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सुपरबग : कहीं हार न जाए एलोपैथिक चिकित्सा

आपने कभी सोचा है कि जब आपकी दवाई काम करना बंद कर देगी तब क्या होगा? नहीं न। तो जरूर सोचिए। आज पूरी दुनिया सोच रही है। आज के समय में एंटीबायोटिक का काम न करना आधुनिक स्वास्थ्य व्यवस्था के लिए सबसे बड़ी चुनौती के रूप में सामने आया है। पूरी दुनिया इससे बचने के उपाय में जुटी है। इसी कड़ी में भारत में भी एंटीबायोटिक्स के दुरुपयोग को रोकने के लिए सरकारी एवं गैर-सरकारी स्तर पर तमाम उपाय किए जा रहे हैं। एंटीबायोटिक्स पर बैक्टीरिया की जीत की स्थिति को वैज्ञानिकों ने ‘सुपरबग’ का नाम दिया है। यानी एक ऐसा जीवाणु जिस पर अबतक उपलब्ध कोई भी एंटीबायोटिक्स काम नहीं करता है सामान्यत:  ‘सुपरबग’ कहलाता है। एंटीबायोटिक्स के बनने से लेकर जीवाणुओं के ‘सुपरबग’ बनने की कहानी को इस आलेख में बता रहे हैं वरिष्ठ स्वास्थ्य पत्रकार आशुतोष कुमार सिंह

 

आधुनिक चिकित्सा व्यवस्था आज खतरे में है। उसकी पहचान संकट में है। उसके हथियार ‘भोथर’ होते जा रहे हैं। आधुनिक चिकित्सा शास्त्र जिसका मानना है कि बैक्टीरिया को मारकर बीमारी पर विजय प्राप्त की जा सकती है, इसी सिद्धांत के आधार पर विगत 8 दशकों से बैक्टीरिया मारक दवा हमें खिलाई जा रही है। इसको इस तरह भी समझा जा सकता है कि हमारा शरीर एक युद्ध क्षेत्र है जहां पर बैक्टीरियों का राज चलता है। इसमें कुछ शरीर के लिए लाभप्रद हैं तो कुछ शरीर को नुकसान पहुंचाते हैं और दोनों के बीच युद्ध चलते रहता है। जो कमजोर पड़ता है उसकी हार होती है। चिकित्साशास्त्र में आधुनिक विज्ञान के हस्तक्षेप से हमने दुश्मन बैक्टीरिया को मारने के लिए एंटीबायोटिक्स बनाया। ये एंटीबायोटिक्स हमारे शरीर के युद्ध क्षेत्र में जाकर हानिकारक बैक्टीरिया को मारने का काम करते हैं। इस एंटीबायोटिक्स को आप आधुनिक चिकित्सा शास्त्र का ब्रह्मास्त्र भी कह सकते हैं। जब किसी भी उपाय से शत्रु नहीं हारता है तब उस पर ब्रह्मास्त्र चलाया जाता है। लेकिन यहां पर ध्यान देने वाली बात यह है कि ब्रह्मास्त्र के उपयोग को लेकर बहुत सी सावधानियां बताई गई है। क्योंकि इसका एक बार संधान कर लेने के बाद इसे वापस नहीं बुलाया जा सकता है। ठीक उसी प्रकार शरीर में एक बार एंटीबायोटिक्स रूपी ब्रह्मास्त्र का उपयोग हो जाने के बाद उसे वापस नहीं बुलाया जा सकता है। दुर्भाग्य से आज आधुनिक चिकित्सा शास्त्र एंटीबायोटिक्स रूपी ब्रह्मास्त्र का दुरुपयोग इतना करने लगा है कि दुश्मन बैक्टीरिया इस अस्त्र से पार पाने की जुगत निकाल चुके हैं। उन पर ब्रह्मास्त्र का भी असर अब नहीं हो रहा है और इसी कारण वैश्विक स्तर पर यह चिंता का विषय बना हुआ है। सभी यह सोच रहे हैं कि अगर एंटीबायोटिक्स इसी तरह काम करना बंद करते रहे तो आने वाले दिनों में आधुनिक चिकित्सा व्यवस्था कहीं धराशायी न हो जाए। वैश्विक स्तर पर अरबो-खरबों डॉलर का आधुनिक चिकित्सा बाजार धूल-धूसरित हो जाएगा। डॉक्टर के पास इलाज करने के लिए एंटीबायोटिक्स नहीं रहेंगे, तो वह इलाज कैसे करेगा? जब डॉक्टर अपना हाथ खड़ा करेगा वैसे में एक डॉक्टर से चलने वाले तमाम उप-बाजार मसलन जांच, अस्पताल, नर्सिंग सब के सब का मूल्य शून्य हो जाएगा।

विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने ‘एंटीबायोटिक : हैंडल विद केयर’ नामक वैश्विक कैंपेन की शुरूआत की है। 16-22 नवंबर, 2015 तक पूरे विश्व में प्रथम विश्व एंटीबायोटिक जागरुकता सप्ताह मनाया गया था। इस कैंपेन का मुख्य उद्देश्य यह था कि एंटीबायोटिक्स के बढ़ते खतरों से आम लोगों के साथ-साथ स्वास्थ्य क्षेत्र से जुड़े नीति-निर्माताओं का भी ध्यान आकृष्ट कराया जाए।

विश्व स्वास्थ्य संगठन ने एंटीबायोटिक रेसिस्टेंस की सामाजिक स्थिति को समझने के लिए 12 देशों में एक शोध किया है। इस शोध में बताया गया है कि एंटीबायोटिक्स के प्रयोग को लेकर लोग भ्रम की स्थिति में हैं। इस सर्वे में 64 फीसद लोगों ने माना है कि वे मानते हैं कि एंटीबायोटिक्स रेसिस्टेंस उनके परिवार व उनको प्रभावित कर सकता है, लेकिन यह कैसे प्रभावित करता है और वे इसको कैसे संबोधित करें, इसकी जानकारी उन्हें नहीं है। उदाहरणार्थ 64 फीसद लोग इस बात में विश्वास करते हैं कि सर्दी-जुकाम में एंटीबायोटिक का उपयोग किया जा सकता है, जबकि सच्चाई यह है कि एंटीबायोटिक वायरसों से छुटकारा दिलाने में कारगर नहीं है। लगभग एक तिहाई लोगों (32 फीसद) का मानना था कि बेहतर महसूस होने पर वे एंटीबायोटिक का सेवन बंद कर देते हैं, जबकि सच्चाई यह है कि उन्हें चिकित्सक द्वारा निर्धारित दवा-कोर्स को पूर्ण करना चाहिए।

विश्व स्वास्थ्य संगठन के डीजी डॉ. मारगरेट चान का कहना है कि, ‘एंटीबायोटिक रेसिस्टेंट का बढऩा सार्वजनिक स्वास्थ्य के सामने बहुत बड़ी समस्या है। विश्व के सभी कोनों में यह खतरे के स्तर को पार कर चुका है।’ इसी संदर्भ में महाराष्ट्र के तत्कालीन एफडीए कमीश्नर व आईएएस अधिकारी महेश झगड़े ने अपने कार्यकाल के दौरान यह सुनिश्चित कराने का प्रयास किया था कि पूरे महाराष्ट्र में दवाइयों का सेवन मानक के अनुरूप ही हो। फार्मासिस्टों व औषधि प्रशासन को जवाबदेह बनाने के लिए विशेष प्रशिक्षण की व्यवस्था की थी। उनका मानना था कि किसी भी सूरत में दवाइयों का मानक से ज्यादा अथवा कम उपयोग ड्रग रेसिस्टेंसी के खतरे को बढ़ा देता है।

12 देशों में किए गए सर्वे में एक देश भारत भी है। भारत में 1023 लोगों का ऑनलाइन साक्षात्कार किया गया। इस शोध के अनुसार 76 फीसद लोगों ने कहा कि उन्होंने पिछले 6 महीनों में एंटीबायोटिक का सेवन किया है। जिसमें 90 फीसद लोगों ने प्रिस्क्रिप्शन डॉक्टर व नर्स के कहने पर एंटीबायोटिक्स लिए थे। 75 फीसद लोगों ने यह माना कि सर्दी-जुकाम में एंटीबायोटिक का उपयोग किया जा सकता है जो कि गलत है, वहीं 58 फीसद लोगों ने माना कि वे जानते हैं कि एंटीबायोटिक्स के सेवन में डॉक्टर द्वारा निर्देशित कोर्स को पूरा करना चाहिए। हालांकि 75 फीसद भारतीयों ने माना कि एंटीबायोटिक्स रेसिस्टेंस विश्व-स्वास्थ्य के लिए एक बहुत बड़ा खतरा है।

इस तरह देखा जाए तो आज के वैश्विक माहौल में एंटीबायोटिक रेसिस्टेंसी मानव स्वास्थ्य के लिए एक बहुत ही बड़ी समस्या लेकर अवतरित हुआ है।

क्या है एंटीबायोटिक्स?

