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परीक्षा प्रणाली में बदलाव के सार्थक कदम

लम्बे अरसे से कहा जा रहा है कि वर्तमान परीक्षा प्रणाली जड़ होकर महज शारीरिक एवं बौद्धिक विकास को प्राथमिकता देती रही है, जबकि मानसिक एवं भावनात्मक विकास भी शिक्षा के महत्वपूर्ण अंग होते हुए भी इस ओर ध्यान नहीं दिया जा रहा है। बौद्धिकता शिक्षा का एक अंग है, पर पूरा नहीं, चाहते सभी है कि शिक्षा से अच्छे-सच्चे, मौलिक सोच वाले, सुसंस्कारित, रचनात्मक-सृजनात्मक ऊर्जावान एवं कार्यक्षम बच्चे प्राप्त हो। लेकिन यह चाह मात्र चाह बनकर रह गयी है, क्योंकि साध्य प्राप्ति का साधन अधूरा है। अब इस अधूरेपन को दूर करने के लिये केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (सीबीएसई) ने 10वीं और 12वीं की परीक्षा के प्रश्नपत्रों के प्रारूप में बुनियादी बदलाव लाने का फैसला किया है। इस परिवर्तन का मकसद शिक्षा-परीक्षा को मशीनी प्रक्रिया से बाहर निकालकर उनमें मौलिकता, तर्क क्षमता और कल्पनाशीलता के लिए गुंजाइश बढ़ाना है। निश्चित ही यह बदलाव शिक्षा पद्धति को पूर्णता प्रदान करेगा। इससे राष्ट्र की नींव की ईंट का सम्यक् मूल्यांकन एवं निर्माण होगा। विकास की दौड़ में नीति निर्माता एवं राष्ट्र के निर्माता मूल को भूल रहे थे। सीबीएसई का फैसला मूल की उसी भूल का परिष्कार है।  
सीबीएसई ने यह बात स्वीकार की है कि बच्चों को तनावमुक्त बनाये रखना शिक्षा की सर्वोच्च प्राथमिकता होनी चाहिए और इसके लिये परीक्षा प्रणाली में आमूल-चूल परिवर्तन अपेक्षित है। पिछले कुछ समय से विभिन्न सरकारों की यह प्रवृत्ति हो चली है कि वे शिक्षा में बदलाव के नाम पर पाठ्यक्रम को संतुलित करने की बजाय उसमें कुछ नया जोड़ती रही एवं बोझिल करती रही हैं। इस तरह पाठ्यक्रम बढ़ता चला गया। सीबीएसई ने बच्चों के बचपन को बोझिल होने से बचाने, उनमें रचनात्मकता विकसित करने, निर्णायकता, आलोचनात्मकता एवं विश्लेषण क्षमता का विकास करने के लिये अनेक सूझबूझवाले निर्णय लिये हैं। एसोसिएटेड चैंबर्स ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री ऑफ इंडिया (एसोचैम) द्वारा आयोजित शिक्षा शिखर सम्मेलन में सीबीएसई के सचिव अनुराग त्रिपाठी ने बताया कि बदलाव की इस प्रक्रिया के तहत अगले साल होने वाली बोर्ड की परीक्षाओं में 10वीं कक्षा के विद्यार्थियों को 20 फीसदी ऑब्जेक्टिव सवाल हल करने होंगे, जबकि 10 फीसदी सवाल रचनात्मक सोच-विचार पर आधारित होंगे। 2023 तक दोनों परीक्षाओं के प्रश्नपत्र पूरी तरह रचनात्मक, आलोचनात्मक और विश्लेषण क्षमता की परख करने वाले हो जाएंगे। एक तरह से ये सवाल किताबी ज्ञान से अलग होंगे और बच्चों में रचनात्मकता और अपनी मौलिक सोच एवं समझ को विकसित करेंगे। निश्चित ही परीक्षा प्रणाली की एक बड़ी विसंगति को सुधारने की दिशा में यह एक सार्थक पहल है जिससे भारत के करीब 24 करोड़ बच्चों का बचपन मुस्कुराना सीख सकेगा।
