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सामाजिक एजेंडे से राष्ट्रनिर्माण तक

किसी भी राष्ट्र के विश्वगुरु बनने के क्रम में उसके नागरिकों में ‘सिविक सैन्स’ का बड़ा योगदान होता है। सरकारें सिर्फ कानून बना सकती हैं। न्यायालय कानून पालन न होने की स्थिति में दंडित कर सकता है किन्तु यह सब समस्या का सिर्फ उपचार है। अकेले क़ानूनों के द्वारा सभ्य समाज का निर्माण संभव नहीं है। सभ्य समाज के निर्माण में क़ानूनों से ज़्यादा लोगों का योगदान महत्वपूर्ण होता है। जैसे मोटर व्हिकल एक्ट में हुये ताज़ा संशोधन में जुर्माने की राशि काफी हद तक बढ़ा दी गयी है। इस डर के द्वारा सड़क पर नियमों को मानने वालों की संख्या तो बढ़ सकती है किन्तु सड़क सुरक्षा की परिकल्पना तभी फलीभूत होगी जब लोग अपनी जिम्मेदारियों को समझेंगे। आजकल सड़कों पर ट्रैफिक इतना ज़्यादा दिखता है कि सड़क पर चलना स्वयं में सिरदर्द बन जाता है। बेतहाशा बढ़ती जनसंख्या एवं सड़कों के किनारे कटे हुये पेड़ स्थिति को और जटिल बना देते हैं। सड़कों पर न पर्याप्त मात्रा में ऑक्सीजऩ उपलब्ध होती है न पैदल यात्रियों के लिए वृक्षों की छाया। शहरीकरण की बढ़ती प्रवृत्ति एवं बेतहाशा बढ़ी जनसंख्या से आंख मूंद कर हुये आवासीय विकास ने न सिर्फ पीने के पानी का जलस्तर कम कर दिया बल्कि उचित ड्रेनेज सिस्टम न होने के कारण बीमारियां भी फैलीं। पानी की किल्लत ने पानी खरीदने के लिए लोगों को विवश किया तो इसमें बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने एक बाज़ार तलाश लिया। सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं की गिरी विश्वसनीयता के कारण लोग निजी अस्पतालों की ओर मुड़े तो वहां मनुष्य के जीवन को पैसा कमाने का माध्यम बना लिया गया। सरकारी स्कूल में शिक्षा की गिरी गुणवत्ता के कारण लोग निजी स्कूल की तरफ गये तो वहां शिक्षा व्यवसाय बन गयी और महंगे होटल की तरह शिक्षा का बाजारीकरण हो गया। शिक्षा में राष्ट्रीयता का तत्व सम्मिलित न होने के कारण छात्रों में राष्ट्रनिर्माण से ज़्यादा भोगवादी प्रवृत्ति पनपी। यह सब विषय ऐसे विषय हैं जो दिखने में तो गैर राजनीतिक लगते हैं किन्तु इनका किसी भी देश की राजनीतिक चेतना पर व्यापक असर होता है। प्रधानमंत्री मोदी ने अपने 15 अगस्त के भाषण में कई सामाजिक विषय उठाकर देश की राजनीति को सामाजिक सरोकारों से जोडऩे का प्रयास किया है। कई महत्वपूर्ण विषयों को जागरूकता के स्तर पर लाकर देश में सकारात्मक बदलाव का ताना बाना बुन दिया है। 

अमित त्यागी

जिस सृष्टि में हम निवास करते हैं वह प्राकृतिक रूप से जितनी खूबसूरत हैं उतना ही उसका सांस्कृतिक महत्व भी रहा है। कई युगों से लगातार इस पर महापुरुष आते जाते रहे हैं। मर्यादा पुरषोत्तम राम, मुरलीधर कृष्ण इसी भारत भूमि पर अवतरित हुये। बुद्ध, महावीर ने इसी भारत भूमि पर जन्म लिया। सिर्फ इतना ही नहीं भारत की पुण्य भूमि अनेकों ऋषि मुनियों को जन्म देने वाली धरा रही है। इन महापुरुषों के जन्मस्थान न सिर्फ एक धार्मिक पर्यटन स्थल हैं अपितु अपने पौराणिक महत्व के कारण एक सांस्कृतिक विरासत को भी सहेजे हैं। यह सब न सिर्फ भारतीयों के रोजगार का साधन हैं बल्कि भारत में अनेकता की एकता की भावना को बलवती करते हैं। इस संदर्भ में देखने पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का 15 अगस्त 2019 को लाल कि़ले से दिया गया भाषण कई मामलों में ऐतिहासिक था। जिस भाषण में लोग पाकिस्तान, 370 को प्रमुखता से अपेक्षित कर रहे थे उसमें उन्होंने भारत निर्माण के कई तत्व समायोजित करके लोगों को सकारात्मक संदेश दिया। उन्होंने भारत की बढ़ती जनसंख्या पर चिंता जताई। पर्यावरण संरक्षण का विषय रखा। भारत में जल संसाधनों और अन्य प्राकृतिक संसाधनों पर अपने विचार रखे। कुल मिलाकर उन्होंने जनता के सामने एक बड़ा परिदृश्य रखा। प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में कहा कि जो जनता पहले अपने गांव में सिर्फ बिजली का खंबा पहुंचने से संतुष्ट हो जाती थी आज वह सिर्फ बिजली का खंबा गांव में पहुचने से संतुष्ट नहीं होती। वह सवाल करती है कि 24 घंटे बिजली कब आएगी? जो जनता पहले गांव तक सिर्फ सड़क पहुंचने तक से संतुष्ट हो जाती है आज वह गांव में सड़क की घोषणा होने के बाद पूछती है कि सड़क फोरलेन बन रही है या सिक्स लेन। इस तरह से उन्होंने कई प्रश्न और उत्तर जनता के सामने रखे। प्रधनमंत्री मोदी ने जनता के सामने भारत निर्माण का जो खाका खींचा है उसमें जनता की जि़म्मेदारी भी काफी बढ़ गयी दिखती है।