वर्तमान समय में एंटीबायोटिक्स बहुत जाना-पहचाना शब्द हो गया है। शायद ही कोई ऐसा हो जिसे अपने जीवन में एंटीबायोटिक का सेवन करने की जरूरत न पड़ी हो। लेकिन जब हम इस शब्द को पारिभाषिक रूप में समझने का प्रयास करते हैं तो यह कहा जा सकता है- एंटीबायोटिक एक ऐसा पदार्थ या यौगिक है, जो जीवाणुओं को मार डालता है या उनके विकास को कमतर करता है। दरअसल, एंटीबायोटिक रोगाणुरोधी यौगिकों का व्यापक समूह होता है, जिसका उपयोग कवक और प्रोटोजोआ सहित सूक्ष्मदर्शी द्वारा देखे जाने वाले जीवाणुओं के कारण हुए संक्रमण के इलाज के लिए होता है।

उत्पत्ति को आधार मानकर यदि हम एंटीबायोटिक का वर्गीकरण करे तो मोटे तौर पर इसे दो भागों में विभक्त कर सकते हैं। एक तो वे, जो जीवाणुओं को मारते हैं, उन्हें जीवाणुनाशक एजेंट कहा जाता है और जो बैक्टीरिया के विकास को कमजोर करते हैं, उन्हें बैक्टीरियोस्टेटिक एजेंट कहा जाता है।

इतिहास की नजऱ में एंटीबायोटिक्स

किसी भी विषय को समझने के लिए उस विषय की पृष्ठभूमि का अध्ययन जरूरी होता है। इस लिहाज से एंटीबायोटिक्स के इतिहास को संक्षिप्त में समझना उचित होगा। अगर हम आधुनिक युग में पहले प्राकृतिक एंटीबायोटिक- पेनिसिलिन की बात करें तो इसकी खोज 1928 में अलेक्जेंडर फ्लेमिंग ने कर दी थी। बीसवीं सदी की शुरुआत से पहले कई संक्रामक रोगों के इलाज औषधीय लोकोक्तियों पर आधारित होते थे। प्राचीन चीनी चिकित्सा में संक्रमण के इलाज के लिए पौधों से प्राप्त एंटीबायोटिक तत्वों का उपयोग 2,500 साल पहले शुरू हुआ। इसी तरह भारत में आयुर्वेद की एक बहुत प्राचीन परंपरा रही है। प्राचीन मिस्र, प्राचीन यूनानी और मध्ययुगीन अरब जैसी कई प्राचीन सभ्यताओं में संक्रमण के इलाज के लिए फफूंद और पौधों का इस्तेमाल होता था। 17 वीं सदी में कुनैन की छाल का उपयोग मलेरिया के इलाज के लिए व्यापक रूप से होता था।

मूलत: एंटीबायोसिस कही जाने वाली एंटीबायोटिक्स वैसी दवाएं हैं, जो बैक्टीरिया के खिलाफ काम करती हैं। एंटीबायोसिस शब्द का मतलब है ‘जीवन के खिलाफ’ और इसकी शुरुआत फ्रांस के जीवाणु विज्ञानी विलेमिन ने इन दवाओं के असर का वर्णन करने के लिए की। एंटीबायोसिस का पहली बार वर्णन 1877 में बैक्टीरिया में किया गया था, जब लुईस पाश्चर और रॉबर्ट कोच ने देखा कि हवा से पैदा हुए एक बैसिलस द्वारा बैसीलस एंथ्रासिस के विकास को रोका जा सकता है। इन दवाओं को बाद में अमेरिकी सूक्ष्मजीव विज्ञानी सेलमैन वाक्समैन ने 1942 में एंटीबायोटिक का नाम दिया।

एक विज्ञान के रूप में सिंथेटिक एंटीबायोटिक कीमोथेरेपी और एंटीबायोटिक के विकास की कहानी 1880 के दशक के आखिर में जर्मनी में वहां के चिकित्सा विज्ञानी पॉल एर्लीच ने शुरू की। चिकित्सकीय रूप से उपयोगी दवा, मानव निर्मित एंटीबायोटिक सालवर्सन की खोज की। हालांकि बाद में एंटीबायोटिक पेनिसिलिन की खोज के बाद सालवर्सन का एंटीबायोटिक के रूप में इस्तेमाल खत्म हो गया। एर्लीच के कार्यों, जिससे एंटीबायोटिक क्रांति का जन्म हुआ, के बाद 1932 में डोमेक ने प्रोन्टोसिल की खोज की। पहले व्यावसायिक रूप से उपलब्ध जीवाणुरोधी एंटीबायोटिक प्रोंटोसिल का विकास गेरहर्ड डोमेक ( जिन्हें उनके प्रयासों के लिए 1939 में चिकित्सा के क्षेत्र में नोबेल पुरस्कार मिला ) की अगुवाई वाली एक टीम ने किया।

एक नजऱ एंटीबायोटिक्स के विकासक्रम पर

एंटीबायोटिक्स आधुनिक चिकित्सा शास्त्र का रोगनियंत्रक शस्त्र है। एंटीबायोटिक्स की पहली खोज से लेकर अभी तक लगातार एंटीबायोटिक्स एवं बैक्टीरिया में जंग जारी है। धीरे-धीरे बैक्टीरिया सभी एंटीबायोटिक्स की मारक क्षमता को कमतर करने में सफल होते जा रहे हैं। इस लिहाज से एंटीबायोटिक्स के विकास क्रम और उनके निष्क्रीय होने की कहानी को जानना जरूरी है। यह भी जानना जरूरी है कि किस तरह एंटीबायोटिक्स को निष्क्रीय कर बैक्टीरिया सुपरबग बनते जा रहे हैं। इस पूरे क्रम को नीचे दिए बिंदुओं से समझा जा सकता है।

–     पेनिसिलिन पूर्व एंटीबायोटिक्स- सल्वारसन नाम का सबसे पहला एंटीबायोटिक सिफिलिस की चिकित्सा के लिए 1909 में जर्मनी में विकसित किया गया। शीघ्र इसका परित्याग कर दिया गया क्योंकि इसके भयंकर दुष्परिणाम थे। इसे रोगियों को सुरक्षित देना कठिन कार्य था।

–     पॉल एरलिच (जर्मन बैक्ट्रोलॉजिस्ट) ने उस औषधि का एक नवीन रूप नियोसल्वारसन विकसित किया। इसके दुष्परिणाम कम थे और इसे रोगी को देना भी अपेक्षाकृत आसान था। 1940 के दशक तक सिफिलिस की चिकित्सा के लिए यह मुख्य औषधि बनी रही।

–     एलेक्जेंडर फ्लेमिंग द्वारा आकस्मिक रूप से पेनिसिलिन की खोज (1928)- एलेक्जेंडर फ्लेमिंग ने छुट्टी के बाद अपनी प्रयोगशाला में लौटने पर देखा कि उनके एक पेट्री डिश में फफूंद लग गयी है और उसके नजदीक पनपते बैक्टीरिया को नष्ट कर दिया है। औषधि के रूप में पेनिसिलिन के विकास में यह पहला कदम था। लेकिन इससे 1941 तक औषधि बनाना संभव नहीं हो पाया।

–     एंटीबायोटिक्स का वाणिज्यिक तौर पर निर्माण (1939)- अमेरिका के वैज्ञानिकों ने मिट्टी में एक नए रसायन की खोज की जो चूहों में बैक्टीरिया को नष्ट कर सकता था। वाणिज्यिक तौर पर निर्माण होने वाला यह पहला एंटीबायोटिक था, परंतु शीघ्र ही इसके उपयोग से जहरीला प्रभाव देखने को मिला।

–     मनुष्य पर सर्वप्रथम पेनिसिलिन का उपयोग किया गया  (1941)- बम गिराए जाने के कारण घायल हुए ब्रिटिश पुलिस अधिकारी अल्बर्ट एलेक्जेंडर घाव में उत्पन्न संक्रमण के कारण मर रहे थे। डॉक्टरों ने उन्हें पेनिसिलिन नामक नई औषधि दी और वह स्वस्थ होने लगे। लेकिन उन्हें पूर्णत: स्वस्थ करने के लिए दुनिया में पर्याप्त पेनिसिलिन नहीं थी। अंतत: उनकी मृत्यु हो गयी। अल्बर्ट पहले व्यक्ति थे जिनका पेनिसिलिन द्वारा इलाज किया गया।

