भारत के लिए भी इस विषय पर दुनिया के सामने नए विचार नए इनोवेशन नए आईडिया रखने का यह एक बेहतरीन समय है। सम्पूर्ण विश्व जो आज प्लास्टिक प्रदूषण से जूझ रहा है उसके सामने नए प्राकृतिक विकल्पों से इस समस्या के समाधान का नेतृत्व करने का सुनहरा अवसर भी है और इतिहास भी। क्योंकि इंडिया बनने से पहले जब यह देश भारत था, तो पेड़ के पत्तों के दोने, पत्तल, मिट्टी के कुल्लड़, केले के पत्ते जैसी कटलरी, कागज़ के लिफाफे औऱ कपड़े के थैले, जैसी प्राकृतिक चीज़ों का इस्तेमाल करता था जो स्वास्थ्य और पर्यावरण दोनों के लिहाज से सुरक्षित थीं। और आज के वैज्ञानिक युग में भी प्लास्टिक के सैकड़ों विकल्प हैं। यदि हम निष्पक्ष रूप से देखें तो भारत दूसरे देशों से कच्चे तेल को खरीद कर स्वयं अपने पर्यावरण को प्लास्टिक कचरे में तब्दील कर रहा है लेकिन अब समय आ गया है कि वो नए विकल्पों की खोज का नेतृत्व करके समूचे विश्व को दिशा दिखाए। और अच्छी खबर यह है कि आज अगर प्लास्टिक एक समस्या है तो इस समस्या का समाधान भी है। मशरुम जो खाने में प्रोटीन का बेहतरीन स्रोत माने जाते हैं वो नवीन खोजों के अनुसार प्लास्टिक का एक बेहतर विकल्प बनने के लिए तैयार हैं। पेड़ों से निकल कर जो फफूंद उगती है वैज्ञानिक उसके रेशों से एक ऐसा मटेरियल बनाने में सफल हो गए हैं जो प्लास्टिक की जगह ले सकता है। सबसे अच्छी बात यह है कि इन्हें किसी भी कृषि उत्पाद के कचरे पर उगाया जा सकता है, ये नेचुरल पॉलीमर होते हैं जो मजबूत से मजबूत गोंद से भी ज्यादा मजबूती से चिपकाने और जोड़ने के काम आते हैं। इसके अलावा जो चट्टानें प्रकृति में बड़ी मात्रा में पाई जाती हैं वैज्ञानिक अब उनसे ऊन बनाने की तैयारी कर रहे हैं। दरअसल ज्वालामुखी विस्फोट से लावा निकलकर जब ठंडा हुआ तो यह चट्टानें बनीं। अब इन चट्टानों को स्लैग से मिलाकर स्टोन वूल तैयार किया जा रहा है। इसकी खास बात यह होती है कि इसमें आग नहीं लगती और खराब मौसम में भी यह ऊन खराब नहीं होती। सम्भव है आने वाले समय में यह प्लास्टिक के विकल्प के रूप में उपयोग की जाने लगे।इसी प्रकार दूध की मदद से वैज्ञानिकों ने एक पतली परत वाली प्रोटीन फिल्म तैयार की है जो अधिक तापमान में भी इस्तेमाल की जा सकती है और इसे रीसायकल करना भी आसान है। इसी क्रम में भुट्टे के डंठल, घास,नारियल, सी वीडस आदि पर भी काम करके प्लास्टिक का प्राकृतिक विकल्प खोजने के प्रयास दुनिया भर में किए जा रहे हैं।
लेकिन जब तक हमारे सामने प्लास्टिक का विकल्प नहीं आता, इस पृथ्वी के एक जिम्मेदार वासी के नाते, इस सृष्टि का अंश होने के नाते, सभी जीवों में श्रेष्ठ मनुष्य के रूप में जन्म लेने के कारण अन्य जीवों के प्रति अपने दायित्वों की खातिर कुछ छोटे छोटे कदम हम भी उठा सकते हैं। जब हम बाहर जाते समय अपना मोबाइल लेना नहीं भूलते तो एक कपड़े का थैला ले जाना भी याद रख सकते हैं।
डॉ नीलम महेंद्र
लेखिका वरिष्ठ स्तम्भकार हैं