एक राष्ट्र के रूप में अब भारत के नागरिकों की जि़म्मेदारी बढ़ गयी है। चूंकि सरकार अब ज़्यादातर निजी क्षेत्रों की भागीदारी के द्वारा कार्य कर रही है ऐसे में सिर्फ सरकारी नीतियों के आधार पर बदलाव संभव नहीं है। हां, कानून का सख्त होना भी एक तत्व है। इस संदर्भ में सबसे पहले बात करते हैं नये मोटर व्हिकल एक्ट की। इसमें जुर्माने का प्रावधान काफी बढ़ा दिया गया है। पहले जिस कानून को तोडऩे में 100 रुपये खर्च होते थे अब उसमें जुर्माना 1000 से 2000 कर दिया गया है। अब प्रश्न उठता है कि क्या सिर्फ सज़ा बढ़ाने या जुर्माना ज़्यादा वसूलने से हालत काबू में आ जाएंगे। ऐसा नहीं है। कानून सिर्फ समस्या का उपचार देता है। आज भारत में सड़क दुर्घटनाएं काफी बढ़ गयी हैं। इसमें एक बड़ी वजह सड़कों पर आवश्यकता से अधिक वाहनों का होना भी है। लोग निजी वाहनों को ज़्यादा तरजीह देते हैं। जबकि विकसित देशों में सार्वजनिक यातायात प्रणाली ज़्यादा चलन में है। भारत में सार्वजनिक वाहन व्यवस्था जैसे रेल, बस आदि का हाल किसी से छुपा नहीं है। इनकी खस्ता हालत के कारण लोग निजी वाहनों का ज़्यादा प्रयोग करते हैं। मेट्रो जैसी व्यवस्थाएं उत्कृष्ट होने का एहसास तो कराती हैं किन्तु मेट्रो पूरे देश में उपलब्ध नहीं है। निजी वाहनों में धन का भी ज़्यादा व्यय होता है और पर्यावरण का भी। रोड पर ट्रैफिक बढ़ता है वह अलग। इसके साथ ही फर्जी तरीके से बने ड्राइविंग लाइसेन्स एवं एक ही चेसिस न. से फर्जी तरीके से चल रहे ट्रक राजस्व को भी हानि पहुंचा रहे हैं। अलग अलग राज्यों में सड़क मार्ग के नियम अलग अलग होने का फायदा भी नियम तोडऩे वाले उठाते हैं। इस बीच व्यवस्था से जुड़े लोगों की चांदी हो जाती है। वह लोग रिश्वत लेकर नियमों की अनदेखी को बढ़ावा दिलवाते हैं। नये एक्ट द्वारा रिश्वतख़ोरी बढ़ेगी इसमें कोई संदेह नहीं है। भ्रष्टाचार और रिश्वत का रेट भी पहले से बढ़ जाएगा। तो फिर सुधार कैसे होगा?

सुधार जनता की जागरूकता से संभव है। उसको पहले स्वयं की फिर अन्य की जान की कीमत समझनी होगी। अपने अंदर सिविक सेंस बढ़ाना होगा। सरकार का कर्तव्य है कि वह जनता को जागरूक करे। कानून की सख्ती और जनता की जागरूकता भारत की बहुत सी समस्याओं का हल है। ट्रैफिक की समस्या के साथ जुड़ा एक पहलू शहरीकरण एवं पूर्व में बिना नियोजन के बने आवास हैं। बड़े शहर पहले उतनी आबादी को झेलने के लिए तैयार नहीं थे जितनी वह आजकल झेल रहे हैं। ड्रेनेज सिस्टम, सीवर सिस्टम आदि का पूर्व नियोजन न होने के कारण बड़े शहर बढ़ती जनसंख्या के आगे घुटने टेक रहे हैं। इसके साथ ही कंक्रीट के जंगलों के कारण हरे भरे पेड़ों के जंगल कटते चले गये। इससे वातावरण प्रदूषित हुआ और वहां रहने वालों के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर पड़ा। आबादी बढऩे के कारण जल स्रोत भी घटने लगे। पिछले सात दशक में अगर देखें तो 1951 में शहरों में रहने वाली जनसंख्या 17.3 प्रतिशत थी। 2011 में यह औसत 31.16 प्रतिशत तक पहुंच गया। अमेरिका एवं पश्चिम यूरोप के देशों में जहां शहरी जनसंख्या अब गांव का रुख कर रही है वहीं भारत में इसका उल्टा हो रहा है। ग्लोबल मैनेजमेंट कंसल्टेंसी फ़र्म ‘मेकंजी’ की रिपोर्ट के अनुसार 2015 से 2025 के बीच के दशक में विकसित देशों के 18 प्रतिशत बड़े शहरों में आबादी प्रतिवर्ष 0.5 प्रतिशत की दर से कम होने जा रही है। पूरी दुनिया में 8 प्रतिशत शहरों में प्रतिवर्ष 1-1.5 प्रतिशत शहरी जनसंख्या कम होने का रुझान होना संभावित है।

शहरी क्षेत्रों में बढ़ी आबादी का एक बड़ा कारण कृषि में लाभ न होना और शहरों में उद्योगों का बढऩा रहा। उद्योगों के कारण भारी मात्रा में जल प्रदूषित हुआ। जो जल शेष रहा वह भारी जनसंख्या बोझ के कारण अपर्याप्त रहा। 1990 में असमानता का इंडेक्स 45.18 था वह 2013 आते आते बढ़कर 51.36 हो गया। इस सामाजिक विद्रुपता में हमने कृषि भूमि को विकास के नाम पर पहले अधिग्रहित किया फिर उस पर बड़ी बड़ी बिल्डिंग बनाकर उसे विकास का नाम दिया। रियल इस्टेट को औद्योगिक विकास का माध्यम एवं उद्योगों का पर्याय बना दिया गया। इसमें हमने बड़े बोरिंग से पानी निकालकर ज़मीन को खाली करना शुरू कर दिया। योजनाओं को संस्थागत रूप देने के लिए औद्योगिक विकास प्राधिकरणों के गठन किए गए। दिल्ली और उसके आस पास के इलाकों को राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र(एनसीआर) का नाम दिया गया। उत्तर प्रदेश से गाजिय़ाबाद, हरियाणा से बल्लभगढ़, फरीदाबाद, गुडग़ांव (गुरुग्राम) एनसीआर का हिस्सा बने। इसके बाद औद्योगिक विकास के लिए एक स्थान पर सुविधाएं देने के नाम पर नोएडा, ग्रेटर नोएडा एवं एक्सप्रेसवे का विकास किया गया। इन सबका उद्देश्य राष्ट्रीय राजधानी के आसपास सुविधायुक्त माहौल में उद्योगों का विकास था। रसायनों के इस्तेमाल एवं विकास के नाम पर हम भूमिगत जल का दोहन करते रहे। हमने जितने जल का दोहन किया उतना जल भूमि में वापस नहीं पहुंचाया। इस तरह से देखें, जो विषय ट्रैफिक की समस्या के समाधान की तरफ बढऩे से शुरू हुआ वह शहरीकरण, रसायनीकरण, कृषि एवं कंक्रीट के जंगलों पर आकर टिक जाता है। हमारे द्वारा प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग के स्थान पर प्राकृतिक संसाधनों की लूट पर आकर ठहर जाता है। ये सब ऐसे विषय हैं जिस पर क़ानूनों के द्वारा तो व्यापक प्रभाव नहीं पड़ता है किन्तु सामाजिक चेतना के स्तर पर बड़े बदलाव की अपेक्षा अवश्य की जा सकती है।