–     स्ट्रेपटोमाइसिन (1943)- सल्फापाइरिडिन नामक नए प्रकार के एंटीबायोटिक ने विंस्टन चर्चिल की न्यूमोनिया से प्राण रक्षा की। इसी दौरान इंग्लैंड में स्ट्रेपोटोमाइसिन नामक एंटीबायोटिक विकिसित किया गया। जो ट्यूबरोक्लोसिस में कारगर सिद्ध हुआ।

–     पेनिसिलिन की संरचना का पता चला (1945)- ब्रिटिश वैज्ञानिक डोरोथी क्रोफट हॉडकिन ने एक्सरे तकनीक के उपयोग से पेनिसिलिन की रासायनिक संरचना का पता लगाया। इसके लिए 1964 में नोबेल पुरस्कार मिला। एलेक्जेंडर फ्लेमिंग और ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी की एक टीम ने पेनिसिलिन पर अपने कार्य के लिए नोबेल पुरस्कार प्राप्त किया। अपने भाषण में फ्लेमिंग ने चेतावनी दी कि बैक्टीरिया में एंटीबायोटिक प्रतिरोधी होने की प्रबल संभावना है।

–     प्रथम ब्रॉड-स्पेक्ट्रम एंटीबायोटिक की खोज (1947)- अमेरिका में वैज्ञानिकों ने एक नए एंटीबायोटिक की खोज की जो बैक्टीरिया के असंख्य परिवारों के लिए प्रभावी था। टाइफस को फैलने से रोकने में इससे बड़ी सफलता मिली। इसका नाम रखा गया क्लोरम फेनीकॉल। वैज्ञानिकों को एस. आरियस बैक्टीरिया में पेनिसिलिन के प्रतिरोध का पता चला।

–     जूते से एंटीबायोटिक प्राप्त हुआ (1949)- आमतौर पर पेनिसिलिन दिए जाने वाले दस लोगों में से एक व्यक्ति इसे सह नहीं पाता है। 1949 में फिलीपींस में एक मिशनरी के जूते से लिए गए मिट्टी के नमूने में एक नया एंटीबायोटिक कंपाउंड पाया गया। पेनिसिलिन को नहीं सह पाने वालों के लिए इरीथ्रोमाइसिन नामक यह नया एंटीबायोटिक सुरक्षित था।

–     कॉलिस्टिन और वेन्कोमाइसिन को पृथक किया गया (1950)- जापान में वैज्ञानिकों ने कॉलिस्टिन नामक नए एंटीबायोटिक को पृथक किया। इस एंटीबायोटिक का उपयोग अंतिम उपाय के रूप में किया जाता था क्योंकि इसके परिणाम भयावह थे। कॉलिस्टिन का उपयोग मुख्य तौर पर कृषि कार्य में लगे पशुओं के लिए किया जाने लगा। बोर्नियों से एकल मिट्टी के नमूनों से वैज्ञानिकों ने एक नए एंटीबायोटिक की खोज की जो पेनिसिलिन प्रतिरोधी संक्रमणों का प्रभावी ढंग से इलाज कर सकता था। इसके बाद जापान और इटली में नए प्रभावी एंटीबायोटिक की खोज हुई। इस प्रकार के बैक्टीरिया खोजे गए जो अपने डीएनए के आदान-प्रदान द्वारा एक दूसरे को प्रतिरोध स्थानांतरित कर सकते हैं।

–     मेथिसिलिन और पेनिसिलिन के प्रतिरोधी देखे गए (1960 का दशक)- ब्रिटेन में वैज्ञानिकों ने पहली बार एमआरएस प्रतिरोधक बैक्टीरिया की खोज की। तत्पश्चात शीघ्र ही इसे यूरोप, जापान, ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका में पाया गया। कुछ बैक्टीरिया जो न्यूमोनिया और गोनोरिया के कारक थे वे पेनिसिलिन प्रतिरोधी हो गए। वैज्ञानिकों ने पहली बार पूर्णरुपेण अप्राकृतिक एंटीबायोटिक्स विकसित किया।

–     एजिथ्रोमाइसिन (1970-80)- एजिथ्रोमाइसिन नामक एक नए एंटीबायोटिक की खोज हुई। अभी तक खोजी गयी यह अंतिम एंटीबायोटिक है जिसका उपयोग लोगों के लिए सुरक्षित है।

–     बैक्टीरिया अनेक औषधियों के प्रतिरोधक हो गए (1990 का दशक)- एक ही समय पर अनेक औषधियों के प्रतिरोधक प्रथम बैक्टीरिया जनित संक्रमण का पता चला, उनमें कुछ ऐसे बैक्टीरिया थे जो टीबी के कारक हैं। पूरे विश्व में सभी एमआरएसए के 95 फीसद से अधिक स्ट्रेंस पेनिसिलिन और एम्पीसिलिन के प्रति प्रतिरोधक पाए गए। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने बताया कि किस प्रकार पशुओं और कृषि कार्यों में एंटीबायोटिक के अत्यधिक उपयोग से मानव जीवन के लिए खतरा पैदा हो रहा है।

–     पूरे विश्व में कॉलिस्टिन समेत एंटीबायोटिक्स के प्रतिरोधक पाए गए (2000)- प्रतिरोधी बैक्टीरिया के विरुद्ध उपयोग के लिए बनाए गए नए एंटीबायोटिक्स उनके खिलाफ अप्रभावी होने लगे जैसे कि एमआरएसए। उपलब्ध अधिकांश एंटीबायोटिक्स से गोनेरिया का इलाज संभव नहीं रहा। यद्दपि कॉलिस्टिन का सामान्य तौर पर उस समय उपयोग किया जाता है जब सारे एंटीबायोटिक्स असफल हो जाते हैं। भारत समेत विश्व के अस्पतालों में चिकित्सकों को कॉलिस्टिन प्रतिरोधक बैक्टीरिया मिलने लगे हैं।

–     एंटीबायोटिक प्रतिरोध (रेसिस्टेंसी) को सर्वोच्च प्राथमिकता वाला स्वास्थ्य जनित वैश्विक खतरा माना गया (2010 का दशक)- पूरे विश्व में एंटीबायोटिक प्रतिरोध को स्वास्थ्य जनित प्राथमिकता-1 वाला संकट माना जा रहा है। अनेक देश इसका मुकाबला करने के लिए आगे आ रहे हैं। भारत ने ओवर द काउंटर एंटीबायोटिक दवाओं की बिक्री को समाप्त करने के उद्देश्य से भारतीय कानून में बदलाव किया। इस दौरान 10 मिलियन पाउंड का लॉगीच्यूड पुरस्कार विश्व के उस अनुसंधान दल को देने की घोषणा हुई जो एंटीबायोटिक प्रतिरोध की समस्या का नया समाधान प्रस्तुत करेगा। सालाना कम से कम 7 लाख लोगों की मृत्यु ऐसे संक्रमणों से होती है जिनका एंटीबायोटिक्स से इलाज संभव नहीं है।

कुछ प्रमुख एंटीबायोटिक्स की जन्मतिथि

 

प्रमुख एंटीबायोटिक    जन्मतिथि

टेटरासाइक्लिन 19 नवंबर,1953

पेनीसिलिन-ङ्क 13 जनवरी, 1958

कोलिस्टिन    17 मई,1962

इरिथ्रोमाइसिन  24 जून,1964

वनकोमाइसिन  6 नवंबर,1964

एम्पीसिलिन   17 दिसंबर,1965

डॉक्सीसाइक्लिन 5 दिसंबर,1967

डाइक्लाक्सासिलिन    22 अप्रैल, 1968

क्लिंडामाइसिन 22 फरवरी, 1970

जेंटामाइसिन   19 जून, 1970

सेफेलेक्सिन   4 जनवरी, 1971

माइनोसाइक्लिन      30 जून, 1971

एमौक्सिसिलिन 9 दिसंबर, 1974

टोबरामाइसिन  11 जून, 1975

सेफाड्रॉक्सिल   17 फरवरी, 1978

सेफाक्लोर     4 अप्रैल, 1979

अमिकासिन   22 जनवरी, 1981

सिफुरोक्जिम   19 अक्टूबर, 1983

सेफ्ट्रियाजोन   21 दिसंबर, 1984

सेफ्टाजिडाइम  19 जुलाई,1985

इमीपेनेम     26 नवंबर, 1985

नॉरफ्लाक्सासिन      31 अक्टूबर, 1986

सिप्रोफ्लॉक्सासिन     22 अकटूबर, 1987

सेफिक्जिम    28 अप्रैल, 1989

ओफ्लाक्सासिन 28 दिसंबर, 1990

क्लारिथ्रोमाइसिन      31 अक्टूबर, 1991

अजिथ्रोमाइसिन 1 नवंबर, 1991

मेरोपेनेम      21 जून, 1996

लिभोफ्लोक्सासिन     20 दिसंबर, 1997

जीवाणुओं का सुपरबग बनने का खतरा

इस विश्व में हम जीवाणुओं की लाखों प्रजातियों के साथ रहते हैं। यह अरबों की संख्या में हमारे शरीर के अंदर व सतह पर रहते हैं जिनकी संख्या हमारे शरीर की कुल कोशिकाओं से भी अधिक है। अनेक बैक्टीरिया हानिकारक नहीं हैं और उनमें से कुछ हमारे स्वास्थ्य के लिए उपयोगी भी हैं। लेकिन जब ये हमारे शरीर के गलत हिस्सों में पहुंच जाते हैं और तीव्र गति से बढ़ते हैं तब हानिकारक संक्रमण उत्पन्न करते हैं। इन संक्रमणों को ठीक करने के लिए हम एंटीबायोटिक्स पर निर्भर करते हैं। आइए जानते हैं उन विषाणुओं यानी बैक्टीरिया के बारे में जो हमें अस्वस्थ कर सकते हैं। इन बैक्टीरियों को विश्व स्वास्थ्य संगठन ने संभावित ‘सुपरबग’ की श्रेणी में रखा है।

