देश के सबसे पुराने और विवादास्पद बना दिए गए अयोध्या मामले पर सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई पूरी कर ली है और अब फैसले का इंतजार है। सुनवाई के दौरान जहां हिंदू पक्ष ठोस सबूतों और कानूनों के आधार पर जिरह कर रहा था, वहीं सबूतों के अभाव में मुस्लिम (गैर शिया) पक्ष कोरी नाटकबाजी और लफ्फाजी में लगा रहा। मुस्लिम पक्ष आखिरी क्षण तक मामले को टालने और भटकाने का प्रयास करता रहा, लेकिन मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई ने जैसे ठान लिया था कि वो अब इस मामले को हल करके ही रहेंगे। वो 17 नवंबर को सेवानिवृत्त हो रहे हैं। आशा है कि इससे पूर्व ही वो अपना निर्णय सुना देंगे।
सुनवाई के अंतिम दिन जब हिंदू महासभा के वकील विकास सिंह ने किशोर कुणाल की किताब ‘अयोध्या रीविसीटेड’ और उसमें दिए गए राम जन्म भूमि के नक्शे अदालत के सामने रखने चाहे तो मुस्लिम पक्ष के वकील और कांग्रेस के बेहद करीबी राजीव धवन ने उन्हें फाड़ दिया। इस पर मुख्य न्यायाधीश कुपित हो गए। उन्होंने गुस्से में कहा कि ”हम उठ कर बाहर निकल जाते हैं…आपको कागजात फाडऩे हैं, तो फाड़ते रहिए।’’ इस पर भी राजीव धवन नहीं रूके और नक्शे फाड़ते रहे। आश्चर्य की बात तो ये है कि बाल की खाल निकालने वाले इन वकील महोदय ने बाद में बड़ी बेशर्मी से दावा किया कि उन्हें तो अदालत ने अनुमति दी थी, इसलिए उन्होंने नक्शे फाड़े। आप कल्पना कर सकते हैं कि जो व्यक्ति अदालत की फटकार को भी इतनी बेशर्मी से ‘अनुमति’ बताता हो और अदालती कार्यवाही का इस्तेमान सांप्रदायिक भावनाएं भड़काने के लिए करता हो, उसने कैसे मुकदमा लड़ा होगा और क्या तर्क दिए होंगे।
मुस्लिम पक्ष की चालबाजियों और सांप्रदायिक ब्लैकमेलिंग का एक और नजारा सुनवाई समाप्त होने के बाद तब नजर आया जब मुस्लिम पक्ष ने ‘मोल्डिंग ऑफ रिलीफ’ प्रावधान के तहत अपना हलफनामा दायर किया। जब ये हलफनामा मुख्य न्यायाधीश के सामने पहुंचा तो उन्होंने कहा कि आप इसे मुझे सीलबंद लिफाफे में दे रहे हैं, लेकिन ये तो पहले ही इंडियन एक्सप्रेस अखबार में छप चुका है। इस पर मुस्लिम पक्ष ने स्पष्टीकरण दिया कि उन्होंने अदालत में हलफनामा जमा कराने के बाद सभी पक्षों को भी दिया था, हो सकता है किसी ने इसे मीडिया को दे दिया हो। लेकिन ये मामला इतना सरल नहीं है। असल में हलफनामे को मीडिया में लीक कर मुस्लिम पक्ष ने अदालत पर दबाव बनाने और उसे इमोशनली ब्लैकमेल करने की कोशिश की।
हलफनामे की भाषा देखेंगे तो ये आसानी से समझ आ जाएगा। इसमें मुस्लिम पक्ष कहता है कि इस मामले में कोई भी फैसला सुनाने से पहले अदालत को ‘देश की धार्मिक और सांस्कृतिक बहुलता’ के अलावा इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि आने वाली पीढिय़ां इस फैसले को किस दृष्टि से देखेंगी। वो कहते हैं, ‘अदालत का फैसला किसी के भी पक्ष में हो, आने वाली पीढिय़ों को प्रभावित करेगा। इसका असर देश की राजनीति पर भी पड़ेगा। इस फैसले का असर उन लाखों लोगों पर भी पड़ सकता है जो इस देश के नागरिक हैं और जो उन संवैधानिक मूल्यों पर विश्वास रखते हैं जिन्हें 26 जनवरी 1950 को भारत के गणराज्य बनने पर सभी लोगों ने अपनाया था।’ आगे बढऩे से पहले संक्षेप में ये बताते चलें कि ‘मोल्डिंग ऑफ रिलीफ’ असल में एक प्रावधान है जिसके तहत विभिन्न पक्ष अदालत को ये सलाह देते हैं कि यदि फैसला उनके पक्ष में न आए तो अदालत उन्हें उसकी एवज में और क्या विकल्प दे सकती है।