कई शिक्षाविदों ने इस पर सवाल उठाया और कहा कि कम उम्र में बहुत ज्यादा चीजों की जानकारी देने की कोशिश में बच्चे कुछ नया नहीं सीख पा रहे, उलटे पाठ्यक्रम का बोझ, शत-प्रतिशत अंक प्राप्त करने की दौड़ उन्हें रटन विद्या में दक्ष बना रहा है। यही नहीं, इस दबाव ने बच्चों में कई तरह की मनोवैज्ञानिक समस्याएं पैदा की हैं, वह कुंठित हो रहा है, तनाव का शिकार बन रहा है, उसकी मौलिक क्षमताओं का लोप हो रहा है। पहले तो स्कूलों का तनावभरा परिवेश, आठों कलांशें पढ़ने से बच्चे थक जाते हैं और ऊपर से उनको भारी होमवर्क एवं जटिल परीक्षा प्रणाली ने बचपन को बौझिल बना दिया था।
वर्तमान परीक्षा प्रणाली जड़ होकर महज नंबर प्राप्ति का खेल बनकर रह गयी है। जो जितना बेहतर तरीके से सवालों के जवाब रट लेता है वह उतने ज्यादा अंक पा लेता है। तमाम स्कूलों और कोचिंग संस्थानों का मकसद बच्चों को कुछ नया सिखाना नहीं बल्कि वह कुंजी पकड़ाना भर रह गया है, जिससे अंकों का खजाना खुलता है। यूं कहें कि वे बच्चों को रट्टू तोता बना रहे हैं। ऑब्जेक्टिव प्रश्नों की बहुतायत के चलते सारा जोर सूचना पर है और ज्ञान की उपेक्षा हो रही है। एनसीईआरटी ने अपनी एक रिपोर्ट में स्वीकार किया है कि पैंसठ प्रतिशत बच्चों को छपा हुआ पाठ्यक्रम पढ़ना तो आता है लेकिन उसका अर्थ वे नहीं जानते। इस तरह बच्चों के भीतर न तो रचनात्मकता जगाई जा रही है, न ही उनमें जिज्ञासा या खोजबीन की ललक पैदा हो रही है और न ही नया कुछ करने की प्रेरणा एवं वातावरण दिया जा रहा है।
बोझिल वातावरण में आज के बच्चे माता-पिता की आकांक्षाओं का बोझ भी ढ़ो रहे हैं और उन पर अभिभावकों की सामाजिक प्रतिष्ठा को बढ़ाने की जिम्मेदारी भी है। इन सब जटिल स्थितियों को भारत का बचपन संभाल नहीं पा रहा और वह आगे बढ़ने की अपेक्षा परीक्षा में फेल होने के डर से मौत को गले लगाने लगा हैं। आए दिन ऐसी खबरें आती रहती हैं, जो भारत की शिक्षा पर एक बदनुमा दाग है। आज पाठ्यक्रम में व्यावहारिक पाठ्यक्रम के ज्ञान व शिक्षा से भी बच्चों को वंचित होना पड़ रहा है। कहना न होगा कि बस्तों के बढ़े बोझ तले बच्चों का शारीरिक व मानसिक विकास सही ढंग से नहीं हो पा रहा है।
नये शोध और अन्वेषण में भारत के फिसड्डी रह जाने की मुख्य वजह यही है। झोली भर-भरकर नंबर पाने वाले बच्चे आगे चलकर क्या कर पाते हैं, यह वरिष्ठ भारतीय उद्यमियों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों की शिकायतों से जाहिर होता है। वे साफ कहते हैं कि भारत में इंजीनियरों के पास सिर्फ डिग्री होती है, योग्यता नहीं। परीक्षा के आधार पर छात्रों का मूल्यांकन और देशों में भी किया जाता है लेकिन उनका जोर विद्यार्थियों की प्रतिभा को उभारने पर होता है। अभी जबकि सीबीएसई ने परीक्षा पद्धति को सुधारने का फैसला किया है तो ऐसा करते हुए उसको सारे पहलुओं पर ध्यान देना होगा। न सिर्फ प्रश्न तय करने में बल्कि मूल्यांकन की प्रक्रिया में भी विशेषज्ञ लोगों को शामिल करना होगा, जिनका काम सिर्फ ऊत्तर-पुस्तिका से मिलान करना न हो।