साल्मोनेला इंटेरिका सेरोवर टाइफी- ये बैक्टीरिया टायफाइड के कारक हैं। जो व्यक्ति इनसे संक्रमित जल या खाद्यान्न लेते हैं उनमें यह बीमारी होती है। एस.इंटेरिका बहुधा मवेशी एवं मुर्गियों (पोल्ट्री) को संक्रमित करते हैं। इस बैक्टीरिया से संक्रमित खाद्यान्न विक्रेताओं के माध्यम से भी यह संक्रमण फैल सकता है। टायफाइड का इलाज कठिन होता जा रहा है क्योंकि बैक्टीरिया सामान्य तौर पर लिए जाने वाले एंटीबायोटिक्स के प्रतिरोधक हो सकते हैं।

प्रोटियस मिराबिलिस-  ये बैक्टीरिया व्यापक तौर पर मिट्टी एंव जल में पाए जाते हैं तथा अस्पताल में भर्ती रोगियों के घाव में संक्रमण, रक्त संक्रमण, न्यूमोनिया तथा मूत्रनली में संक्रमण के कारक होते हैं।

एंटेरोबैक्टर क्लोकी- छड़ी (रॉड) के आकार के ये बैक्टीरिया सामान्यत: स्वस्थ मनुष्य की आंत में पाए जाते हैं। ये बैक्टीरिया श्वास एवं मूत्र नलियों के साथ-साथ रक्त नलिकाओं को भी संक्रमित कर सकते हैं। ये कोलिस्टिन जैसे शक्तिशाली एंटीबायोटिक के प्रति प्रतिरोधक बन सकते हैं जबकि अन्य एंटीबायोटक्स के प्रति संवेदनशील हो सकते हैं।

एंटेरोकॉकस फीसियम- ई.फीसियम सामान्यत: मानव आंत में पाए जाने वाले हानीकारक बैक्टीरिया हैं। यह उन रोगियों को संक्रमित करते हैं जिनके अंग काम करना बंद कर देते हैं और कैंसर से पीडि़त हैं या जिनका अंग प्रत्यारोपण किया गया है या बहुत दिनों से अस्पताल में भर्ती हैं। यह अपने विशिष्ट गुलाबी रंग से पहचाने जा सकते हैं।

एसिनेटोबैक्टर बाउमन्नी- छड़ी (रॉड) का आकार का यह बैक्टीरिया अधिकांशत: मिट्टी और जल में पाए जाते हैं, लेकिन कभी-कभी ये अस्पताल के परिवेश में भी मिलते हैं। ये बैक्टीरिया अस्पतालों में उन रोगियों को संक्रमित करते हैं जिनमें रोग प्रतिरोधक क्षमता कमजोर होती है। इनका संक्रमण जानलेवा भी हो सकता है।

एस्चेरीचिया कोलाई- ई. कोलाई सामान्यत: मानव आंत में पाया जाता है। यह बैक्टीरिया की पहली प्रजाति है जो हमारे जन्म के साथ ही हमारी प्रणालियों में प्रवेश करती है। ये बैक्टीरिया रक्त नलिकाओं, मूत्र नली और शल्य चिकित्सा (सर्जरी) के घावों में संक्रमण कर सकते हैं जो जानलेवा भी हो सकता है। छड़ी के अकार के इस बैक्टीरिया को नष्ट करना काफी कठिन होता है क्योंकि इसके अत्यंत शक्तिशाली समर्थवान विषैले (टॉक्सिक) एंटीबायोटिक्स की आवश्यकता होती है।

स्टैफिलोकॉकस ऑरियस- एस ऑरियस के लैटिन नाम का अर्थ है ‘सुनहरे अंगूरों का गुच्छा’ और आप सूक्ष्मदर्शी में देखकर इस नाम का कारण समझ सकते हैं। एस. ऑरियस के कारण फोड़े, घाव, रक्त नलिकाओं में संक्रमण, रक्त संक्रमण, न्यूमोनिया, हड्डियों एवं जोड़ों में संक्रमण हो सकते हैं। इनकी चिकित्सा कठिन है क्योंकि अधिकांश बैक्टीरिया अनेक प्रकार की औषधियों के प्रतिरोधी हो रहे हैं।

क्लेबसिएला न्यूमोनी- क्लेबसिएला न्यूमोनी की पहचान सूक्ष्मदर्शी की सहायता से इनके बेलनाकार आकृति और प्रचुर मात्रा में चिपचिपा श्लेष्म उत्पन्न करने से हो सकती है। ये घातक बैक्टीरिया रक्त नलिका, मूत्र नली और शल्य चिकित्सा (सर्जरी) के बाद घावों में औषधि प्रतिरोधक संक्रमण उत्पन्न करते हैं।

स्ट्रेप्टोकॉकस न्यूमोनी- ये बैक्टीरिया अहानिकर रूप से सामान्यत: हमारे फेफड़ों और श्वास नली में रहते हैं। परन्तु जब हमारे शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता कमजोर होती है तब यह जानलेवा हो सकते हैं और इलाज नहीं करने पर घातक न्यूमोनिया का कारण बन जाते हैं। इन बैक्टीरिया के कारण होने वाली न्यूमोनिया का इलाज एंटीबायोटिक्स से हो सकता है लेकिन एस. न्यूमोनी एंटीबायोटिक्स के प्रतिरोधी हो रहे हैं।

स्यूडोमोनास एरूजिनोसा- ये बैक्टीरिया सामान्य तौर पर जलीय या गीली सतह पर पाए जाते हैं और उन्हें इनके रंगीन लाल या हरे पिगमेंट्स के उत्पादन से पहचाना जा सकता है। जब स्यूडोमोनास एरूजिनोसा बैक्टीरिया रक्तप्रवाह या मूत्र नली से शरीर में प्रवेश करते हैं तब गंभीर संक्रमण का कारण बनते हैं।

सुपरबग बनते बैक्टीरिया से लडऩे वाले बैक्टीरिया

हिन्दी में एक कहावत है लोहा ही लोहा को काटता है। जब वैज्ञानिकों ने देखा कि एंटीबायोटिक्स का असर बैक्टीरिया पर कमतर होता जा रहा है और वह एंटीबायोटिक्स प्रतिरोधक बनता जा रहा है, ऐसे में उन्होंने बैक्टीरिया से लडऩे के लिए बैक्टीरिया को सामने रख कर शोध शुरू किया है। इन्हें सूक्ष्माकार योद्धा कहा जा सकता है।

बैक्टीरिया को संक्रमित करने वाले वायरस- बैक्टीरियोफेज ऐसे वायरस हैं जो बैक्टीरिया को संक्रमित करते हैं। एंटीबायोटिक्स से भिन्न, बैक्टीरियोफेज की एक प्रजाति सामान्यत: बैक्टीरिया की किसी विशेष प्रजाति पर ही आक्रमण करती है। दशकों तक बैक्टीरियोफेज का अध्ययन किया गया है। तथापि, एंटीबायोटिक प्रतिरोध के उदय के कारण पूरी दुनिया में ये अनुसंधान का केन्द्र बिन्दु बना हुआ है। कुछ वैज्ञानिक बैक्टीरियोफेज में आनुवंशिक परिवर्तन लाने की कोशिश कर रहे हैं ताकि एंटीबायोटिक-प्रतिरोधक सुपरबग का पता लगाया जा सके और उन्हें नष्ट किया जा सके।