जल, समस्या, संरक्षण एवं समाधान

विश्व की सम्पूर्ण आबादी का लगभग 18 प्रतिशत भारत में निवास करता है। दूसरा तथ्य है कि नवीनीकरण जल संसाधन का सिर्फ चार प्रतिशत हमारे देश के पास है। विश्व बैंक के आंकड़े के अनुसार भारत में ताजे जल की उपलब्धता 761 अरब घन मीटर है। विश्व के कई अन्य देशों से तुलनात्मक रूप से यह उपलब्धता काफी ज़्यादा है। इसके साथ ही एक अन्य महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि पर्याप्त मात्रा में जल होने के बावजूद हमने इस जल का ज़्यादातर भाग उद्योगों और प्रदूषण के कारण बर्बाद कर दिया है। अब जल प्राप्ति के स्रोतों को थोड़ा समझते हैं। ज़मीन के अंदर तीन परतों में पानी पाया जाता है। प्रथम और द्वितीय परतों का पानी हम खत्म कर चुके हैं। इस समय तीसरी पर्त का पानी हम पी रहे हैं। इसको ऐसे समझा जा सकता है। आज से तीस साल पहले 10-20 फुट पर पानी मिल जाता था। तब हम पहली परत का पानी पीते थे उसके बाद 60-80 फुट पर पानी मिलने लगा। वह दूसरी परत का पानी था। वर्तमान में 100 फुट से नीचे जाकर पानी के बोरिंग होते हैं। यह तीसरी परत का पानी है। यह अंतिम परत है जिसके 2030 के बाद खत्म होने की संभावना है। भारत के नौ राज्यों में भूजल का स्तर खत्म होने के खतरनाक स्तर पर है। उपलब्ध जल का नब्बे प्रतिशत इस्तेमाल हो चुका है। सरकारी आंकड़े को देखें तो 1947 में भारत के प्रति व्यक्ति के पास जल उपलब्धता 6042 घन मीटर थी। 2011 में यह घटकर 1545 घन मीटर रह गयी है। भारत में सिंचाई में 80 प्रतिशत हिस्सा नदी, नहरों और भूजल से पूरा होता है। बाकी 20 प्रतिशत में वर्षा जल, तालाब जल एवं अन्य उपलब्ध संसाधन हैं।

अब बात आती है कि जल संरक्षण के लिए हम लोग क्या कर सकते हैं। समस्या का समाधान क्या है? हम जितना जल भूमि से निकाल रहे हैं उतना ज़मीन में वापस पहुंचा नहीं रहे हैं। अब प्रश्न उठता है कि ज़मीन में वापस पानी पहुंचने का तरीका क्या है। इस प्रश्न का उत्तर मिलता है अनुपम मिश्र जी की किताब ‘आज भी खरे हैं तालाब’ में। इसमें ज़मीन में पानी वापस रिफिल करने के क्रम में तालाबों की भूमिका का व्याख्यान किया गया है। तालाबों में भरा पानी धीरे धीरे ज़मीन में रिसता है और रिसते रिसते ज़मीन में जाकर मीठे जल का स्रोत बन जाता है। ज़मीन में पानी की दो परतों के मध्य में चट्टानें हैं। कहीं कहीं चट्टानों के स्थान पर मिट्टी है। ऐसा कहा जाता है कि जहां जहां हमारे पौराणिक तालाब थे वहां वहां पानी की दो परतों के मध्य मिट्टी पायी जाती है। वहां से आसानी से पानी रिस कर ज़मीन में रिफिल हो जाता है। हमारा एक बड़ा दुर्भाग्य है कि हमने पानी के रिफिल के सबसे बड़े कारक तालाबों को पाट दिया। उस पर या तो खेती कर ली या उस पर घर बना लिए। इसको हमने विकास और तरक्की समझा। अपनी इस मूर्खता पर खुश होने वाला धनलोभी समाज इस बात को भूल गया कि पौराणिक बातें और धार्मिक पक्ष वैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित हैं। भारत में बड़ा वैश्विक बाज़ार के निर्माण के क्रम में पहले भारत की वैज्ञानिक धार्मिक परम्पराओं को आडंबर कह कर दुष्प्रचारित किया गया। फिर इन विषयों के जानकार ब्राह्मण वर्ग पर दलित उत्पीडऩ आदि के प्रचार के द्वारा बुद्धि को नष्ट करने का प्रयास हुआ। समाज में विद्वेष फैलाने वाली मानसिकता ने अपने स्वार्थ और बाज़ार का दोहन करने के क्रम में भारत को जाति और धर्म आधारित व्यवस्था में बांट दिया। जबकि भारत में जाति आधारित नहीं बल्कि वर्ण आधारित व्यवस्था थी। अब बात करते हैं समाज निर्माण के सबसे महत्वपूर्ण कारक जनसंख्या की। भारत में जनसंख्या विस्फोट बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए तो एक बड़ा बाज़ार हो सकता है किन्तु भारत के एक राष्ट्र के रूप में निर्माण में बाधक बन रहा है।

जनसंख्या नियंत्रण बनाम अल्पसंख्यक/ बहुसंख्यक की राजनीति

जब जब जनसंख्या नियंत्रण की बात आती है तब तब ध्यान एक अल्पसंख्यक समाज की तरफ ध्यान जाता है। ऐसा माना जाता है कि मुस्लिम समाज में ज़्यादा बच्चे होने से भारत की जनसंख्या तेज़ी के साथ बढ़ रही है। हालांकि, हिन्दू समाज में भी अपवादस्वरूप ज़्यादा बच्चे देखे जा सकते हैं किन्तु ज़्यादातर मुस्लिम समाज में ज़्यादा बच्चों का चलन पाया जाता है। यदि 1991 से 2011 के बीच के 20 सालों के आंकड़ों पर गौर करें तो राष्ट्रीय स्तर पर जनसंख्या वृद्धि दर 44.39 प्रतिशत रही। इसमें हिन्दू वृद्धि दर 40.51 प्रतिशत एवं मुस्लिम वृद्धि दर 69.53 प्रतिशत थी। यदि पूर्वोत्तर के राज्यों की इस दौरान मुस्लिम जनसंख्या वृद्धि दर देखें तो अरुणाचल प्रदेश में 126.84 प्रतिशत, मेघालय में 112.06 प्रतिशत, मिज़ोरम में 226.84 प्रतिशत, सिक्किम में 156.35 प्रतिशत रही। इसके साथ ही दिल्ली में मुस्लिम वृद्धि दर इस दौरान 142.64 प्रतिशत, चंडीगढ़ में 194.36 प्रतिशत एवं हरियाणा में यह 133.22 प्रतिशत रही। अब इतनी वृद्धि दर में इतना बड़ा अंतर इस बात का सबूत है कि कहीं कुछ तो गड़बड़ है। मुस्लिम वृद्धि दर में बेतहाशा वृद्धि दर में दो तत्व महत्वपूर्ण माने जा सकते हैं। एक मुस्लिम समाज द्वारा जनसंख्या नियंत्रण पर ध्यान नहीं देना और दूसरा सीमावर्ती राज्यों में मुसलमानों की घुसपैठ। इस प्रकार से यह बात तो साफ है कि मुस्लिम की बढ़ती जनसंख्या सिर्फ नए बच्चों के जन्म से संबन्धित विषय न होकर एक बड़े षड्यंत्र का हिस्सा है। इसमें दो विषय एक साथ काम कर रहे हैं। पहला विषय है मुस्लिम समाज की अशिक्षा जिसके कारण वह दो से ज़्यादा बच्चे पैदा कर रहे हैं। दूसरा, मुस्लिम जनसंख्या बढ़ाकर लोकतन्त्र को हाईजैक करने की रणनीति। इन दोनों का गठजोड़ भारत की जनसंख्या वृद्धि को असीमित बना देता है।

