाड्रा के जमीन घोटालों पर तो कई राज्यों में जांच भी चल रही है। उनके सहयोगी रहे हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री रहे भूपेंद्र सिंह हुड्डा से भी इस संबंध में कई दौर की पूछताछ हो चुकी है। दुबई से लेकर लंदन तक वाड्रा के पूरे नेटवर्क और हथियार दलाली सौदों का पर्दाफाश हो चुका है। सोनिया के सबसे करीबी अहमद पटेल और उनके बेटे फैसल पटेल और दामाद इरफान सिद्दीकी संदेसारा घोटाले में फंसे हैं।

कांग्रेसियों को भले ही लग रहा हो कि जनता की याददाश्त कमजोर होती है, लेकिन वो अब भी बोफोर्स, टू जी स्पैक्ट्रम (2008), सत्यम (2009), कॉमनवेल्थ गेम्स (2010), कोयला (2012), वीआईपी चॉपर (2012), टैट्रा ट्रक (2012), आदर्श हाउसिंग (2012) आदि घोटालों को नहीं भूली है। ध्यान रहे बोफोर्स को छोड़ कर ये सभी घोटाले यूपीए सरकारों के दौर में हुए जब सोनिया गांधी कठपुतली मनमोहन सिंह के जरिए राज कर रहीं थीं। बोफोर्स घोटाले में सोनिया के पति राजीव गांधी और करीबी ऑतावियो क्वात्रोचि का नाम शामिल है और इसमें भी वो कहीं न कहीं जुड़ी हुई हैं।

एक तो वरिष्ठ कांग्रेसियों की गंभीर घोटालों में संलिप्तता ऊपर से कलूषित इतिहास, इससे नेतृत्व परिवर्तन के बावजूद कांग्रेस के फिर से जीवित होने के आसार दिन-ब-दिन धूमिल होते जा रहे हैं। बाकी कसर कांग्रेस की राष्ट्रविरोधी और हिंदू विरोधी नीतियों ने पूरी कर दी है। मोदी सरकार द्वारा जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाए जाने पर तो पूरी कांग्रेस दो फाड़ हो गई। वरिष्ठ कांग्रेसी नेता जनार्दन द्विवेदी, भूपेंद्र सिंह हुड्डा उनके बेटे दीपेंद्र हुड्डा, राज्य सभा में पार्टी के मुख्य सचेतक रहे भुवनेश्वर कलिता, ज्योतिरादित्य सिंधिया, अनिल शास्त्री, रायबरेली से विधायक अदिति सिंह आदि ने अनुच्छेद 370 समाप्त का खुलकर समर्थन किया। लेकिन प्रियंका गांधी ने साफ कर दिया कि पार्टी लाइन अनुच्छेद 370 हटाने के विरोध में है। इसके बाद कांग्रेसी नेताओं ने जैसे इस मसले का सांप्रदायीकरण किया उससे भी जनता में गलत संदेश गया। चिदंबरम ने कहा कि यदि जम्मू-कश्मीर हिंदू बहुल राज्य होता तो मोदी सरकार अनुच्छेद 370 नहीं हटाती। इसी तरह गुलाम नबी आजाद और अधीर रंजन चौधरी भी जहर बुझे बाण चलाने से नहीं चूके।

मोदी समर्थक वोट बैंक में सहानुभूति जगाने और उसमें सेंध लगाने की गरज से गांधी-वाड्रा परिवार की अति मोदी विरोधी नीतियों और नफरत के बावजूद जयराम रमेश और अभिषेक मनु सिंघवी ने मोदी के प्रति नरमदिली दिखाई। जयराम रमेश ने कहा कि ”मोदी का प्रशासकीय मॉडल पूरी तरह नकारात्मक भी नहीं है। उनके अच्छे काम को मान्यता न देने और हमेशा उनकी बुराई करने से काम नहीं चलेगा।’’ इस पर अभिषेक मनु सिंघवी ने कहा कि ”हमेशा मोदी की नकारात्मक छवि पेश करना गलत है। वो सिर्फ देश के प्रधानमंत्री ही नहीं हैं, उनका एक पक्षीय विरोध असल में उनकी मदद ही करता है। काम हमेशा अच्छे, बुरे या तटस्थ होते हैं, उनका मुद्दों के आधार पर मूल्यांकन होना चाहिए, न कि व्यक्तिगत आधार पर। निश्चिय ही उज्ज्वला योजना उनके अच्छे कामों में से एक है।’’ इस पर शशि थरूर ने कहा कि ”मैं छह साल से कहता आया हूं कि मोदी जब सही काम करें या अच्छी बात कहें तो उनकी प्रशंसा होनी चाहिए। इससे जब हम उनकी आलोचना करेंगे तो उसकी विश्वसनीयता होगी। मैं जो पिछले छह साल से कह रहा हूं, उसका समर्थन करने के लिए विपक्षी नेताओं का स्वागत करता हूं।’’