बैक्टीरिया का शिकार करने वाला बैक्टीरिया- डेलोविब्रियो बैक्टीरियोवोरस एक शिकारी बैक्टीरिया है जो अन्य बैक्टीरिया का शिकार एवं भक्षण करता है। ब्रिटेन और अमेरिका के अनुसंधानकर्ताओं ने दिखाया है कि डेलोविब्रियो से पशुओं में कुछ संक्रमणों को सफलतापूर्वक ठीक किया जा सकता है। लेकिन मनुष्य पर इसके उपयोग के लिए और भी परीक्षण आवश्यक है।

बैक्टीरिया मारने वाले सितारे के आकार के प्रोटीन- 2016 में ऑस्ट्रेलिया के मेलबर्न विश्वविद्यालय के अनुसंधानकर्ताओं ने नए प्रकार के कृत्रिम अणुओं को सृजित किया है। जिन्हें स्हृ्रक्कक्कह्य ( स्ट्रकचरली नैनोइंजीनियर्ड एंटीमाइक्रोबियल पेप्टाइड पॉलिमर्स) कहा गया है। स्हृहृ्रक्कह्य (स्नैप्स) हमारी रोग प्रतिरोधक प्रणाली द्वारा उत्पन्न प्राकृतिक प्रोटीनों से प्रेरित हैं। चूहों में परीक्षण के दौरान स्नैप्स ने सुपरबग संक्रमणों का सफलतापूर्वक उपचार किया है। ऐसी उम्मीद जताई जा रही है कि वे एंटीबायोटिक्स का एक स्थानापन्न हो सकते हैं।

टेक्सोबैक्टिन कैसे कार्य करता है-टेक्सोबैक्टिन एक रसायन है जो उन वसा अणुओं से जुड़ जाता है जिसका उपयोग कर बैक्टीरिया अपनी कोशिका भित्ती का निर्माण करते हैं। ऐसा करके यह रसायन उन अणुओं को अक्षम बना देता है जिससे मजबूत भित्ती नहीं बन पाती। उनकी ऊपरी परत कमजोर होती है तथा बैक्टीरिया फट कर नष्ट हो जाते हैं। टैक्सोबैक्टिन, सन् 2015 में खोजे गए एक नए एंटीबायोटिक्स समूह का सदस्य है। अभी तक इसका परीक्षण सिर्फ चूहों पर किया गया है।

तो क्या हमें अब सुपरबग के साथ जीना पड़ेगा?

सुपरबग का मतलब यह है कि एंटीबायोटिक्स का प्रभाव बैक्टीरिया पर नहीं पडऩा। जब कोई बैक्टीरिया एंटीबायोटिक्स प्रतिरोधक हो जाता है तब वह सुपरबग की श्रेणी में आ जाता है। और इसी बात को लेकर पूरी दुनिया चिंतित है। अगर एंटीबायोटिक्स काम करना बंद कर देंगे तब क्या होगा? क्योंकि जब एंटीबायोटिक्स काम करना बंद कर देते हैं तब लोगों की जान खतरे में पड़ जाती है। लोगों को इस प्रकार के संक्रमण ग्रसित कर लेते हैं जिनका उपचार नहीं किया जा सकता। अस्पतालों में बैक्टीरिया के प्रसार को नियंत्रित करने में कठिनाई उत्पन्न हो जाती है। किसान अपने बीमार पशुओं का उपचार नहीं करा सकते। आज  ‘एंटीबायोटिक प्रतिरोधी’ सुपरबग  हर वर्ष 7 लाख लोगों की जान ले लेते हैं। 2050 तक इसकी संख्या 1 करोड़ तक पहुंचने की आशंका है।

सुपरबग को मात देने की तैयारी

सुपरबग ने आज देश-दुनिया के वैज्ञानिकों को चुनौती दे रखी है। सबके लिए यह चुनौती है कि किस तरह आने वाले समय में सुपरबग बनते बैक्टीरिया को नष्ट किया जाए। इस दिशा में पूरी दुनिया में शोध हो रहे हैं और उम्मीद जताई जा रही है कि इन शोधों के परिणामस्वरूप हमें इनसे लडऩे वाले कुछ लड़ाके मिल जाएंगे।

सुपरबग के संभावित लड़ाके

कोमोडो ड्रैगन- यूएसए में जार्ज मैसन विश्वविद्यालय के अनुसंधानकर्ताओं ने बैक्टीरिया जनित संक्रमणों को संभावित चिकित्सा के लिए कोमोडो ड्रैगन के रक्त के नमूने में डीआरजीएन-1 नामक प्रोटीन पाया है। कोमोडो ड्रैगन अपने सलाइवा में बैक्टीरिया की विभिन्न प्रजातियों का वहन करते हैं। वैज्ञानकों का मानना है कि छिपकलियों के रक्त या स्लाइवा में पाए जाने वाले प्रोटीन रोग प्रतिरोधक शक्ति प्रदान कर सकते हैं और नई चिकित्सा का पथ अग्रसर कर सकते हैं।

हड्डा विष- अमेरिकी शोधार्थी दक्षिणी अमेरिका के हड्डे का अध्ययन कर रहे हैं जो एंटीबायोटिक गुणों के साथ विष उत्पन्न करते हैं। उन लोगों ने विष का ऐसा संस्करण सृजित किया है जो मानव कोशिकाओं को क्षति पहुंचाए बिना बैक्टीरिया का मुकाबला कर सकते हैं। चूहों पर परीक्षण करने पर शोधार्थियों ने पाया कि प्रबलतम विष पूरी तरह से सूडोमोनस एरूगिनोसा को समाप्त कर सकता है जो बैक्टीरिया की ऐसी प्रजाति है जिससे अनेक प्रकार के संक्रमण उत्पन्न होते हैं और जो अनेक एंटीबायोटिक्स प्रतिरोधक हैं।

स्टीक इंसेक्ट- इंग्लैंड के इन्नस सेंटर (जेआईसी) के अनुसंधानकर्ताओं ने दीघकाय लाइम ग्रीन स्टीक इंसेक्ट की अंतड़ी में खोजते हुए एक माइक्रोब पाया है जो एंटीबायोटिक प्रतिरोधक सुपरबग के खिलाफ नई औषधि विकसित करने में मददगार हो सकता है।

कीचड़ से दवा : भारत में इंस्टीट्यूट ऑफ माइक्रोबियल टेक्नोलॉजी में अनुसंधानकर्ताओं ने हरियाणा के एक गांव से पुराने कीचड़ के नमूनों से एक अभिनव एंटीमाइक्रोबियल कंपाउंड रू152-क्क3 अलग कर उसकी पहचान की है। जिससे कॉलिस्टिन प्रतिरोधक क्लेबसिएल्ला न्यूमोनी के लिए उत्कृष्ट एंटीमाइक्रोबियल सक्रियता देखने को मिली है।

नागरिक समाज का योगदान

किसी भी समाज में जब कोइ समस्या आती है तो नागरिक समाज को उससे लडऩे के लिए आगे आना पड़ता है। एंटीबायोटिक्स के दुष्परिणाम के प्रति आम भारतीय को जागरूक करने के लिए भारत में भी इस तरह के अभियान चलाए जा रहे हैं। आइए जानते हैं।

नो योर मेडिसिन कैंपेन- लोगों को मेडिसिन के दुष्परिणाम से बचाने के लिए स्वस्थ भारत (न्यास) सन् 2015 से यह कैंपेन चला रहा है। न्यास के प्रमुख सदस्य धीप्रज्ञ द्विवेदी ने बताया कि इस कैंपेन के अंतर्गत हम लोग आम लोगों के बीच में जाकर एंटीबायोटिक्स के दुरुपयोग के बारे में जागरूक करते हैं। लोगों को मेडिकल हिस्ट्री संभालकर रखने के लिए प्रेरित करते हैं। चिकित्सकों से आग्रह करते हैं कि वे बेजरूरी एंटीबायोटिक्स न लिखें। उनका कहना था कि अभी तक संस्था ने दो बार स्वस्थ भारत यात्रा के माध्यम से देश भर में लाखों लोगों को एंटीबायोटिक्स के दुरुपयोग के बारे में जागरूक किया है। उन्होंने बताया कि उनके चेयरमैन इस मुद्दे पर देश भर में 300 से ज्यादा लेक्चर दे चुके हैं।

रेडलाइन अभियान- इस अभियान की परिकल्पक डॉ रत्ना देवी ने लाल रेखा से चिन्हित एंटीबायोटिक दवाओं के दायित्वपूर्ण प्रयोग के बारे में जन-साधारण के बीच जागरूकता उत्पन्न करने के लिए सोशल मीडिया पर एक अभियान चलाया। वे अनुभव करती हैं कि भारत जैसे विशाल एवं विविधतापूर्ण देश में दायित्वपूर्ण एंटीबायोटिक प्रयोग की सूचना को पर्याप्त लोगों तक पहुंचाने के लिए ऐसे अभियानों को चलाने की आवश्यकता है। उन्होंने बताया कि, उन्होंने 2017 में फेसबुक, ट्विटर एवं अन्य सोशल मीडिया के माध्यम से एक बड़ा डिजिटल अभियान चलाया था एवं लगभग 50 लाख लोगों तक यह बात पहुंचाने में सफल रही थीं।