जनसंख्या वृद्धि सिर्फ मुस्लिम समाज में होती हो ऐसा भी नहीं है। हिन्दू समाज में भी दो से ज़्यादा बच्चे देखे जाते हैं। जैसे हिन्दू समाज में ऐसा माना जाता है कि मृत्यु के बाद चिता को अग्नि पुत्र ही देता है। पुत्र को ही वंश चलाने का असली वारिस माना जाता है। हालांकि, कानून स्त्री पुरुष में विभेद को खारिज करता है किन्तु सामाजिक चेतना का इस संदर्भ में अभाव पाया जाता है। इसके कारण जब तक पुत्र नहीं होता है अक्सर लोग बच्चे पैदा करते जाते हैं। यदि तीन लड़की के बाद किसी के यहां पुत्र होता है तो उसकी व्यक्तिगत धार्मिक आस्था के कारण राष्ट्र पर दुगुना बोझ पड़ जाता है। इस अनियमित जनसंख्या के कारण भारत का सामाजिक ताना बाना भी प्रभावित होता है। अब विडम्बना देखिये कि अल्पसंख्यक बहुसंख्यक बनते जा रहे हैं और अधिकतर प्रदेशों में बहुसंख्यक अल्पसंख्यक बन चुके हैं। भारत को जनसंख्या नियंत्रण के साथ साथ अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक को नापने का मापदंड भी बदलने की आवश्यकता है। अब एक रोचक आंकड़ा देखिये जो सारी स्थिति को बयान कर देता है। लक्षदीप में 97 प्रतिशत, कश्मीर में 70 प्रतिशत, असम में 35 प्रतिशत, बंगाल में 28 प्रतिशत, केरल में 27 प्रतिशत, उत्तर प्रदेश में 20 प्रतिशत और बिहार में लगभग 19 प्रतिशत मुसलमान हैं। इन प्रदेशों की यह बहुसंख्यक आबादी अल्पसंख्यक कही जाती है। इसके साथ ही ईसाई का आंकड़ा भी रोचक है। नागालैंड में 88 प्रतिशत, मिज़ोरम में 87 प्रतिशत, मेघालय में 75 प्रतिशत, मणिपुर में 42 प्रतिशत, अरुणाचल प्रदेश में 31 प्रतिशत, गोवा में 26 प्रतिशत, अंडमान और केरल में 21 प्रतिशत जनसंख्या ईसाई है। इतनी बड़ी आबादी होने के बावजूद इन सबको अल्पसंख्यक के नाम पर वह अधिकार मिल रहे हैं जो हिंदुओं को नहीं मिल रहे हैं। इसके विपरीत लक्षदीप में 2 प्रतिशत, मिज़ोरम में 3 प्रतिशत, नागालैंड में 8 प्रतिशत, मेघालय में 11 प्रतिशत होने के बावजूद हिन्दू बहुसंख्यक माने जाते हैं और अधिकारों से वंचित हैं। आज़ादी के सत्तर साल बाद भी हम अल्पसंख्यक को परिभाषित करने वाला फॉर्मूला नहीं ढूंढ पाये हैं। जब हर राज्य में अलग अलग धर्मों के लोग भिन्न भिन्न अनुपात में हैं तो अल्पसंख्यक की परिभाषा केंद्र सरकार के स्थान पर राज्य सरकार के द्वारा क्यों नहीं तय होती है। संविधान के द्वारा प्रदत्त समता का अधिकार तब महत्वहीन दिखाई देता है जब लक्षदीप का 97 प्रतिशत मुसलमान अल्पसंख्यक और 2 प्रतिशत हिन्दू बहुसंख्यक कहलाता है। कश्मीर में 70 प्रतिशत मुसलमान अल्पसंख्यक एवं 28 प्रतिशत हिन्दू बहुसंख्यक कहलाता है।

अब जब कानून बनाकर जनसंख्या नियंत्रण की बात उठती है तब उसके साथ धार्मिक परम्पराएं भी आड़े आती हैं। धर्म के नाम पर लोकतन्त्र को हाईजैक करने का षड्यंत्र भी सामने आता है। भारत के बड़े बाज़ार को देखते हुये अंतराष्ट्रीय दबाव भी दिखाई देता है। यहां पर परीक्षा होती है जिजीविषा की। राष्ट्रनिर्माण के लिए सबसे महत्वपूर्ण तत्व समर्पण की। और इन सबके मध्य समाधान दिखाई देता है ‘जागरूकता’, सिर्फ कानून का निर्माण नहीं।

प्रकृति संरक्षण एवं पर्यावरण रक्षा के उपाय

बेतहाशा बढ़ती जनसंख्या एवं असीमित प्राकृतिक दोहन के बीच हमारा पारिस्थितिक तंत्र गड़बड़ा चुका है। नदियों के बहाव के मार्ग में मनुष्य ने अतिक्रमण करके घर बना लिये और जब नदी अपने मार्ग पर बही तो हमने उसे बाढ़ मान लिया। जंगल में घुसकर पहले पेड़ काट दिये। उसके बाद जब जंगली जानवर जंगल से बाहर आए तब हमने उसे आबादी में उनका आना माना। पहले हमने सड़क किनारे के पेड़ काटे इसके बाद जब वहां उछल कूद करने वाले बंदर आदि भोजन की तलाश में हमारे घर आने लगे तो हमने उसे बंदरों की संख्या में बढ़ोत्तरी माना। पहले हमने पशुपालन को बंद कर दिया और पशुपालन को सिर्फ डेयरी उद्योग माना इसके बाद सड़कों पर घूमने वाली गायों को गौसेवा के नाम पर गुंडागर्दी का माध्यम मान लिया। वास्तव में यदि देखा जाये तो मनुष्य के लालच और धन की हवस ने प्राकृतिक संतुलन बिगाड़ दिया है। और हम खुद के सुधार के स्थान पर बलि का बकरा ढूंढ रहे हैं। हमारी जीवन शैली दो चक्रों पर आधारित है। एक चक्र है परम्परा, जिसमें आस्था-विश्वास रहता है, दूसरा चक्र है वैज्ञानिक सोच जिसमें विकास रहता है। शायद हम विकास एवं विनाश की सही विभाजक रेखा का निर्धारण नहीं कर पा रहे हैं और यही प्राकृतिक असंतुलन का कारण है।

