महाराष्ट्र और हरियाणा में विधानसभा चुनाव के नतीजे आ चुके हैं। दोनों ही राज्यों में बेशक भारतीय जनता पार्टी अपने सहयोगियों के साथ सरकार बना रही है। कभी ये दोनों ही राज्य कांग्रेस के गढ़ रहे हैं। उस गढ़ में कभी-कभी समाजवादी विचारधारा वाले दल सेंध लगाते रहे हैं। लेकिन दोनों ही राज्यों में जिस तरह कांग्रेस ने चुनाव अभियान चलाया है, उससे लगता नहीं कि देश की इस सबसे पुरानी पार्टी ने सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी को कोई टक्कर देने की कोशिश भी की। पूरे चुनाव अभियान के दौरान लगा भी नहीं कि कांग्रेस पार्टी ने कोई चुनावी अभियान भी चलाया। यह उस पार्टी का प्रदर्शन है, जिसने फकत एक साल पहले ही मौजूदा भारतीय राजनीति में अजेय समझी जाने वाली भारतीय जनता पार्टी से तीन महत्वपूर्ण राज्य मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान को छीन लिया था। मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में तो लगातार तीन कार्यकाल से भारतीय जनता पार्टी अजेय बनी हुई थी। इसके कुछ ही महीने पहले कांग्रेस ने गुजरात और कर्नाटक में भारतीय जनता पार्टी को जोरदार टक्कर दी थी। लेकिन जिस तरह के नतीजे दोनों राज्यों में आए हैं, उससे साफ है कि अगर कांग्रेस ने अपनी रणनीति में पैनापन दिखाया होता तो वह सत्ताधारी दल के खिलाफ लोगों में जारी भावनाओं का फायदा उठा सकती थी। जिस तरह के नतीजे आए हैं, उससे साफ है कि दोनों जगह की जनता सत्ताधारी खेमे से नाराज है। रोजगार और कृषि संकट से जूझ रहे दोनों राज्यों में जिस तरह कांग्रेस ने चुनाव अभियान चलाया, उसके बावजूद कांग्रेस को जिस तरह साथ मिला है, उससे साफ है कि अगर पार्टी में नेतृत्व का संकट नहीं होता तो ये नतीजे उसके पक्ष में हो सकते थे। वैसे एक और बात इन राज्यों के चुनाव नतीजे दे रहे हैं। दोनों ही राज्यों में कांग्रेस के लिए अपरिहार्य माने जाने वाले गांधी-नेहरू परिवार ने खास दम नहीं दिखाया, इसके बावजूद पार्टी हरियाणा में जहां 31 सीटें जीतने में कामयाब रही, वहीं महाराष्ट्र में अपने साथी राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के साथ 98 सीटें जीत गई। जिसमें उसकी हिस्सेदारी 44 सीटों की रही, जो पिछली बार से दो ज्यादा है।
विधानसभा चुनाव में देश की सबसे पुरानी पार्टी जो तेज हासिल करते नजर आ रही थी, आखिर क्या हुआ कि वह लोकसभा चुनाव आते-आते अपना तेज खोती नजर आने लगी। सोलहवीं लोकसभा चुनाव की करारी हार में मामूली सुधार तो इस पार्टी ने किया, लेकिन उसके चुनावी प्रदर्शन में वह सुधार ऐसा भी नहीं था, जिसे नोटिस लिया जा सके। महाराष्ट्र और हरियाणा विधानसभा चुनावों में पार्टी की पस्त हालत के बाद यह सवाल उठने लगा है कि आखिर क्या वजह है कि यह पार्टी लगातार बेहतर प्रदर्शन करने से चूक रही है। कुछ लोग मान रहे हैं कि भारतीय जनता पार्टी को शीर्ष पुरूष