क्या कहते हैं चिकित्सक एवं समाजकर्मी

नई दिल्ली स्थित एम्स की रिम्यूटोलॉजिस्ट विभाग की अध्यक्षा डॉ. उमा कुमार ने अपना अनुभव साझा करते हुए कहा कि आज से 20 वर्ष पहले जहां एंटीबायोटिक्स का रेसिस्टेंस 30 फीसद के आस पास था आज वह बढ़कर 65 फीसद के आस पास हो गया है। ऐसे में आम आदमी के साथ-साथ चिकित्सकों को भी इसके प्रति जागरूक होने की जरूरत है। राष्ट्रीय विज्ञान केन्द्र के क्यूरेटर एन.रामदास अय्यर कहते हैं कि, एंटीबायोटिक का भारत में बहुत दुरुपयोग हो रहा है। पर्यावरणीय कारकों को रेखांकित करते हुए उन्होंने कहा कि, हम अपने घर में बची हुई दवाइयों को कूड़े में ऐसे ही फेंक देते हैं या एक्सपायर हो चुकी दवाइयों को भी ऐसे ही फेंक दिया जाता है। इससे पर्यावरण दूषित हो रहा है। जो कि मानवीय स्वास्थ्य के लिए बहुत हानिकारक है।

देश के जाने माने कैंसर रोग विशेषज्ञ डॉ. मीना मिश्र का कहना है कि देश में एंटीबायोटिक्स का रेसिस्टेंस बढऩे के पीछे एक प्रमुख कारण है कि बिना सोचे-समझे क्वैक्स द्वारा एंटीबायोटिक्स देना। एंटीबायोटिक्स खुद से लेने को भी वे खतरानक ट्रेंड मानते हुए कहती हैं कि इसका बे-जरूरी सेवन से हमारे अंदर के बैक्टीरिया ‘सुपरबग’ बन सकते हैं। वहीं शिशु रोग विशेषज्ञ डॉ. राजेश का कहना है कि, चिकित्सक को एंटीबायोटिक्स नहीं लिखने के लिए ज्यादा मेहनत करनी पड़ती है और जो ट्रेंड चिकित्सक हैं वे एंटीबायोटिक्स का इस्तेमाल खासतौर से शिशुओं में तो बहुत ही सोच-समझकर करते हैं। एम्स, नई दिल्ली के जय प्रकाश नारायण ट्रॉमा सेंटर में संक्रमण निवारण एवं नियंत्रण की मुख्य परिचारिका जसिंटा गुंजियाल कहती हैं कि, अस्पतालों में संक्रमण की रोकथाम के लिए हम अपने स्वास्थ्य रक्षक कर्मियों पर निगरानी रखते हैं, उन्हें प्रेरित करते हैं तथा इसके प्रति संवेदनशील बनाते हैं। सुपरबग से बचने के तमाम उपायों के बारे में प्रशिक्षित करते हैं।

भेषज- प्रतिरोध की समस्या से निपटने के लिए नवीन प्रकार की सामग्रियों पर शोध करने वाले वैज्ञानिक प्रो. जयंत हल्दर का कहना है कि, बुद्धिमत्तापूर्ण अभिकल्प, जीवाणु-प्रसार को रोकने के लिए सरल समाधान प्रदान कर सकता है। पर्यावरण वैज्ञानिक डॉ. आत्या काप्ले   का कहना है कि, पर्यावरण में रोगाणुओं का प्रविष्ट होना चिंता का विषय है। मिट्टी एवं जल के माध्यम से फसलों में एंटीबायोटिक्स का फैलाव हो रहा है और कृषि उत्पादों के माध्यम से वे हमारे अंदर प्रवृष्ट करता है। इसे रोकने के लिए नई प्रौद्योगिकी एवं रणनीतियों को विकसित करना जरूरी है। वहीं पशु रोग विशेषज्ञ डॉ. राजेश कुमार सिंह कहते हैं कि भारत में हाल ही में एफएसएसआई ने कॉलेस्टिन को बैन कर दिया है। लेकिन अभी भी ग्रोथ प्रोमोटर के रूप में तमाम एंटीबायोटिक्स का अवैध उपयोग हो रहा है जिससे मानव स्वास्थ्य भी प्रभावित हो रहा है।

अन्य पैथियों में एंटीबायोटिक्स

होमियोपैथी के जाने माने चिकित्सक डॉ. पंकज अग्रवाल कहते हैं कि होमियोपैथी 1796 में शुरू हुआ। 1808 में इसे होमियोपैथी का नाम दिया गया। होमियोपैथी की मान्यता है कि जितने भी बैक्टीरिया मानव की उत्पत्ति के समय काल से लेकर आज तक जीवित हैं, हम मानते हैं कि व्यक्ति के जीवन प्रतिरोधक क्षमता को संतुलित करके उसके रोग का हरण किया जा सकता है। होमियोपैथी शरीर के संविधान के अनुरूप काम करती है। इसी तरह भारतीय धरोहर के संपादक रविशंकर कहते हैं कि आयुर्वेद व्यक्ति की प्रकृति के आधार पर इलाज करता है। हमारे शरीर में हील करने की क्षमता होती है। किसी भी बैक्टीरिया से लडऩे में हमारा शरीर सक्षम होता है। आयुर्वेद सिर्फ शरीर के अंदर की व्यवस्था को सक्रीय करता है और रोग प्रतिरोधक क्षमता को मजबूत करता है। शरीर के अंदर के मैकेनिज्म को ठीक करने के लिए आयुर्वेद में बाहरी एजेंट का सहारा नहीं लिया जाता है।

सुपरबग की स्थिति से कैसे बचें?

किसी भी समस्या का सबसे बड़ा निदान यह होता है कि उसे समस्या बनने ही न दिया जाए। कहा भी गया है कि ‘प्रिवेंशन इज बेटर दैन क्योर’। यदि समाज के लोग कुछ मूलभूत बातों का ध्यान रखें तो इस वैश्विक समस्या को बहुत हद तक काबू में किया जा सकता है।

–     संक्रमरण से बचाव के लिए क्रमिक रूप से हाथ धोएं, भोजन में स्वच्छता का ख्याल रखें।

–     एंटीबायोटिक का सेवन पंजीकृत चिकित्सक के निर्देशन में ही करें।

–     चिकित्सक द्वारा निर्देशित दवा का पूर्ण सेवन करें।

–   कभी भी एंटीबायोटिक का उपयोग कम-ज्यादा न करें।

–     एंटीबायोटिक दूसरों के साथ साझा न करें।

फार्मासिस्ट व स्वास्थ्य कार्यकर्ता क्या करें?

–     यह सुनिश्चित करें की आपका हाथ, चिकित्सकीय उपकरण व वातावरण साफ-सुथरा हो ताकि संक्रमण से बचा जा सके।

–     मरीज के वैक्सिनेशन प्रक्रिया को अप टू डेट रखें।

–     यदि बैक्टेरियल संक्रमण की आशंका हो तो बैक्टेरियल कल्चर टेस्ट जरूर करें ताकि इसकी पुष्टि हो सके।

–     एंटीबायोटिक उसी समय प्रिसक्राइब करें जब वास्तव में इसकी जरूरत हो।

–     ध्यान रखें कि आप जो एंटीबायोटिक प्रिसक्राइब कर रहे हैं वह सही है, उसका डोज सही है और उसकी अवधि सही है।

नीति-निर्धारक कैसे सहयोग कर सकते हैं?