मुस्लिम पक्ष का हलफनामा बड़े-बड़े सिद्धांतों और देश की ‘सांस्कृतिक और धार्मिक बहुलता’ की बात करता है। कोई इन लोगों से पूछे कि यदि इन्हें देश की ‘सांस्कृतिक और धार्मिक बहुलता’ का इतना ही दर्द था तो इन्होंने राम जन्म भूमि हिंदुओं को क्यों नहीं सौंप दी? इन्होंने इस विवाद को राजनीतिक तूल दे कर इसका इस्तेमाल देश में सांप्रदायिक विभाजन और ध्रुवीकरण के लिए क्यों किया? मस्जिद तो कहीं भी बन सकती थी, लेकिन रामजन्म भूमि तो हर जगह नहीं हो सकती, इन्होंने इस आसान तर्क को क्यों नहीं समझा? इन्होंने कथित विवादास्पद ढांचे को ‘भारत की धर्म निरपेक्षता’ का फर्जी प्रतीक क्यों बनाया जबकि न तो ये ढांचा कोई मक्का था न मदीना? अदालत को बड़ी-बड़ी बातें समझाने से पहले इन्होंने खुद उन पर अमल क्यों नहीं किया?
इस मामले में फैसला चाहे जो आए, लेकिन आने वाली पीढिय़ां ध्यान रखेंगी कि कैसे कांग्रेसी-कम्युनिस्ट गैंग ने इस मसले के हल को तुच्छ सांप्रदायिक तुष्टिकरण के लिए बार-बार टरकाया और कैसे झूठ बोल-बोल कर इसे सांप्रदायिक टकराव का बिंदु बना दिया। इलाहाबाद हाई कोर्ट में जब इस मामले की सुनवाई हो रही थी तब मीडिया पर कब्जा जमाए बैठी कांग्रेसी-कम्युनिस्ट लॉबी ने राष्ट्रीय मीडिया में इसकी बारीकियों को उजागर नहीं होने दिया क्योंकि इससे उनके जतन से गढ़े गए मंदिर विरोधी नेरेटिव की पोल खुल जाती। लेकिन सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के दौरान इनका पूरा का पूरा नेरेटिव ताश के महल की तरह भरभरा कर ढह गया।
आइए हम कुछ उदाहरणों के साथ आपको समझाते हैं कि कैसे सुप्रीम कोर्ट में कांग्रेसी-कम्युनिस्ट लॉबी बार-बार बेनकाब हुई। मई, 1991 में चार वामपंथी इतिहासकारों आरएस शर्मा, एम अतहर अली, डीएन झा और सूरज भान ने जनता के नाम एक रिपोर्ट जारी की जिसका शीर्षक था – ‘भारतीय राष्ट्र के नाम इतिहासकारों की रिपोर्ट (हिस्टोरियंस रिपोर्ट टू द इंडियन नेशन)’। कांग्रेसी-कम्युनिस्ट लॉबी ने इसे पत्थर की लकीर और सनातन सत्य बताते हुए इसका खूब प्रचार किया और सत्ता का दुरूपयोग करते हुए सरकारी बाबुओं को भी इसे मानने के लिए बाध्य किया। इस रिपोर्ट में कहा गया था कि रामजन्म भूमि राम का जन्मस्थान नहीं है, और न ही बाबरी मस्जिद बनाने के लिए उसे ढहाया गया था। उन्होंने बाल्मिकी रामायण को देश-विदेश में फैले रामायण के सभी संस्करणों की जननी मानने से इनकार कर दिया और कहा कि राम की पूजा ही 18वीं और 19वीं शताब्दी में शुरू हुई। संक्षेप में ये कि इन्होंने राम के ऐतिहासिक, आध्यात्मिक और धार्मिक महत्व को ही सिरे से नकार दिया। मुस्लिम पक्ष के वकील राजीव धवन ने सुनवाई के दौरान ये रिपोर्ट साक्ष्य के रूप में अपने पक्ष में प्रस्तुत