हमें अब जागरूकता के माध्यम से प्रकृति से सामंजस्य बनाना है। बौद्धिकता तथा नैतिकता में तालमेल साधना है। हमारे पास संसाधनों के संरक्षण का बीज मंत्र है। इस मंत्र को समझने की आवश्यकता है। शरीर, बुद्धि और भावनाएं, स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर के साथ हम सबमें ही नैसर्गिक रूप से पाई जाती है। धन तथा संसाधनों को हम अर्जित करते हैं। अर्थात वह स्वउपार्जित होता है। पूर्वजों के द्वारा पूर्व संचित धन-संसाधन हमें उत्तराधिकार में मिलते हैं। प्राकृतिक संसाधनों के मामले में आज हम स्वउपार्जन से विमुख हुए हैं। हम संसाधनों को उत्तराधिकार में अधिकता से पा रहे है किन्तु हम इनका मूल्य नहीं समझ पा रहे हैं। अब हमें संसाधनों का समय समय पर मूल्यांकन और अंकेक्षण करते रहना है। यह काम सिर्फ सरकारी स्तर पर संभव नहीं है। हम जागरूक होकर इस पर काम कर सकते हैं। हालांकि, प्रकृति धैर्यवान एवं क्षमाशील है किन्तु अपने साथ हो रहे अन्यायों को प्रकृति ज़्यादा देर तक सहन नहीं करती है। प्राकृतिक आपदाओं के रूप में वो मानवता के अस्तित्व को चुनौती दे ही देती है। जैसे लोग कर्तव्य पारायण होते हैं वैसे ही हमें स्वयं को प्रकृति-पारायण बनाने पर विचार केन्द्रित करना चाहिए। जैसे जैसे हम उत्पत्ति के स्रोत को स्वीकृति एवं सम्मान देते हैं। भावनाएं एवं ब्रह्माण्ड की शक्तियां आशीर्वाद के रूप में प्राकृतिक संपदाओं से हमें फलीभूत करने लगती हैं। ये एक प्रकार का प्राकृतिक चक्र है जो यदि नियंत्रित है तो सर्वत्र खुशहाली है और अगर एक बार यह अनियंत्रित हो गया तो इसके भयावह परिणाम की कल्पना करना भी आसान नहीं है। क्योंकि, प्रकृति अपने साथ हुई क्रूरता का बदला क्रूरतम तरीके से लेती है। केदारनाथ घाटी के प्रकरण में हम यह देख चुके हैं। प्राकृतिक दोहन और प्राकृतिक संरक्षण एक दूसरे के पूरक हैं। बात छोटी सी है किन्तु हमें इसके गहरे निहितार्थ को आत्मसात करना होगा।

प्राकृतिक संसाधन का संरक्षण एवं रोजगार संवर्धन

यह एक ऐसा विषय है जिसमें असीमित संभावनाएं हैं। वर्तमान में भारत में बेरोजगारी की समस्या एक बड़ी समस्या है। हमारे यहां एक बड़ा शिक्षित वर्ग पढ़ा लिखा होने के बावजूद बेरोजगार है। इसकी वजह हमारी शिक्षा प्रणाली एवं अर्थव्यवस्था के मापदंड हैं। जब हमारे यहां ग्रामीण स्तर पर शिक्षित होने का अभियान नहीं चला था तब तक गांव में हर व्यक्ति के पास एक रोजगार था। माली, माली का काम कर रहा था। नाई गांव में बाल काटता था। कुम्हार बर्तन बनाता था। धीरे धीरे हमने शिक्षा के नाम पर उनको उनके व्यवसाय में ट्रेंड नहीं किया बल्कि उनको डिग्रियां थमा दी। अब उन्होंने अपना मूल काम भी छोड़ दिया और उनमें से अधिकतर को हम नौकरी भी मुहैया नहीं करा पाये। पढऩे के बाद लोगों ने अपने पैतृक कार्य को करना अपनी कमजोरी माना। एक बड़ी आबादी शहरों का रुख करने लगी। वहां जाकर पढ़े लिखे बेरोजगारों की फौज ने एहसास किया कि वह तो कम रुपये की नौकरी तलाश रहे हैं जबकि इससे ज़्यादा के मालिक तो वह अपने गांव में पहले से हैं। इसके अतिरिक्त भारत में जीडीपी के मानक भी कुछ ऐसे हैं जिससे उद्योगों को सफलता का पर्याय माना गया। जैसे वर्तमान में अगर ऑटो उद्योग में बिक्री कम होती है तो हम उसे मंदी मान लेते हैं।

कहने का तात्पर्य है कि जब तक हम इस बात के लिए जागरूक नहीं होंगे कि रोजगार का अर्थ नौकरी नहीं है तब तक हम न स्वयं को स्थापित कर पाएंगे न राष्ट्रनिर्माण कर पाएंगे। भारत में पारंपरिक स्तर पर रोजगार की असीम संभावनाएं हैं। पर्यटन उसमें से एक है। इसमें भी धार्मिक पर्यटन के रूप में भारत में एक बड़ा बाज़ार मौजूद है। हमारे पास एक ओर विदेशी सैलानियों की आवक के लिए खुला मैदान है तो दूसरी तरफ भारत के आंतरिक स्तर पर भी सैलानी काफी मात्रा में मौजूद हैं। भारत के अंदर लोगों की धार्मिक आस्थाएं भी धार्मिक पर्यटन के लिए बड़ी संभावनाएं पैदा करती हैं। हिन्दुत्व धार्मिक पर्यटन का वैश्विक आधार बन सकता है। यूरोपीय देशों में कृष्ण का बढ़ता प्रभाव एवं योग की तरफ उनका ध्यान आकर्षित होना, इस संदर्भ में सिर्फ व्यापक जन सोच की दरकार रखता है। कश्मीर से 370 का हटना अब उस भूभाग में इस संदर्भ में नए रोजगार पैदा करेगा। अभी तक वहां सिर्फ स्थानीय स्तर पर पर्यटन होता था अब वहां सम्पूर्ण भारत एवं विदेशियों के द्वारा पर्यटन उद्योग फले फूलेगा। ऐसे में लोगों की जागरूकता भी आवश्यक होगी।

जब लोग पर्यटन के लिए जाये तब स्वच्छता का ध्यान रखे। ट्रैफिक नियमों का पालन करें। जल व्यर्थ न बहाएं। स्थानीय जनभावनाओं का ख्याल रखें। अब सोचिए क्या भावनाओं का ख्याल रखने के लिए कोई कानून बनाया जा सकता है? यह तो सिर्फ जागरूकता फैलाकर ही प्रसारित किया जा सकता है। अब यदि सब बातों का सार देखा जाये तो विकसित भारत के निर्माण में भारत के नागरिकों को स्वयं को अपग्रेड करना होगा। सरकार को अपनी जवाबदेही समझनी होगी एवं जनता को अपनी सामाजिक जि़म्मेदारी का एहसास करना होगा। नरेंद्र मोदी ने सामाजिक अजेंडे पर काम करना शुरू कर दिया है। भारत को भारतीयता के आधार पर स्थापित करने वाले तत्वों को जन जागरूकता के माध्यम से स्पर्श करना शुरू कर दिया है। जो विषय सिर्फ सरकारें कानून बनाकर सुधार नहीं कर सकती हैं उस पर गेंद जनता के पाले में उछाल दी है।

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नये मोटर व्हिकल एक्ट के प्रमुख प्रावधान

यातायात के नियमों में शिथिलता के कारण अक्सर लोग कम जुर्माने के कारण नियमों को नहीं मानते थे। अब नए कानून में जुर्माने के प्रावधान इतने बढ़ा दिये गए हैं कि नियम तोडऩे पर काफी जेब ढीली होगी। इनमें से कुछ नियमों को तोडऩे पर जुर्माना इतना अधिक है कि नियमों का मानना लोगों की मजबूरी भी बन जाएगा। संशोधित मोटर वाहन एक्ट के पेनल्टी वाले प्रावधानों के अलावा पहली सितंबर से कुछ और प्रावधान भी प्रभाव में आ जाएंगे। इनमें ड्राइविंग लाइसेंस और रजिस्ट्रेशन सर्टिफिकेट के लिए राज्य के भीतर कहीं भी आवेदन करने की सुविधा वाले प्रावधान भी शामिल हैं।