–     एंटीबायोटिक रेसिस्टेंसी को दूर करने के लिए एक बेहतरीन राष्ट्रीय एक्शन प्लान बनाकर।

–     एंटीबायोटिक रेसिस्टेंस संक्रमण को रोकने के लिए एक बेहतर निरीक्षण-व्यवस्था विकिसत कर के।

–     संक्रमण रोकथाम व इससे जुड़े संसाधनों को मजबूत कर के।

–     गुणवत्तापूर्ण दवाइयों की उपलब्धता व निगरानी सुनिश्चित करा कर।

–     एंटीबायोटिक रेसिस्टेंसी के बारे में जागरूकता फैलाकर।

–     नव शोध व ईलाज को बढ़ावा देकर।

निष्कर्ष

 

वैश्विक स्तर पर जिस तरह से एंटीबायोटिक्स के दुरुपयोग को लेकर चिंता जाहिर की जाने लगी है, भारत में फार्मासिस्ट समुदाय भी जागरूक हुआ है और वे एंटीबायोटिक्स के दुरुपयोग को लेकर देश भर में जागरूकता कैंपेन चला रहे हैं। उम्मीद की जानी चाहिए कि भारत सरकार भी एंटीबायोटिक्स को लेकर ठोस पहल करेगी। और सुपरबग को दैत्य बनने से रोकने में सफल

होगी।

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सुपरबग’ जागरूकता के लिए दिल्ली के साइंस सेंटर में लगी प्रदर्शनी

‘सुपरबग’ की चुनौती को लेकर जहां पूरी दुनिया चिंतित है वहीं भारत ने भी इसके प्रति आम लोगों को जागरूक करने का बीड़ा उठाया है। 6 सिंतबर, 2019 को दिल्ली के प्रगति मैदान के गेट संख्या एक के पास स्थित राष्ट्रीय विज्ञान केन्द्र में एंटीबायोटिक्स के बारे में जागरूकता फैलाने के लिए प्रदर्शनी लगाई गई। इस प्रदर्शनी का उद्घाटन भारत के स्वास्थ्य मंत्री डॉ हर्षवर्धन एवं संस्कृति राज्य मंत्री (स्वतंत्र प्रभार) प्रह्लाद सिंह पटेल ने किया। इस प्रदर्शनी का थीम था ‘सुपरबग- एंटीबायोटिक्स का अंत?’ यह प्रदर्शनी राष्ट्रीय विज्ञान संग्रहालय परिषद (राविसंप) द्वारा साइन्स म्यूजियम ग्रुप, लंदन और वेलकम, यूके के सहयोग से आयोजित की गई। इस प्रदर्शनी के तीन प्रमुख खंड थे, माइक्रोस्कापिक,  ह्यूमन (मानव) और ग्लोबल (वैश्विक)।

राष्ट्रीय विज्ञान संग्रहालय परिषद के महानिदेशक श्री ए. डी. चौधरी ने कहा ‘इस प्रदर्शनी का उद्देश्य एंटीबायोटिक प्रतिरोध के बारे में जागरूकता उत्पन्न करना एवं प्रभावी संप्रेषण, शिक्षा एवं प्रशिक्षण के माध्यम से इस मुद्दे के बारे में लोगों की समझ को विकसित करना है। यह प्रदर्शनी एक वर्ष की अवधि के दौरान दिल्ली के बाद मुंबई, बेंगलूरु एवं कोलकाता के भ्रमण पर जाएगी एवं प्रत्येक स्थान पर दो महीनों तक प्रदर्शित की जाएगी। हमें आशा है कि इस अवधि में इस प्रदर्शनी को 10 लाख से अधिक लोग देख पाएंगे।’

साइन्स म्यूजिय़म ग्रुप के निदेशक सर इयान ने कहा, ‘एंटीबायोटिक ने आयु-संभाव्यता में न केवल 20 वर्षों की बढ़ोत्तरी की है वरन सबसे अधिक रोगग्रस्त होने वाले लोगों के लिए जटिल शल्य चिकित्सा, कीमोथेरेपी एवं सुरक्षात्मक देखभाल को संभाव्य बना दिया है। एंटीबायोटिक प्रतिरोध वर्तमान व भविष्य की पीढिय़ों के मानव स्वास्थ्य पर एक वास्तविक खतरा है। सिर्फ अंतर्राष्ट्रीय सहयोग के माध्यम से ही इस स्थिति को स्थाई तौर पर बदला जा सकता है। यही कारण है कि हमारा राष्ट्रीय विज्ञान संग्रहालय परिषद से जुडऩा अत्यधिक महत्वपूर्ण है ताकि इस ज्वलंत समस्या के बारे में वैश्विक वार्तालाप की शुरुआत की जा सके।’

राविसंप के निदेशक (मुख्यालय) एस. कुमार, ने बताया कि ‘लोकप्रिय विज्ञान व्याख्यान, पोस्टर निर्माण प्रतियोगिता, नुक्कड़ नाटक, सर्वसुलभ प्रश्नोत्तरी, पैनल चर्चा आदि भी प्रदर्शनी के सह कार्यक्रम के रूप में आयोजित किए जा रहे हैं।’ उन्होंने आगे बताया कि एक ऑडियो गाइड ऐप विकसित किया गया है जिसे क्रू 192.168.0.2 से प्रदर्शनी देखते समय डाउनलोड किया जा सकता है। इस ऑडियो गाइड के माध्यम से आगंतुक प्रदर्शनी में प्रदर्शित प्रदर्शों की जानकारी सुन सकते हैं। इस अवसर पर नीति आयोग के सदस्य विनोद पॉल, संस्कृति मंत्रालय, भारत सरकार के सचिव अरुण गोयल, जैव प्रौद्योगिकी विभाग, भारत सरकार के सचिव डॉ. रेणु स्वरूप, प्रो. बलराम भार्गव, सचिव, डीएचआर व आइसीएमआर के डीजी, जैन थामसन, भारत में ब्रिटिश उप-उच्चायुक्त  शेल्डम पैक्विन शामिल हुए।

एंटीबायोटिक के उपयोग में सावधानी बरते चिकित्सक: डॉ. हर्षवर्धन

राष्ट्रीय विज्ञान केन्द्र में आयोजित प्रदर्शनी का उद्घाटन करते हुए डॉ. हर्षवर्धन ने कहा कि, यह बहुत खुशी की बात है कि आज के कार्यक्रम में बड़ी संख्या में बच्चे एकत्रित हुए हैं। कई बार बच्चे बड़ी चीजों को पूरा करने में सक्षम होते हैं, अगर वे निर्धारित हों। पोलियो अभियान के दौरान बच्चों ने पोलियो सैनिक बनकर अभियान को सफल बनाने में योगदान दिया। इस संदर्भ में 7 सितंबर को लिखे अपने फेसबुक पोस्ट में वे अपना अनुभव साझा करते हुए लिखते हैं कि, ‘लगभग 25 वर्षों तक एक डॉक्टर के रूप में सक्रिय अभ्यास किया लेकिन दो तीन एंटीबायोटिक दवाओं के अलावा कभी भी एंटीबायोटिक दवाओं का परामर्श नहीं दिया। चिकित्सकों को भी इस संबंध में सावधानी बरतनी चाहिए। बैक्टीरिया जनित रोग पैदा करने में सक्षम जीवाणुओं के खिलाफ हमारे सबसे शक्तिशाली हथियार एंटीबायोटिक्स अब सुपरबग में बदल रहे हैं। आज एंटीबायोटिक प्रतिरोधी सुपरबग्स एक वर्ष में 7 लाख लोगों को मार देता है। 2050 तक यह संख्या बढ़कर 10 मिलियन हो सकती है।’

इस आयोजन की सार्थकता को प्रदर्शित करते हुए उन्होंने लिखा कि प्रदर्शनी का आयोजन एंटीबायोटिक प्रतिरोध की बढ़ती चिंताओं, नई एंटीबायोटिक दवाओं के संबंध में चल रहे अनुसंधानों पर जागरूकता फैलाने के लिए आयोजित की गई है। राष्ट्रीय विज्ञान संग्रहालय परिषद लंदन, विज्ञान संग्रहालय समूह और वेलकम यूके द्वारा आयोजित इस प्रदर्शनी का लक्ष्य एंटीबायोटिक प्रतिरोध के बारे में बढ़ती हुई चिंताओं, नई एंटीबायोटिक दवाओं एवं सामग्रियों के संबंध में चल रहे अनुसंधान के बारे में भारतीयों में जागरूकता पैदा करना एवं एंटीबायोटिक प्रबंधन की आवश्यकता पर जोर देना है।

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भारत ग्लोबल एंटीमाइक्रोबियल रेसिस्टेंस रिसर्च एंड डेवलपमेंट हब में शामिल

भारत एक नए सदस्य के रूप में ग्लोबल एंटीमाइक्रोबियल रेसिस्टेंस रिसर्च एंड डेवलपमेंट (एएमआरआरएंडडी) हब में शामिल हो गया है। विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्रालय के जैव प्रौद्योगिकी विभाग ने नई दिल्ली में यह घोषणा की। इससे एएमआरआरएंडडी में चुनौतियों का सामना करने और 16 देशों, यूरोपीय आयोग, 2 परोपकारी प्रतिष्ठानों और 4 अंतर्राष्ट्रीय संगठनों (पर्यवेक्षकों के रूप में) में सहयोग और समन्वय में सुधार लाने के लिए वैश्विक भागीदारी का विस्तार हुआ है।