मोदी प्रशंसा का कांग्रेसी नेताओं का डबल गेम कोई सोची-समझी रणनीति है या मजबूरी या अंतर्चक्षु खुलना, लेकिन एक बात तो स्पष्ट है कि कांग्रेसी नेताओं में गांधी-वाड्रा परिवार के विरोध में बोलने की हिम्मत तो आई है। ये पार्टी में ‘आंतरिक लोकतंत्र’ का परिचायक है या आने वाली बगावत का संकेत, ये तो वक्त आने पर ही पता चलेगा।

लेकिन देश के मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस में जो चल रहा है, उसका संपूर्ण विपक्ष पर प्रभाव पड़ रहा है। लोकसभा चुनावों ने विपक्षियों को अच्छी तरह समझा दिया है कि इस्लामिक कट्टरता को बढ़ावा देने वाली कथित ‘धर्मनिरपेक्षता’ और देशद्रोहियों को समर्थन देने वाली कथित ‘उदारता’ हिंदुओं को ही नहीं, मुसलमानों को भी पसंद नहीं है। मुसलमान अब मुस्लिम वोटों का सौदा करने वाले दलों से पूछने लगे हैं कि हमने तो तुम्हें वोट दिया और संसद में पहुंचाया पर तुमने पिछले 70 साल में हमें क्या दिया? कुल मिलाकर कांग्रेस ही नहीं, संपूर्ण विपक्ष में नीति के स्तर पर दिशाभ्रम की स्थिति है। अब तक वो मुसलमानों और देशद्रोही ताकतों के ध्रुवीकरण के बल पर जीत रहे थे, लेकिन भारतीय जनता पार्टी के रिवर्स पोलराइजेशन और जातिवादी पार्टियों से जुड़ी जातियों से इतर अन्य जातियों को अपने साथ लाने से समीकरण पूरी तरह बदल गए हैं।

इस बदले माहौल में नरेंद्र मोदी से घृणा की हद तक नफरत करने वाली सोनिया गांधी क्या विपक्ष को दिशा दिखा पाएंगी, ये फिलहाल तो असंभव ही लग रहा है। मोदी को ‘हिंदू सांप्रदायिक’ और हिंदुओं को ‘आतंकी’ साबित करने की उनकी कोशिश नाकाम हो चुकी है। मोदी को भ्रष्ट साबित करने की राहुल की मुहिम भी दम तोड़ चुकी है। अब तो वो राफेल का नाम तक नहीं लेते। प्रियंका गांधी अवश्य आदिवासियों, दलितों और मुसलमानों को साथ लाने की नक्सली नीति पर चल रही हैं, लेकिन उसका भी फायदा होता दिखाई नहीं दे रहा। सोनभद्र यात्रा से आदिवासियों को पाटने और स्वामी रविदास का मंदिर गिराए जाने से नाराज उनके अनुयायियों को भड़काने की नीति भी उनकी मदद करती नहीं नजर आ रही।

कांग्रेस अपने पालतू अर्थशास्त्री रघुराम राजन के माध्यम से मोदी सरकार को आर्थिक मोर्चे पर घेरने की भरसक कोशिश कर रही है, लेकिन उसका भी कोई असर नहीं दिखाई दे रहा। लोकसभा चुनावों के दौरान कांग्रेस ने बेरोजगारी, आर्थिक मंदी आदि जैसे मुद्दे उठाए थे, लेकिन जनता ने उन्हें भी नकार दिया। गुजरात, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीस गढ़ के विधानसभा चुनावों से लगा कि कांग्रेस के लिए उन राज्यों में बेहतर अवसर हैं जहां उसका सीधा मुकाबला भाजपा से है, लेकिन लोकसभा चुनावों में जैसे इन राज्यों में कांग्रेस की दुर्गति हुई, उससे ये भ्रम भी टूट गया। राहुल गांधी ने कर्नाटक में कुमारस्वामी को मुख्यमंत्री बनवा कर भाजपा को सत्ता से बाहर रखने की कोशिश की, लेकिन वहां भी असफल रहे।

अब जबकि कांग्रेस खुद अपनी चुनौतियों से जूझ रही है, सोनिया गांधी से ये उम्मीद करना बेमानी है कि वो बुरी तरह विभाजित विपक्ष को नेतृत्व दे पाएंगी। आज न तो उनके विश्वस्त सहयोगी उनके साथ हैं और न ही सेहत, ऐसे में वो कब तक पार्टी को एकजुट रख पाएंगी, देखना दिलचस्प होगा। राहुल गांधी ने अध्यक्ष पद से इस्तीफा देते समय कहा था कि अगला अध्यक्ष गांधी परिवार से नहीं होगा। लेकिन कांग्रेसियों ने एक बार फिर सोनिया को चुन कर बता दिया कि पार्टी को एक रखने के लिए गांधी का नाम जरूरी है। कांग्रेसियों को लगा कि सोनिया अपनी उम्र और अनुभव का फायदा उठा कर पार्टी को फिर से पटरी पर ले आएंगी। विपक्षी उनका नेतृत्व खुशी-खुशी स्वीकार कर लेंगे, लेकिन उन्हें ये समझ में नहीं आया कि सत्ता के खेल में कोई किसी का लिहाज नहीं करता। कांग्रेस की लाश पर अपना वजूद बनाने वाली विपक्षी पार्टियां कांग्रेस को घास नहीं डालेंगी भले ही उसकी अध्यक्ष सोनिया गांधी ही क्यों न हों। उन्हें याद है कि यूपीए एक और दो में कांग्रेस को पूर्ण बहुमत नहीं मिला था, उसने दूसरे दलों के साथ मिलकर सरकार बनाई थी। ऐसे में वो अपने बारगेनिंग पावर (सौदेबाजी की ताकत) क्यों कर कम करना चाहेंगे?