पहली सितंबर से संशोधित मोटर वाहन एक्ट के ऐसे 63 उपबंध लागू हो जाएंगे, जिनमें नियम निर्धारित करने की आवश्यकता नहीं है। 63 उपबंधों में एक राज्य के भीतर डीएल व आरसी का आवेदन किसी भी आरटीओ में करने तथा इनसे संबंधित नियम राज्यों को स्वयं बनाने की सुविधा देने वाले उपबंध व धाराएं भी शामिल हैं। सड़क मंत्रालय के अनुसार 1 सिंतबर से किसी राज्य के भीतर नया ड्राइविंग लाइसेंस बनवाने या पुराने का नवीकरण कराने अथवा नए वाहन का रजिस्ट्रेशन कराने या मौजूदा वाहन का ट्रांसफर करने का आवेदन किसी भी आरटीओ में कराना संभव होगा। अभी इन कार्यों के लिए आवेदक को अपने निवास वाले क्षेत्र के आरटीओ में ही आवेदन करना पड़ता है। परंतु अब दूसरे आरटीओ से आवेदन करने पर भी उसे स्वीकार किया जाएगा। फिलहाल ये सुविधा ऑनलाइन नहीं होगी। इसके लिए आरटीओ तक जाना और कागज पर आवेदन भरकर देना होगा तथा प्रक्रियाएं पूरी करनी होंगी। संशोधित मोटर वाहन एक्ट में इसके लिए पूर्व के कई फार्मो को मिलाकर फार्मो की संख्या कम करने के प्रावधान भी किए गए हैं। विधिक प्रक्रिया के तहत संसद से मोटर वाहन (संशोधन) एक्ट, 2019 नाम से नया एक्ट अवश्य पारित हुआ है। मगर इसके प्रावधान मौजूदा मोटर वाहन एक्ट 1988 का हिस्सा ही कहलाएंगे। जैसे-जैसे ये प्रावधान लागू होते जाएंगे, इन्हें मोटर एक्ट 1988 में शामिल किया जाता रहेगा और अंतत: अगले वर्ष तक सभी नए प्रावधान एक्ट के पुराने प्रावधानों की जगह ले लेंगे।इनमें कुछ महत्वपूर्ण प्रावधान इस प्रकार हैं।

  1. धारा (177)- सामान्य चालान : साधारण चालान पर पहले 100 रुपये का जुर्माना लगता था जो बढ़ कर 500 हो जाएगा।
  2. धारा 177(ए) – सड़क के नियमों को तोडऩा : पहले 100 रुपये का जुर्माना लगता था जो बढ़ कर 500 हो जाएगा।
  3. धारा 178 – बिना टिकट की यात्रा : पहले 200 रुपये का जुर्माना लगता था जो बढ़ कर 500 हो जाएगा।
  4. धारा (179) – अथॉरिटी के आदेशों को न मानना : पहले 500 रुपये का जुर्माना लगता था जो बढ़ कर 2000 हो जाएगा।
  5. धारा (180) – बना लाइसेंस के अनाधिकृत वाहन को चलाना : पहले 1000 रुपये का जुर्माना लगता था जो बढ़ कर 5000 हो जाएगा।
  6. धारा (181) – बिना लाइसेंस के गाड़ी चलाना : पहले 500 रुपये का जुर्माना लगता था जो बढ़ कर 5000 हो जाएगा।
  7. धारा (182) – बिना योग्यता के गाड़ी चलाना : पहले 500 रुपये का जुर्माना लगता था जो बढ़ कर 10000 हो जाएगा।
  8. धारा (182 बी) – ओवरसाइज वाहन को चलाना : यह नया नियम है, जो इस बिल में शामिल किया गया है। इसके लिए आपको 5000 रुपये का जुर्माना देना होगा।
  9. धारा (183)- स्पीड लिमिट को पार करने पर : पहले 400 रुपये का जुर्माना लगता था जो 2000 रुपये तक जाएगा।
  10. धारा (184)- खतरनाक ड्राइविंग पेनाल्टी : पहले 1000 रुपये का जुर्माना लगता था जो 5000 रुपये तक जाएगा।
  11. धारा (185) – शराब पीकर गाड़ी चलाने पर : पहले 2000 रुपये का जुर्माना लगता था जो बढ़ कर 10000 हो जाएगा।
  12. धारा (189) – रेसिंग करने पर : पहले 500 रुपये का जुर्माना लगता था जो बढ़ कर 5000 हो जाएगा।
  13. धारा (192 ए) – बिना परमिट गाड़ी चलाने पर : पहले 5000 रुपये तक का जुर्माना लगता था जो बढ़ कर 10000 रुपये तक हो जाएगा।
  14. धारा (193) – लाइसेंसिंग कंडीशन के उल्लंघन पर : यह नया नियम है, जो इस बिल में शामिल किया गया है। इसके लिए आपको 25000 रुपये से 1 लाख रुपये तक का जुर्माना देना पड़ सकता है।
  15. धारा (194) – ओवरलोडिंग पर : पहले 2000 रुपये और प्रति टन 1,000 रुपये अतिरिक्त देना पड़ता था, लेकिन अब 20,000 रुपये और प्रति टन 2,000 रुपये अतिरिक्त देना पड़ेगा।
  16. धारा (194 ए)- सवारी (पैसेंजर) की ओवरलोडिंग पर : यह नया नियम है, जो इस बिल में शामिल किया गया है। इसके लिए आपको 1000 रुपये प्रति सवारी जुर्माना देना होगा।
  17. धारा (194 बी) – बिना सीट बेल्ट पर : पहले 100 रुपये का जुर्माना था जो बढ़ कर 1000 रुपये हो जाएगा।
  18. धारा (194 सी) – दो-पहिया वाहन पर ओवरलोडिंग : पहले 100 रुपये का जुर्माना था जो बढ़ कर 2000 रुपये हो जाएगा।
  19. धारा (194 ई) – इमरजेंसी वाहनों को जगह नहीं देना (एंबुलेंस जैसे वाहन) : यह नया नियम है, जो इस बिल में शामिल किया गया है। इसके लिए आपको 10000 रुपये तक का जुर्माना देना होगा।
  20. धारा (196) – बिना इंश्योरेंस ड्राइविंग : पहले 1000 रुपये का जुर्माना था जो बढ़ कर 2000 रुपये हो जाएगा। ट्रैफिक तोडऩे पर 30 गुना तक ज्यादा कटेगा चालान।

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उदारीकरण से पनपा भोगवाद, छिन्न भिन्न हुआ सामाजिक ताना बाना