शिक्षा प्रणाली में बुनियादी ढांचे, शिक्षकों, अभिभावकों और विद्यार्थियों के बीच आपसी संबंध को बढ़ावा देने की बेहद जरूरत है। नई शिक्षा नीति के बारे में बात करते हुए अनुराग त्रिपाठी ने कहा कि इसका लक्ष्य व्यावसायिक विषयों और मुख्य विषयों के बीच के अंतर को भरना है। भारतीय शिक्षा को मशीनी बनाने में शिक्षकों का भी बड़ा योगदान है। उन्होंने स्कूलों में शिक्षकों के प्रशिक्षण देने का भी सुझाव दिया। क्योंकि उन्हें न तो पर्याप्त प्रशिक्षण मिला होता है, न ही उनके भीतर कोई नई दृष्टि पैदा करने की कोशिश की जाती है। प्रायः वे उसी पद्धति को ढोते रहते हैं, जिससे खुद पढ़कर आए होते हैं। इसलिए परीक्षा में बदलाव से पहले क्लास में शिक्षण के तौर-तरीकों में कल्पनाशीलता और नवाचार को बढ़ावा देना होगा। इसके लिए कुछ अलग इंफ्रास्ट्रक्चर भी बनाना पड़ सकता है। सरकार पैसा लगाए तो तीन-चार साल का वक्त इसके लिए कम नहीं है। नई शिक्षा नीति पर बात करते हुए उन्होंने कहा कि इसका उद्देश्य व्यावसायिक और मुख्य विषयों के बीच की खाई को पाटना है। इसमें व्यावसायिक विषयों को पांच विषयों का हिस्सा बनने की आवश्यकता है। यह अच्छा कदम होगा।
स्कूल चाहे सरकारी हो या प्राइवेट, हकीकत यही है कि जिस स्कूल का बस्ता जितना ज्यादा भारी होता है और जहां जितना ज्यादा होमवर्क दिया जाता है, उसे उतना ही अच्छा स्कूल माना जाता है। जबकि सचाई यह है कि पाठ्यक्रम के भारी भरकम बोझ से बच्चों का मानसिक विकास अवरुद्ध होता है, इससे बच्चों को भारी नुकसान झेलना पड़ रहा है। एक तो बच्चों पर पढ़ाई का अतिरिक्त बोझ बढ़ा और जो व्यावहारिक ज्ञान एवं प्रायोगिक प्रशिक्षण बच्चों को विद्यालयों में मिलना चाहिए था, उसका दायरा लगातार सिमटता गया। कच्ची उम्र में पढ़ाई का दबाव औसत मेधा और भिन्न रुचियों वाले बच्चों को कुंठित बनाता है। तोतारटंत के बजाय बच्चों में कुछ सीखने की सहज प्रवृत्ति पैदा हो, उन्हें प्राकृतिक परिवेश दिया जाये, इसी में उनके साथ-साथ देश की भी भलाई है, इसी में शिक्षा पद्धति की भी परिपूर्णता है। तोतारटंत पढ़ाई एवं अधिक से अधिक अंक प्राप्त करने की प्रतिस्पर्धा का बोझ डालने के बजाय सारा जोर उसकी रचनात्मकता एवं सृजनात्मकता विकसित करने पर होना चाहिए। आचार्य श्री महाप्रज्ञ ने जीवन विज्ञान के रूप में शिक्षा की इन कमियों को उजागर करते हुए एक परिपूर्ण शिक्षा का स्वरूप प्रस्तुत किया था। अच्छा है कि सीबीएसई ने उनके सुझावों एवं विशेषज्ञों की राय पर ध्यान दिया और बच्चों को अधिक से अधिक पाठ रटा देने, अच्छे अंक प्राप्त करने की दौड़ की बजाय गुणात्मक-रचनात्मक शिक्षा को लागू करने का मन बनाया है। 


 (ललित गर्ग)

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