और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के व्यक्तित्व का करिश्मा चल रहा है, इसलिए कांग्रेस पस्त हो गई है। हालांकि जिस तरह दोनों राज्यों में नतीजे आए हैं, उससे साफ होता है कि मोदी ब्रांड भले ही अभी मजबूत हो, लेकिन उसे भी चोट जरूर पहुंच रही है। मौजूदा भारतीय राजनीति में मोदी ब्रांड का मजबूत होना कांग्रेस की कमजोरी की वजह हो सकती है, लेकिन उसकी खस्ता हालत के लिए सिर्फ यही एक वजह नहीं है। गौर से देखने पर पता चलता है कि कांग्रेस की बदहाली की बड़ी वजह उसके अंदर भी है। कांग्रेस का अंदरूनी सत्ता संघर्ष भी इस पार्टी को नुकसान पहुंचाने में बड़ी भूमिका में नजर आ रहा है। महाराष्ट्र और हरियाणा में जिस तरह चुनाव अभियान चला है, उससे एक संकेत यह भी मिला है कि पार्टी में सोनिया और राहुल के भी खेमे बन गए हैं। ज्यादा संभावना है कि सोनिया और राहुल ने जानबूझकर ऐसे खेमे ना बनाए हों, लेकिन उनके इर्द-गिर्द सक्रिय नेताओं के कर्मों से ऐसा ही लग रहा है।
गुजरात विधानसभा चुनावों में तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने भारतीय जनता पार्टी को जिस तरह से टक्कर दी, उससे उन दिनों उनके करीब रहे महासचिव और राजस्थान के मौजूदा मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को इसका श्रेय दिया जाने लगा। इसके बाद राहुल गांधी ने जिस तरह सोनिया गांधी के वफादार और नजदीकी माने जाते रहे नेताओं को कांग्रेस की अंदरूनी राजनीति में किनारे लगाया या फिर जिम्मेदारीहीन बनाया, उसका संकेत यही गया कि यह सब उन्होंने अशोक गहलोत की सलाह पर किया। वैसे भी राजस्थान की राजनीति में अशोक गहलोत और डॉक्टर सीपी जोशी एक-दूसरे के विरोधी खेमे के माने जाते हैं। जनता परिवार की राजनीति से कांग्रेस में साल 2002 में आए मोहन प्रकाश का भी सहयोगी सीपी जोशी को ही माना जाता रहा है। वैसे चार दशक पहले तक समाजवादी राजनीति में रहे सोनिया गांधी की टीम के ताकतवर महासचिव रहे जनार्दन द्विवेदी और मोहन प्रकाश भी नजदीकी हैं। लेकिन राहुल गांधी की अध्यक्षता में इन नेताओं को जगह नहीं मिली। कांग्रेस की राजनीति में कर्नाटक के मल्लिकार्जुन खडग़े, अशोक गहलोत, गुलाम नबी आजाद जैसे नेताओं की बन आई। कांग्रेस की अंदरूनी राजनीति में बताया जाता है कि सोनिया गांधी के सलाहकार रहे अहमद पटेल और राहुल गांधी के बीच सहज रिश्ते नहीं हैं। लेकिन कांग्रेस की राजनीति के अरसे तक केंद्र में रहने के चलते उनकी पकड़ ज्यादा मजबूत है। कांग्रेस के अंदरूनी सूत्र बताते हैं कि मध्य प्रदेश में कमलनाथ को मुख्यमंत्री बनवाने में भी उनकी ही भूमिका रही। कांग्रेस के एक नेता नाम न छापने की शर्त पर बताते हैं कि पटेल ने ही सलाह दी कि अगर कमलनाथ मुख्यमंत्री बने तो वे कांग्रेस के लिए चुनाव लडऩे के लिए जरूरी फंड का इंतजाम अपने संपर्कों के दम पर करा सकते हैं।