उदारीकरण का दौर आने के बाद भारत का बाज़ार जैसे ही विश्व के लिए खुला वैसे ही भोगवादी प्रवृत्ति का पुष्प और ज़्यादा पल्लवित हो गया। किसी भी व्यक्ति की ‘क्रय-शक्ति’ सफलता का मापदंड बन गयी। जब सफलता का मापदंड ‘क्रय-शक्ति’ हो तब ‘नैतिक-आचरण’ जैसी बातें किताबी और अप्रयोगिक होने लगी। जनता की सोच भी बाज़ार के हिसाब से चलने लगी। जनता की आवाज सरकार की आवाज़ बनने लगी। इस तरह बाज़ार के द्वारा सत्ता और जनता को हाईजैक कर लिया गया।  जो बातें सामाजिक दृष्टि से अस्वीकार थीं वह स्वीकार की जाने लगी। महिला अधिकार और सशक्तिकरण के नाम पर महिलाओं को उपभोग की वस्तु दिखाकर पेश किया जाने लगा। बाज़ार में बिकने वाले हर सामान की मोडेल कम कपड़ों की लड़की होने लगी चाहे उस उत्पाद का उस महिला से कुछ लेना देना हो या न हो। सनी लियोने को एक वैश्विक अन्तर्राष्ट्रीय व्यापारिक षड्यंत्र के अंतर्गत भारत में प्रचारित एवं प्रसारित किया गया। पॉर्न बाज़ार भारत में एक बड़ा बाज़ार बन कर उभरा। इस तरह से भारत के पूरे सांस्कृतिक परिदृश्य को छिन्न-भिन्न करके योग से भोग की तरफ मोड़कर एक बड़ा बाज़ार पैदा हो गया। अब प्रश्न उठता है कि इसका समाधान क्या है? इसका समाधान है रामराज की स्थापना। राम मंदिर निर्माण तो आस्था का प्रश्न हो सकता है किन्तु रामराज एक आदर्श राज्य की अवधारणा है। उस सामाजिक सदभाव का उदाहरण है जिसमें नेतृत्व क्षमता विकसित करके लक्ष्य प्राप्ति का संदेश है। इसको ऐसे समझा जा सकता है कि राम जब वन में गए तो वह चाहते तो अन्य राजाओं से संरक्षण प्राप्त कर सकते थे। किन्तु उन्होंने ऐसा नहीं किया। सीता का अपहरण होने पर उन्होंने वंचितों को इक_ा करके सेना बनाई और विजय प्राप्त की। शबरी के बेर खाये और केवट के द्वारा नदी पार की। हनुमान में नेतृत्व क्षमता विकसित की और उन पर सम्पूर्ण विश्वास किया। इस तरह से रामराज का विचार सिर्फ एक कल्पना नहीं है बल्कि यह ज़मीन पर लायी जा चुकी सच्ची थियरी है। अब यह बाज़ार का दुष्प्रभाव है जहां नैतिक चिंतन पर व्यक्तिगत लाभ हावी हो रहा है। रामराज की स्थापना करने के लिए सामाजिक अजेंडे पर काम करना पड़ रहा है।

-अमित त्यागी

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जनसंख्या नियंत्रण के उपाय बनाम कॉन्डोम का बढ़ता व्यावसायीकरण

भारत की जनसंख्या लगातार बढ़ती जा रही है, आज यह 136 करोड़ को पार कर गई है जो निश्चित ही भारत के संसाधनों के ऊपर एक बड़ा बोझ डालती जा रही है। यह भयावह तरीके से दिनों दिन बहुत तेजी से बढ़ रही है। आज़ादी के बाद से ही भारत की सरकारें देश की जनसंख्या नियंत्रण करने का प्रयास करती आ रही हैं पर शायद 1968 से निरोध और नसबंदी से शुरू हुआ सरकारों का प्रयास लगभग असफल ही रहा है। जागरूकता तो बहुत फैलाई गई परंतु जनसंख्या नियंत्रण का कोई भी कानून कभी न बन पाया। वजह साफ है क्योंकि इसको बनाने पर कभी किसी विशेष धर्म को लगता कि यह हमारी धार्मिक मान्यताओं के खिलाफ होगा। देश की सरकारें और कमजोर राजनीतिक इच्छाशक्ति भी धर्म और जाति के वोट बैंक की वजह से आज तक कोई कानून न ला पाई। इसके इतर निरोध से जनसंख्या नियंत्रण करने का प्रचार सरकारी एजेंसियों द्वारा इतना हुआ कि निरोध का प्रयोग जनसंख्या नियंत्रण से ज्यादा अनैतिक कार्यों से होता हुआ कब ‘कॉन्डोम व्यापार’ में कब बदल गया, पता ही नही चला। आज करीब 20,000 करोड़ का व्यापार कॉन्डोम और इससे मिलते जुलते गर्भ निरोधकों का खड़ा हो गया है। एक रिसर्च के अनुसार लगभग 80 करोड़ कॉन्डोम प्रति वर्ष भारत में प्रयोग किये जाते हैं पर जनसंख्या फिर भी हर साल 1.3 प्रतिशत सालाना की ग्रोथ रेट से करोड़ों में ही बढ़ती चली जा रही है। आंकड़ों से लगता है कि जितने ज्यादा गर्भ निरोधक यूज़ हो रहे हैं उतनी ही जनसंख्या बढ़ती जा रही है। इसका सीधा मतलब यही निकलता है कि गर्भ निरोधक गर्भ धारण न होने से ज्यादा अनैतिक संबंधों या विवाहेत्तर संबंधों में ज्यादा प्रयोग हो रहे हैं। एक रिसर्च के मुताबिक भारत में वेलेंटाइन डे वाले दिन कंडोम एवं गर्भ निरोधकों की बिक्री करीब 25 प्रतिशत बढ़ जाती है।

इसका एक पहलू और भी है कि यदि हम प्रकृति के अनुरूप चले तो प्रकृति के ईको सिस्टम में सबकुछ अपने आप प्राकृतिक रूप से बैलेंस होता रहता है परंतु हम मनुष्य जब अप्राकृतिक आचरण करते हैं चाहे वह प्राकृतिक संसाधनों का दोहन हो, मानवजनित केमिकल और गैसों द्वारा हवा पानी का प्रदूषण, या फिर बाज़ारवाद और भोगवाद के अंधे नशे में मनुजता के अमृत को छोड़ देना और  तब तब ही हम अपने ऊपर उस प्रकृति को कुपित कर देते हैं और मानवता के वर्तमान और भविष्य को ही अंधकार में धकेल देते हैं इसलिये किसी के निरोध और विरोध से ज्यादा मानवता को प्रकृति के अनुरूप विकासवाद को लेकर चलना होगा क्योंकि ध्यान रहे हम भी इसी प्रकृति की ही कृति हैं। यदि वाकई में सरकार यह चाहती है कि जनसंख्या पर रोक लगे तो जागरूकता के साथ कठोर कानून बनाने की आवश्यकता है और इसके लिए भारत के नेताओं को भारत के भविष्य के लिये जाति धर्म की राजनीति से ऊपर उठकर सोचना होगा और कानून बनाना होगा और भारत के नागरिकों को भी जाति धर्म की मानसिकता से ऊपर उठकर आगे बढ़कर भारत के हित के लिये जनसंख्या नियंत्रण को अपनाना होगा। और साथ ही साथ सरकार और समाज को बाज़ारवाद और भोगवाद की गुलामी से मुक्त होकर मर्यादित और संस्कारित करना होगा जिससे समाज चरित्रवान बने और  चरित्रवान समृद्धशाली देश का निर्माण करे न कि बाजारवाद और भोगवाद में पड़ चाहे अनचाहे केवल विदेशी कंपनियों को समृद्ध बनाने में योगदान देता रहे।

