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क्या हिंदू और मुसलमान मिलकर नहीं रह सकते ?


हाल ही में रामजन्मभूमि पर आए निर्णंय के बाद देश के बहुसंख्यक मुसलमानों ने जिस शांति और सदभाव का परिचय दिया है, वह प्रशंसनीय है। सारी आकांक्षाओं को निर्मूल करते हुए, अल्पसंख्यक समुदाय ने इस फैसले के विरूद्ध कोई भी उग्र प्रदर्शन या हिंसक वारदात न करके, ये बता दिया है कि साम्प्रदायिक वैमनस्य समाज में नहीं होता बल्कि राजनैतिक दलों के दिमाग की साजिश होती है। कोई भी दल इसका अपवाद नहीं है। इतिहास में इस बात के अनेक प्रमाण हैं कि अगर ‘रामजन्भूमि मुक्ति आन्दोलन’ को राजनैतिक रंग न दिया जाता, तो ये मामला तीन दशक पहले सुलझने की कगार पर था।

दरअसलआम आदमी को अपनी रोजी, रोटी और रोजगार की चिंता होती है। ये चिंता भारत के बहुसंख्यक लोगों को आजादी के 72 वर्ष बाद भी सता रही है। जब पेट भरे होते हैं, तब धर्म और राजनीति सूझती है। जो राजसत्ताऐं अपनी प्रजा की इन बुनियादी जरूरतों को पूरा नहीं कर पातीं, वही धार्मिक उन्माद का सहारा लेती हैं। जिससे जनता असली मुद्दों से ध्यान हटाकर इन सवालों में उलझ जाऐ।

हिंदुस्तान की संस्कृति में, जब से मुसलमान यहां आऐ, तब से दो धाराऐं साथ साथ चली हैं। एक तो वो जिसमें दो विपरीत विचारधाराओं के धर्मावलंबियों ने एक-दूसरे को आत्मसात कर लिया और एक-दूसरे की जीवनशैली, आचार-विचार और रीति-रिवाजों को प्रभावित किया। भारत की बहुसंख्यक जनता इसी मानसिकता की है। ये आजादी के बाद योजनाबद्ध तरीके से पनपाई गई प्रवृत्ति नहीं है। इसकी जड़े सदियों पुरानी है।

मुगलकाल में ही ऐसे सैंकड़ों मुसलमान हुए, जिन्होंने हिंदू संस्कृति को न केवल सराहा, बल्कि अपने को इसमें आध्यात्मिक रूप से ढाल लिया। एक उदाहरण नजीर अकबरावादी का है। जो कहते हैं, ‘‘क्या-क्या कहूँ मैं तुमसे कन्हैया का बालपन, ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन’’। एक दूसरी रचना जिसका शीर्षक है ‘हरि जी सुमिरन’। इसमें वे लिखते हैं ‘‘श्रीकृष्ण जी की याद दिलों जां से कीजिए, ले नाम वासुदेव का अब ध्यान कीजिए, क्या वादा बेखुमार दिलों जां से पीजिए, सब काम छोड़ नाम चतुर्भुज का लीजिए’‘। आम मुसलमान ही नहीं, खुद मुगलिया खानदान की ताज बेगम जो आगरा के महल छोड़कर मथुरा के गोकुल गाॅव में आ बसीं थीं, वो लिखती हैं, ‘‘ नंद के दुलाल कुर्बान तेरी सूरत पे, हूँ तो मुगलानी, हिंदुआनी ह्वै रहुँगी मैं’’। रसखान को किसने नहीं पढ़ा ? ये ब्रजवासी मुसलमान संत लिखते हैं, ‘‘ रसखान कबौं इन नैंनन सौं, ब्रज के बन बाग तड़ाग निहारूँ।…जो पसु हौं तौ कहा बस मेरौ, बसुँ नित्य नन्द के धेनु मझारन’’। ये धारा आज भी अविचल है।