की। लेकिन न्यायाधीशों ने इसका संज्ञान लेने से मना कर दिया। उन्होंने कहा, ‘इस रिपोर्ट को ‘राय’ से अधिक कुछ नहीं माना जा सकता। ये विश्व हिंदू परिषद के 1991 के अभियान पर जवाबी कार्रवाही लगती है। न तो विश्व हिंदू परिषद के विचारों और न ही इन चार इतिहासकारों के विचारों को साक्ष्य माना जा सकता है। हमें ये मामला उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर हल करना है। इलाहाबाद हाई कोर्ट ने भी इस रिपोर्ट को साक्ष्य के तौर पर स्वीकार करने से इनकार कर दिया था।’
न्यायाधीश यहीं नहीं रूके, उन्होंने ये भी बताया कि ये रिपोर्ट क्यों व्यर्थ है। उन्होंने कहा, ”इतिहासकारों ने पुरातात्विक साक्ष्यों की ओर ध्यान नहीं दिया। अगर ये रिपोर्ट भारतीय भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया, एएसआई) द्वारा संबंधित स्थल की खुदाई में मिले साक्ष्यों (मस्जिद के नीचे मंदिर की संभावना के बारे में) का अध्ययन करके बनाई गई होती तो इसका कोई अर्थ भी होता। लेकिन इन इतिहासकारों ने तो एएसआई के साक्ष्यों का भी परीक्षण नहीं किया। उन्होंने जो तरीका अपनाया है वो लापरवाही भरा लगता है जैसा कि इलाहाबाद हाई कोर्ट ने भी कहा था।’’
आखिर पहले इलाहाबाद हाई कोर्ट और फिर सुप्रीम कोर्ट ने वामपंथी इतिहासकारों की रिपोर्ट को ‘लापरवाही भरा’ क्यों कहा? असल में अदालत साफ-साफ ये नहीं कहना चाहती थी कि वामपंथी इतिहासकार अपने पेशे से न्याय न करते हुए इस पूरे मामले पर षड्यंत्रकारी राजनीति कर रहे थे और उन्होंने ये रिपोर्ट मुस्लिम संप्रदाय को बरगलाने और हिंदू समाज को नीचा दिखाने की गरज से मनमाने तरीके से बनाई। इसमें उन्होंने वही लिखा जो उन्हें अपनी राजनीति चमकाने के लिए उचित लगा। वो वास्तव में इतिहासकार नहीं, कहानीकार हैं। ध्यान रहे कि इस रिपोर्ट के जरिए वामपंथी इतिहासकारों ने मुस्लिम पक्ष का नेरेटिव तय किया जिसके आधार पर उनकी पूरी लॉबी मीडिया सहित पूरी दुनिया में हिंदुओं के खिलाफ प्रोपागेंडा करती रही।
बाबरी मस्जिद ढहने के बाद 2003 में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने एएसआई को पुरातात्विक दृष्टि से खनन का आदेश दिया। इसमें ईंट के बने 50 चबूतरे और 263 कलाकृतियां मिलीं। इन साक्ष्यों के आधार पर इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ पीठ ने भी माना कि मस्जिद के नीचे मंदिर था। सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई के दौरान मुस्लिम पक्ष ने इस रिपोर्ट की विश्वसनीयता पर भी सवाल उठा दिया। इस पर अदालत ने मुस्लिम पक्ष को बुरी तरह झिड़क दिया। मुस्लिम पक्ष की वकील मीनाक्षी अरोड़ा ने कहा कि पुरातत्वविज्ञान अनुमानों पर आधारित विज्ञान है। खनन स्थल पर पुरातत्ववेत्ताओं की राय अलग-अलग हो सकती है जैसा कि इलाबाद हाई कोर्ट के फैसले में भी दर्ज है। पुरातत्ववेत्ताओं की राय हस्तलिपि विशेषज्ञों जैसी होती है और इसे इंडियन एविडेंस एक्ट की धारा 45 के तहत ‘विशेषज्ञ राय’ नहीं माना जा सकता। लेकिन न्यायमूर्ति नजीर ने कहा कि एएसआई की रिपोर्ट को कोर्ट के आदेश पर बनाई गई जांच कमेटी की रिपोर्ट जैसा माना जा सकता है। ‘हाई कोर्ट ने ये जांच करने का आदेश दिया था कि विवादित ढांचे के नीचे मंदिर था या नहीं। इस पर एएसआई ने जांच की और रिपोर्ट दाखिल की। इसलिए इसे जांच रिपोर्ट ही माना जाना चाहिए। आप (मुस्लिम पक्ष) ये नहीं कह सकते कि ये सिर्फ विशेषज्ञों की राय है। इसका वजन विशेषज्ञों की राय से कहीं अधिक है।’ आगे बढऩे से पहले हम बताते चलें कि मुस्लिम पक्ष एएसआई की रिपोर्ट में विवादित ढांचे के नीचे मंदिर होने की पुष्टि होने के बावजूद अपनी कहानियों पर कायम था और रिपोर्ट का मजाक उड़ा रहा था, जबकि स्वयं इलाहाबाद हाई कोर्ट ने इस पर भरोसा किया था। बहरहाल हाई कोर्ट के बाद सुप्रीम कोर्ट से लात खाने के बाद मुस्लिम पक्ष के ताजिए अब ठंडे पड़े हैं।
आलेख के आरंभ में हमने आपको किशोर कुणाल की किताब ‘अयोध्या रीविसीटेड’ के बारे में बताया था जिसमें दिए गए रामजन्म भूमि के नक्शों को मुस्लिम पक्ष के वकील राजीव धवन ने फाड़ा था। आपके मन में भी सवाल उठा होगा कि आखिर हिंदू महासभा के वकील विकास सिंह द्वारा किशोर कुणाल की किताब साक्ष्य के तौर पर पेश किए जाने से राजीव धवन इतना चिढ़ क्यों गए कि उसमें दिए गए नक्शे की प्रतिलिपी को फाडऩे पर आमादा हो गए। आइए इसकी कहानी संक्षेप में समझते हैं। असल में किशोर कुणाल सेवानिवृत्त आईपीएस अधिकारी हैं। पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने उन्हें अयोध्या मामले में ऑफिसर ऑन स्पेशल ड्यूटी नियुक्त किया था और उन्हें विश्व हिंदू परिषद और बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी के बीच मध्यस्थता का दायित्व सौंपा था। विश्वनाथ प्रताप सिंह के बाद पूर्व प्रधानमंत्री चंद्र शेखर और पीवी नरसिम्हा राव ने भी उन्हें इस पद पर बनाए रखा। वरिष्ठ अधिकारी होने के नाते कुणाल की सभी दस्तावेजों और सबूतों तक पहुंच थी। उन्होंने प्राप्त सबूतों और गहरे शोध के आधार पर ‘अयोध्या रीविसीटेड’ किताब लिखी। इसमें उन्होंने बताया कि राम मंदिर का ध्वंस बाबर के सेनापति मीर बकी ने नहीं, औरंगजेब के रिश्तेदार फिदाई खान ने 1660 में किया था। उन्होंने दस्तावेजों के हवाले से अपनी किताब में ये भी साबित किया है कि काशी और मथुरा के मंदिर भी औरंगजेब के शासन काल में तोड़े गए।
कुणाल ने अपने प्रमाणों और शोध से वामपंथी इतिहासकारों के हर झूठ का पर्दाफाश किया है। उनका बहुत बड़ा योगदान तो ये है कि उन्होंने उस पांच फुट लंबे और दो फुट चौड़े विष्णुहरि शिलालेख की प्रमाणिकता को सिद्ध किया जो विवादित ढांचा टूटने के समय मिला था। इसमें मंदिर का पूरा इतिहास दर्ज था। इस शिलालेख के मिलने के बाद सभी विवाद समाप्त हो जाने चाहिए थे। लेकिन षड्यंत्रकारी वामपंथी इतिहासकारों ने इसे मान्यता देने की जगह इसके खिलाफ ही दुष्प्रचार शुरू कर दिया कि इसे कहीं और से लाकर मस्जिद में रखा गया। वामपंथी इतिहासकारों के मुखिया इरफान हबीब ने पहले कहा कि ये किसी निजी संकलन से लाया गया है, फिर बयान बदला और कहा कि इसे लखनऊ म्युजियम से चुराया गया है। लेकिन जिस शिलालेख की इरफान हबीब बात कर रहे थे