-अशित पाठक

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राष्ट्रनिर्माण का तत्व प्रस्फुटित करता है धार्मिक पर्यटन

भारत विविधताओं से भरा देश है और विविधताएं ही पर्यटन की संभावनाएं पैदा करती हैं। नए स्थान पर जाना और वहां जाकर आनंद प्राप्त करना पर्यटन है। कहा जाता है कि दूर के ढ़ोल सुहावने होते हैं। हरिद्वार और ऋषिकेश में रहने वाले लोगों के लिए मुंबई और गोवा के समुन्द्र तट आकर्षण का कारण बनते हैं तो मुंबई के लोगों के लिए हरिद्वार और ऋषिकेश का प्राकृतिक सौन्दर्य। व्यक्ति जिस माहौल और परिवेश में रहता है उसमें परिवर्तन उसको आकर्षित करता है। इसमें कुछ भी गलत नहीं है। यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। अब अगर इस प्रक्रिया के साथ कुछ ऐसा जुड़ जाये जिसके द्वारा सांस्कृतिक और धार्मिक पक्ष का कुछ ज्ञान हो जाये तो उसे धार्मिक पर्यटन कह दिया जाता है। दिल्ली में रहने वाले अगर गोवा के स्थान पर गंगा सागर का पर्यटन करते हैं तो दोनों स्थानो पर हालांकि समुन्द्र हैं। किन्तु गोवा में सिर्फ समुन्द्र हैं जबकि गंगा सागर में पवित्र गंगा का समुन्द्र में मिलन है। उसका धार्मिक और आध्यात्मिक महत्व है। कहा जाता है कि गंगा सागर का दर्शन करने से मनुष्य प्रभु की शरण में जाता है। गोवा जाने से सिर्फ ‘बीच’ पर जाने का सुख मिलता है किन्तु गंगा सागर जाने से ‘बीच’ का सुख और धार्मिक पुण्यलाभ दोनों मिलता है। परिवार के साथ जाने से भारत की आध्यात्मिक ऊर्जा को समझने का अवसर मिलता है।

बस यही है पर्यटन और धार्मिक पर्यटन का अंतर। धार्मिक पर्यटन का एक बड़ा फायदा बच्चों में राष्ट्रनिर्माण का तत्व पैदा करना भी है।  आज के समय में जब मां बाप दोनों नौकरी पेशा हो चुके हैं तब ऐसे में सबसे बड़ी समस्या उनके द्वारा अपने बच्चों को समय न दे पाना होता है। कम समय देने के कारण बच्चों में संस्कार का तत्व प्रस्फुटित नहीं हो पाता है। जब हम अक्सर समाचारों में अपराध की खबरें सुनते हैं तो वह हमारे अंदर नकारत्मकता का भाव भर देती है। हम यह सोचते हैं कि कब समाज से अपराध खत्म होंगे ? हम अपने बच्चों को लेकर चिंतित हो जाते हैं। चूंकि अभिभावक नौकरी पेशा होने के कारण समयाभाव में जूझ रहे होते हैं इसलिए सकारात्मक सोच के लोगों के लिए ऐसी खबरें दुख देने वाली होती हैं। बच्चों में बढ़ रही आपराधिक प्रवृत्ति की एक बड़ी वजह उनमें आध्यात्मिक ऊर्जा की कमी होता है। जब हम अपराध की बात करते हैं तब हमें अपराध रोकने के लिये आवश्यक उन तत्वों पर चर्चा की जानी चाहिए जो अपराध को पूर्व नियंत्रित करते हैं। समाधान की प्रक्रिया में सोचने पर हमें धार्मिक पर्यटन का महत्व समझ आता है। चूंकि किसी भी देश के निर्माण में उस देश के बालमन का अहम योगदान होता है इसलिए धार्मिक पर्यटन न सिर्फ घूमने का आनंद देता है बल्कि परिवार को बांधे रखने में भी सहायक होता है।

पर्यटन और रोजगार का गहरा संबंध है। यूरोप के कई देश सिर्फ पर्यटन आधारित अर्थव्यवस्था पर आश्रित हैं। स्विट्जऱलैंड जैसे छोटे देश की अर्थव्यवस्था का प्रमुख आधार पर्यटन है। अर्थव्यवस्था का आधार बनाने के लिए इन देशों ने मेहनत भी की है। उन्होने न सिर्फ अपने यहां के प्राकृतिक सौन्दर्य को संरक्षित किया बल्कि नागरिकों को प्रशिक्षित किया ताकि वह पर्यटन आधारित अर्थव्यवस्था का अभिन्न अंग बन सकें। पर्यटकों के आने पर होटल व्यवसाय, ट्रांसपोर्ट व्यवसाय, टुरिस्ट गाइड सहित अनेकों क्षेत्र में रोजगार सृजित होने लगते हैं। इस रोजगार सृजन का सबसे बड़ा लाभ यह होता है कि यह उसी स्थान पर सृजित होते हैं जिस स्थान पर व्यक्ति निवास करता है। यह बड़े शहरों में रोजगार की तलाश करने जाने वाले नौजवानों के कारण बढ़ती शहरी आबादी को भी नियंत्रित करता है। पर्यटन सरकार को बहुत सी समस्याओं का हल प्रदान करता है।

भारत में धार्मिक पर्यटन का राष्ट्रीय एवं अन्तराष्ट्रीय बड़ा बाज़ार मौजूद है। विश्व में बौद्ध धर्म को मानने वाले एक बड़े वर्ग के लिए भारत एक महत्वपूर्ण धार्मिक स्थल है। सारनाथ और बौद्ध गया भारत में स्थित हैं जो महात्मा बुद्ध से जुड़े प्रमुख स्थल हैं। अन्तराष्ट्रीय पर्यटकों के आगमन को यदि हम सुलभ बना देते हैं तो यह वैश्विक पहचान का माध्यम बनाता है। रोजगार सृजन का आधार बनता है। इसके साथ ही अगर उत्तर प्रदेश की बात करें तो भगवान श्रीराम की जन्मभूमि अयोध्या एवं भगवान कृष्ण की जन्मभूमि मथुरा एक बड़े पर्यटक स्थल हैं। बनारस के घाट अगर आध्यत्मिक ऊर्जा से भरपूर हैं तो लखनऊ अपनी नक्काशी के लिए। राजस्थान में किले दर्शनीय हैं तो दक्षिण भारत के मंदिर कुछ न कुछ विशेषता लिए हुये हैं। धार्मिक पर्यटन के इन क्षेत्रों को जितना ज़्यादा प्रचारित और प्रसारित किया जायेगा उतना ही ज़्यादा इन क्षेत्रों में रोजगार सृजन संभव होता जायेगा।

-अमित त्यागी

(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं )

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