यह देश का दुर्भाग्य है कि कोई भी बड़ी पार्टी राजनीतिक रूप से ताकतवर बनती है तो उत्तर भारतीय राज्यों के जरिए, लेकिन उन्हीं बड़ी पार्टियों में वे नेता प्रभावी भूमिका में रहते हैं, जो हिंदीभाषी क्षेत्रों की धड़कन को नहीं समझते। गुलाम नबी आजाद हों या अहमद पटेल या मल्लिकार्जुन खडग़े या फिर अधीर रंजन चौधरी, ये अपने राज्यों की धड़कन को चाहे जितना भी समझते हों, लेकिन उत्तर भारतीय लोगों के मानस को नहीं समझते। गुलाम नबी आजाद और मल्लिकार्जुन खडग़े तो अपने ही राज्यों जम्मू-कश्मीर और कर्नाटक में कोई कमाल नहीं दिखा पाए, लेकिन 11 सितंबर को सोनिया गांधी के कार्यकारी अध्यक्ष बनाए जाने के बाद हरियाणा और महाराष्ट्र के चुनाव प्रभारी बन गए। उन्होंने किस तरह दोनों ही राज्यों में चुनाव प्रबंधन किया, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि हरियाणा कांग्रेस के युवा और दलित समुदाय से आने वाले अध्यक्ष अशोक तंवर ने न सिर्फ पार्टी छोड़ दी, बल्कि हरियाणा के ताऊ कहे जाने वाले देवीलाल के पोते दिग्विजय सिंह की जननायक जनता पार्टी को समर्थन दे दिया। अशोक तंवर राहुल गांधी के नजदीकी हैं और जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में राष्ट्रीय छात्र संगठन की राजनीति करते हुए कांग्रेस की राजनीति में आगे आए थे। वहीं महाराष्ट्र में शिवसेना से कांग्रेस की राजनीति की धुरी बने संजय निरूपम ने पार्टी छोडऩे तक का मन बना लिया। यह बात और है कि उन्हें मोहन प्रकाश और उनके सहयोगी धड़े ने मना लिया। यहां यह याद दिलाना जरूरी है कि मोहन प्रकाश काफी अरसे तक कांग्रेस के महाराष्ट्र प्रभारी महासचिव रहे। दोनों नेताओं ने खुलकर कहा कि कांग्रेस में जो लोग राहुल गांधी के नजदीकी हैं, उन्हीं लोगों को पार्टी के पुराने मठाधीशों द्वारा निशाना बनाया जा रहा है। हरियाणा और महाराष्ट्र में जो हुआ, उससे आम लोगों में यही संकेत गया कि कांग्रेस में राहुल और सोनिया के खुलकर खेमे हो गए हैं और दोनों एक-दूसरे को पसंद नहीं कर रहे हैं। अगर पार्टी में दो खेमे नहीं होते और एकजुट होकर दोनों जगह मैदान में उतरी होती तो नतीजे उलट भी हो सकते थे।
कांग्रेस में अभी दूसरी पांत के जो नेता हैं, दरअसल वे उम्र के उस पड़ाव पर पहुंच गए हैं, जहां उनके लिए संघर्ष का न तो कोई मतलब है और न उनमें संघर्ष के लिए ऊर्जा बची है। कांग्रेस के एक अंदरूनी सूत्र का कहना है कि आजाद, खडग़े और इस तरह के नेता यथा स्थिति बहाल रखना चाहते हैं, ताकि उनकी राजनीति चलती रहे और सरकारी सहूलियतें मिलती रहे। यह राजनीति अहमद पटेल को भी माफिक बैठती है। इसीलिए वे भी इसी खेमे के नजदीक दिखते हैं। संजय निरूपम तो इससे भी आगे बढ़कर आरोप लगाते हैं। उनका कहना है कि चूंकि राहुल गांधी के अध्यक्ष बनने के बाद उन्होंने जब नई तरह से राजनीति शुरू की तो कांग्रेस में स्थापित अंदरूनी सत्ता तंत्र को धक्का लगता नजर आने लगा। अगर राहुल की राजनीति सफल होती तो कांग्रेस में स्थापित नेताओं की राजनीति पर सवाल उठते और उनकी महत्ता भी कमजोर होती। इसीलिए लोकसभा चुनावों में ऐसा किया गया कि पार्टी हारे और यह संकेत दिया जा सके कि राहुल गांधी की राजनीति सफल नहीं हो सकती।