असल में उसका नाम है ‘त्रेता का ठाकुर शिलालेख’। दरअसल अयोध्या में ‘त्रेता का ठाकुर’ नाम से भी एक मंदिर था। इस मंदिर को भी औरंगजेब ने तुड़वाया था। इसके शिलालेख को अंग्रेजों ने ढूंढा था। उन्होंने पहले इसे फैजाबाद म्यूजियम में रखा और फिर लखनऊ ले गए। किशोर कुणाल ने लखनऊ म्यूजियम से ‘त्रेता का ठाकुर शिलालेख’ की तस्वीर ली और इसे अपनी पुस्तक में छापा और वामपंथियों की अफवाहों को सिरे से उखाड़ फेंका।
अयोध्या पर सिर्फ किशोर कुणाल ने ही शोधपरक पुस्तक नहीं लिखी, इतिहासकार और राजनीति वैज्ञानिक मीनाक्षी जैन ने भी ‘राम एंड अयोध्या’ और ‘बैटल फॉर राम’ जैसी शोधपरक किताबें लिखी हैं। अयोध्या पर जो पुस्तक सर्वाधिक चर्चित रही वो है एएसआई के पूर्व निदेशक केके मुहम्मद की किताब ‘मैं हूं भारतीय’। ये पुस्तक मुहम्मद की आत्मकथा है जिसमें उन्होंने रामजन्म भूमि को लेकर वामपंथी इतिहासकारों, कांग्रेसी-कम्युनिस्ट नेताओं और मौलानाओं के अपवित्र गठबंधन और षड्यंत्रों का भंडाफोड़ किया है। वो अपनी पुस्तक में कहते हैं, ”…लोगों को लगता था कि विवादास्पद ढांचे के नीचे मंदिर होने के बारे में बात करना विवादास्पद हो सकता है….मैंने इसकी जानकारी बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी के प्रमुख सय्यद शहाबुद्दीन को भी दी थी पर वो इससे सहमत नहीं हुए। तब तक ये संदेह बना हुआ था कि मस्जिद वास्तव में राम मंदिर तोड़ कर बनाई गई थी या हिंदू सिर्फ इसका दावा ही कर रहे थे। एस गोपाल, रोमिला थापर, बिपिन चंद्रा जैसे वामपंथी इतिहासकारों ने इस मामले में कट्टरवादी मुसलमानों का साथ देने का फैसला कर लिया था। उन्होंने रामायण के ऐतिहासिक औचित्य पर ही सवाल उठाने शुरू कर दिए। उन्होंने लिखा कि इतिहास में 19वीं शताब्दी तक किसी मंदिर के ध्वंस का कोई उल्लेख नहीं मिलता। उन्होंने तर्क दिया कि अयोध्या तो बौद्ध-जैन केंद्र था।
इनके गुट में इतिहासकार आरएस शर्मा, अख्तर अली, डीएन झा और सूरज भान (एकमात्र पुरातत्ववेत्ता) शामिल थे। ये सभी सरकार की विभिन्न समितियों और संस्थाओं पर अपने विचार थोप रहे थे। बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी की बैठकें आईसीएचआर के अध्यक्ष इरफान हबीब की अध्यक्षता में होती थीं। इतिहासकार प्रोफेसर एमएसजी नारायणन ने इसका विरोध किया पर उसका कोई असर नहीं हुआ। इरफान हबीब इस मामले का हल नहीं चाहते थे। आईसीएचआर में अगर कोई हल की बात करता तो उसे ‘सांप्रदायिक’ करार दिया जाता। मैंने बाबरी मस्जिद के भीतर मंदिर के सबूत पाए तो उन्हें इंडियन एक्सप्रेस के केरल संस्करण में प्रकाशित करवा दिया। इसपर एएसआई प्रमुख एमसी जोशी ने मुझसे पूछा कि मैं इस विवादास्पद मुद्दे पर बिना अनुमति कैसे कुछ लिख सकता हूं। इसके बाद उन्होंने मुझे सस्पेंड तो नहीं किया पर सजा के तौर पर गोवा भेज दिया।’’