नए सदस्य के रूप में शामिल होने पर भारत को बधाई देते हुए ग्लोबल एएमआरआरएंडडी की कार्यवाहक अध्यक्ष, बोर्ड सदस्य और कनाडा जनस्वास्थ्य एजेंसी में संचारी रोग और इंफेक्शन नियंत्रण केंद्र की महानिदेशक बर्सबेलफ्रेम ने कहा कि वैश्विक भागीदारी में एक महत्वपूर्ण सदस्य के रूप में भारत का स्वागत करते हुए मुझे बहुत खुशी हो रही है। एएमआर से निपटने के लिए सभी विश्व क्षेत्रों और स्वास्थ्य क्षेत्रों की भागीदारी द्वारा सक्रिय रूप से काम करने की जरूरत है। यह सुनिश्चित करते हुए एएमआरआरएंडडी की गतिविधियों और कार्यों पर विचार करते समय विभिन्न देशों की जरूरतों को सुनिश्चित करने के लिए हब के सदस्यों की सदस्यता का विस्तार किया जाना चाहिए।

जी-20 नेताओं द्वारा 2017 में किए गए आह्वान के कारण विश्व स्वास्थ्य एसेंबली के 71वें सत्र से इतर इस केंद्र की शुरूआत मई, 2018 में की गई थी। ग्लोबल एएमआरआरएंडडी हब का परिचालन बर्लिन स्थित सचिवालय से हो रहा है। वर्तमान में इसे जर्मन संघीय शिक्षा और अनुसंधान मंत्रालय (बीएमबीएफ) और संघीय स्वास्थ्य मंत्रालय (बीएमजी) से प्राप्त अनुदान के माध्यम से वित्तपोषित किया जा रहा है।

इस वर्ष से भारत इसका सदस्य होगा। ग्लोबल एएमआरआरएंडडी हब की भागीदारी से भारत सभी भागीदार देशों की मौजूदा क्षमताओं और संसाधनों और सामूहिक रूप से अनुसंधान और विकास हस्तक्षेपों के बारे में ध्यान केंद्रित करते हुए भरपूर लाभ उठाएगा और दवा प्रतिरोधी संक्रमणों से निपटने में सक्षम होगा। एएमआर दवा के प्रभाव का प्रतिरोध करने के लिए एक माइक्रोब की क्षमता है। इससे माइक्रोब का सफलतापूर्वक इलाज किया जा सकता है। आज एंटीमाइक्रोबियल प्रतिरोध का उद्भव और प्रसार पूरे विश्व में बिना किसी बाधा के व्याप्त है। एंटीमाइक्रोबियल प्रतिरोध के महत्वपूर्ण और परस्पर आश्रित मानव, पशु और पर्यावरणीय आयामों को देखते हुए भारत एक स्वास्थ्य पहुंच के माध्यम से एंटीमाइक्रोबियल प्रतिरोध के मुद्दों का पता लगाना उचित मानता है।

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एंटीबायोटिक खाने में सबसे आगे हैं हम भारतीय

एक ओर जहां पूरे विश्व में एंटीबायोटिक रेसिस्टेंसी के खतरे को महसूस किया जाने लगा है, वहीं हम भारतीय एंटीबायोटिक खाना अपना अधिकार मान बैठे हैं। औसत भारतीय साल भर में एंटीबायोटिक की करीब 11 गोलियां खाता है। रिपोर्ट में बताया गया है कि जहां 2010 में भारत में 12.9 अरब यूनिट एंटीबायोटिक इस्तेमाल की गई वहीं 2001 में इसकी खपत आठ अरब यूनिट थी। लैंसेट में छपी रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया भर में इस्तेमाल हो रही एंटीबायोटिक की 76 फीसदी खपत ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका में है।

गौरतलब है कि एंटीबायोटिक्स का इस्तेमाल बैक्टीरिया और वायरस जैसे सूक्ष्म जीवों से लडऩे के लिए किया जाता है। लेकिन इसके अंध इस्तेमाल से बैक्टीरिया में एक खास तरह की प्रतिरोधी क्षमता पैदा हो जाती है और बाद में इन दवाओं का उन पर असर बंद हो जाता है। दवा प्रतिरोधी बैक्टीरिया के कारण हर साल करीब 25,000 मौतें केवल यूरोप में हो रही हैं। पश्चिमी देश इस खतरे को गंभीरता से ले रहे हैं। इस संदर्भ में पिछले दिनों ब्रिटिश प्रधानमंत्री ने चेतावनी दी थी कि बैक्टीरिया के प्रतिरोधी क्षमता प्राप्त कर लेने से हम वापस उस युग में जा सकते हैं जब हम दवाओं के मामले में इतने सफल नहीं थे।

डॉक्टरों का मानना है कि  एंटीबायोटिक दवाओं के अधिक इस्तेमाल का सीधा मतलब है दवाओं का असर खत्म हो जाना। हममें से 95 प्रतिशत लोगों के शरीर में टीबी के बैक्टीरिया होते हैं, पर इसका अर्थ यह नहीं कि सभी को टीबी हो जाएगी। लेकिन दवाओं के अधिक इस्तेमाल के बाद शरीर में बैक्टीरिया के खिलाफ बनने वाले सुरक्षा कवच के प्रति बैक्टीरिया ऑटो इम्यून हो जाते हैं और उन पर दवाओं का असर लगभग खत्म हो जाता है। ऐसे में रोगप्रतिरोधक क्षमता कम होने से आसानी से कैंसर, टीबी और एड्स जैसी बीमारियों का हमला हो सकता है। कई लोगों में दवाओं का असर सूजन, श्वसन संबंधी परेशानियों और त्वचा पर रैशेज के रूप में देखने को मिलता है। एमडीआर और टीडीआर टीबी इस बात का ही प्रमाण है कि दवाओं का प्रयोग सही समय पर नहीं किया गया, जिसके बाद दवा ही बेअसर हो गई।

दिल्ली स्वास्थ्य सेवा के अधिकारियों का कहना है कि अत्यंत जरूरी 400 दवाओं में से हाल ही में दस दवाओं को हटाया गया है, वह इसलिए कि इन दवाओं का असर अब कम हो रहा है। उदाहरण के लिए ऑफ्लॉक्सिन दवा टीबी के मरीजों को दी जाती है। इसे जरूरी दवाओं की सूची से बाहर करना इसलिए जरूरी हो गया कि अगर किसी साधारण मरीज को टीबी हो गई तो इस दवा का बाद में उस पर असर नहीं होगा।

एंटीबायोटिक के अधिक प्रयोग को रोकने के लिए ही सरकार ने दवाओं का नया एच-1 शेड्यूल जारी किया, जिसके आधार पर ही दवा विक्रेताओं को दवा बेचने के निर्देश दिए गए हैं।

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मन की बात में पीएम ने किया था एंटीबायोटिक के प्रति सतर्क

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आकाशवाणी पर प्रसारित होने वाले कार्यक्रम ‘मन की बात’ में लोगों से कहा था कि चिकित्सकों के निर्देश के बिना एंटीबायोटिक दवाओं का सेवन न करें। मोदी ने में ‘मन की बात’ में कहा कि ‘एंटीबायोटिक दवाएं लेने की आदत एक बड़ी समस्या उत्पन्न कर सकती है। यह कुछ देर के लिए आपको राहत दे सकती है, लेकिन चिकित्सकों के निर्देश के बिना आपको एंटीबायोटिक दवा कभी नहीं लेनी चाहिए।’  अपने आप एंटीबायोटिक दवाएं खाने से शरीर में एंटीबायोटिक प्रतिरोधक क्षमता विकसित हो सकती है। प्रधानमंत्री ने कहा, ‘सरकार एंटीबायोटिक प्रतिरोध को समाप्त करने के लिए प्रतिबद्ध है। आपने गौर किया होगा कि एंटीबायोटिक दवाओं की पट्टी पर आपको चेतावनी देने के लिए एक लाल रंग की रेखा है।

मेडिकल हिस्ट्री ऑनलाइन करने की स्वस्थ भारत ने की मांग

विगत सात वर्षों से स्वास्थ्य एडवोकेसी के क्षेत्र में काम कर रही संस्था स्वस्थ भारत (न्यास) ने सरकार से मांग की है कि एंटीबायोटिक्स का गलत इस्तेमाल रोकने के लिए मरीजों की मेडिकल हिस्ट्री ऑनलाइन की जाए। स्वस्थ भारत (न्यास) के मार्गदर्शक वरिष्ठ न्यूरोसर्जन डॉ. मनीष कुमार ने कहा कि सरकार को एक ऐसा पोर्टल बनाना चाहिए जहां पर मरीजों की मेडिकल हिस्ट्री सुरक्षित रखी जा सके। उन्होंने कहा कि चिकित्सकों द्वारा एंटीबायोटिक्स के दुरुपयोग किए जाने को रोकने के लिए प्रिस्क्रिप्शन का ऑडिट होना भी जरूरी है। ऐसे में एक जगह पर मरीजों की मेडिकल हिस्ट्री रहेगी तो आगे उसका इलाज करने में सहूलियत होगी।’

 

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