वैसे कांग्रेस में एक तथ्य और साफ नजर आ रहा है, जिन्होंने अपनी राजनीति कांग्रेस से ही शुरू की और पूरी जिंदगी कांग्रेस में ही गुजारी, उन्हीं पर कांग्रेस को डुबोने का आरोप लग रहा है, और पार्टी में बाहर से आए नेता खुद को कांग्रेस को बचाने की बात कर रहे हैं। संजय निरूपम करीब एक दशक पहले तक कांग्रेस में नहीं थे। मोहन प्रकाश ने खुलकर तो कुछ नहीं कहा है, लेकिन कांग्रेस को बचाने के लिए आक्रामक रूख अख्तियार किये हुए हैं। वह भी सत्रह साल पहले तक जनता दल में थे। इसी तरह जनार्दन द्विवेदी ने भी राजनीति का ककहरा डॉक्टर लोहिया की संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी में सीखा था। कांग्रेस के एक सूत्र कहते हैं कि राहुल गांधी के अध्यक्ष बनने के बाद मोहन प्रकाश किनारे इसलिए नहीं किए गए, क्योंकि बरसों तक महाराष्ट्र के प्रभारी रहने के बावजूद वे देश की आर्थिक राजधानी वाले राज्य में कांग्रेस के लिए कमाल नहीं दिखा सके। बल्कि उन्हें महाराष्ट्र के ताकतवर और घाघ नेता बाहरी मानकर पसंद नहीं कर रहे थे और उनका सहयोग नहीं कर रहे थे। यह बात और है कि 2014 में उन्होंने जिस अशोक चव्हाण को टिकट दिलवाया, वे ही महाराष्ट्र से चुनाव जीतकर संसद पहुंचे। जबकि महाराष्ट्र में उनके नाम का विरोध किया जा रहा था और जिन्हें जमे-जमाए नेताओं ने टिकट दिलवाया, वे खेत रहे। महाराष्ट्र के साथ ही मोहन प्रकाश के पास मध्य प्रदेश का भी प्रभार था। लेकिन मध्य प्रदेश के विधानसभा चुनावों के ठीक पहले ही उनसे मध्यप्रदेश का प्रभार ले लिया गया। लेकिन मध्य प्रदेश के नेता मानते हैं कि अगर मध्य प्रदेश में कांग्रेस को जीत मिली है तो उसके पीछे मोहन प्रकाश का निर्देशन की ज्यादा भूमिका रही। मध्य प्रदेश से कांग्रेस के ताकतवर नेता दिग्विजय सिंह, कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया हैं। कांग्रेस के सूत्र बताते हैं कि मोहन प्रकाश से मध्य प्रदेश का प्रभार वापस लेने में बड़ी भूमिका इन्हीं तीनों नेताओं के साथ ही सोनिया गांधी के राजनीतिक सलाहकार रहे अहमद पटेल की रही। सीपी जोशी पर आरोप लगा कि वे बिहार और असम में कमाल नहीं दिखा सके। मौजूदा लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को ताकत पंजाब और केरल से मिली है। पंजाब की जीत कैप्टन अमरिंदर के बल पर मिली तो केरल में स्थानीय माहौल के साथ ही राहुल की वायनाड से चुनाव लडऩे का प्रभाव रहा।
कांग्रेस को अगर उठकर खड़ा होना है तो उसे जमे-जमाए नेताओं से आगे निकलना होगा। हरियाणा और महाराष्ट्र के संकेत भी यही कहते हैं।
उमेश चतुर्वेदी