मुहम्मद के संस्मरण आंख खोलने वाले हैं। वो वामपंथी इतिहासकारों पर साफ आरोप लगाते हैं कि इन्होंने मुस्लिम पक्ष को इतना भड़का दिया कि समझौते के सभी दरवाजे ही बंद हो गए। सुप्रीम कोर्ट में राम मंदिर मामले की सुनवाई के दौरान अलीगढ़ विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग के अध्यक्ष सय्यद अली रिजवी ने मुहम्मद का चरित्र हनन करने की कोशिश भी की। उन्होंने दावा किया कि राम मंदिर के पुरातात्विक खनन के दौरान मुहम्मद मौजूद नहीं थे। लेकिन एएसआई के पूर्व महानिदेशक 98 वर्षीय बीबी लाल और उनकी टीम के सदस्य तुरंत सामने आए और उनके मनगढ़ंत दावों का खंडन किया।
सुनवाई के दौरान एक दिलचस्प मोड़ तब आया जब अदालत ने कहा कि अगर राम कभी हुए थे तो उनके वंशज भी होने चाहिए। इस पर जयपुर राजघराने समेत अनेक राजवंश सामने आए और उन्होंने अपनी वंशावलियों से साबित करने का प्रयास किया कि वो कैसे राम से जुड़े हैं।
इस मसले की सुनवाई के दौरान शिया वक्फ बोर्ड ने दावा किया कि वो ही विवादास्पद जमीन का मालिक है और वो उसे हिंदू पक्ष को सौंपने के लिए तैयार है। भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता सुब्रमण्यम स्वामी ने इस मामले की त्वरित सुनवाई सुनिश्चित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने अदालत में दावा किया था कि उन्हें रामजन्म भूमि में पूजा करने का मौलिक अधिकार है और उनका अधिकार जमीन के स्वामित्व के अधिकार से बड़ा है। पहले तो मुख्य न्यायाधीश ने इस पर मुख्य मुकदमे के साथ ही सुनवाई करने की बात की, लेकिन फिर इसे अन्य पीठ को दे दिया। यदि स्वामी के मामले की भी साथ ही सुनवाई होती तो हिंदू पक्ष नि:संदेह अधिक मजबूत होता, लेकिन ऐसा हो न सका।
रामजन्म भूमि मामले पर सुनवाई भले ही 40 दिन चली, लेकिन इसने भारत के हजारों साल के इतिहास को पुनर्जीवित कर दिया। इस दौरान कांग्रेसी-कम्युनिस्ट लॉबी का झूठ, फरेब, फर्जी प्रोपागेंडा, इस्लामिक सांप्रदायिक एजेंडा बार-बार बेनकाब हुआ। उम्मीद की जानी चाहिए कि सुप्रीम कोर्ट ने भी इसे समझा होगा और वो उचित फैसला सुनाएगा। वैसे एक सवाल अदालत से भी – जमीन पर मालीकाना हक किसका होना चाहिए? रामलला का जिनकी ये जन्मभूमि है या उस आक्रांता को जिसने अपनी सत्ता के मद में हिंदुओं को नीचा दिखाने के लिए उनके मंदिर को तोड़ दिया?
गत 17 अक्तूबर को बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में ‘गुप्तवंशक वीर : स्कंदगुप्त विक्रमादित्य’ विषय पर आयोजित समारोह में गृह मंत्री अमित शाह ने कहा कि अंग्रेजों और वामपंथियों ने भारत के इतिहास को मनमाने तरीके से लिखा, अब वक्त आ गया है इसे भारत के दृष्टिकोण से फिर से लिखने का। इन लोगों ने इतिहास का कैसे सत्यानाश किया है उसका प्रत्यक्ष और ताजातरीन उदाहरण है अयोध्या मामला। क्या सरकार इससे कोई सबक सीखेगी या अब भी हम स्कूलों में बच्चों को इतिहास के नाम पर पक्षपाती-इस्लामिक सांप्रदायिक वामपंथी कहानियां ही पढ़ाते रहेंगे?
अंत में एक अपील अयोध्या मामले के सभी हिंदू पक्षकारों से – आप अपने निजी स्वार्थों से ऊपर उठें। ये ऐतिहासिक मसला हिंदुओं की सांस्कृतिक अस्मिता और प्रतिष्ठा का है। आप कोई ऐसा काम न करें कि आने वाली नस्लें आपको धिक्कारें। आप एक हो जाएं और मतभेद भुला कर भव्य राम मंदिर का निर्माण करें।
रामहित नंदन, वरिष्ठ पत्रकार