हमारे ब्रज में भगवान की पोशाक बननी हो या बिहारीजी का फूल बंगला या ठाकुरजी की शोभायात्रा में शहनाई वादन-सब काम मुसलमान बड़ी श्रद्धा और भाव से करते हैं। यहां तक कि यहाँ मुसलमान फलवाला आपका अभिवादन भी, ‘‘राधे-राधे’’ कहकर करता है। भारत रत्न बिसमिल्लाह खाँ नमाजी मुसलमान होते हुए भी मैहर की देवी के उपासक थे और उनके मंदिर में बैठकर साधना किया करते थे। दूर क्यों जाऐं, भारत के राष्ट्रपति रहे डाॅ. ऐपीजे कलाम भगवतगीता का नियमित पाठ करते थे रामेश्वरम् में उनके परिवार को आज भी मंदिर से महाप्रसाद का पत्तल रोज मिलता है, क्योंकि उनके पूर्वजों ने जान जोखिम में डालकर एक गहरे सरोवर में से अभिषेक के समय फिसलकर डूब गई, भारी देवप्रतिमा को निकाला था। ये थी उनकी श्रद्धा। मुझे लगता है कि ऐसी भावना वाले मुसलमानों से अगर उदारमना हिंदू प्रेममयी भाषा में निवेदन करें कि वे काशी और मथुरा से भी मस्जिदों को बिना संघर्ष के हटाने को राजी हो जाऐं, तो इसके सकारात्मक परिणाम आ सकते हैं।

जो दूसरी धारा बही, वह थी कट्टरपंथी इस्लाम की थी। जिसके प्रभाव में मुसलमान आक्रंाताओं ने हजारों मंदिर तोड़े और हिंदूओं को जबरन मुसलमान बनाया। इसके पीछे धार्मिक उन्माद कम, राजनैतिक महत्वाकांक्षा ज्यादा थी। शासक अपनी शक्ति का प्रदर्शन करने के लिए या प्रजा में भय उत्पन्न करने के लिए इस तरह के अत्याचार किया करते थे। पर ऐसा केवल मुसलमान शासकों ने किया हो यह सच नहीं है। दक्षिण भारत में शैव राजाओं ने वैष्णवों के और वैष्णव राजाओं ने शैवों के मंदिरों को हमलों के दौरान नष्ट किया। इसी तरह हिंदू राजाओं ने बौद्ध मंदिर और विहार भी तोड़े। रोचक तथ्य ये है कि जिन मराठा शासक शिवाजी महाराज ने मुगलों को चने चबवाये, उनके वफादारों में कई योद्धा मुसलमान थे। ठीक वैसे ही जैसे झांसी की रानी का सेनापति एक मुसलमान था। टीपू सुल्तान के वफादार सेना नायकों में कई  हिंदू थे।

इसलिए एक हजार वर्ष के मुसलमान शासनकाल में भी भारत की बहुसंख्यक आबादी हिंदू ही बनी रही। पर पिछले कुछ दशकों से अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कट्टरपंथी इस्लाम को थोपने की एक गहरी साजिश पश्चिमी ऐशिया के कुछ देशों से की जा रही है। जिसका बुरा असर मलेशिया, इंडोनेशिया और टर्की जैसे सैक्युलर मुलसमान देशों की जनता पर भी पड़ने लगा है। इस मानसिकता को हम तालिबानी मानसिकता कह सकते हैं।

चिंता की बात ये है कि हिंदू समाज में भी कुछ तालिबानी प्रवृत्तियां उदय हो रही हैं। जिससे इस्लाम को खतरा हो न हो, हिंदूओं को बहुत  खतरा है। हिंदू परंपरा से उदारमना होते हैं। सम्प्रदायों को लेकर भिड़ते नहीं, बल्कि एक-दूसरे का सम्मान करते हैं। हमारे दर्शन में निरीश्वरवाद, निर्गुण से सगुण उपासना तक का विकल्प मौजूद है। आपको एक ही परिवार में कोई सगुण उपासक मिलेगा, कोई ध्यानी-ग्यानी और कोई हठयोगी। इन सबका एक छत के नीचे प्रेम से रहना, बताता है कि हम कितने सहजरूप में विविधता को स्वीकार लेते हैं। क्योंकि हम ईसाईयों और मुसलमानों की तरह एक ही ग्रंथ और एक ही पैगम्बर को मानकर उसे दूसरों पर थोंपते नहीं है। यही कारण है कि इकबाल ने लिखा है, ‘‘यूनान रोम मिस्र सब मिट गऐ जहाँ से, कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी। सदियों रहा है दुश्मन दौरे जहाँ हमारा, सारे जहाँ से अच्छा हिंदोस्ताँ हमारा’’। हमें ऐसा ही हिंदुस्तान बनाना है, जहाँ हम सब मिलकर प्रेम से रहें और आगे बढें।

-विनीत नारायण

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