कुल मिलाकर देश में जो स्थिति है उससे स्पष्ट है कि खुद संकट में घिरी सोनिया कोई चमत्कार करने की स्थिति में नहीं हैं। उन्हें पार्टी की परंपरागत इस्लामिक और देशद्रोही राजनीति से हटकर नई नीतियां तलाशनी होंगी। अगर नरेंद्र मोदी खुद कोई बड़ी गलती कर बैठें और थाल में परोस कर उन्हें सत्ता भेंट कर दें, तो बात अलग है।

रामहित नंदन, वरिष्ठ पत्रकार

 

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कांग्रेस का मोदी-विरोधी तेवर

कांग्रेस का मोदी-विरोध कैसे-कैसे रंग दिखा रहा है। कश्मीर के मुद्दे पर पहले तो कई विपक्षी दल कांग्रेस का साथ नहीं दे रहे हैं। वे मौन हैं और कुछ सिर्फ मानव अधिकारों के हनन की बात कर रहे हैं लेकिन अब जयराम रमेश, शशि थरुर और अभिषेक सिंघवी जैसे वरिष्ठ कांग्रेसी नेताओं ने खुले-आम पार्टी की समग्र नीति पर प्रश्न चिन्ह लगा दिए हैं। इनके पहले जर्नादन द्विवेदी और ज्योतिरादित्य सिंधिया ने कांग्रेस की कश्मीर-नीति पर अपनी असहमति जाहिर की थी। कांग्रेस में इस तरह के मतभेद कांग्रेस-अध्यक्ष की नियुक्ति के बारे में भी प्रकट हो रहे हैं। कुल मिलाकर इस प्रपंच को हम कांग्रेस का स्वाभाविक आतंरिक लोकतंत्र नहीं कह सकते हैं। इस मां-बेटा पार्टी में यह खुले-आम असहमति या बगावत तब से प्रकट होने लगी है, जब से 2019 के चुनाव में कांग्रेस बुरी तरह से हारी है। यह असंभव नहीं कि कई प्रांतीय नेताओं की तरह अब कुछ केंद्रीय नेता भी भाजपा-प्रवेश के लिए अपनी रा?ह बना रहे हों। दूसरे शब्दों में कांग्रेस नेताविहीन तो है ही, वह नीतिविहीन भी होती जा रही है। यदि कांग्रेस में दम होता तो वह मोदी सरकार को नोटबंदी, रफाल सौदा और जीएसटी पर घेर सकती थी। गिरती हुई अर्थ-व्यवस्था को भी मुद्दा बना सकती थी लेकिन उसने अपनी साख इतनी गिरा ली है कि उसकी सही बातें भी जनता के गले नहीं उतरतीं हैं। वे तर्क-संगत नहीं लगती हैं। उसका कारण क्या है? यह कारण ही जयराम रमेश, थरुर और सिंघवी ने खोज निकाला है। उनका यह कहना बिल्कुल सही है कि मोदी की उचित नीतियों को भी गलत बताना और उन पर सदा दुर्वासा-दृष्टि ताने रखना, यही कारण है जिसके चलते कांग्रेस की बातों पर से लोगों का भरोसा उठ गया है। उज्जवला योजना, स्वच्छता अभियान, बालाकोट, वीआईपी कल्चर- विरोध, धारा 370 और 35 ए का खात्मा, वित्तीय सुधार की ताजा घोषणा जैसे कामों का स्वागत करने की बजाय कांग्रेस ने उनकी खिल्ली उड़ाई है।  कांग्रेस के कुछ वरिष्ठ और पढ़े-लिखे नेताओं ने इस तेवर को रद्द किया है। कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं द्वारा खुले-आम ऐसा रवैया अपनाना भारतीय लोकतंत्र के उत्तम स्वास्थ्य का परिचायक है। यह हमें उस नेहरु-युग की याद दिलाता है, जब सेठ गोविंददास नेहरु की हिंदी नीति और महावीर त्यागी उनकी चीन-नीति की खुले-आम आलोचना करते थे। यह लोकतांत्रिक धारा अकेली कांग्रेस में ही नहीं, सभी पार्टियों में प्रबल होनी चाहिए, खास तौर से हमारी प्रांतीय पार्टियों में, जो प्रायवेट लिमिटेड कंपनियां बन चुकी हैं।

डॉ. वेदप्रताप वैदिक

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